तब देख बहारें जाड़े की : कराची (समुद्रतटीय नगर) में सर्दी उतनी ही पड़ती है जितनी मरी (पाकिस्तान का हिल स्टेशन) में गर्मी। इससे मरी के निवासियों का दिल दुखाना नहीं, बल्कि नगरों की दुल्हन कराची का दिल बढ़ाना उद्देश्य है। कभी-कभार सुंदर शहर का तापमान शरीर के नार्मल तापमान से यानी 98.4 से दो-तीन डिग्री नीचे फिसल जाए तो शहर की सुंदरियाँ लिहाफ ओढ़कर एयरकंडीशनर तेज कर देती हैं। आत्मलीन सौंदर्य जब 43 नंबर में सामने वाली सामग्री को 34 नंबर के स्वेटर में प्रकट करके शीशा देखता है तो शर्म की लाली गालों में दौड़ जाती है जिसे जाड़े के मौसम का असर माना जाता है और इसे कराची के मौसम विभाग की भाषा में कोल्ड वेव कहते हैं। यह खूबी सिर्फ कराची के पल-पल बदलने वाले मौसम में देखी कि घर से जो भी कपड़े पहन कर निकलो, दो घंटे बाद गलत मालूम होते हैं। लोग जब अखबार में लाहौर और रावलपिंडी की कठोर सर्दी की खबरें पढ़ते हैं तो उससे बचाव के लिए बालू की भुनी मूँगफली और गजक के फुँके मारते हैं। उनके बच्चे भी उन्हीं पर पड़े हैं। उत्तर पश्मिी हवाओं के बचने के लिए ऊनी कंटोप पहनकर आइस्क्रीम खाते हैं और बड़ों के सामने बत्तीसी बजाते हैं। नया आने वाला हैरान होता है कि अगर ये जाड़ा है तो अल्लाह जाने गर्मी कैसी होगी।
बीस साल सर्दी-गर्मी झेलने के बाद हमें अब मालूम हुआ कि कराची के जाड़े और गर्मी में तो इतना स्पष्ट फर्क है कि बच्चा भी बता सकता है। 90 डिग्री टैम्प्रेचर अगर मई में हो तो यह गर्मी के मौसम का प्रतीक है, अगर दिसंबर में हो तो जाहिर है जाड़ा पड़ रहा है। अलबत्ता जुलाई में 90 डिग्री टैम्प्रेचर हो और शाम को गरज-चमक के साथ बीबी बरस पड़े तो बरसात का मौसम कहलाता है। शायद... क्या निश्चित रूप से ऐसे ही किसी कम गर्म गुनगुने कराचवी जाड़े से उकता कर नजीर अकबराबादी ने तमन्ना की थी।
हर चार तरफ से सर्दी हो और सह्न खुला हो कोठे का
और तन में नीमा शबनम का हो जिसमें खस का इत्र लगा
छिड़काव हुआ हो पानी का और खूब पलंग भी हो भीगा
हाथों में पियाला शर्बत का हो आगे इक फर्राश खड़ा
फर्राश भी पँखा झलता हो तब देख बहारें जाड़े की
हर चाल साल के बाद दो-तीन दिन के लिए सर्दी का मौसम आ जाए तो कराची वाले इसका इल्जाम कोयटा-विंड पर धरते हैं और कोयटा की सर्दी की तेजी को किसी रूपवती के संक्षिप्त स्वेटर से नापते हैं। कराची की सर्दी विधवा की जवानी की तरह होती है, हर एक की नजरें पड़ती हैं और वहीं ठिठक बल्कि ठिठुर कर रह जाती हैं। उधर कोयटा में दस्ताने, कंबल, मफलर और समूर के अंबार में से सिर्फ चमकती हुई आँखें देख कर यह फैसला करना नामुमकिन हो जाता है कि उसके पीछे मूँछ है या, 'पंखड़ी इक गुलाब की सी है' तो कोयटा वाले इस घपले का जिम्मेदार कंधारी हवा को ठहराते हैं और जब कंधार में साइबेरिया की बहुत ही कड़ाके की ठंडी हवाओं से पेड़ों पर अनारों के बजाए बर्फ के लड्डू लटकते हैं, ग्वाले गाय के थनों से आइस्क्रीम दोहते हैं और सर्दी से थरथराते हुए इंसान के दिल में खुद को जहन्नुम में दाखिल करने की उत्कट इच्छा होती है तो कंधार वाले कंबल से चिपट कर पड़ौसी देश की ओर क्रोधित हो कर देखते हैं। छोटे देशों के मौसम भी तो अपने नहीं होते। हवाएँ और तूफान भी दूसरे मुल्कों से आते हैं, भूकंप का केंद्र भी सीमा पार होता है।
यह जनवरी 1950 की एक ऐसी ही सुबह का जिक्र है। मौसम का वर्णन हमने इतने विस्तार और बुराई के साथ इसलिए किया कि कराची में हमारी यह पहली सुबह थी। बर्दाश्त करने की हद तक गर्म होने के अलावा यह एक ऐतिहासिक भोर भी थी। सर्दी की इस भोर से बैंकरी के पेशे में हमारे लंबे फ्लर्टेशन का आरंभ हुआ और सुबह उस वक्त नहीं होती जब सूरज निकलता है, सुबह उस वक्त होती है जब आदमी जाग उठे। किसी ने फ्रांस के अंतर्राष्ट्रीय ख्यातिप्राप्त साहित्यकार फ्रोस्ट से पूछा कि दुनिया के सैन्य इतिहास में किस घटना ने आपको सबसे अधिक प्रभावित किया तो उसने बेहिचक जवाब दिया, 'फौज में मेरी भर्ती ने।'
हमारे फ्लर्टेशन की शुरुआत : कराची में खोखरा से अभी आए हुए हमें 20 घंटे भी नहीं हुए थे। वो सुबह नहीं भूलेगी जब रेलवे लाइन के किनारे एक छोटी सी सफेद तख्ती पर पहले-पहल 'पाकिस्तान' नजर आया तो उसे हाथ से छू-छू कर देखा था फिर मिट्टी उठा कर देखी। अस्सलामुअलैकुम कहते हुए सिंधी ऊँट वाले देखे। हिंदुस्तान के नोट पर पहली बार हुकूमते-पाकिस्तान छपा देखा और फिर राजस्थानी रेगिस्तान में पुरखों की कब्रें, वो बोली जो माँ के दूध के साथ अस्तित्व में रची बसी थी और अपने प्यारों के आँसुओं से भीगे चेहरे अतीत में धुँधलाते चले गए।
मिरी बार क्यों देर इतनी करी : मुनाबाओ के उजाड़ स्टेशन पर दो रातें तारों भरे आसमान के नीचे गुजारने से गला खराब हो गया था और महसूस होता था जैसे गले में कोई बदचलन मेंढक फँस गया है, जरा मुँह खोलते तो टर्राने लगता। मैक्लोड रोड पर बैंक का हैड ऑफिस तलाश करने में कोई परेशानी नहीं हुई। पहले एक छपी हुई परची पर अपना नाम लिख कर जनरल मैनेजर मिस्टर W.G.M. Anderson को भिजवाया। भेंट के उद्देश्य के कॉलम में सरकारी लिख दिया, जिससे हमारा अभिप्राय निजी और नौकरी थी और अंत में बहुत मोटे अक्षरों में प्रेषक....मिस्टर M.A. Asfahani चेयरमैन बैंक। सिफारिश में लिपटी हुई यह धमकी हमारे काम न आई इसलिए कि हमारे बाद आने वाले मुलाकाती, जो हमारे हिसाब से हमसे अधिक अच्छे, सलीके से कपड़े न पहने हुए थे, बारी-बारी मिलने का समय पा कर विदा हो गए और हम सिर झुकाए ही रह गए कि, 'मेरी बार क्यों देर इतनी करी।'
डेढ़-दो घंटे बाद बेंच पर इंतजार का जाम पीते रहने के बाद जी में आई कि लानत भेजो। ऐसी नौकरी से बेरोजगारी भली, देर है अंधेर भी होगा। 'चल खुसरो घर आपने साँझ भई चंहु देस' मिर्जा गालिब भी सौ रुपए मासिक की फारसी शिक्षक की नौकरी के लिए इंटरव्यू के लिए गए थे लेकिन उल्टे फिर आए कि वो उनकी अगवानी के लिए बाहर नहीं आया। कहारों से कहा बस हो चुकी मुलाकात, पालकी उठाओ, हम भी उस्ताद की देखा-देखी वापिस पालकी में सवार हो रहे थे कि अंदर वाला बोला, होश में आओ
तुम कहाँ के दाना हो
किस हुनर में यकता हो
मिर्जा तो शायर आदमी ठहरे। इसके बाद भी जब कोई नवाब या गर्वनर जनरल बहादुर नया आता तो उसके सम्मान में कविता लिखते और पेंशन के अलावा अलंकृत कपड़ों के साथ मोतियों के माला बराबर वसूल करते रहे। तुम क्या करोगे? तुम तो सिर्फ गद्य में खुशामद करनी जानते हो, फिर वापसी के लिए बाहर पालकी भी तो नहीं है कि तनतनाए हुए बैठकर वापस घर आ गए और रास्तों में कहारों को कांधा तक न बदलने दिया और यहाँ रोजी को लात मार कर चले भी गए तो स्वाभिमान के इस प्रकटन को अमर बनाने के लिए मुहम्मद हुसैन आजाद (सुप्रसिद्ध लेखक) को कहाँ से लाओगे। कहाँ वो स्वाभिमान, कहाँ यह अस्वीकार होने वाले सिजदे। मजे से बैठे हुए अपना कटोरा बजाते रहो। तीन बरस तुम डिप्टी कलक्टर रहे, सच कहो कभी किसी जुरूरतमंद से सीधे मुँह बात की।
कुछ देर बाद चपरासी हमारी बेबसी पे तरस खा कर खुद ही कहने लगा कि अगर नौकरी की सिफारिश ले कर आए हो तो आज मुठभेड़ न करो। सुबह से साले का मग्ज फिरेला है। अक्खा बाटली दारू पियेला है। पाकेट में छोटी बाटली के अंदर मिक्सचर भर के लाया है। दो क्लाक पहले सिग्रेट से तिजोरी खोलना माँगता था। अस्ली रंगत सोलह आना मूली के माफिक है, पन इस टैम जास्ती ब्लड प्रेशर से एक दम चुकंदर लगता पड़ा है, तुमेरा काम आज के दिन नहीं हो सकता।
पौन बजे जब स्टाफ एक-एक करके लंच लिए सरकने लगा और जमादार इस तत्परता से झाड़ू देने लगा कि धूल का एक-एक कण खिंच कर हमारे चेहरे और चश्मे पर बैठ जाए तो जोर से घंटी बजी और बजती ही चली गई। मालूम होता था कोई घंटी पर बैठ गया है। चपरासी ने कोई नोटिस न लिया। कुछ देर पहले सुलगाई हुई पहलवान मार्का बीड़ी के कश लेता रहा फिर उसे छंगलिया में दबा कर अलविदाई दम लगाया और जूते की एड़ी पर रगड़ कर बुझा दिया। बीड़ी का बंडल, चवन्नी और फिल्मी गानों की पतली सी किताब सिर पर रखी और उन पर तुर्की टोपी लगाई। फिर उस सेफ डिपाजिट लॉकर का फुंदना हिला कर कहने लगा, 'लगता पड़ा है अबके तुम्हारी आई है, किस्मत की बदनसीबी को क्या करें' लारा लप्पा लारा लप्पा ला, ला, ला....,
कुछ ने कहा चेहरा तिरा : कमरे में दाखिल होने से पहले हमने अपनी दांई हथेली का पसीना पोंछ कर हाथ मिलाने के लिए तैयार किया। सामने कुर्सी पर निहायत रौबदार अंग्रेज नजर आया। सिर बिल्कुल गंजा, साफ और चिकना। जिस पर पँखे का अक्स इतना साफ था कि उसके ब्लेड गिने जा सकते थे। आज कल के पँखों की तरह इस पँखे का निचला हिस्सा चपटा न था बल्कि उसमें एक चोंच निकली हुई थी जिसका उपयोग हमारे जह्न में तो ये आया कि पँखा सिर पर गिरे तो खोपड़ी टुकड़े-टुकड़े न हो बल्कि उसमें एक साफ सूराख हो जाए। बाद में अक्सर खयाल आया कि सिर पर अगर बाल होते तो उसके दबदबे में निश्चित रूप से फर्क आ जाता। मेज के नीचे एक उधड़ा-उधड़ा कैमिल कलर का कालीन बिछा था। रंग वाकई इतना मिल रहा था कि मालूम होता था कि कोई खुजलटा ऊँट खाल फर्श पर बिछाए पड़ा है। भरे-भरे चेहरे पर काला चश्मा, कुछ पढ़ना या पास की चीज देखनी हो तो माथे पर चढ़ा कर उसके नीचे से देखता था, दूर की चीज देखनी हो तो नाक की फुनंग पर रख कर उसके ऊपर से देखता था। अलबत्ता बंद करके कुछ देर सोचना हो तो ठीक से चश्मा लगा लेता था। बाद में देखा धूप का चश्मा भी नाक पर टिकाए, उसके ऊपर से धूप का मुआयना करते हुए बैंक आता जाता है। आँखें हल्की नीली जो यकीनन कभी रौशन-रौशन रही होंगी। नाक सुतवां, तरशी तरशाई, निचला होंठ राजसी अंदाज से हल्का सा आगे निकला हुआ, सिग्रेट के धुँए से कजलाया हुआ। बाईं भौं बेईमान दुकानदार के तराजू की तरह हमेशा ऊपर चढ़ी हुई, गरजदार आवाज, जिस्म... रंग वही जो अंग्रेजों का होता है। आप ने शायद देखा होगा चीनियों के चेहरे से भावनाएँ पता नहीं लगती बल्कि कभी-कभी तो चेहरा भी पता नहीं लगता लेकिन यह बिल्कुल अलग चेहरा था एक अजीब दर्प और दबदबा था इस चेहरे पर। कमरे में फर्नीचर भरा-भरा नजर आता था। वो सामने हो तो और कोई चीज... उसका अपना जिस्म भी... नजर नहीं आता था।
उसका सरापा है यह मिसरा
चेहरा ही चेहरा पाँव से सिर तक
हमने तैयार किया हुआ हाथ मिलाने के लिए बढ़ाया तो उसने अपना हाथ पतलून की जेब में डाल लिया। कुछ देर बाद केवन ए कॉर्कटिप्स सिग्रेट डिब्बे से निकाल कर उल्टी तरफ से होठों में दबाया। वो बहुत बुरे मूड में था, काँपते हुए हाथ से जियादा काँपते हुए हाथ को थामा तो कप की डुगडुगी सी बजने लगी और चाय छलक कर हमारी दरख्वास्त को रंगीन कर गई। अब एक दियासलाई को अपने बेहतर हाथ में मजबूती से पकड़ कर उस पर डिबिया रगड़ने लगा लेकिन वो किसी तरह जल कर नहीं देती थी। बेकार का संकोच था वरना चाहता तो अपने बल्डप्रेशर पर रगड़ कर आसानी से जला सकता था।
हमारी पैदाइश का सन् : उसने गलत तरफ से सिग्रेट सुलगाया, कॉर्क पर छुन से बुझ गया, उसने छंगुलिया के इशारे से एक कुर्सी पर बैठने के लिए कहा। हम आज्ञा पालन में बैठने ही वाले थे कि अचानक उसी कुर्सी की गहराइयों से एक कुत्ता उठ खड़ा हुआ और हमारे कंधों पर अपने दोनों पंजे रखकर हमारा धूल में अटा मुँह अपनी जबान से साफ किया। माई डॉग इज वेरी फ्रेंडली कुत्ते से परिचय कराने के बाद उसने एक ही साँस में सब कुछ पूछ लिया कैसे हो? कौन हो? क्या हो? और क्यों हो?
सिवाय आखिरी सवाल के हमने सारे सवालों के इत्मीनान और तसल्ली देने वाले जवाब दिए।
'तुम्हें मालूम होना चाहिए कि इस बैंक को मैं चला रहा हूँ', मिस्टर इस्फहानी नहीं, खैर तुमने इकॉनोमिक्स पढ़ी है? उसने कहा।
'नो सर।'
'गणित में बहुत अच्छे थे?'
'नो सर। गणित में हमेशा रियायती नंबरों से पास हुआ, हालाँकि इंटरमीडियेट से लेकर एम.ए. तक फर्स्ट डिवीजन आया।
गणित में फेल होने के अलावा तुम्हारे पास इस पेशे के लिए और क्या क्वालिफिकेशन है?'
'मैंने फिलॉसफी में एम.ए. किया है।'
'हा हा हा, तुम्हारा सोशल बैकग्राउंड क्या है? किस खानदान से तअल्लुक है।'
'मेरा अपने ही खानदान से तअल्लुक है।'
'सच बोलने का शुक्रिया।' जी तो बहुत चाहा लगे हाथों यह भी बात दें कि बुजुर्ग ऐश्वर्यवान न थे, केवल हमें निशानी छोड़ा।
उसके मुँह में से ऐसी लपट आ रही थी जो रुई के उस फाए से आती है जो इंजेक्शन से पहले सूई चुभोने की जगह पर रगड़ा जाता है।
पूछा 'तुम कब और कहाँ डिलीवर हुए थे? हा हा हा!' वो जोर से हँसना। हम जरा चकराए तो कहने लगा, अच्छा यह बताओ जिस सन् में तुम पैदा हुए, उस साल और कौन सी अंतर्राष्ट्रीय दुर्घटना हुई थी?
इंटरव्यू के सिलसिले में एक अरसा पहले हमने जनरल नॉलिज के नामाकूल से नामाकूल सवालों के जवाब रट लिए थे। उदाहरण के लिए क्रिकेट की गेंद का वज्न, मक्खी की टाँगों और बैल के दाँतों की तादाद, नेपोलियन का कद। अगर बैंक से सिर्फ 100 रुपए 7 प्रतिशत सूद पर लिए जाएँ तो वो किस तरह 250 साल में 22,11,02,400 हो जाएँगे? खालिस सोना कितने कैरेट का होता है? बिल्ली की आँतों की लंबाई? कुत्ता जबान बाहर क्यों निकाले रखता है? इंसान मुँह खोलने से क्यों डरता है? शायर अपने उपनाप पर डोई (चमचा) क्यों बनाते हैं? शेक्सपियर के हाँ शादी के कितने महीने बाद बच्चा पैदा हुआ? बाँस पोला क्यों होता है? वगैरा-वगैरा... लेकिन अपनी पैदाइश की अंतर्राष्ट्रीय दुर्घटना की तरफ हमारा ध्यान कभी नहीं गया था। हमारा आधा शरीर उसके मुकाबिल बिल्कुल ठंडा हो गया और हम इंतहाई बेबसी के आलम में झूरने (गर्दन डाल कर आधी बेहोशी के हालत में सोचना) लगे तो उसने हमारी दरख्वास्त में पैदाइश का सन् देख कर खौफनाक लहजे में कहा, 'बाई दि वे, जिस साल तुम पैदा हुए उसी साल मेरे बाप की मौत हुई। बड़ा मनहूस था वो साल।'
इक शहर था आलम में इंतख्वाब : 'रहने वाले कहाँ के हो?' एक बार तो जी में आई कि मीरे-बददिमाग की तरह कह दें।
क्या बूदो - बाद पूछो हो
योरूप के साकिनो
लेकिन यह लखनऊ का मुशायरा नहीं नौकरी का इंटरव्यू था।
'जयपुर... अजमेर के पास है' हमने संकोची ढंग से उस शहर का नाम लिया जो कभी आलम में इंतिखाब (संसार में चर्चित) था।
OH ! YES ! THE PINK CITY? क्या बात है। ब्रिटिश रेजीडेंट ने हाथियों की लड़ाई दिखाई थी। बर्मा में हम दोनों का एक साथ कोई मार्शल हुआ था। मैंने देखा है तुम्हारा जयपुर। सारे शहर में दोनों तरफ हर इमारत का एक सा केसरिया रंग। ऊँचे तुर्रे वाले राजपूती साफे और उनसे भी ऊँची मूँछें, हर दूसरे को सूंड से सलाम करते हुए हाथी। आस्ट्रेलियाई घोड़ों पर पोलो। कचरे और गंदगी की गुड्सट्रेन जिसे लोकल भैंसे खींच रहे थे। ऐसी रेल मैंने अमृतसर में भी देखी थी जो एक मुहल्ले की गंदगी की दूसरी मुहल्ले में रनिंग नुमाइश करती फिरती थी। भरे बाजार में बिलखते बच्चों के मुँह में छाती देती औरतें। कई लाडले तो इतने बड़े थे कि खड़े-खड़े दूध की नहर निकाल रहे थे। दर्शनी झरोखों से आँख मारती नाचने वाली औरतें। इंद्रधनुषी रंग के अभ्रक से झमाझम करते लहरिए, कंधों से ढलकाए... एक-एक इंच जवानी राजस्थानी रूप, सिंगार और सिफलिस से भरपूर, सलूके में खस का सेंट, बालों में COOKING OIL (चौंक कर) औरत कभी मेरी कमजोरी नहीं रही और वो तो मैं भूल ही गया। जन्मजात पवित्र और उतने ही समय से पूरे नंगे फकीरों की कतार जिनके पैर वगैरा को धो, धो कर औरतें पीती हैं, क्या कहते हैं इनको?
'Fortes Bergrl' की लड़कियाँ और यह साधू कपड़ों की गिनती धर्म विरुद्ध चीजों में करते हैं। और हाँ! मुझे सब याद है। तुम्हारे होम टाउन में हर चौराहे पर पूर्वजों के नाम पर छोड़े हुए पवित्र साँड़ अपने नियत कार्यों को करते फिरते हैं। तुम्हारे सब बुजुर्ग जिंदा हैं या...? प्रेस्टली ने कहीं लिक्खा है कि जयपुर से ज्यादा साफ सड़कें मैंने दुनिया में कहीं नहीं देखीं। कारण यह कि गोबर और लीद जमीन पर गिरने से पहले ही अछूत औरतें कैच ले लेती हैं।
उसने केसरिया पालों की सारी हवा निकाल दी। वतन छोड़े हुए हम, सिर झुकाए, छोड़े हुए देश को परदेसी की आँखों से देखते रहे। 'जो शक्ल नजर आई तस्वीर नजर आई।'
'तुम राजपूत हो?'
'आधा। नाना थे। नौ मुस्लिम राठौर। तोते की चोंच जैसी नाक वाले राठौर?'
'बिल्कुल लाल, तीखी?'
'नहीं मुड़ी हुई।'
मर्दाना खेलों से हमारी दिलचस्पी : आखिर तुम यह पेशा क्यों चाहते हो? कोई उचित कारण? हम काफी नर्वस हो चुके थे। दो तीन बार जोर लगाने के बाद जो आवाज अचानक हमारे मुँह से निकली वो इससे पहले हमने कभी नहीं सुनी थी।
शायद उसे भी तरस आ गया। अबके आसान सवाल किया। 'जवानी, मेरा मतलब है पढ़ाई के जमाने में किन खेलों से दिलचस्पी रही?'
'कैरम और लूडो'
मेरा मतलब मर्दाना खेलों से था।
हमारा यह खाना बिल्कुल खाली था। पाँचवीं क्लास में अलबत्ता सालाना स्पोर्ट्स में हमारा इक्कीसवाँ नंबर आया था, दौड़ में इतने ही लड़कों ने भाग लिया था। कुछ दिन फुटबाल से भी सिर मारा। अंतिम क्षण तक यह फैसला नहीं कर पाते थे कि इस बार फुटबाल पर अपना दायाँ पाँव मारें या बायाँ उचित रहेगा। दूध के दाँत टूटने से पहले ही हम अच्छे भारी और मोटे शीशे का चश्मा लगाने लगे थे। (जो लोग देखने की क्षमता खो बैठे हैं उनकी सूचना के लिए निवेदन है कि अब कभी हम चश्मा उतार कर शीशा देखते हैं तो खुदा की कसम अपने कान नजर नहीं आते) कई बार चश्मा तोड़ने के बाद अब हम उसे उतार कर निर्भय खेलने लगे थे। खेलते क्या थे, हम हर एक से मेढ़े की तरह टक्करें लेते फिरते थे। विरोधी टीम में हमेशा बड़े पॉपुलर थे। इसलिए कि हमेशा अपनी ही टीम से गेंद छीनते और उन्हीं को फाउल मारते थे। खेल की शुरुआत में टॉस किया जाता। जो कप्तान टॉस हार जाता वो हमें अपनी टीम में शामिल करने के लिए बाध्य होता था। जब तक विरोधी खिलाड़ी ताक कर हमारे पाँव पर जोर से फुटबाल न मारे, वो हमारे किक को तरसती रहती थी, चूँकि सिर हमारी अधखुली बल्कि अधमुंदी आँखों का निकटतम अवयव था, इसलिए हमने सिर से फुटबाल रोकने और गोल करने का अभ्यास और महारत पैदा की। एक दिन हमने तीन फिट उछल कर 'हैड किया' तो जिस गोल चीज से हमने आँख बंद करके अपनी पूरी ताकत से टक्कर ली वो दैत्याकार जसवंत सिंह चौहान का मुंडा हुआ सिर निकला। वो शाम को भांग की ठंडाई पी कर फुटबाल खेलता था। हमारी नाक का बांसा (हड्डी) और दिल हमेशा के लिए टूट गया। हमने चश्मा उतार कर मर्दाना खेल से अपने पुराने संबंधों का सुबूत एंडरसन को दिखाया। नाक को झुकी और टूटी देखकर बहुत हँसा। कहने लगा तुम्हारा एक कान भी टेढ़ा लगा हुआ है।
'और तुम Rimless Glasses क्यों लगाते हो? तुम्हारी सूरत सर स्टीफर्ड क्रिप्स से मिलती है।'
'जर्रानवाजी का शुक्रिया, हमने खुश होकर कहा।'
'म़ुझे उस बास्टर्ड की सूरत से नफरत है।'
तो फिर अब क्या जगह की कैद : हम अभी इस चोट को सहला भी न पाए थे कि सवाल पूछा 'कुंवारे हो?'
'नो सर'
'कितनी बीबियाँ हैं' उसने सवाल करके दोनों होंठ भींच लिए।
'एक'
'मुझे तो चार पर भी एतराज नहीं। लेकिन चार बीबियाँ में परेशानी यह है कि चार बार तलाक देनी पड़ती है।' भुलावा दे कर फिर वही सवाल दोहराया 'सिफारिश अपनी जगह, लेकिन बैंक में क्यों नौकरी करना चाहते हो? बैंकर के क्या कर्तव्य, जिम्मेदारियाँ होती हैं।'
यह सुनते ही हमारे हाथों से परंपरागत तोते दुबारा उड़ गए और ऐसे उड़े कि वापस नहीं लौटे। हम फिर झूरने लगे। उचित कारण के बजाए लतीफे याद आने लगे लेकिन ये मौका उसके दामन को दिल्लगी से खींचने का नहीं था। हमने तब तक किसी बैंक को अंदर से नहीं देखा था। अलबत्ता इतना मालूम था कि अगर कोई शख्स यह साबित कर दे कि उसके पास इतनी जायदाद और सम्पत्ति है कि कर्ज की बिल्कुल जुरूरत नहीं तो बैंक उसे कर्ज देने पर राजी हो जाता है।
मार्क ट्वेन का यह वाक्य कहीं पढ़ा था कि बैंकर अच्छे वक्तों का बेहतरीन साथी होता है। मौसम अच्छा हो तो जबरदस्ती अपनी छतरी हाथ में थमा देता है लेकिन जैसे ही छींटे पड़ने लगें तो कहता है लाओ मेरी छतरी, हमें तो बस इतना बताया गया था कि बैंकर धड़ल्ले से ब्याज लेते हैं, ब्याज देते हैं, ब्याज का हिसाब रखते हैं और तीनों इस्लाम के हिसाब से हराम हैं।
रहा बिजनेसमैन से परिचय सो हमारा परिचय-क्षेत्र केवल एक काइयाँ मारवाड़ी सेठ पर निर्भर था जो रुपया अपनी तिजोरी में रखता था और ब्ल्यू फिल्में बैंक के लॉकर में। जहाँ तक बैंकिंग के बारे में पुस्तकीय ज्ञान की बात है वो इस जानकारी तक सीमित थीं कि T.S. Eliet ने जब Waste-land लिखी तो वो लाइड्स बैंक में क्लर्क था और इस पेशे से उसका पिंड छुड़ाने के लिए अजरा पाउंड ने चंदे का एक राष्ट्रीय अभियान चलाया था जिसमें केवल 30 पौंड जमा हुए।
इसी तरह प्रसिद्ध हास्य लेखक जारोस्लाव हसलक भी एक बैंक में नौकर हो गया था। वहाँ जो कुछ उसने देखा, उससे इतना असर लिया कि भरे-भतोले घर पर झाड़ू फेर कर हमेशा-हमेशा के लिए घुमंतू बन गया और अगर ओ. हैनरी बैंक में गबन न करता तो दुनिया एक महान कथा-लेखक से वंचित रह जाती। उसने बैंक के सूखे जोड़-घटा में कहानी का रंग भर दिया। चुनांचे बैंक दिवाले में चला गया और उसे घपले के इल्जाम में पाँच साल की सजा हुई।
जेल ही में उसे अपनी पहली कहानी लिखी और नाम बदल कर विलियम सिडनी पोर्टर से ओ. हैनरी बन गया। ओ. हैनरी दरअस्ल जेल के संतरी का नाम था। उस जमाने में हमें अपनी जनरल नॉलिज का बड़ा घमंड था लेकिन इस कुढब सवाल से ज्ञान का सारा नशा हिरन हो गया।
एक कम पाँच और एक ऊपर तीन का फर्क : बैंकरी के भेद और संकेत तो क्या, हमने तो जिंदगी में किसी मुसलमान बैंकर का नाम भी नहीं सुना था। भारत के बँटवारे से पहले इस देश में बड़े ही नहीं छोटे ओहदों पर भी अंग्रेज और हिंदू ही होते थे। अलबत्ता मुसलमानों पर अपनी जमा जत्था सेविंग बैंक एकाउंट में जमा कराने पर कोई पाबंदी नहीं थी।
और बेचारे मुसलमाँ को फकत वादा - ए - सूद : लेकिन हम धोके में आने वाले नहीं। बुजुर्गों ने सदियों पहले बचत को हिंदुओं की रीत समझकर त्याग दिया था। सौ पुश्त से जिन कबीलों का पेशा-ए-आबा सिपहगरी, (पूर्वजों का पेशा सिपाहीगिरी-गालिब की पंक्ति है) यानी पहले दुश्मन बनाना फिर उन्हें ढूँढ-ढूँढ कर मौत के घाट उतारना या वो इस पर राजी न हों तो खुद उतर जाना रहा हो वो व्यवसाय को पतली दाल खाने वाले बनियों का अधिकार समझ कर उससे घृणा करते तो आश्चर्य नहीं होना चाहिए।
महाबली अकबर ने भी आखिरकार राजस्व का चार्ज राजा टोडरमल को दिया और फैजी को गीता और महाभारत के फारसी अनुवाद में जोत दिया। बीरबल को अलबत्ता इन पंक्तियों के रचयिता का काम सौंपा गया कि खबरदार मुँह से कोई गंभीर बात निकाली तो जबान गुद्दी से खींच ली जाएगी। एक रीत सी पड़ गई थी कि मुसलमान अमीरों और रईसों की आमदनी का हिसाब तो हिंदू मुनीम रखते थे और खर्च का हिसाब अदालत को खुद कुर्क़ुी के वक्त बनाना पड़ता था।
मुसलमान दो और दो को चार नहीं बल्कि एक कम पाँच कहता है जबकि हिंदू एक ऊपर तीन कहता है। राबर्ट क्लाइव का एक समकालीन कहता है कि रुपया बचा कर रखने के मुआमले में मुसलमान छलनी होता है और हिंदू स्पंज।
व्यापार को शान के खिलाफ समझने का एक नतीजा यह निकला कि जब तैमूर के खानदान पर परेशानी आई तो उसका आखिरी चिराग महाजन से कर्ज ले कर फौज की तनख्वाहें चुकाता था और अपनी गजलों का संशोधन करने वाले नज्मुदौला दबीरुल-मुल्क मिर्जा असदुल्लाह खाँ 'गालिब' को चाँदी के थाल में जरी के कपड़े से ढंका हुआ सेम के बीजों का तुहफा भेजता। विभाजन से पहले के तीन-चार सौ बरस में खास कर भारतीय उपमहाद्वीप के मुसलमानों ने व्यापार को अपनी शान के खिलाफ समझा। इसमें आशंका थी कि कहीं लापरवाही या भूल-चूक से लाभ न हो जाए। चमड़े और खालों से संबंधित सारा व्यापार अलबत्ता मुसलमानों के हाथ में था। इसके तीन कारण थे। पहला ये उन्हीं स्वर्गवासियों की निशानी थीं जिन्हें वो बड़े चाव से खा चुके थे। दूसरे हिंदू इस कारोबार को अपवित्र समझते थे। तीसरे सौभाग्य से इन व्यापारियों का संबंध चिन्यौट से था, जो दिल्ली दरबार से दूर था। उनकी सूझ-बूझ के सामने मारवाड़ी भी कान पकड़ते थे। मशहूर है कि चिन्यौट या मैमन पागल भी हो जाए तो दूसरों की पगड़ी उतार कर अपने ही घर में फेंकता है, 'पैदा कहाँ हैं ऐसे परागंदा तब्अ लोग।'
हिसाब - किताब का जंजाल : आश्चर्य की बात तो यह है कि उर्दू कथाओं में सौदागर का जिक्र अगर कहीं आता है तो केवल डाकुओं से लुटने के लिए और वो भी इस ढंग से कि पढ़ने वाले की हमदर्दी हमेशा लूटने वाले के साथ रहती है। उर्दू गजल में हमें याद नहीं कि किसी शायर ने सौदागर को सम्मान के साथ याद किया हो, हाँ एक नज्म 'मसनवी जह्रे-इश्क' में सौदागर घुस आया है वो भी केवल इसलिए कि उसकी एक बेटी थी जो नेक न निकली मगर जिससे आगे चल कर शायर को रदीफ-काफिए की चूल बिठाने के अलावा और भी बहुत से काम लेने थे, जिनमें एकांत की मुलाकातें, उनके अनिवार्य परिणाम के रूप में आत्महत्या और वर्णन के आखिरी हिस्से से पहले 'पान कल के लिए लगाए जाते हैं', का दायित्व शामिल था।
जिस मुहल्ले में था हमारा घर
वहीं रहता था एक सौदागर
एक दुख्तर थी उसकी माहे - जबीं
शादी उसकी हुई नहीं थी कहीं
आखिरी पंक्ति में खुशी की जो हिलोर है बस उसी ने पिछली तीन पंक्तियों में जान सी डाल दी है। बचपन की बात है शायद इसलिए अच्छी तरह याद है पूरे कस्बे चाकसू में तिजारत-विजारत तो बड़ी बात है किसी मुसलमान की पंसारी की दुकान तक न थी।
1933 में कुछ मुसलमानों ने चंदा जमा करके सामान इकट्ठा किया और सौलत यार खाँ रिटायर्ड सबइंस्पेक्टर पुलिस को मुसलमानों के मुहल्ले में परचून की दुकान खुलवा दी। उस जमाने में कौड़ियाँ भी चलती थीं। धेले का घी और छदाम के बैंगन खरीदते गरीबों को हमने भी देखा है, छोटे बैंगनों का झोंगा (रोकन) ऊपर से। सौलत यार खाँ को मुनाफे में तो दिलचस्पी थी लेकिन हिसाब किताब को घृणित समझते थे। दुकान में उनकी मसनद, तकिए, हुक्के और तराजू के सामने आटा, शकर, बेसन, नमक, मिर्च, दालें और मसाले उल्टी हुई आस्तीन की तरह अधखुली बोरियों में भरे रहते थे। जो चीज जितनी बिकती उसकी कीमत उस बोरी या कनस्तर पर सारा दिन पड़ी रहती थी ताकि हिसाब में आसानी हो। शाम को हर चीज की बिक्री को अलग-अलग गिनते। रोकड़ का जोड़ नहीं बैठता था तो अपना दिल नहीं जलाते थे। वहीं खाते में एक नई मद 'भूल-चूक लेनी-देनी' खोल ली थी। रोजाना कैश में जो कमी होती वो उसी के मत्थे मारते। होते-होते इस मद में काफी रकम चढ़ गई जो लगभग पूंजी के बराबर थी। शबे-बरात की सुबह मिर्जा अब्दुल वदूद बेग जिनकी उम्र उस वक्त सात साल की की रही होगी, छह पैसे की केसर लेने गए। केसर की पुड़िया ले कर उन्होंने सौलत यार खाँ को एक कलदार रुपया थमाया। इत्तफाक से केसर की अभी बोहनी नहीं हुई थी और उसके डिब्बे पर कोई रोजगारी नहीं थी। 'गोविंदा बनिए की दुकान से खरीद ले' मिर्जा ने उँगली से रेजगारी की उन ढेरियों की तरफ इशारा किया जो हर बोरी और कनस्तरों पर पड़ी थीं। अरे साहब वो तो आपे से बाहर हो गए। धमकी भरे अंदाज में दो-सेरी (दो सेर से अधिक कुछ तोलना हो तो बाट ग्राहक को उठाने पड़ते थे) उठाते हुए बोले मुर्गी के! दूसरी ढेरी से रेजगारी निकाल कर दे दूँ तो हिसाब कौन करेगा। तेरा बाप?
हमारा चौथी दिशा जाना : बचपन में हम कभी कैरियर के बारे में संजीदगी से सोचते थे तो इंजन ड्राइवरी के सामने बादशाही भी तुच्छ मालूम देती थी। जरा सियाने हुए और दिल से जिन्न, भूत और बुजुर्गों का डर निकला और वो दिन आए 'जब साए धनी होते हैं जब धूप गुलाबी होती है' तो घने जंगलों में टार्जन की सी सादा जिंदगी गुजारने का फैसला किया। न इम्तिहान का खटका न रोज सुबह मुँह धोने का खटराग। प्रेमिका एक गज दूर खड़ी हो तो जवानी की जोश में इक्कीस गज की छलाँग लगाना फिर वापस बीस गज की छलाँग लगाकर पहलू में पहुँचना और चिंघाड़ना। जटाधारी बरगद की दाढ़ी या वो हाथ न लगे तो लंगूर की दुम पकड़ कर झूलते हुए जूँ... से एक पेड़ से दूसरे पेड़ और एक दुम से दूसरी दुम तक पहुँचना। 'वन में तिरे कूदा कोई यूँ धम से न होगा'। फिर अपने और बियाबान की परी के बीच कोई नदी, जालिम जमाने की तरह बाधक होती तो उसे उसके बाप या मगरमच्छ की पीठ पर बैठकर पार करते मगर होता यह था कि जो भी कहानी पढ़ते उसके हीरो का प्रिय काम बल्कि उसकी प्रेमिका तक को अपनाने का फैसला कर लेते। किसी के मुँह पर सेहरा लटका देखते तो तन-बदन में आग लग जाती, महसूस होता हक मारा जा रहा है।
हमने खुद को हर बहरूप, हर स्वांग में देखा था सिवाय बैंकर के, यह वो चौथी दिशा थी जिस तरफ जाने की कहानियों में सख्त मनाही है लेकिन जिधर जाने वाला जुरूर जाता है और पछताता है।
हलालो - हराम : 'पढ़ोगे-लिखोगे बनोगे नवाब, खेलोगे कूदोगे होगे खराब', बुजुर्गों की इस नसीहत और ज्योतिष से भरपूर इस भविष्यकथन पर सारा बचपन निछावर करवाने के बाद जब हमारी बारी आने लगी तो भाई लोगों ने रियासतें-रजवाड़े ही खत्म कर दिए; लेकिन बात दरअस्ल ये है कि आदमी जरा ओरिजनल हो तो खेले-कूदे बगैर भी खुद को खराब करने की कोई राह निकाल ही लेता है। तीसरी क्लास तक टोंक (राजस्थान) में खुद पर पढ़ाई के तजरुबे करवाए। वहाँ स्कूल में दोपहर की नमाज ग्रुप में होती थी। जिसे बिना हाथ-पाँव धोए पढ़ने पर उँगलियों के बीच में सरकंडे का कलम रख कर दबाया जाता था जो अक्सर उस सजा को बर्दाश्त न कर पाने के कारण टूट जाता था।
कत्ल की सजा मौत थी। जल्लाद जब ठर्रा पी कर गर्दन उड़ाता तो शहर का शहर देखने के लिए उमड़ पड़ता था, कमजोर दिल के लोग हरा चश्मा लगा कर जाते थे, जो उस जमाने में सिर्फ उस वक्त पहना जाता थी जब आँखें दुखने आ जाएँ। इससे खून बैंगनी और तलवार हरी नजर आती थी। टोंक में दीन (इस्लाम धर्म) तथा शायरी का बड़ा चर्चा था। जल्लाद और अमीरों तथा शरीफों को छोड़कर आम आदमी को शराब पीने की इजाजत नहीं थी। खुदा न सही मगर काजी का डर अभी दिलों से दूर नहीं हुआ था। इसलिए कोई काम शरअ (इस्लामी कानून) के खिलाफ करना हो तो मुसलमान अपनी टोपियाँ उतार कर जेब में रख लेते थे। टोंक के एक नवाबजादे घूमने के लिए मिश्र और तुर्की गए तो इस बात पर बहुत आश्चर्यचकित हुए कि वहाँ तो मुसलमान नमाज भी टोपी उतार कर पढ़ते हैं।
हम तो सोच भी नहीं सकते थे कि ब्याज जिसे हराम ठहराया गया है और जिसकी महानता में आज भी तिल बराबर शक नहीं, हमारा जीवन-यापन का साधन ही नहीं बल्कि हर एतबार से श्रेष्ठ और सर्वोच्च साबित होगा। स्वर्गवासी पिता पाकिस्तान आने लगे तो अपने पोस्ट ऑफिस के सेविंग बैंक एकाउंट में साढ़े चार हजार रुपए छोड़ गए थे जो उनके हिसाब से बीस सालों का ब्याज बनती थी। वो किसी ऐसे मुसलमान के यहाँ दावत खाना तो बड़ी बात है, पानी पीना भी हराम समझते थे, जिसके बारे में उन्हें पता हो कि वो अपने एकाउंट पर ब्याज लेता है। उन्होंने एक दिन इमाम अबू हनीफा का किस्सा सुनाया था कि एक शख्स को दफनाने के बाद लोग एक मकान की दीवार के साए में आए मगर वो धूप में खड़े रहे। किसी ने पूछा हजरत आप छाँव में क्यों नहीं आ जाते? आपने जवाब दिया उस मकान का मालिक मेरा कर्जदार है अगर मैं उसकी दीवार की छाँव से फायदा उठाऊँ तो डरता हूँ कि प्रलय के दिन इसकी गिनती ब्याज में न हो जाए।
विचार आया कि नौकरी मिल भी गई तो ऐसे बाप को कैसे बताएँगे कि मछंदर ने बहरहाल रोटी कमाने के लिए गंदा पेशा चुना है। वो रियासत टोंक में पोलिटिकल सेक्रेटरी रह चुके थे। रियासती परंपराओं से परे, इस्लाम के नियमों पर चलने वाले सादे मुसलमान लेकिन अज्ञानी नहीं थे। जयपुर के पहले स्थानीय मुसलमान थे जिसके 1914 में बी.ए. किया। अच्छी तरह याद है कि टोंक में बड़े कुँए के सामने हमारी सजी-धजी हवेली में हिज हाइनेस नवाब हाफिज सर इब्राहीम अली खाँ, रियासत के मालिक के दर्जनों फोटो हर उस जगह टंगे थे जहाँ कील बगैर इस आशंका के ठोकी जा सकती थी कि सारी दीवार न आ पड़े। उन्होंने हर एक की नाक चाकू से छील दी थी कि उनका यह विश्वास था कि तस्वीर पूरी हो तो उस घर में रहमत के फरिश्ते नहीं आते। साठ-सत्तर अमीरों, राजकुमारों और दरबारियों पर आधारित एक ग्रुप फोटो जिसमें वो खुद भी शामिल थे एक ताक में रखा हुआ था। उसकी भी वही हालत थी, नावक ने तेरे नाक न छोड़ी जमाने में।
नवाब साहब जो अस्सी के पेटे में होंगे, खुद कुरआन को कंठस्थ किए, इस्लामी नियमों के पाबंद, सादा और नेक मुसलमान थे। अपनी नाक आप छीलते थे।
फैजी से उन्होंने जो आदमकद पेंटिंग बहुत महंगी बनवाई थी उसकी नाक उन्होंने अपने पूर्वज अमीर खाँ लुटेरे की करौली से टोंक में खुद छीली थी, प्रजा को अपने इस फकीराना स्वभाव वाले बादशाह से बेपनाह आस्था और लगाव था। चुनांचे पहली मुहर्रम को पैदाइश के बाद हमें उस वक्त तक कोई कपड़ा नहीं पहनाया गया जब तक दस दिन बाद उस बुजुर्ग की उतरन के प्रसाद से हमारा पहला कुरता न सिल गया। खुदा ही जानता है इस आस्था और श्रद्धा में आवश्यकता और चापलूसी का कितना हाथ था। हमने अपने होश में पहली बार जयपुर का म्यूजियम देखा तो बड़ा आश्चर्य हुआ कि सदियों पुरानी मूर्तियाँ अल्बर्ट हॉल के कॉरीडोर में पंक्तियों में सजी हुई हैं लेकिन नाक हर एक की टूटी हुई। जब जरा सूझबूझ पैदा हुई तो समझ में आया कि इस रंगशाला से हर दौर, हर सदी में कोई इब्राहीम अली खाँ मय अपने साथियों-मुसाहिबों के गुजरता रहा है।
हमारा ब्रह्मचारी आश्रम में छह हफ्ते का विस्तार : 'तुम इस पेशे में क्यों आना चाहते हो? कोई उचित कारण?' दिमाग पर बहुत जोर दिया अगर वो उचित की पख न लगाता तो हम एक हजार एक कारण गिनवा सकते थे और अगर उसने हमारी सच बोलने की आदत को इस गंभीरता से न सराहा होता तो हम यह झूठ बोल कर पीछा छुड़ा लेते कि हमें गणित से पैदाइशी लगाव है लेकिन यह अमर घटना है कि बुजुर्ग गणित के नंबर देखकर बेचैन तथा उतावले हो जाते थे। (स्वर्गवासी बुजुर्गों की गलतियाँ पकड़ना हमारा काम नहीं, फरिश्तों का फर्ज है लेकिन बुरी सुहबत के स्पष्टीकरण तथा रिकार्ड ठीक रखने के लिए ईश्वर को प्रत्यक्ष जानकर निवेदन करते हैं कि जितनी भी गालियाँ हमें याद हैं सब हमने अपने बुजुर्गों और मास्टरों से सीखी हैं) उन दिनों हमें इसका बड़ा अरमान था कि काश हमारे सिर पर सींग होते तो बुजुर्ग हमें कम से कम गधा तो न समझते। मिर्जा के बुजुर्ग तो उनकी पीठ पर बॉक्सिंग की प्रैक्टिस भी करते थे। सातवीं क्लास में जब हमें अंग्रेजी में 100 में से 91 और गणित में 16 नंबर मिले तो हमने गिरधारी लाल शर्मा से बात की जिसने बिल्कुल यही नंबर प्राप्त किए थे, विषयों का क्रम अलबत्ता उल्टा था। उसने हमें बताया कि हिंदुस्तान का प्रसिद्ध गणितज्ञ रामनुज रात को दिए की रौशनी में इस तरह पढ़ता था कि एक डोरी से चोटी छत के कड़े से बाँध लेता था। ताकि नींद का झोंका आए तो आँखों के आगे बिजली सी कौंध जाए, लेकिन हमने बताया कि हमारी छतों के कड़ों में तो पहले ही फर्शी पँखा (हाथ से खींचा जाने वाला और बिना बिजली का बड़ा पँखा) लटक रहा है जिसे सिर्फ बकरा ईद पर उतारते हैं ताकि कसाई उनमें बकरे उल्टे लटका कर खाल उतार सके। बगल तक हाथ और बंद मुट्ठी खाल में घुसा-घुसा कर। गिरधारी लाल शर्मा ने हाथ जोड़ कर हमें और विस्तार में जाने से रोका और अपना प्रपोजल फौरन वापस ले लिया।
कुछ देर बाद कहने लगा कि चिंता न करो विचार करके कल तक कुछ और उपाय निकालूँगा, दूसरे दिन उसने अपना वचन पूरा किया और गणित में 91 नंबर लाने के दो गुर बताए। पहला तो यह कि भोग-विलास से दूर रहो, आज ही प्रतिज्ञा कर लो कि परीक्षा तक ब्रह्मचर्य का पालन करोगे। हठीली कामनाएँ या चंचल विचार हल्ला बोल दें तो तीन बार 'ओम शांति! ओम शांति! ओम शांति! कहना। इससे व्याकुल सागर और भड़कता ज्वालामुखी भी शांत हो जाता है। ओम शांति! ओम शांति! ओम शांति!
हमने कहा ना बाबा! यह हमसे न होगा। बोला भाई जी तुम मुसल्ले होते हो बड़े कट्टे। हमने कहा यार! यह बात नहीं हमें इससे शांति खन्ना याद आने लगेगी। बोला ना! ना! फिर तो ऐसे समय पुराने पेड़े की लस्सी पी लेना, किसी को लू लग जाए तो पिलाते हैं और जैसे ही सुंदर सपना दिखाई देने लगे तो इंटरवैल में ही उठ खड़े होना और एक लाल मिर्च की धूनी ले लेना। एक पल एक क्षण के लिए भी स्त्री का ध्यान मन में नहीं लाना।
'कोयले से गर्म होने वाली का भी नहीं?' हमने स्पष्टीकरण चाहा 'पास होना है तो ब्रह्मचर्य का पालन करना पड़ेगा।'
खैर इस शर्त से तो हम अधिक परेशान नहीं हुए। इसलिए कि बारह बरस की उम्र में डेढ़-दो महीने और ब्रह्मचारी रहना कुछ ऐसा मुश्किल नहीं था। हमने प्राण-प्रण से कोशिश करने को वादा किया। दूसरा गुर यह बताया कि चोटी का कष्ट नहीं उठा सकते हो तो सिर पर बारीक मशीन फिरवा लो और बीच में उस्तरे से मुँडवा कर एक पान बनवा लो और उसे सरौली आम की गुठली से रगड़वाओ। सारी भूसी झड़ जाए तो उस पर गाय के मक्खन की टिकिया रखकर खुले आकाश के नीचे सवाल निकाला करो। हाँ! तालू इसी कारण मुंडवाते हैं कि धर्मात्माओं के प्राण खोपड़ी के रास्ते ही निकलते हैं, फिर इसका चमत्कार देखना। मेरी चोटी टाइफाइड के बाद झड़ गई थी।
मैंने तो यही किया और यार मियाँ जी! साधारण जीवन जीना सीखो। गर्म चीजों से एक दम परहेज, गोश्त, गर्म मसाले, गुड़ की गजक और उर्दू गजल से चालीस दिन अलग रहना।
इसके बदले अंग्रेजी में 91 नंबर पाने का जो नुस्खा हमने रामनुज के लिए तय किया उसमें सिर्फ वो चीजें शामिल थीं जिनसे उसने हमें परहेज करने का निर्देश दिया था। बहरहाल हमने उसकी तरकीब पर बारह-तेरह रात अमल किया लेकिन होता यह था कि खुले आसमान के नीचे पान और उससे संबंधित इलाके को ठंडी-ठंडी हवा लगती तो आँखें आठ ही बजे आप ही आप बंद हो जातीं। बुरे-बुरे खयाल आने का इंतजार ही रहा, हमें तो नींद ही आई शबाब के बदले।
समंदरी मौत से हवाई मौत की श्रेष्ठता : मिस्टर एंडरसन ने आखिरी बार बड़े धीरज से सवाल किया 'तुम इसी पेशे में क्यों आना चाहते हो? मैं यह सवाल तुम्हें इंटरव्यू में फेल करने के लिए नहीं पूछ रहा हूँ। अगर यही मंशा होता तो मैं यह भी पूछ सकता था इस कुत्ते के बाप का क्या नाम है? हो! हो! मेरा एपॉइंटमेंट मिस्टर M.A.Asfahani ने ओरिएंट एयरवेज में किया था।'
'मैं सिविल सर्विस छोड़ कर हिंदुस्तान से कराची आया। यहाँ मालूम हुआ हाल ही में एक हवाई जहाज गिर गया है।'
'तुम पायलेट हो?'
'नहीं! एयरक्रैश में मरने के लिए आदमी का पायलेट होना जुरूरी नहीं।'
'You are telling me!'
'सर! मुझे यूँ भी हवाई जहाज से सख्त नफरत है।' हमने झूठ बोला जिसमें सच का हिस्सा सिर्फ इतना था कि मुनाबाव से खोखरा पार तक हिंदुस्तान व पाकिस्तान की सीमा का क्षेत्र हमने ऊँट के कूबड़ पर बैठ कर तय किया था। (ऊँट के बाकी हिस्सों पर दूसरों का सामान रक्खा था) इंटरव्यू के दिन तक हमारी टाँगों के बीच का फासला उसी कूबड़ के बराबर यानी एक गज था। जैसे किसी ने चिमटे को चीर कर सीधा कर दिया हो।
'हा! हा! हा! बुद्धिमान लोग एक ही तरह से सोचते हैं, मुझे भी इस शैतानी अविष्कार के सख्त चिढ़ है। समुद्री सफर से और बेहतर कोई सफर नहीं। शाही सवारी सिर्फ एक है, स्टीमर। सबसे बड़ी विशेषता यह कि चौबीस घंटे का सफर चौबीस दिन में तय होता है फिर ये कि फ्री ड्रिंक्स, मैं तो पिछले तीस साल से लंदन से हमेशा पानी के जहाज में आता हूँ।'
Afterall, a ship-cresh is much safer than an air crash! Don't you agree?
'मुझे यह जान कर बेइन्तिहा खुशी हई कि तुम भी हवाई जहाज से एलर्जिक हो। आज से तुम खुद को बैंक का Officer समझो।'
पसली फड़क उठी निगहे - इंतिखाब की : इस इंटरव्यू को तेईस साल हो गए। हमारा विचार क्या, पक्का विश्वास है कि उसने हमें बैंक में केवल इसलिए नौकरी दी कि हमें भी हवाई जहाज से नफरत थी। हवाई कंपनी और खुदा हमें माफ करे, हमें इस अविष्कार से अभी तक कोई नुकसान नहीं पहुँचा। लिखने के क्षण तक हम किसी हवाई दुर्घटना में मारे नहीं गए, जैसा कि बहुत से विद्वान पाठकों ने अंदाजा लगाया होगा, लेकिन कभी-कभी मूर्खतापूर्ण वाक्य से भी आदमी के दिन फिर जाते हैं, बशर्ते कि सुनने वाला भी बातचीत की इस शैली का गुण-ग्राहक हो।
एंडरसन न्यूनाधिक नौ साल पाकिस्तान में रहा, लेकिन लाहौर केवल इसलिए नहीं गया कि वहाँ पानी का जहाज नहीं जाता। लाहौर को 'कंट्री साइड' कहता था, हालाँकि उसके अपने पैतृक गाँव की आबादी 200 लोगों पर आधारित थी। आधी आबादी व्हिस्की बनाती और शेष आधी उसे पीती थी। खैर, हम टोकने वाले कौन? कुँए के मेंढक को तालाब के मेंढक का मजाक उड़ने का हक नहीं पहुँचता। हम खुद साँगानेरी-गेट जयपुर के रहने वाले थे और लंबे अरसे तक बाकी उपमहाद्वीप को Outside Sanganeri Gate समझते रहे।
हमारी सियाह - पोशी : उसने हमें एपाइंटमेंट पर बधाई दी, हमने भी जी खोल कर उसको गुणग्राहकता की दाद दी। अभी हमने अंग्रेजी का दूसरा जुमला अपने खराद पर चढ़ाया ही था कि उसने पूछा, 'स्कॉट-लैंड की किस चीज की सारी दुनिया में धूम है?'
'बैगपाइप-म्यूजिक, व्हिस्की और कंजूसी'
'और'
'कुत्ते, गॉल्फ क्लब, kilt और haggis (दिल, कलेजी और फेफड़े को आमाशय में बंद करके दम दे कर पकाते हैं) हमने सब कुछ उगल दिया।
वो अंगारा हो गया, 'मालूम होता है तुमने अपना सारा जनरल-नॉलेज उन गंदे चुटकलों से निचोड़ा है जो अंग्रेजों ने स्कॉटलैंड के बारे में गढ़ रखे हैं। तुम्हें मालूम होना चाहिए कि स्कॉटलैंड की सबसे कीमती दौलत, सबसे मशहूर चीज तुम्हारे सामने बैठी है, यानी स्कॉटिश बैंकर। हमारा लोहा सारी दुनिया मानती है। हम जब कर्ज देते हैं तो उसमें से सारा ब्याज एडवांस में मुजरा करके धरवा लेते हैं।'
'हमारा ब्याज कभी नहीं डूबता, मूल रकम भले ही डूब जाए। संकोची और वहमी इतने कि जब तक पहली जनवरी के सूरज को अपनी आँख से न देख लें, स्कॉटलैंड का कोई आदमी दीवार पर नए साल का कलैंडर नहीं टाँगता। मुझे तो तुम्हारे सौभाग्य पर ईर्ष्या हो रही है कि तुम एक स्कॉट बैंकर से इस पेशे की बाराखड़ी सीखोगे।'
'पहली फुर्सत में लंदन से Rae Country Banker मँगवा कर रट लो। हमारे पेशे की बाइबिल है। इसके अलावा लॉर्ड चैस्टरफील्ड के पत्र पढ़ो। दो सौ साल से इनकी गिनती क्लासिक में होती है। सलाह-नसीहत और वर्डली विजडम से भरपूर। शालीनता, मनोविज्ञान और समाज व्यवहार के बड़े बारीक नुक्ते मिलेंगे। खूने-जिगर से लिखी हुई ये किताब उन खतों का संग्रह है जो उसने तीस साल के अरसे में अपने Natural Son एदह को लिखे थे। जानते हो अंग्रेजी में हरामी को प्राकृतिक संतान कहते हैं। इस लिहाज से हम-तुम अप्राकृतिक संतान हुए। हा! हा! हा!'
उसका मूड बदल चुका था। हम चलने लगे तो उसके कुत्ते ने फिर उठ कर चूमा-चाटी की विदाई रस्में अदा कीं और दरवाजे तक दुम उठाए पहुँचाने आया। हम दरवाजा खोल कर निकलने ही वाले थे कि 'जस्ट ए मिनट' कह कर वापस बुलाया।
इज्जत बख्शने वाले खुदा! अब कौन सी कसर बाकी रह गई! अपमानों का ठीकरा जिसे पापी पेट कहते हैं, तो कभी का भर चुका। 'और अगर तुम थ्री पीस सूट पहन कर ही भरे दफ्तर में कराची-स्टीमबाथ लेने पर तुले हो जिसका कारण अंदर फटी कमीज भी हो सकता है, हा-हा-हा-हा। तुम्हारी खुशामद मेरा मकसद नहीं, लेकिन ईमान की बात है, इससे अधिक ैात्त् ीोा् ेर्मीा मीदै (सुंदर कपड़े पहने काकभगोड़ा) मैंने अपनी जिंदगी में नहीं देखा। अगर कुछ पहनना ही है तो ये शतरंज की बिसात जैसा चारखाने वाला सूट और मेरे देश की टार्टन टाई पहन कर बैंक न आना। सारी दुनिया में बैंकरों और तवायफों का परंपरागत पहनावा काला लिबास है। काला सूट पहना करो। ट्रेड मार्क'
और इस प्रकार हमारे जीवन में एक नए अध्याय का आरंभ हुआ बल्कि प्रोफेसर अब्दुल कुद्दूस के कथनानुसार पन्ना पलटने की आवाज भी दूर-दूर तक सुनाई दी। अब हमने अपने बुद्धिमान दोस्त मियाँ शफी के मशवरे से काम लिया होता तो आज हम एक नाकाम से बैंकर की जगह टूटे बासमती चावल और किराने के नाकाम आढ़ती होते।
रोटी तो किसी तौर काम खाए मछंदरः हमारी हर तबाही और घर की बरबादी हमारे पूजनीय मिर्जा अब्दुल वदूद बेग की निगरानी में हुई है। हमने जाकर उन्हें खुशखबरी सुनाई कि हम बैंकिंग के पेशे में हादिसे के तौर पर दाखिल हो गए हैं।
बोले 'बैंक को चोट तो नहीं आई?'
बधाई देने के बजाय उन्होंने इसे सदी का सबसे भौंडा मजाक बताया। हमने कहा तुम्हें भरोसा नहीं होता, हम तो कल सुबह से बैंक जाना शुरू कर देंगे। बोले, 'जब तक कोई आदमी नशे में धुत्त न हो, तुम्हें बैंक में नौकर नहीं रख सकता।'
'जिस आदमी ने हमें नौकर रखा वो इसी हालत में था।'
'सच?'
'सच! खुदा खैर करे। हमने अंधेरे में छलाँग लगाई है।'
'छलाँग तो जुरूर लगाई है मगर कपास के ढेर में, बदन पर सरेश मल कर। ऐश करोगे दोस्त। आदमी अपनी गिरह से पैसा उधार दे और वो डूब जाए तो अहमक कहलाता है, वसूल हो जाए तो सूदखोर, लेकिन दूसरों का रुपया ब्याज पर चलाए और मूछें दाढ़ी से बढ़ जाएँ यानी ब्याज मूल से जियादा हो जाए तो बैंक कहलाता है? ब्याज में बड़ी बरकत है। सूद और कैंसर को बढ़ने से कोई नहीं रोक सकता।
'बकौल गालिब, पेशे में कोई ऐब नहीं।'
'हुजूर ने इस्लाम की नजर से ऐब को ही पेशा बना लिया। खैर बैंक के पास तो तुम्हें नौकरी पे रखने का एक बहुत उचित कारण है, वो ये कि उसका जनरल मैनेजर नशे में था लेकिन तुम्हारे पास क्या औचित्य है?'
'बैंक में वेतन 26 तारीख को ही मिल जाता है।'
'हमें इससे भी पहले मिल जाता है। 4 तारीख को!'
'सुनो! हमारे पास एक छोड़ तीन-तीन उचित कारण हैं।'
'पहला, इस पेशे में ईमानदारी, बुद्धिमानी और शराफत की बहुत कीमत है। दूसरे, पाकिस्तान बन रहा है। समाज को नए खून, त्याग और बलिदान की बहुत आवश्यकता है। तीसरे, हमें कोई और नौकरी नहीं मिली।'
'नौकरी! नौकरी! कभी तुमने यह भी सोचा कि आखिर आदमी के जीवन का उद्देश्य क्या है?'
'हमें तो धरती पर केवल इसलिए उतारा गया है कि आपको हमारे सुधार का अवसर मिले। नहीं तो आपका सारा जीवन व्यर्थ हो जाता।'
'फिर भी ये क्या सूझी? एक तो ऊँटनी थी ही दीवानी और ऊपर से घुँघरू और बाँध लिए।'
हमने बताया, 'पहले तो उसने हमें रुई की तरह धुनक कर रख दिया। फिर एकाएक इतने प्यार से ऑफर दी कि हाथ-पाँव फूल गए।'
मुझे डरती ने कर लिए कौलो - करार
वेतन तक पूछना भूल गए। वही हाल हुआ जो जेम्स ज्वायस की भोली और कमसिन हुआ।
He asked me with his eyes, yes, and with his hands, yes, and yes, I said, yes, I will yes.
और वो जो मर गया है सो है वो भी आदमीः इसे स्वीकारे 23 साल बीत गए और इन तेईस बरसों में दुनिया ने क्या कुछ नहीं दिया लेकिन अपना कर्ज जो अपने आप पर था, वो आज तक न उतर सका। हिसाब-किताब से दिली नफरत थी,
वही आखिर को ठहरा फन हमारा
इससे अधिक दुर्भाग्य क्या होगा कि आदमी एक गलत पेशा अपनाए और उसमें कामयाब होता चला जाए।
रुपए और संबंधित सारे कारोबार में कामयाबी की पहली शर्त ये है कि आदमी हर चीज से नाता तोड़ कर उसी का हो रहे। पैसा ही उसके लिए सब है। भरोसा रखने वाले उसी पर भरोसा रखते हैं। मरते समय भी वो 'पानी! पानी!' नहीं पुकारता, 'पैसा!! पैसा!!' पुकारता है। दौलत, सियासत, औरत और इबादत संपूर्ण-ध्यान और पूर्ण-आत्मसमर्पण चाहती हैं। जरा ध्यान भटका और मंजिल खोटी हुई। जब तक आदमी अपने दिल और दिमाग से हर इच्छा को विदा और हर आदर्श का तर्पण कर, स्वयं को उनसे मुक्त न कर ले, ये छलावे कहीं हाथ आते हैं। फिर जब यात्री अपने दल से बिछड़ कर उनकी खोज में बहुत दूर निकल जाता है और शाम का झुटपुटा-सा होने लगता है तो अचानक उसे अहसास होता है कि मंजिल तो वहीं थी, जहाँ से उसने यात्रा शुरू की थी। इतने में सूरज डूब जाता है।
औरंगजेब ने राजपूत सरदारों के एक लश्कर को एक दूर के मोर्चे पर भेजा था। जुग बीत गए, चाँदनी रातें आईं और अपनी चाँदनी लुटा कर चली गईं। कितने ही सवान आए और नैन-कटोरों को छलका कर चले गए, पर वो न लौटे।
न नींद नैना - न अंग चैना
न आप आवें - न भेजें पतियाँ
आखिर विरह की मारी ठकुरानियों ने बादशाह को विनती भेजी जो केवल एक दोहे पर आधारित थी।
सोना लावन पी गए , सूना कर गए देस
सोना मिला न पी मिले , रुइया हो गए केस
इसे चाहें तो मानव-आत्मा की कथा समझ लीजे।
गुड मार्निंग के जवाब में गुड आफ्टर नूनः पहले दिन ड्यूटी पर रिपोर्ट करने हम सवा नौ बजे मिस्टर एंडरसन की सेवा में पहुँचे, हमारी गुड मार्निंग के जवाब में फर्माया 'गुड आफ्टर नून! इस पेशे में वक्त की पाबंदी का नंबर ईमानदारी से भी पहले आता है। मेरी समझ में नहीं आता, यहाँ लोग दफ्तर इतने लेट क्यों आते हैं। मेरी और तुम्हारी पैदाइश में इतना लंबा गैप है कि इसमें एक पीढ़ी पैदा भी हुई, बदचलन भी हुई और झक मार कर सही रास्ते पर भी आ गई।'
'मुझे वो जमाना याद है, जब लंदन में कार को प्ीेाते र्मीर्गीुा कहते थे। मैंने वो जमाना भी देखा है जब ट्राम को घोड़े खींचते थे। इसलिए उसकी स्पीड आज की ट्राम से कहीं अधिक होती थी। हाँ! तो मैं यह कह रहा था कि मेरी समझ में नहीं आता, यहाँ लोग आफिस इतनी लेट क्यों आते हैं? आज से पैंतालीस साल पहले जब मैंने एक छोटे से बैंक में नौकरी शुरू की तो सुबह बर्फ गिरती होती थी। सड़क पर घुटनों-घुटनों होती थी, लेकिन मैं जीरो से भी नीचे दस डिग्री टैम्परेचर में ठीक आठ बजे बैंक पहुँच जाता था। तुम लोग 13 डिग्री टैम्परेचर में भी टाइम पर नहीं आ सकते!'
स्टूल के अविष्कार का अस्ली उद्देश्य : इस लाभदायक सलाह के बाद उसने चपरासी को आदेश दिया कि इस 'क्विन्टिड आफिसर' (old fashioned) को उसके आफिस तक पहुँचा आओ।
चपरासी जिस जगह तक हमें ले गया वो जमीन से साढ़े चार फिट की ऊँचाई पर लकड़ी की एक समतल सत्ह थी। यह तख्ता जिसके भाग्य में हमारे पद की सूली होना लिखा था, 12 x 12 इंच से अधिक न होगा। बैंकों में ऐसे क्लर्क मौजूद थे जो बीस-बीस बरस से एक ही स्टूल पर बैठे टटपूंजियों को करोड़पति बनते देख चुके थे। इंग्लिश बैंकिंग की ये पुरानी परंपरा है कि क्लर्क जिस स्टूल पर पहले दिन आ कर बैठता है, उसी से रिटायर होकर उतरता है।
इस विचार से घबराहट होने लगी कि एक इंसान की पूरी जिंदगी, दीवार की तरफ मुँह करके एक वर्ग फिट के तख़्ते पर बीत सकती है। इस पर से कूदना, इस पर चढ़ने से अधिक मुश्किल था और गर्म थ्री-पीस सूट, बिना फ़्रेम के चश्मे और सुनहरी पॉकिट घड़ी के साथ ये करतब इंग्लिश बैंकिंग के बजाए किसी इंग्लिश कॉमेडी का हिस्सा मालूम होता था। स्टूल के बीच में गुर्दे की शक्ल का एक बहुद्देशीय छेद था। गद्दी का संकोच भी न था जिसके पीछे शायद ये सोच थी कि अस्ली बर्मा सागवान के रेशे और जौहर छुप जाएँगे। अपने 'ऑफिस' को देख कर हमारी नवजात आशाओं पर परंपरागत ओस की जगह ओले पड़ गए। हम पीछे मुड़ कर देखने लगे कि जिस बैंक में 'क्विन्टिड ऑफिसर' स्टूल पर कब्ज़ा जमा लें वहाँ गरीब क्लर्क क्या करते होंगे, लेकिन हमें कोई घड़ौंची नजर न आई। कुछ दिन बाद हमने जमादार अजमल खाँ को डांटा कि हमारा स्टूल धूल से अटा रहता है, हम उँगली से इस पर सौदे-सुलुफ का हिसाब कर लेते हैं। बोला 'बादशाहो! ऐस बैंक दे स्टूल नवीं अफसरां दे पैंदे नाल साफ कीतें जादें ने।' (बादशाहो! इस बैंक में स्टूल नए अफसरों के पेंदे से साफ किए जाते हैं) एक दिन हमने लेजर-कीपर शफी कुरैशी से कहा कि गुरुजी! ग्यारह घंटे रोज स्टूल पर बैठने के बाद आपके चेले के कूल्हे स्टूल की तरह सपाट और चौरस हो गए हैं, तो उसने सूचित किया कि स्टूल कोहनी टिकाने के लिए होता है। स्टूल के अविष्कार का अस्ल उद्देश्य तो यह था कि उसके उच्चारण और अक्षरों पर पंजाबी और गैर पंजाबी एक दूसरे पर हँस सकें।
अब और तब : उस जमाने में बैंकों में ये चमक-दमक नहीं थी जो आजकल देखने में आती है। कई बैंकों में तो वैसा ही फर्नीचर होता था जैसा छोटे रेलवे स्टेशनों और कस्बों के पोस्ट ऑफिसों में होता है। जहाँ कुर्सी की बेंत की बुनाई उधड़ने के बाद पढ़ाई समाप्त कर चुके बेटे की तख्ती जड़ दी जाती है और रिटायर होने से पहले हर बाबू चाकू से अपना नाम मेज पर खोद जाता है।
मेज, कुर्सियों की टाँगों को अभी पोलियो नहीं हुआ था और बैंकों में केकड़े जैसी टाँगों वाले मुड़े-तुड़े फर्नीचर ने 'पीरियड फर्नीचर' का रूप धार के प्रचलन नहीं पाया था। बाथरूम की दीवारों पर भी पेंसिल से जो graffitos (चित्रित पंक्तियाँ) बनाई जाती थीं, उनके बारे में हम इतना ही निवेदन कर सकते हैं कि नस्ल बढ़ाने में प्रयोग किए वाले घोड़े अपनी दिली इच्छाएँ लिखते तो यही कुछ चित्रित होता। मगर अब स्थिति बेहतर है। Bathrooms में अब अश्लील और अशिष्ट वाक्य बिल्कुल दिखाई नहीं देते। बाथरूम-टाइल्ज इतनी चिकतनी और ग्लेज्ड होती है कि उन पर पेंसिल से कुछ लिखा ही नहीं जा सकता।
और कॉमर्शियल बैंकों का क्या कहना। खुद स्टेट बैंक ऑफ पाकिस्तान का हैड ऑफिस, जिसमें बड़े अधिकारी बैठते थे, एक ऐसी बिल्डिंग में स्थित था, जिसने कभी अच्छे दिन देखे थे। मतलब ये कि यहाँ पहले एक संग्रहालय था। जिसमें हड़प्पा, मोहन-जोदड़ो और गांधार के गड़े हुए मुर्दे उखाड़ कर सजाए गए थे, जो किसी को दुख नहीं देते थे। इस इमारत में कबूतरों की इतनी बड़ी तादाद थी कि चपरासी गले में चपरास की जगह गुलैल डाले फिरते थे। चारों तरफ गुटर गूं और बिस्मिल्लाह, अल्लाहो-अकबर का गुल-गपाड़ा। सादगी का ये आलम कि बैंक ऑफ पाकिस्तान के खजानों पर कुंडली मार कर बैठने वाले एक उच्चाधिकारी 25 इंच चौड़े पाँचये की पैंट पहन कर (जिसका एक पाँयचा ही उनकी और हमारी जुरूरत के लिए काफी था) साइकिल पर स्टेट बैंक आते थे और हम उन्हें ईर्ष्या की दृष्टि से देखते थे कि हमारे पास तो वो भी न थी।
वो साइकिल को ताला लगा कर नजरों के सामने अपने कमरे ही में पार्क करते थे। ताले का तकल्लुफ इसलिए कि साइकिल अरबी घोड़े की तरह वफादार तो होती नहीं कि अपने सवार के अलावा किसी को पुट्ठे पर हाथ ही न रखने दे और घायल मालिक को मुँह में दाबे युद्ध के मैदान से बगटुट जर्राह के पास ले जाए और तलवार तथा अपने ही दाँतों के लगे हुए घावों पर मोमिया रखवाए। चपरासी का बयान था कि हजरत हर मुलाकाती के जाने के बाद दो उँगलियाँ रख कर टायरों की नब्ज देख लेते हैं।
फिर देखते ही देखते नक्शा बदल गया और दम-भर में ये हालत हो गई कि इमारतों का जंगल का जंगल खड़ा हो गया। पीले पड़े मुरमुरे पत्थर की जगह सीमेंट ने ले ली। खुले फ्रंट और नंग-धड़ंग दीवारें कम नजर आने लगीं कि बैंक जरा सियाने हुए तो इज्जत ढँकने के लिए संगेमरमर प्रयोग करने लगे।
ये बात ध्यान देने की है कि मुगलों ने ठंडे संगेमरमर का इस्तेमाल यथासंभव मकबरों के लिए सीमित रखा। इच्छा की बात थी वर्ना किसी चीज की कमी थी? वो चाहते तो तालाब के किनारे, दुश्मनों पर फेंकने के पत्थर और तोप के गोले तक संगेमरमर के बनवा सकते थे। किले की दीवारें भी, जिन पर से दंडित को जिंदा नीचे फिंकवाया जाता था।
चूँकि स्टेट बैंक को दूसरों के मकबरे बनवाने की कानूनी इजाजत नहीं है इसलिए उसे अपनी आरामगाह की दीवारें बल्कि फर्श भी रंगीन संगेमरमर का बनवा डाला जो इतना चिकना और फिसलन भरा था कि पहले ही हफ्ते में पंद्रह आदमियों की सोलह टाँगें टूट गईं। इसलिए एहतियात को दृष्टिगत करते हुए ये आदेश पारित हुआ कि चपरासी चमड़े के जूते न पहनें, क्रेप सोल पहन कर आएँ ताकि हड्डी-पसली तुड़वा कर अपाहिज न हो जाएँ। अफसरों को निर्देश था कि सिर्फ चमड़े के जूते पहनें।
उस जमाने में खुशमिजाजी का ये हाल था कि किराएदार मकान मालिक को गाली दिए बिना पाँच-पाँच मंजिला जीना चढ़ जाते थे। फिर वो समय भी आया कि स्टेट बैंक ने केवल पहली मंजिल तक जाने के लिए escalator का चोंचला किया तो डेढ़-दो महीने तक कोई दिन ऐसा नहीं बीता जब उसकी अंतिम सीढ़ी में फँस कर डेढ़-दो सौ लावारिस जूते जमा न हो गए हों। इन जूतों का भूतपूर्व संबंध उन औरतों से था जो पतियों की आज्ञा के बिना चोरी-छुपे 'एस्केलेटर' देखने आईं और किसी तरह पैर सलामत लेकर लौटीं। सुबह की भूली अगर शाम तक नंगे पैर भी घर लौट आए तो उसे भूली नहीं कहना चाहिए। इन जूतों में कभी कोई मर्दाना जूता नहीं पाया गया, जिसके दो कारण थे। पहला ये कि मर्द जूते छोड़ कर भागना कायरता समझते हैं, दूसरे वो अपने जूतों के फीते कस कर बाँधते हैं।
राजधानी इस्लामाबाद अभी पाकिस्तान के नक्शे पर नहीं उभरी थी और कराची ही मार-काटधानी थी। कराची का नक्शा ही नहीं, उच्चारण और अक्षर तक गंवारू से थे। जुकाम न हो, तब भी लोग कराची को किरांची ही कहते थे। चीफ कोर्ट के सामने गांधी जी की एक निहायत भौंडी मूर्ति लगी थी, जिसकी कोई चीज, लंगोटी की सिलवटों के सिवाय, गांधी जी से नहीं मिलती थी। ग्वानीज जोड़े विक्टोरिया गाड़ी में बंदर-रोड पर हवा खाने के लिए निकलते थे। एल्फ़िस्टन स्ट्रीट पर कराची वालों को अभी प्यार नहीं आया था और वो एल्फी नहीं कहलाती थी। सारे शहर में एक भी नियोन साइन नहीं था। उस समय रद्दी माल बेचने के लिए इतने विज्ञापन की आवश्यकता नहीं पड़ती थी। नेपियर रोड पर तवायफों के कोठे, डान अखबार का दफ्तर और ऊँटगाड़ियों का अड्डा था। यहाँ दिन में ऊँटगाड़ियों का उल्लेखित पहला भाग कुलेलें करता था और शाम को तमाशबीन। गुणी लोग उस समय में भी परेशान हाल फिरते थे। (कुछ हमारी तरह थे जो केवल परेशान हाल थे) शरीफ घरानों में दहेज में सिंगर-मशीन, टीन का ट्रंक और बहिश्ती जेवर दिया जाता था। उर्दू गजल से माशूक को शेर-निकाला नहीं दिया गया था और गीतों और कजरियों में वही नदिया, निंदिया, ननदिया का रोना था। सेठानियों और ऊँचे घराने की बेगमों ने अभी साड़ी खरीदने और हिंदुस्तानी फिल्में देखने के लिए बंबई जाना नहीं छोड़ा था। ढाका और चटगाँव के बड़े व्यापारी वीक-एंड पर अपनी आरमेनियन रखैलों की खैरियत लेने और अपनी तबियत और सम्पन्नता का बोझ हल्का करने के लिए कलकत्ता का हवाई चक्कर लगाते थे। क्या जमाना था, कलकत्ता जाने के लिए पासपोर्ट ही नहीं, बहाने की जुरूरत भी नहीं पड़ती थी। आम, केला और शायर हिंदुस्तान से और लट्ठा जापान से आता था। बैंकों में अभी एयर कंडीशनर, मेज पर फाइनेंशियल टाइम्स, ईरानी कालीन, काली मर्सिडीज, कलम बंद-हड़ताल, रिश्वत, ऑस्टिन-रीड के सूट, मगरमच्छ की खाल के ब्रीफकेस और इतनी ही मोटी पसर्नल खाल रखने का चलन शुरू नहीं हुआ था। फकीर अभी हाथ फैला-फैला कर एक पैसा माँगते और मिल जाए तो उदार-दाता को बहुसंतान होने की बद्दुआ देते। फकीर अपनी औकात नहीं भूला था। उपलों की आँच पर चिकनी हाँडी में चमचे से छुटी हुई उड़द की बिना धुली दाल चटखारे लेकर खाता और ईश्वर के गुण गाता।
हम उल्टे , बात उल्टी , यार उल्टा : जिन साहब के जिम्मे हमें बैंकिंग के भेदों से परिचय कराना था, उनकी कंजूसी की अजीब स्थिति थी। बुद्धि के प्रयोग में भी कंजूसी से काम लेते। दिन-भर आई हुई डाक के लिफाफों को जमा करते रहते और उन्हें उलट कर 'रफ पैड' के तौर पर प्रयोग करते। अपनी परदेसी बेगम को भी इसी कागज पर अपनी खैरियत की खबर देते। उनके एक प्रेम-पत्र का वाक्य आज तक दिल पर लिखा हुआ है। 'बेगम! इस दुनिया में सिर्फ तुम्हीं मेरी दोस्त और हमदर्द हो'। पेंसिल जब घिसते-घिसते इतनी सी रह जाती कि बगैर चिमटी के पकड़ में न आ सके तो वो टोंटे पर इसी कागज की नलकी चढ़ा कर इतना लंबा कर लेते थे कि लिखते में दूसरा सिरा उनके चश्मे के शीशे पर 'वाइपर' की तरह पुचारा फेरता रहता था। उस नलकी में एक दाँत-कुरेदनी और पाँच-छह लौंग डाल लेते। दर्द बहुत सताता तो एक लौंग निकाल कर दाढ़ के नीचे दबा लेते, इस बीच स्टाफ गालियों के आनंद से वंचित रहता। एक दिन हम पर कृपा की तो हमें भी नलकी बनानी सिखाई और विस्तार से समझाया कि बाथरूम जाएँ तो पँखे का स्विच ऑफ करके जाया करें, और खुदा के लिए अपने गुस्से और मसाने को कंट्रोल करना सीखें। टिक-मार्क लगाना भी उसी दिन सिखाया। कहने लगे बैंक में टिक-मार्क इस तरह (प्र्) नहीं बल्कि इस तरह (द्य्) लगाते हैं। हम इस गलती से इतने शर्मिंदा और आशंकित हुए कि अपनी हर बात को उल्टी और गलत समझने लगे। तीन-चार दिन बाद हमारा चालान हुआ। कहने लगे, 'मैं तो तंग आ गया, आपकी हर बात उल्टी है। भाग का निशान इस तरह बना हुआ तो मैंने, खुदा की कसम, अपने पूरे कैरियर में नहीं देखा।' हमने मजबूरी निवेदन की कि हमने एहतियात और डर से इसे खड़ा कर दिया है। वो तो भली रही कि उन्होंने गुणा के निशान में कोई परिवर्तन नोटिस न किया, वरना हमने तो अपनी तरफ से दाँएँ डंडे को बाईं तरफ और बाएँ डंडे की दाईं तरफ कर दिया था। यासूबुल हसन गौरी, कि उनका यही नाम था, किसी क्लर्क से नाराज होते तो अंग्रेजी में उसका सम्मान वर्द्धन करते। इससे चैन न मिलता तो अंत में अस्ली देसी गाली का कड़कड़ता छौंक लगाते। मुँहजोर अधीनस्थों को उन चपरासियों और क्लर्कों की लिस्ट दिखाते जो बीते तीस साल में उनकी छंगुलिया इशारे से बर्खास्त हुए थे। बाबर ने भी दो-तीन बार अपने दुश्मनों के कटे हुए सिरों के मीनार बनवाए थे ताकि पराजित लोग आतंकित हों। हाँ! कभी हमें उन्नति की ओर उकसाना होता तो दराज से एक ग्राफ निकाल कर दिखाते। इसमें लकीरों से ये दिखाया गया था कि उन्होंने पिछले तीस सालों में बरस-दर-बरस कितनी उन्नति की है। हमने देखा कि 27 साल तक, यानी पाकिस्तान बनने से पहले, उनके कैरियर के ग्राफ की जो लकीरें, धरती पर लोट लगा रही थीं, वो 1947 में कपड़े झाड़ कर एक दम खड़ी हो गई और अब उनकी दिशा आसमान की तरफ थी। उनके उत्थान की उछाल की तर्ज पर हमने भी अपने कैरियर का चार-साला ग्राफ बनाया। अगर उसे उल्टा करके देखा जाता तो हमने भी बड़ी तेजी से उन्नति की थी।
कुछ तो स्वभाव से वहमी थे और कुछ शक तथा शुब्हे को उन्होंने पेशेवर डिसिप्लिन के तौर पर अपना लिया था। अवसर-अनवसर यही उपदेश देते कि हर चीज को शक की नजर से देखना सीखो। चौकस बैंकर नोट खड़कने की आवाज से भी चौंक पड़ता है। आठ करोड़ की आबादी में कुछ नहीं तो सोलह करोड़ ताले जुरूर होंगे। इसी से अनुमान लगा लो हम लोग एक-दूसरे पर कितने प्रतिशत भरोसा करते हैं। जब हर हस्ताक्षर और चेहरा जाली और हर आंकड़े में हथकड़ी दिखाई पड़ने लगे तो समझ लो कि तुम एकाउंटेंट बनने के लायक हो गए हो। रजिस्टरों की एंट्रियों का मैग्नीफाइंग ग्लास से बार-बार मुआयना करते कि किसी ने रबर से मिटा कर कुछ और तो नहीं लिख दिया। किसी के कब्जे से चरस या बगैर लाइसेंस की बंदूक या दूसरे की बीबी बरामद हो जाती तो शायद इतना हंगामा नहीं होता जितना हमारी दराज से रबर बरामद होने पर। हम तो हम थे, उन्हें अपनी किस्मत की रेखाएँ भी तकदीर लिखने वाले जालसाजी नजर आती थी।
नियम-कानून के मानने वाले थे। बाथरूम में सड़क के बाईं तरफ चलते थे। उनके दुश्मनों का कहना था कि कभी ट्रेन से लाहौर जाना हो तो अपनी बर्थ पर रात भर उकड़ूँ बैठे स्टेशनों के टाइम-टेबल से और हर आए-गए से अपनी घड़ी को मिलाते रहते हैं। इस डर से आँख नहीं झपकाते कि सोते समय कहीं उनका डिब्बा न कट जाए और इंजन उन्हें जंगल-बियाबान में छोड़ कर खाली हाथ पिस्टन हिलाता हुआ लाहौर पहुँच जाए। एक दिन हमारे सामने जमादार अजमल खाँ को अपनी बेगम के नाम चिट्ठी दी कि अंदर की जेब में रख के ले जाओ और जनरल पोस्ट ऑफिस के लैटर बॉक्स में डाल आओ। वो पोस्ट कर के आया तो ये जिरह हुई।
'चिट्ठी डाल आए?'
'जी हाँ! डाल आया।'
'लैटर-बॉक्स के ताले को जोर से खींच कर देख लिया था कि ठीक से बंद है या नहीं?'
'मैं जोर-जोर से खींच रहा था कि एक डाकिए ने पकड़ लिया।'
'अबे! फॉरेन-मेल के डिब्बे में तो नहीं डाल आया? लैटर-बक्स के अंदर चारों उँगलियाँ डाल कर पोस्ट किया था?'
'यस सर! मैंने तो अँगूठा भी डाल दिया था।'
'लैटर-बक्स से कान लगा के लिफाफा गिरने की आवाज सुनी थी? या इस बार भी दूर से ही मस्ती करके आ गया?'
वो एक छोटे से बरसाती गाँव में पले-बड़े थे, जहाँ कदम-कदम पर साँप, बिच्छू और साझे बुजुर्ग काटने को दौड़ते थे। चुनाँचे अब भी ये हाल था कि सुबह जूते में इस डर से पाँव नहीं डालते थे कि साँप दुबका न बैठा हो और पैर डालते ही डस ले। इसलिए पहले हाथ डाल कर तसल्ली कर लेते थे। दफ्तर में बनी हुई चाय नहीं पीते थे कि कहीं कोई कुछ मिला न दे। मलबारी होटल से एक आने की कड़क सुलेमानी चाय मंगा कर दिन में तीन-चार बार तलब मिटा लेते थे। उसे चाय कहने में विनम्रता के अतिरिक्त देखने और सूँघने की इंद्रियों की दुर्बलता चाहिए थी। इसमें पोदीना, बड़ी इलायची, अजवायन, सफेद जीरा, लाहौरी नमक, केसर, तंबाकू के पत्ते पर पली हुई मक्खियों का शहद, नींबू, दार-चीनी, और केवड़ा तो हम भी पहचान लेते थे। सुनने में आया था कि अब्दुल्ला मलबारी इसमें दूध के बजाय पहलन (पंजाबी में पहली बार ब्याई हुई गाय या भैंस को कहते हैं) का खीस डाल कर अफीम या शिलाजीत की सलाई फेर देता है। जिसने एक बार उसके हाथ की चाय पी ली, हमेशा के लिए उसी का हो रहता है। यासूब साहब तो चाय को केतली से हल्क में उंडेल लेते थे। किसी हकीम को भनक नहीं पड़ी वरना इस नुस्खे से तो यूनानी बीमारियों का इलाज किया जा सकता था। बहुत-सी रूठी हुई, अटवाटी, खटवाटी लिए पड़ी हुई जवानियों को मनाया जा सकता था।
हमने शिकायत की कि हमें एक ही सूली पर लटके हुए चार महीने हो गए, दूसरे डिपार्टमेंट का जायका चखने की भी इजाजत मिलनी चाहिए। दूसरे दिन उन्होंने हमें रांगीवाड़ा में शेख शम्सुद्दीन एंड संस के चमड़े के गोदामों और कच्ची खालें कमाने के हौजों का मुआयना करने भेज दिया। हमें मालूम नहीं कि जहन्नुम में दूसरी यातनाओं के साथ बदबू की व्यवस्था भी होगी या नहीं लेकिन अगर हुई तो देख लीजिएगा कि यही होगी। तीन दिन तक हर चीज से वही सड़ांध आती रही। दिमाग में बस के रह गई। थोड़ी बहुत उस समय निकली जब हम मिर्चों के गोदाम का मुआयना करके दो दिन तक छींकते फिरे। ये बदबू, बकौल शायर, मिलने की हसरत की तरह निकलने को तो निकली, मगर जैसी निकलनी चाहिए थी, वैसी नहीं निकली।
पुराने विचारों की हयादार बीबियाँ हर मर्द का नाम ले सकती हैं, सिवाय अपने मियाँ के। अपने मर्द का नाम लेना बेहयाई में गिना जाता है। यासूबुल हसन गौरी भी किसी 'उन' अंग्रेज का नाम नहीं लेते थे। उनका जिक्र आते ही 'बड़ा साहब', 'बॉस' और 'चीफ' का घूँघट निकाल लेते थे। एंडरसन के कमरे से उल्टे पैरों निकलते। कभी पीठ नहीं करते थे, इसलिए आखिरी कदम तक मुँह-दर-मुँह डाँट खाते जाते। एंडरसन कभी अचानक आ निकले तो जलते हुए सिग्रेट का मुट्ठी में दम घोंट देते। नाक और मुट्ठी से देर तक धुँआ लीक होता रहता। वो गाली भी देता तो बिल्कुल इस तरह सुनते जैसे हिज मास्टर्स वाइस के रिकार्ड में दिखाया जाता है। कड़कड़ाते जाड़े में उसकी बात का जवाब केवल गर्दन के इशारे से देते थे। अंग्रेज के सामने मुँह से भाप निकलने का गुस्ताखी मानते थे। गरज ये कि अंग्रेजों का सम्मान करने में हद से गुजर जाते और उन्हें प्राकृतिक आवश्यकताओं से ऊपर समझते थे। ब्रिटेन की महारानी के बच्चा हो गया तो हफ़्तों शरमाए-शरमाए फिरे।
दुबारा ये घटना न दुहराई जाए : अगर किसी से गलती हो जाए और लंदन केबिल भेजने में एक डेढ़ घंटे की देरी के कारण बैंक पर एक दिन का ब्याज चढ़ जाए तो गलती करने वाले को वो राशि अपनी जेब से भरनी पड़ती थी। ब्रिटिश बैंकों में ये जुर्माना आम था। छुट्टी का नाम लेते ही -
भवें तनती हैं , खंजर हाथ में है , तन के बैठे हैं
वाली हालत हो जाती। हमें याद है जून का महीना, फ्री-इम्पोर्ट का जमाना था। काम अत्यधिक, आदमी कम। हम चार आदमियों के बराबर काम और आठ आदमियों के बराबर गलतियाँ बड़ी तेजी से कर रहे थे। एक मनहूस सुबह खबर आई कि टंडो-आदम में अखबार पढ़ते-पढ़ते अब्बा-जान को दिल का दौरा पड़ा और धरती ने अपनी अमानत वापस ले ली। हैदराबाद में उनके अंतिम संस्कार के लिए तीन दिन का आकस्मिक अवकाश लेने पर यासूबुल-हसन गौरी ने हमारा वेतन काट लिया, जो कुछ समय बाद एंडरसन ने इस वार्निंग के साथ वापस किया कि दुबारा ये घटना न दुहराई जाए। सुल्तान अलाउद्दीन खिलजी भी ऐसा ही करता था। अगर कोई सवार लड़ाई के समय अनुपस्थित हो जाए तो सुल्तान उससे बीते तीन साल का वेतन धरवा लेता था। अहमद शाह दुर्रानी ने तो छोटे-से आदेश का उल्लंघन करने पर दो सौ सिपाहियों की मुश्कें बँधवा दीं। नाक में तीरों से छेद करके नकेलें डालीं और ऊँटों की तरह हाँक कर शुजाउद्दौला के पास भेज दिया कि चाहे मार डालो या सजा के तौर पर, माफ करके, इसी तरह दुश्मन से लड़ाओ।
हाथ की लकीरें बोलती हैं : हम रेवड़ में नए-नए आए थे। हर एक सींग मारता था -
की जिससे बात उसने हिदायत जुरूर की
यूँ तो सारे स्टाफ की खिड़कियाँ हमारे ही आँगन में खुलती थीं, लेकिन यासूबुल हसन गौरी का अँगूठा हमारे टेंटुवे पर ही रहता था। रोज-रोज के तानों, कोसनों से हमारा कलेजा छलनी हो गया था बल्कि छलनी में छेद भी हो गए थे। कुल सामूहिक आरोपों के अलावा हम पर एक आरोप ये भी था कि हमारे हस्ताक्षर उद्दंडता की हद तक लंबे हैं। इतनी छोटी तनख्वाह इतने बड़े हस्ताक्षरों की फिजूलखर्ची एफोर्ड नहीं कर सकती। यासूबुल हसन गौरी को एंडरसन दिन में कई बार तलब करता। कभी कुछ पूछता, कभी कुछ। अंदर जाने से पहले वो अपनी हथेली पर 'कॉपिंग' पेंसिल से तमाम संबंधित और असंबंधित आंकड़े नोट कर लेते, जिनके बारे में एंडरसन सवाल कर सकता था। जैसे ही वो सवाल करता यासूबुल हसन गौरी मुँह फेर कर अपनी हथेली के संबंधित हिस्से को जीभ से चाट कर अक्षरों को स्पष्ट करते और फटाक से सही गणना आने-पाई समेत बता देते। एक दिन हमने निवेदन किया, 'आप कागज पर लिख कर क्यों नहीं ले जाते?' बोले, 'आपको बैंक में आए जुमा-जुमा आठ दिन हुए हैं। आप अंग्रेजों के स्वभाव से परिचित नहीं। कागज पर रिपोर्ट करके ले जाऊँ तो वो ये समझेगा कि मेरी याददाश्त चली गई है। मैं बूढ़ा हो गया हूँ। अभी तक तो वो विलायती उल्लू समझता है कि मुझे सारे आंकड़े मुँह-जबानी याद हैं।'
इसके कुछ दिन बाद एंडरसन ने हमें बुलवाया और पूछा, 'नारायणगंज ब्रांच के बट्टेखाते-कर्जों की इकट्ठी रकम और गिनती क्या बनती है? सही-सही बताओ।
सही-सही तो एक तरफ, हम तो गलत जवाब देने की हालत में भी नहीं थे। हमें स्तंभित देखा तो कहने लगा, 'हरी आप! जल्दी से हथेली चाट कर बताओ।' उस दिन हमने देखा कि एंडरसन की मेज पर पीतल के भारी कामदार पेपरवेट की जगह प्लास्टिक के छह घटिया पेपरवेट रखे हैं। हमने जमादार अजमल खाँ से कहा कि पीतल के पेपरवेट अच्छे लगते थे, क्यों बदल दिए? कहने लगा, 'गौरी साहब बोलते हैं कि प्लास्टिक की चोट से सैप्टिक नहीं होती।'
क्या बियर हराम है : एक दिन जुमे की अजान के समय हमें बैंक में गप-शप करते देखा तो इशारे से एकांत में यानी बाथरूम के दरवाजे तक ले गए और उपदेश दिया कि नमाज पढ़ा करो। इससे ध्यान गबन की तरफ नहीं जाता, बशर्ते पाँचों-समय पढ़ी जाए।
इतवार की सुबह को हजरत गुलाम अहमद का प्रवचन सुनने जाते। दो-तीन बार हमें भी ले गए। पर तबीयत इधर नहीं आई। फिलासफी और शेरों की मारों से भरे प्रवचन पर हमें अपने गद्य का संदेह होने लगा। ये तो ऐसा ही था कि कोई रूलर स्केट पहन कर सिजदा करने की कोशिश करे। रहे अबुल कलाम आजाद, सो वो अपने अहंकार के डँसे हुए थे। इस्लाम में अगर सिजदा करने की अनुमति होती तो वो अपने-आप को सिजदा करते। यासूबुल हसन गौरी कहते थे कि धर्मात्मा लोगों के संग-साथ से रूह का सारा जंग उतर जाता है; अलबत्ता दिल पर जो फफूंदी लग गई थी, उसे इतवार के तीसरे पहर बियर से रगड़-रगड़ कर धोते थे। एक डॉक्टर ने कहा था कि तुम्हारे गुर्दे में जो पथरियाँ हैं, वो इस साप्ताहिक कृत्य से फ्लश हो जाएँगी। अक्सर कहते कि यूँ भी बियर को कठमुल्लों ने ख्वामख्वाह हराम कर रखा है। ईरान में तो इसे जौ का पानी कहते हैं।
खुदा जाने कहाँ तक सही है, दुश्मनों ने उड़ाई थी कि मार्शल अय्यूब खाँ के पतझड़-काल में सरकारी मुफ्ती-ए-आजम डॉक्टर फजलुरर्हमान ने, जो हीगल यूनिवर्सिटी से धर्मज्ञान की डिग्री लाए थे, यह फतवा दे दिया कि बियर में केवल 5 प्रतिशत अल्कोहल और 95 प्रतिशत पानी होता है। इसका पीना हलाल है। इसी किस्म के दो-तीन फितूर-भरे फतवों के बदले में उन्हें देश-निकाला दे कर दस गुने वेतन पर अमरीका भेज दिया गया। अगर डॉक्टर साहब जरा-सी समझ और साइंस से काम लेते तो फत्वे में समझदारों को इतना-सा इशारा कर देते कि बियर 95 प्रतिशत हलाल है।
न करे है न डरे है : गबन, अमानत में खयानत और जाली नोट और हस्ताक्षर करने के जितने भारी सश्रम और अश्रम दंड थे, उनसे संबंधित सारे नियम-विधान हमें सामने बिठा कर कंठस्थ करा दिए। चार-पाँच पाठों के बाद हम इतने कुशाग्र हो गए कि अपना हर काम किसी-न-किसी धारा के अंतर्गत दिखाई देने लगा। हर क्षण कानून के लंबे हाथ का बोझ अपने कंधे पर महसूस करते-करते हमारी चाल में अंतर आ गया। फिर एक दिन ध्यान आया कि हमारे और गबन के बीच में तो कई मजबूत तिजोरियाँ और हमसे भी अधिक बदनीयत अफसर खड़े हैं, तो फिर डर काहे का। मुगल-साम्राज्य के शुरूआती काल के शायर नूरी ने भी इसी प्रकार की निर्भयता प्रकट की है, हालाँकि उसने तो खुद को ईमानदार साबित करने के लिए किसी बैंक में नौकरी भी नहीं की।
बीमारी इस इलाज से बेहतर है : अक्सर कहते कि चिंतन से मेरे गुर्दे में पथरियाँ हो गई हैं। खान सैफुल मलूक खान की सोच थी कि पथरियों की तादाद उनके दिए हुए बट्टे-खाते, कर्जों के बराबर है। उन्हें निकालने के लिए हर पंद्रह मिनट बाद एक गिलास पानी पीते और उसकी एक लकीर अपने सिग्रेट के पैकेट पर खींच देते। शाम को खाली पैकिट जमा करते और उन पर लगाए हुए निशानों को जोड़ कर यह देखते कि आज कितने गिलास पानी पिया है। फिर facit मशीन पर गिलासों के गैलन और गैलन के पैकेट बना कर देखते कि बाकी पथरियों को निकालने के लिए कितने पैकेट और फूँकने पड़ेंगे।
बला के वहमी थे। मिजाज पूछो तो जवाब नहीं देते थे, कराहने लगते थे। इस क्रिया से निवृत्त होते तो 'अलहम्दुल्लिाह या खुदा का शुक्र है-इस तरह से कहते मानो अपनी आस्था सुदृढ़ करने का ढिंढोरा उद्देश्य है, चैन कहाँ है। चालीस साल से अपने जीवन से मायूस थे। एंडरसन के जोर देने पर एक बार डॉक्टर सिमकॉकस से भी संपर्क किया था। उन्हीं का बयान है कि मेरा हाल देख कर डॉक्टर सिमकॉकस की नब्जें छूट गईं। अपने पलंग की पांयती एक आदम कद Anotomy Chart खड़ा कर रखा था। दिन में शरीर के किसी न किसी हिस्से में दर्द जुरूर होता, कहीं-न-कहीं टीस जुरूर उठती। शाम को शीशे के सामने खड़े हो कर मुँह से मुँह, हड्डी से हड्डी, गुर्दे से गुर्दा और रग से रग मिला कर तसल्ली करते आज कौन से अंग पर फालिज गिरा। फिर उसका इलाज कश्मीर होटल के भुने गोश्त और बिरयानी से करते थे, जिसमें बराबर के बादाम पड़े होते थे।
हमने तो उन्हें अपनी तनख्वाह और तंदुरुस्ती की तरफ से हमेशा चिंतित ही देखा। एक साल पहले उनके चचाजान सो कर उठे तो पता लगा कि लकवा मार गया है। ऊपर का होंठ टेढ़ा हो गया। चचाजान पर इन हमलों से उनकी अपनी तबियत पर ऐसा लकवा पड़ा कि सुबह आँख खुलते ही आइने में अपना ऊपर का होंठ ऊपर जुरूर कर लेते थे और नलके के नीचे नहाने से पहले घुटने पर डॉक्टर की तरह छोटी-सी हथौड़ी मार Relflexes देख लेते थे कि रात लकवा पड़ा कि नहीं। बाथरूम की अंदर की चटखनी भी नहीं लगाते थे कि लाश निकालने में आसानी रहे। ये थे हमारे पहले शिक्षक।
डीसूजा की कैंची : उस जमाने में न कोई ट्रेनिंग होती थी, न लेक्चरों का बखेड़ा। नया आया व्यक्ति घुस-पैठ कर खुद कुछ सीख ले तो सीख ले, वरना कोई कुछ बात कर नहीं देता था। केवल ये हिदायत थी कि हर बात 'आब्जर्व' करते रहो। बस देखते चले जाओ। नए रंगरूट पर पुरानों को छोड़ दिया जाता था। जैसे एक जमाने में रोम में सच और झूठ का फैसला भूखे शेर किया करते थे, जिन्हें ईसाइयों पर छोड़ दिया जाता था। शेर वैजिटेरियन न थे। जनता तालियाँ बजा-बजा कर सच यानी शेर की जीत पर प्रसन्नता प्रकट करती थी।
बैंक अपने तार और केबिल गुप्त 'कोड' में भेजते हैं। इसका लाभ ये है कि जिनको बैंक के साथ फ्राड करना हो उन्हें पहले उसका कोड चुराना पड़े। यह कोड इतनी भारी-भरकम होती है जितनी आम डिक्शनरी। डीसूजा पच्चीस साल से सादा अंग्रेजी को पैटरसन कोड में बदलने और उस आमलेट से दोबारा अंडा बनाने पर तैनात था। सारी कोड रट गई थी और बिना देखे अनुवाद कर लेता था। अकेला पाँच आदमियों के बराबर काम करता था। उसके जिम्मे हमें इस पिशाच भाषा में तार बनाना सिखाना था। झक्की था। सुनने में आया था कि पंद्रह साल पहले उसे एक ग्वानीज टाइपिस्ट से इश्क हो गया था, लेकिन वो एक हिंदू व्यापारी से शादी करके हाँगकांग चली गई। उस दिन से उसका यही हाल था। अवकाश के समय अपनी महबूबा के नाम 'पैटरसन कोड' में एक्सप्रेस तार ड्राफ्ट करता और फाड़ता रहता। कोई पास जाता तो तार को हाथ से ढांक कर कहता, क्या तुम्हारी माँ बहनें नहीं।
बड़ी-बड़ी आँखों में, जो उबली पड़ी थीं, जागते रहने के कारण लाल डोरे। सिर आगे से गोल-पीछे से चपटा, गेहुँआ रंग, चेहरे पे स्थाई पागलपन। रात को दो घंटे से अधिक नहीं सोता था। दफ्तर आते ही अपना काला कोट, जिसका कॉलर रोज प्रेस करने से चमकने लगा था, कुर्सी पर टाँग देता। नजर इतनी कमजोर कि जब तक हमारा चेहरा उसकी आँख के ढेले से तीन इंच के फासले पे न हों हमें नहीं पहचान पाता था। इतनी दूरी से हमारे सिर में पड़े हुए गार्डीनिया तेल की खुशबू से हमें फौन पहचान लेता था। चश्मे की कसम थी। सुबह 8.30 बजे रजिस्टर पर सिर टिकाता तो छह बजे उठाता था। कभी कोई झूठों भी छेड़ देता तो दफ्तर में भूचाल आ जाता। मार-पिटाई के बाद वो बाएँ हाथ पर कोट डाल कर चीफ एकाउन्टेंट के सामने जा खड़ा होता। दाएँ हाथ से अपने सोला हैट को छूता। दोहरा हो कर Bow करता और बिना कुछ कहे-सुने दरवाजे से गोली की तरह निकल जाता। इसका मतलब यह होता कि उसने वहीं और उसी समय त्यागपत्र दे दिया है, कल से बैंक नहीं आएगा। शाम को दो-तीन वाचाल अफसर उसे मनाने घर जाते और मिन्नतें करके दूसरे दिन आने के लिए तैय्यार करते। जून-जुलाई में भी कंबल ओढ़ कर सोता। कहता था, कंबल न ओढूँ तो डरावने सपने दिखाई देते हैं। दफ्तर में जहाँ बैठता वहाँ पँखा नहीं चलने देता था। कहता था पँखा चलने से मुझे खूनी बवासीर हो जाती है। उससे बैंकिंग के राज जानना ऐसा ही था जैसे किसी खूंखार कुत्ते के जबड़े में दबी हुई नली से गूदा निकालना।
डीसूजा की सेहत ईष्या करने की सीमा तक अच्छी थी। किसी ने उससे पूछा कि तुम्हारे स्वास्थ्य का क्या रहस्य है तो उसने जवाब दिया मैं कभी चित्त नहीं सोता, पच्चीस साल से कोई छुट्टी नहीं ली। एक दिन वो अचानक गैरहाजिर हो गया। दूसरे दिन उसके घर एक अफसर भेजा तो वो खबर लाया कि डीसूजा पुलिस थाना परेडी स्ट्रीट की हवालात में बंद, जहाजी साइज की गालियाँ बक रहा है। उसके बाप की समरस्ट स्ट्रीट में टेलरिंग की बड़ी पुरानी दुकान थी। किसी बात पर बाप से झगड़ा हो गया और उसने जहाजी साइज की कैंची उसके कूल्हे में घोंप दी। नौ टाँकें आए।
इस घटना से बैंक में घबराहट फैल गई। लोग उसके दाएँ बाएँ दो-दो कुर्सियाँ छोड़ कर बैठने लगे। डिस्पैच डिपार्टमेंट ने अपनी कैंची कैश-बॉक्स में ताला लगा कर रख दी। दूसरी तरह की कैचियाँ भी तालू से लग गईं। बड़े-बड़े अफसर कमर पर पीछे हाथ बाँध कर चलने लगे। डीसूजा को पेंसिल की नोक भी तेज करते देखते तो काँप उठते। एक दिन चार-पाँच क्लर्क हमारे नेतृत्व में चीफ एकांउटेंट के सामने परिवेदन की सूरत में प्रस्तुत हुए और आर्तनाद किया कि दो-तीन दिन से डीसूजा के सामने एक सात इंच गहरा घुसने वाला पेपर नाइफ पड़ा है, जिससे वो खेलता रहता है। हमें टाँके लगवाने से डर लगता है। चीफ एकाउंटेंट ने डीसूजा को बुलवा कर नर्मी से समझाया कि तुम चाकू वापस कर दो। इन बिचारों को डर लगता है।
कहने लगा, 'यह साला लोग काए को बूम मारता है, बेफुजूल डरता पड़ा है। ये मेरा फादर थोड़ा ही है।'
इबादुर्रहमान कालिब : पाकिस्तान माइग्रेट करने से पहले न जाने क्यों ये सोच थी कि Promoissed land में हर शख्स कबाब-परांठा खाता होगा। दालें और सब्जियाँ केवल हिंदुस्तान को याद करने के लिए उगाई जाती होंगी। नाई, सारंगिए और फ्रीस्टाइल कुश्ती लड़ने वाले भी दाढ़ी रखते होंगे। बाजारों में हर कदम पर हमारे संयम की परीक्षा लेने के लिए इतने सारे हसीन न छोड़ रखे होंगे। हर शख्स ईंट का जवाब शेर से देता होगा। ईश्वर की कृपा से ये आशंकाएँ गलत साबित हुईं। अलबत्ता ये देख कर कुछ मायूसी हुई कि बैंक में सब सूट या कमीज पतलून पहनते हैं, सिवाय इबादुर्रहमान कालिब के, जो हमेशा टसर की शेरवानी पहनते और उसकी ऊपर की जेब में फाउंटेन पैन की तरह दातौन लगाते, जिसका सक्रिय सिरा बाहर निकला रहता था। निचली जेब में शायरी की डायरी और पान की डिबिया, डिबिया में पानों के ऊपर चमेली के तीन फूल। उन्होंने हमें करोड़पतियों के करेंट एकाउंट की झलकियाँ दिखाईं। हम देख कर दंग रह गए कि कव्वे की तरह काला 'क्रेडिट बैलेंस' किस तरह धीरे-धीरे सुरमई होता है और फिर लाल चहचहा हो जाता है। मुन्ने-मुन्ने सेविंग डिपाजिट से बड़े-बड़े ओवर ड्राफ्ट बनते हैं और उनसे बड़े-बड़े कारखाने, जो उन्हीं ओवर ड्राफ्ट देने वालों को नौकर रख लेते हैं। इबादुर्रहमान कालिब अखबार बड़े ध्यान से पढ़ते थे। जहाँ कहीं बुरी खबर नजर आ जाए, टाँक लेते थे। अक्सर कहते देखा मेरी आशंका ठीक साबित हुई। दिन भर अखबार की जुएँ बीनते रहते। शाम तक, कभी किसी अच्छी खबर पर नजर पड़ जाए तो दूसरे दिन तक कुढ़े रहते। एक दिन बहुत ही खतरनाक सूरत बनाए बैठे थे, पूछा क्या बात है? ठंडी आह के बाद बोले 'मेरे रिटायरमैंट में कुल बाईस साल बचे हैं, कच्चा साथ है।' उस जमाने में बैंक का अधिकतर स्टाफ गुजराती बोलता था। मुख्य पदों पर गुजराती बोलने वाले नियुक्त थे जिसका उर्दू बोलने वालों के बारे में विचार था कि इन्होंने शेरो-शायरी के लिए बिल्कुल सही तबियत पाई है, लेकिन कैश और इनके काव्योन्मुख मस्तिष्क के बीच एक सावधानी का गैप जुरूरी है। इबादुर्रहमान कालिब इस पर बहुत कुढ़ते थे। शेरो-शायरी पर तानेबाजी के विरोध में वो एक विस्तृत महाकाव्य लिख रहे थे, जिसका केंद्रीय विचार दांते के नर्क से और केंद्रीय चरित्र बैंक से लिए गए थे। इस महाकाव्य में फरिश्ते फारसी में, आदम उर्दू में, हव्वा रेख्ती (शायरी की स्त्रैण शैली) में बात करते थे।
सुनने में आया था कि कालिब साहब के स्वर्गीय पिता भी शायर थे और अपने सामने किसी को कुछ नहीं समझते थे। चुनांचे मरते वक्त भी अपना ही एक मक्ता जबान पर जारी था। कालिब उपनाम रखने के पीछे नजरों से छुपा हुआ तो यही कारण मालूम होता है कि गालिब के मक्तों में बगैर रंदा मारे या पच्चर ठोके फिट हो जाता है। बैंकों में शेर और साहित्य का स्तर तो आप जानते ही हैं, गालिब के शेर अपने बता कर असाहित्यिक लोगों से दाद लेते रहे। मुजीब साहब भी अक्सर यही करते थे। एक दिन कालिब साहब ने अपना एक शेर सुनाया जो एक हफ्ते पहले मुजीब साहब और एक सदी पहले गालिब अपना कह कर सुना चुके थे। हमने अकेले में ध्यान दिलाया तो बिना भौं सिकोड़े, शर्मिंदा हुए स्वीकार कर लिया कि चोरी करने में खयाल टकरा गया है।
वो नीम कहाँ से लाएँ : इबादुर्रहमान कालिब बुलंदशहरी सुम टोंकी, टोंक की म्यूनिस्पिल कमेटी में क्लर्क थे। वेतन 30 रुपए चिनोर शाही के जिसके बीस रुपए कलदार बनते हैं मगर ये नशा क्या कम था कि उनकी मर्जी के बिना कोई कुत्ता टोंक में भौंक नहीं सकता था, न कोई परनाला उनकी मंशा के बगैर गलत जगह गिर सकता था। अपनी त्यागी हुई हवेली से अधिक उस नीम को याद करते थे जिसे आँगन में सिर झुकाए अकेला छोड़ आए थे। कहते थे, मकान के बदले मुझे मकान एलाट हो गया लेकिन सरकार वो नीम कहाँ से लाएगी जिसकी छाँव में नींद की परियाँ झूला झुलाती थीं, जिसके नीचे एक बच्चे ने निंबोलियों की दुकान लगाई थी। जहाँ बहनें गुड्डे-गुड़िया खेलीं, शादी की शहनाई बजी, बाप का जनाजा रखा गया फिर उसी बूढ़े नीम की सींक उदास माँ ने कानों में पहन ली। कहा जाता है, औरंगजेब को जब यह सूचना दी गई कि कश्मीर की ऐतिहासिक मस्जिद में आग लग गई है तो उसने कहा मस्जिद तो दुबारा बन जाएगी लेकिन मस्जिद के आँगन में लगे चिनार जल गए तो एक हजार औरंगजेब मिल कर भी एक बूढ़ा चिनार पैदा नहीं कर सकते।
अब उन्हें कौन बताता कि यादों के ऐसे बूढ़े नीम तो हर गाँव, हर दिल के आँगन में छाँव देते हैं। हाँ जब दिल की आशा बुझ जाए तो उनकी जड़ें नसों-नाड़ियों की जगह ले लेती हैं।
क्या वो भी बुलनशय का है : जब तक टोंक में रहे बुलनशै (बुलंदशहर का वो इसी तरह उच्चारण करते थे) के गुण गाते रहे। कराची को अपने आराम की नगरी बनाने के बाद भी उस गलियों से नहीं निकले जहाँ जवानी खोई थी। कहीं किसी भले आदमी की तारीफ हो रही हो तो फौरन पूछते थे। क्या वो भी बुलनशै का है?
कभी कोई लाहौर के मोतिया, चिनाब रूप या कराची की सुहानी-सलोनी शाम की तारीफ कर दे तो मुकाबले पर फौरन बनारस की सुबह, बदायूँ के पेड़े, टोंक के खरबूजे और वहीं की बुरका पहने पठानियों को खड़ा कर देते। बनास नदी के किनारे गलोंद घाट के उन फालेजों (तरबूज-ककड़ी के खेत) को याद करते, जहाँ चाँदनी रातों में लोंग के लश्कारे से लहू में शरारे नाचने लगते थे। छोलदारियों के सामने दफ और दायरे पर उन्माद भरे 'चार बैत' गाते-गाते जरा सी बात पर पिंडारी खानजादों और कायमखानी पठानों के सान चढ़े खंजर और जड़ाऊ पेशकब्ज लहराने लगते। अरमान भरे सीने उनकी मियान बन जाते और खून में नहाए हुए बदन उसी रेत पर तड़प-तड़प कर ठंडे होते जहाँ केवड़े में बसी हुई लाल साफी से ढकी हई, पानी की आदमकद गोल ठंडी होने के लिए नदी की रेत में गले-गले तक गड़ी होती थी। बनास की लहरें रोज यही दृश्य देखती थीं। पिछले पहर तक जवासे की बाड़, बेला के गजरे, ताजा खून, लू में पके हुए खरबूजे, खस की पँखियाँ, मेंहदी रचे हाथों की नमी, सोंधे छिड़काव, कोरी ठिलिया और कोरे बदन की महकार से हवाएँ दीवानी हो जातीं और रात चाँद का झूमर उतार देती।
हर शाख पे पंछी बैठा है : बनास नदी बहती रहती और वो लहरों-लहरों बुलन शै पहुँच जाते। कहाँ बुलन शै कहाँ कराची, बुलन शै की क्या बात है। 'इक तीर तूने मारा जिगर में कि हाय-हाय'। ऊपर कोट पे बरसात की बहारें, क्या कहने! रिम झिम रिम झिम मेंह बरस रिया है। नद्दी, नाले और पाँयचे चढ़े हुए हैं। नंगी खुली हालियत में कोई याँ पे रपट रई है, कोई वाँ रपट रई है। कच्ची-कच्ची अंबिया पे रुम-झुम पानी बरस रिया है कोयल कूक रई है, दिल में हूक-सी उठ रई है। अंबुवा की डाली पे झूला पड़ा हुआ है। बहू-बेटियाँ कमर लचका-लचका के गा रई हैं। 'छा रही काली घटा जियरा मोरा लहराए है' सहेलियाँ झोंटे दे रही हैं। कासनी रूपट्टे उड़ते जा रिए हैं, हराम के जने लम्डे विन को हरियान कर रिए हैं। बुलबुलें चहचहा रई हैं, मेनाएँ चहक रई हैं। दूसरी डाल पे मोर बोल रिया है। विस की जुरवा अलग एक टहने पे मस्ता रई है, तीसरी डाल पे शामा ऐसा जी तोड़ के गा रई है मानो जी-जान से गुजर जाएगी, चौथी पे क्या नाम विसका, पापी पपय्या पी ऊ! पी ऊ! कर रिया है।'
पी ऊ! पी ऊ! पर खान सैफुल मलूक खान के सब्र का पैमाना एक दिन भर गया। वही स्टाइल बना कर बोले, 'अमां बस करो, साला आम का पेड़ न हुआ, शहर किरांची हो गिया कि दुनिया जहान का जिनावर अपनी-अपनी बोली बोले चला जा रिया है और खुदा की कसम उड़ने का नाम नई ले रिया।'
फुटकर आदमी : हर बैंक का अपना एक खोजबीन डिपार्टमेंट होता है जिसका काम कमोबेश वही होता है जो पुराने समय में शादी-ब्याह के मौके पर नायनों और मुगलानियों का होता था यानी चाल-चलन वगैरा की पूरी छानबीन करके गलत फैसला करना...! संबंधित पक्ष की कौन सी पीढ़ी में गड़बड़ है? दूल्हा की बाईं आँख दबी हुई है, इसका कारण मामूली लकवा है या चाल-चलन की स्थाई खराबी? दुल्हन की ननिहाल बुरके से कब बाहर निकली? नई कोठी की नींव में सीमेंट, सरिए, बजरी और ब्लैक का अनुपात चलन के मुताबिक है या घट-बढ़ की है? अगर कर्जदार नहीं है तो कारण बताओ? क्या लोग भरोसा नहीं करते? खानदान खालिस है या परदादा पानदान उठाते थे। आदमी ईमानदार, शरीफ और सौ परसेंट भरोसे के लायक है या नहीं? मतलब ये कि इन्कमटैक्स के अलावा किसी और को तो धोखा नहीं देता? अचानक रुई की कीमत गिरने से उसकी रुई तो आग नहीं पकड़ती? हार्टअटैक न होने का कारण कहीं ये तो नहीं कि घाटे-फायदे का हिसाब ही नहीं करता? आफिस से सीधा जिमखाना जाता है या घर घुसता है? कौन से दिवाले के बाद नाम से पहले हाजी लिखना शुरू किया? ये सारा विभाग हसन अहमद फारूकी के अकेले व्यक्तित्व पर आधारित था जो स्वयं अपने बॉस थे और अपने ही मातहत।
हमने उनकी शागिर्दी पकड़ी तो कहने लगे बर्खुरदार तुम जिस तेजी और अनमनेपन से काम कर रहे हो, उस पर तो आत्महत्या की असफल कोशिश का सा भ्रम होता है। आत्महत्या की और भी तरकीबें हैं जिनमें इतनी मेहनत नहीं पड़ती। हमें वो बातूनी, निश्चिंत, आसानी से घुल-मिल जाने वाले फुटकर आदमी लगे। शनीचर को तीसरे पहर शतरंज खेलने बैठते तो इतवार की रात को दो बजे उठते। पान की लत ऐसी कि रात को भी कल्ले में दबा के सोते। दिल्ली के रोड़े थे। उन्हें हमारे दिमाग से अधिक जबान की फिक्र खाए जाती थी। हर एक के स्टाइल, चाल और Mannerism की बड़ी अच्छी नकल उतारते थे। कोई लखनऊ जाता तो उससे असगर अली मुहम्मद अली के इत्र शमामातुलंबर की फर्माइश जुरूर करते, बेगम को बहुत पसंद था।
बाँस बुद्धि : हमारे सामने की बात है, एक आमतौर पर होने वाली घटना.... मौत... ने फारूकी साहब की सारी जिंदगी एक झटके में खत्म कर दी। उनके एक साथी और हमउम्र को उनके साथ शतरंज खेलते हुए अचानक सीने में दर्द महसूस हुआ और देखते-देखते उनके हाथों में दम तोड़ दिया। उसे दफ्ना कर लौटे तो शतरंज का दूसरा खिलाड़ी भी मर चुका था। फिराक गोरखपुरी कहते हैं कि बुद्धि के तीन प्रकार होते हैं : घड़ा बुद्धि, नमदा बुद्धि, बाँस बुद्धि! घड़ा बुद्धि वो कि चिकने घड़े पर कितना ही पानी डालो-वही सूखे का सूखा, नमदा बुद्धि-नमदे के समान, जब तक सूई नमदे के अंदर है, छेद बना हुआ है। सूई निकली और जैसे कुछ था ही नहीं और सबसे उत्तम बुद्धि, बाँस-बुद्धि कि ऊपर एक जरा चोट पड़ी और बाँस नीचे तक चिरता चला गया, सो उनकी छाती फट चुकी थी।
अय्याशी से तौबा : कई दिन गुम-सुम रहे, फिर एक दिन सुना कि सहवन-शरीफ के एक बुजुर्ग से दीक्षा ले ली है। उसके बाद ब्लेड को गाल से न लगने दिया। बड़ी भरवाँ दाढ़ी निकली, ऐसी ही दाढ़ी को देख कर डॉक्टर सलीमुज्ज माँ सिद्दीकी ने कहा था कि साहब! आप तो कयामत के दिन भीड़-भड़क्के में अपनी दाढ़ी के छप्पर तले छुप जाएँगे, मैं खुदा को अपना नंगा मुँह कैसे दिखाऊँगा। पीर साहब कभी-कभी कराची आते तो शुक्रवार और इतवार को शाम के वक्त मंघू-पीर की तरफ सफेद घोड़ी पर सैर को निकलते। ये रकाब थामे साथ-साथ चलते। उन्हीं का बयान है कि हजरत जितनी देर घोड़ी पर सवार रहते हैं, लीद में से शमामातुलअंबर (इत्र) की खुशबू आती है। कुटिया में तहज्जुद (आधी रात की नमाज जो सामान्य पाँच वक्त की नमाज के अतिरिक्त है) से पहले बबर शेर अपनी दुम से झाड़ू देता है। हमने टोका, 'बबर शेर तो अफ्रीका के जंगलों में होता है।' बोले, 'यह मैंने कब कहा कि मंघूपीर की पहाड़ियों से आता है? अपनी तरफ से आप बात खूब जोड़ते हैं।' हमें भी नेक रहने और सुधर जाने का उपदेश करते रहते थे। हमें इसका बड़ा मलाल था कि खुदा ने हमें बुराई की क्षमता दी होती तो आज हम भी उससे तौबा करके पुण्य लूटते। अभी तक याद है, जाड़ों के दिन थे। रात के बारह बजा चाहते थे। हम मय अपने चार बच्चों और बीबी के पीर इलाही बख्श कॉलोनी के क्वार्टर के छोटे से कमरे में फर्श पर दियासलाइयों की तरह एक तरफ सिर किए पड़े थे कि किसी ने घर के सामने हैदराबादी अंदाज से ताली बजाई। आँख मलते हुए बाहर निकले तो देखा कि फारूकी साहब सिर पर रुई का टोपा पहने, हाथ में लालटेन लिए खड़े हैं। उनके दाँत और घुटने बज रहे थे। घबराहट में हम भी मलमल का फटा कुर्ता पहने, नंगे पैर बिस्तर से निकल आए थे। बहुतेरा हाथ से जबड़े को थामा लेकिन दाँत थे कि उस उपकरण की तरह, कट-कट, कट-कट 'मार्स कोड' में बजे चले जा रहे थे, जो टेलीग्राफ आफिस में तार देने के लिए प्रयोग होता है। सादा जबान में सलाम और कलाम का सवाल ही पैदा नहीं होता था। देर तक दोनों सामने खड़े मुहब्बत में दाँत किटकिटाते रहे। हमारे अधिकार में एक ही कमरा था। इसलिए हम उन्हें अंदर आने को भी नहीं कह सकते थे, लेकिन वो भी जल्दी में थे। उन्होंने हमें बहुत अपनेपन से दाढ़ी से लगाया, दोनों बड़ी देर तक एक-दूसरे से चिपटे रहे। इसका मुहब्बत से अधिक ठंड कारण थी। वो अपनी शलवार और हम अपने पाजामे में थर-थर काँप रहे थे। बार-बार हाथ मिलाने और गले लगाने के बाद शब्द पिघले तो उन्होंने छूटते ही हमें शराब और व्यभिचार से दूर रहने का उपदेश दिया। हमने नंगे पैर, फटे कुर्ते के नीचे धड़कते दिल पर ठिठुरा हुआ हाथ रखकर रईसाना जीवन और अय्याशी से परहेज और परहेजी जीवन बिताने का वायदा किया और निवेदन किया कि हजरत! आपने रात गए बड़ी तकलीफ उठाई। जवाब में उन्होंने अपने ठंडे बर्फ हाथ को, दोनों तरफ से, हमारी गुद्दी पर इस तरह गर्म करते हुए जिस तरह नाई उस्तरे को चिमोटे पर चलाता है, कहा कि उन्होंने अपने पीर साहब के सामने कुरआन का अनुवाद उठा कर कसम ली है कि रोजाना कम से कम सात आदमियों को शराब और व्यभिचार से दूर रहने का उपदेश करेंगे। इंशा की नमाज के बाद अपने 'राउंड' पर निकले हुए थे। आज की रात हम चौथे आदमी थे मगर उनकी लालटेन में अभी काफी तेल बाकी था और बत्ती खासी लंबी थी। विदा के समय कुछ देर मौन रहे, फिर बोले कि हमारे शेख का कहना है कि जाड़े और बुढ़ापे को जितना अधिक महसूस करो उतना ही लगता चला जाता है। पीर साहब 104 साल के थे। 40 हज कर आए थे। बाल काले होते जा रहे थे।
वो पौ फटी वो किरन से किरन में आग लगी : सीधे स्वभाव, अधिक संतान वाले आदमी थे। इस मोड़ पे ये तय करना मुश्किल था कि उनके यहाँ हाथ की तंगी पहले आई या औलाद। हर दूसरे-तीसरे महीने हमें अपने घर ले जाते जो बरनस रोड पर गुंजान इलाके में अदीब सहारनपुरी के फ्लैट के पास था। रास्ते में अदीब को साथ ले लेते। चाय, शायरी और स्कैंडल का दौर चलता। इसके बाद तीनों कबाब खाने निकल पड़ते। अदीब की उम्र उस समय चालीस के लगभग होगी। अपने बड़े भाई के साथ रहते थे और भाभी से इस कदर डरते थे कि कभी अपने फ्लैट में गंदे लतीफे और अपने शेर नहीं सुनाते थे। और न वहाँ बेगम... के किस्से सुनाते थे। वो उनकी शायरी उन्हीं के तरन्नुम में इस तरह पढ़तीं कि जब खुद अदीब यही गजल पढ़ते तो अस्ल नक्ल मालूम पड़ती। आँखें बंद करके लहक कर पढ़ते थे। कई हसीनों के बाल घुँघराले होते हैं, उनकी आवाज घुँघराली थी। रसीली और उम्मीद भरी तान में न जाने दर्द की गूँज कहाँ से आती थी जैसे हँसते-हँसते आँखों में आँसू डबडबा आएँ और चेहरा हँसता रह जाए। ये मुस्कुराहट -
वो पौ फटी , वो किरन से किरन में आग लगी
के लहरे के साथ उभरती और 'ऐ मेरी उम्रे-रवां! जरा आहिस्ता' और जरा आहिस्ता! और जरा आहिस्ता' में खो जाती।
अदीब बड़े मीठे और मुलायम लहजे में बात करते थे। निजी महफिलों में देखा कि चुटकुले के पहले ही वाक्य पे अपनी जगह छोड़ कर चुटकुला सुनाने वाले के हाथ पे हाथ मार के, दाद इस तरह दे के आते जैसे रेस में पिस्तौल चलने से पहले ही कई बेसब्रे दौड़ पड़ते हैं और वापस बुलाए जाते हैं। फिर सबके साथ उसी जोश में दौड़ते हैं। एक बार एक प्रशंसक ने आस्था के आवेश में एक दूसरे शायर की उसी जमीन में कही हुई गजल को बेहतर बताया। उस शायर का अदीब बहुत सम्मान करते थे। कहने लगे ये सब उन्हीं की कृपा है। फिर उन्होंने जिगर मुरादाबादी का किस्सा सुनाया कि उन्होंने अपने भतीजे को गोद ले लिया था। एक दिन वो उनके कंधे पर बैठ कर कहने लगा कि अब्बा! मैं आपसे बड़ा हूँ। जिगर साहब ने कहा बेटा! तुम ठीक कहते हो तुम्हारी इस बड़ाई में मेरे जिस्म की लंबाई भी शामिल है।
टाट का एक थैला जिसमें शायरी की डायरी, चश्मा, तीन-चार किताबें, मैगजीन, पैन, डायरी और छोटा सा कटोरदान हमेशा हाथ में रहता। गले मिलने से पहले उसे अपनी और दूसरे शख्स की टाँगों के बीच में रख देते। एक लाइब्रेरी में नौकर थे। तन्ख्वाह छोटी। छोटे-छोटे बच्चों का साथ जिनके ये बाप भी थे और माँ भी। बीबी की मौत को कई साल बीत चुके थे। कभी कोई दूसरी शादी का मशवरा देता तो कहते बिजली एक ही जगह दोबारा नहीं गिरा करती। कभी उन्हें उदास नहीं पाया। शाम को किसी न किसी के साथ Snakes and Ladders खेलते और अपनी हार पे कहकहे लगाते ही देखा। टोकते ही हमारे साथ हो लेते, साथी साँप पीटता ही रह जाता।
तेजी कैसे मारी जाती है : गर्म चाय, ताजा गजल और तेज चूने के पान से स्वागत करने के बाद फारूकी साहब दिल्ली के कबाबिये की दुकान पर ले जाते और गोले के कबाब खिलाते। पेट भरने से पहले आँखें भर आती थीं। पहली बार दुकान पर ले गए, तो दिल्ली की कल्चर और कीमे की बारीकियों पर रोशनी डालते हुए कबाब खाने की तहजीब इतनी विस्तार से समझाई कि हम जैसे मारवाड़ी रांगड़ की समझ में भी आ गया कि सल्तनत हाथ से कैसे निकली। दिल्ली के कबाबियों का क्या कहना। बिल्कुल वही तेजाबी मसाले जो बहादुर शाह जफर के जमाने में थे, वही शाही बावर्चियों की तरकीबें सीना-ब-सीना चली आती हैं और वही बीमारियाँ पेट-ब-पेट। हालाँकि अब न वो तगड़े गोश्त हैं न वो कद्रदान। कचरी और पपीते की ऐसी गलावट लगाते हैं कि मोटे से मोटा गोश्त पल भर में सुरमा हो जाए। यूँ तो दुनिया में पीठ पीछे की बुराई से अधिक जल्दी हज्म हो जाने वाली कोई चीज नहीं, लेकिन ये कबाब भी हल्क से उतरते ही बदन का हिस्सा हो जाते हैं। इन्हीं से मालूम हुआ कि गोले के कबाब में एक हिस्सा कीमा, एक हिस्सा मिर्चें और एक हिस्सा धागे (कबाब पे कस के लपेटे जाते हैं) पड़ते हैं। सीख से उतार के कड़कड़ाते घी का बघार देते हैं।
'सीख कबाब में बघार? ये किस खुशी में?' हमने पूछा।
'इससे मिर्चों की तेजी मर जाती है। साथ में भरत की छोटी सी कटोरी में मसाला रख देते हैं। फिर कबाब में बकरी का भेजा और उसकी नलियों का गूदा अलग से डालते हैं।
'ये क्यों?'
'गर्म मसाले और जायफल, जावित्री की तेजी मर जाती है। फिर बड़ी प्याज के लच्छे और अदरक की हवाइयाँ और उन पर हरी मिर्चें कतर के डालते हैं। ये उपलब्ध न हों तो केवल सी-सी करने से भी लज्जत बढ़ती है। खमीरी नान के साथ खाते समय बर्फ का पानी खूब पीना चाहिए।'
'क्यों?'
'बर्फ से खमीरी रोटी और हरी मिर्चों की तेजी मरती है। कई नफासत पसंद कबाबों पर ततैय्या मिर्च की चटनी छिड़क कर खाते हैं। फिर दही-बड़े या कुल्फी फालूदे की डाट लगाते हैं।'
'क्यों?'
'इससे चटनी की तेजी मरती है।'
'अगर ये सारे चोंचले केवल किसी न किसी की तेजी मारने के लिए है तो चटोरों के समझ में इतनी सी बात क्यों नहीं आती कि एक के बाद एक तेजी मारने की जगह शुरू में ही कम मिर्चें डालें या फिर जबान पे रबर का दस्ताना चढ़ा के खाएँ।'
अदीब सहारनपुरी ने इस मौके पे शेर की सफेद पताका लहरा के युद्ध बंद कराया। हमारा हाथ अपने हाथ में ले के बोले हजरत! दुनिया में हर बात अगर नियम कानून के मुताबिक होने लगे तो खुदा की कसम जिंदगी अजीरन हो जाए। इसी बात पर एक जालिम का शेर सुनिए -
सुपुर्दे - खाक की करना था मुझको
तो फिर काहे को नहलाया गया हूँ
अजान के बाद इसी रहस्य को प्रोफेसर काजी अब्दुल कुद्दूस M.A ने अपने बुकराती ढंग से यूँ कंठस्थ कराया कि जवानी दीवानी की तेजी बीबी से मारी जाती है। बीबी की तेजी औलाद से मारते हैं औलाद की तेजी साइंस से और साइंस की तेजी मजहबी शिक्षा से। अरे साहब तेजी का मरना खेल नहीं है, मरते-मरते मरती है।
फारूकी साहब उन लोगों में से नहीं थे जो दस्तरख्वान पर बिठाने की जगह सिर-आँखों पर बिठाते हैं। उन्हें खाने से अधिक खिलाने में मजा आता था। हर निवाले के साथ देहलवी दस्तरख्वान की नजाकतें भी कंठस्थ कराते जाते। एक दिन कहने लगे कि दिल्ली में तो जो शख्स शीरमाल और ताफतान में फर्क न कर सके उसे कल्चर्ड नहीं समझते।
'ये कौन सी मुश्किल बात है।' हमने कहा।'
'बताइए, क्या फर्क होता है?'
'एक जियादा बुरा होता है।'
अजरक : दीक्षा लेने के बाद फारूकी साहब ने अपने शेख (गुरु) के इशारे पर हजरत शाह अब्दुल लतीफ भट्टाई की सूफियाना शायरी को समझने के लिए सिंधी सीखना शुरु की। दिल पिघल चुका था। वैसे भी सुल्ह कुल आदमी थे। सिंधी की पहली किताब जगह-बेजगह पढ़ कर बोले कि साहिबो! मुझे तो उर्दू और सिंधी में कोई अंतर नहीं दिखाई पड़ा। सिंधी के नुक्तों को उल्टा लगा दिया जाए तो उर्दू बन जाती है। घर पर काला कुर्ता और टखने से ऊँची शलवार पहने लगे थे। कंधे पर शेख की दी हुई एक छोटी सी सिंधी अजरक जिसे लंबा रूमाल या अँगोछा भी कह सकते हैं। इससे अधिक बहुउद्देशीय चीज हमने नहीं देखी। हाइड्रोजन बम और चाँद तक जाने वाले रॉकेट बनाने वाले ऐसी किसी वस्तु का आविष्कार करके दिखाएँ तो हम जानें। फारूकी साहब उससे मुँह पोंछते। दस्तरख्वान का काम लेते। कहीं पैदल मंजिल मारते तो उसी से सफर की धूल झाड़ते। लू चलने लगे तो उसे पानी में तर करके अरबों के गुतरा-ब-उकाल की तरह सिर पे डाल लेते। दोस्तों की महफिल में अगर रेशम की तरह नर्म हों और किसी अनुपस्थिति दोस्त की बुराई करते समय नमाज का समय आ जाए तो उसी को जमीन पे बिछा कर सिजदा करते और रब का शुक्र अदा करते जिसने इंसान को बोलने की ताकत दी। दिन में बच्चे और रात को मच्छर सताते तो उसे मुँह पर तान कर सो जाते। जाड़े और जुकाम में यह मफलर का काम देती और रात को हलवाई की दुकान से बीमार बच्चे के लिए औटता हुआ दूध लाते तो उसका ऐंडुआ बनाकर हथेली पर रख लेते। बीबी को अचानक नंगे सिर दरवाजा खोलने जाना पड़े तो उसकी बुक्कल मार के ओढ़नी बना लेतीं। खुद नर्वस या खिसियाने होते तो कोने को बल पे बल देते या यूँ ही चश्मे का शीशा साफ करने लगते। सौदा-सुल्फ लेने बाजार जाएँ तो याद रखने के लिए बीबी उसमें गाँठें लगा देती थीं मगर ये भूल जाते कि कौन सी गाँठ कौन सी इच्छित वस्तु का सिंबल है। पहली तारीख को महीने का सौदा लेने निकलते तो ये देहातन की चुटिया की तरह गूंधी हुई होती। रात को बच्चे उसका कोड़ा बना कर अगले-पिछले हिसाब चुकाते। जल्दी में हों या किसी खास अभियान पर जा रहे हों तो कंधे से उतार कर हाथ में ले कर चलते। कोई घर मिलने आए तो बैठाने से पहले उसी से मूढ़े को साफ करते। खानकाह में एक दिन नमाज के लिए हाथ-पाँव धोते हुए मस्जिद के हौज में गिर पड़े और कोहनी चोटिल हो गई तो अगले दिन उसी के 'सिलिंग' में हाथ को 7 के अंक की तरह रखकर बैंक आए। कोई भरी महफिल में अशोभनीय बात या मजाक कर बैठे तो उसे अपने मुँह में ठूंस कर खुस-खुस हँसी को छानते रहते। कहते थे कि एक बार रात को खानकाह से एक जलाली वजीफा (तेजस्वी प्रार्थना) पढ़ कर लौट रहे थे कि रास्ते में चार गुंडों ने घेर लिया। अब क्या था। उन्होंने इमाम जामिन (अनंत) का कलदार रुपया अजरक के कोने में बाँध कर बिन्नौट के ऐसे हाथ दिखाए कि एक गुंडे की कनपटी में भंबा खुल गया। वहीं खेत रहा। पिटे हुए ग़ुंडे रपट लिखवाने भागे। हमारी मुस्कुराहट में उन्हें खिल्ली की झलक नजर आई तो तैश में आ कर बोले, 'आप जैसों को तो चवन्नी में ढेर कर सकता हूँ।'
दोपहर को फर्श पर खाना खाने बैठते तो बीबी उसी अजरक की चनौरी बना कर मक्खियाँ झलती रहतीं। रोज सुबह उसे धोकर शाम के इस्तेमाल के लिए तैयार कर देतीं। बड़ी बेटी की शादी तय हुई तो बैंक से पाँच सौ रुपए कर्ज लिए और एक दिन शाम को खुश-खुश अपनी बिटिया के दहेज के सारे कपड़े उसमें बाँध कर दिखाने लाए। फिर वो घड़ी भी आई जब सखी-सहेलियों ने ऐसी रुँधी हुई आवाज में 'लिखी बाबुल मोरे! काहे को ब्याही बिदेस रे, लिखी बाबुल मोरे' गाया कि दूल्हा वालों की आँखें भी नम हो गईं। जिस बाप ने दहेज में चाँदी का जेवर, मलमल के दुपट्टे और एल्यूमीनियम के बर्तन दिए, उसके सीने से लग के बेटी जिस तरह फूट के रोयी है, हमने किसी अमीर की बेटी को इस तरह तड़प के रोते नहीं देखा। शादी शांति से निबट गई तो मियाँ बीबी को चैन पड़ा कि बोझ हल्का हुआ।
लेकिन विधाता को कुछ और मंजूर था। तीन महीने भी नहीं बीते होंगे कि बीबी को टायफायड हुआ। पाँच-छह दिन तक तेज बुखार में खाना पकातीं, झाड़ू देतीं और बच्चों को नहला-धुला कर स्कूल भेजती रहीं। कर्ज में बाल-बाल बँधा हुआ था। शाम को घर जाते तो पाकिस्तान चौक से एक होम्योपैथ डॉक्टर से चार आने की पुड़िया लेते जाते। किसी से जिक्र तक न किया। रात की जगार से सूजी-सूजी आँखों को हथेलियों से मल-मल कर दिन भर काम करते रहते। दस दिन बीमार रह कर वो नेक बीबी अपने रब से जा मिलीं। दिल पर क्या कुछ न बीती होगी लेकिन क्या मजाल कि शिकायत का एक हर्फ भी जबान पर आए। यही शेख की हिदायत थी। जनाजे में मुहल्ले के सभी लोग सम्मिलित थे। बेटा जो मुश्किल से नौ साल का होगा, इस अजरक में फूलों की चादर, अगरबत्ती, गुलाब जल और शमामातुल-अंबर (इत्र) बाँधे बेखबर पीछे चल रहा था। उसमें अभी तक कुछ याद दिलाने के लिए एक नन्हीं सी गाँठ स्वर्गीया के हाथ की लगी हुई थी, जिसे उन्होंने तीन दिन से नहीं खोला था। डोला कब्र के बगल में उतारा गया और सिरहाने से काबे के गिलाफ का परचा हटा दिया गया। मय्यत कब्र में उतारने लगे तो अपने हाथों से अजरक कमर में डाल कर दुख-दर्द के साथी को मिट्टी में सुला दिया। उसी से आँखों के किनारों को पोंछा, धीरे से गाँठ खोली और फिर अपने शेख के इस प्रसाद को कफन पर डाल दिया।
क्या कोई वहशी और आ पहुँचा
या कोई कैदी छूट गया
सदा सुहागिन रागिनी : रात के दस बजा चाहते थे। बैंक में दस-बारह जागने वाले रह गए होंगे। बसें चलनी बंद हो गई थीं और अंदर बाहर सन्नाटा था। भूख भी थोड़ी देर ऐड़ियाँ रगड़-रगड़ कर मरी नहीं तो ऐसी गहरी नींद जुरूर सो गई थी जो सिसकियाँ ले ले के रोने के बाद बच्चों को आ जाती है। अचानक अजीबो-गरीब आवाजें आने लगीं जैसे चील, मेंढक और बूढ़ी मेम मिल कर कव्वाली गा रहे हों। हमने हॉल में आ कर देखा तो मालूम हुआ ये तमाम आवाजें एक नए भर्ती हुए, रिटायर्ड सेकिंड लेफ्टिनेंट यन.यम.यू.यम.यन.पी. कुंजू के गले से रिड़क रही हैं। उन्हें बैंक में अवतरित हुए कुल एक महीना हुआ होगा और इस समय वो मलयालम भाषा का एक रोमांटिक लोकगीत गा रहे थे। जिसके बारे में उनका दावा था कि कावेरी नदी के दूसरे किनारे पर खड़े होकर एक द्राविड़ी कुंवारी ने उन्हें सिखाया था। ये दावा ठीक ही होगा, इसलिए कि अगर वो वाकई कावेरी नदी के उस पार खड़ी थी तो उसके कुंवारेपन में शक नहीं किया जा सकता। उन्हीं की जबानी उनका नमकीन खंडित अनुवाद सुनकर हमारे तो पसीने छूटने लगे। उसके श्रृंगार रस के सामने उर्दू की सारी इश्किया शायरी बिल्कुल नर्सरी राइम और गुड्डे-गुड़िया का खेल मालूम होने लगी। हक नवाज चमिया-एकाउन्टेंट स्ट्रांग रूम की बालिश्त भर लंबी चाबियाँ छलका कर संगत कर रहे थे। हर मलयालम बोल के बाद यन.यम.यू.यम.यन.पी. कुंजू कुछ देर मुँह से मृदंग बजाते और जब वो गाना रद्द करके और ठाठ बदलकर मुँह से तबले की सी आवाजें निकालने लगते तो चाचा फजलदीन चौकीदार आटा गूँथने के तसले पर थाप लगा के जंग का ऐलान करता और पंजाबी टप्पे का टुकड़ा -
बारी बरसी खटन गया सी
खट के लेआंदा झांवा
(तू बारह बरस कमाने गया और कमाके लाया झांवा) लगा के अहले-दर्द को लूट लेता।
पाकिस्तान ताजा-ताजा नक्शे पर उभरा था और विभाजन की रौशनाई अभी अच्छी तरह सूखी नहीं थी। बैंक में लिखते सब अंग्रेजी में थे। बातचीत उर्दू में, लेकिन हर आदमी गाली अपनी मातृभाषा में देता था।
जबाने - गैर से क्या शरहे - आरजू करते
(दूसरे की भाषा में क्या इच्छा व्यक्त करते)
अंग्रेजी की गाली बिल्कुल फीकी, बेबास, और खुट्टल होती है। ये गाली आदमी अपने आप को भी दे सकता है। उर्दू की एक प्रचलित और प्रतिष्ठित गाली, जिसकी तरफ गालिब ने अपने एक खत में इशारा किया है, बूढ़े आदमी को नहीं दी जा सकती। काट और बेहूदगी की तीव्रता के लिहाज से अलबत्ता मारवाड़ी गाली का जवाब नहीं लेकिन ये इतनी गंदी और पेचीदा होती है कि इसके सही संबोधित केवल मारवाड़ी ही हो सकते हैं, जिनकी तादाद लेखक को मिला कर पाकिस्तान में इतनी कम है कि जी की भड़ास नहीं निकल सकती। इसी तरह उस जमाने में बेसुरा गाना भी हर आदमी अपनी ही भाषा में गाता था और किसी को उससे ये शिकायत नहीं होती थी कि हमारी मातृभाषा में लोगों को यातना क्यों देता है। एक रात वाहिद बख्श खोसो ने शाह अब्दुल लतीफ भट्टाई का दैवीय कलाम भैरवी में सुना कर दिलों को ऐसा गरमाया कि उसी वक्त ये तय हुआ कि बोल किसी भी भाषा के हों, संगीत के सभी उपकरण (जिनकी तरफ पहले इशारा हो चुका है) सदैव भैरवी ही बजाया करेंगे। यूँ भी भैरवी और खुशामद सदा सुहागिन रागिनियाँ हैं। हर समय, हर मौसम में मजा देती हैं। सुनने वाले का जी नहीं भरता। पक्के राग और रागिनियों में हमें भी भैरवी पसंद है, इसलिए कि संगीत सभा के नियमानुसार इसके बाद कोई और राग नहीं गाया जा सकता, इसलिए मारे-बाँधे हमें किसी सभा में जाना पड़े तो छूटते ही इसकी फरमाइश कर देते हैं।
वाहिद बख्श खोसो हर बोल के बाद केवल 'अला' से कमाऊ पूत की मुश्कें कस के वादी ले में आते। मिली-जुली कव्वाली के तेवर कुछ ऐसे होते थे।
नसीर अहमद खाँ :
गुनाह का अपने मोतरिफ हूँ
ये इल्तजा है कि पाकबाजो
करो मुझे संगसार लेकिन
गुनाह की दास्तां तो सुन लो
चाचा फजल दीं :
बारी - बरसी खटन गया सी
खट के लेआंदा झावां
हकनवाज चमया :
मूसा से जुरूर आज कोई बात हुई है
जाने में कदम और थे आने में कदम और
कोरस :
बारी - बरसी खटन गया सी
खट के लेआंदा गंठिया अला !
इबादुर्रहमान कालिब :
ये दाग - दाग उजाला ये शब गजीदा सहर
वो इंतजार था जिसका ये वो सहर तो नहीं
कोरस :
बारी - बरसी खटन गया सी
खट के लेआंदा बटेरा अला !
श्रोताओं में से अगर मेज, कुर्सियों को निकाल दिया जाए तो जानदारों में ले दे के केवल हमीं थे जो उस गूँगे घेरे में आ सकते थे। सभी उपस्थितगण आर्केस्ट्रा के सक्रिय सदस्य थे कि इसी में चैन था। दूसरों की आवाज की यातना से बचने के लिए हर व्यक्ति अपना निजी शेर सुनता और कानों में उँगलियाँ दे के गाता था। कुछ दिन हमारी उपस्थिति बोझ हुई! मुँह से तो किसी ने कुछ न कहा, लेकिन बेजार निगाहें पुकारती रहीं।
चले भी जाओ कि गुलशन का कारोबार चले
एक दिन दबे शब्दों में शिकायत भी की कि इस तरह काम करने से हमारे शोर-शराबे में विघ्न पड़ता है। हम कटे-कटे से रहने लगे तो बोले, आप क्यों दिल छोटा करते हैं? और उन्होंने हमें मुँह से सीटी बजाने और उस पर मीरा बाई के दोहे पेश करने का निमंत्रण दिया बशर्ते कि वो पंजाबी टप्पे की धुन में हो ताकि तसले वाले भाई को तकलीफ न हो और वो सदा की तरह अपने झाँवे से दिलों का मैल दूर करता रहे। चाचा फजलदीन जब कभी खुद ही बेसुरा हो जाता तो तसला फेंक कर कहता कि टप्पे का समाँ तो उस समय बँधता है जब दूर से हर बोल के साथ डाचियों और गाय, बकरियों के गले में पड़ी हुई हमेलों की, घंटियों की आवाज आती रहे।
फजलदीन चाचा को वो लोग भी चाचा कहते थे जो खुद ताया कहलाने के लायक थे। हमें याद है कि पहली मुलाकात हुई और हमने नाम पूछा तो उसने सारा उद्धरण सुना दिया 'गाँव थूइयाँ, दरबार बाबा हजरत शाह कली, इलाका थाना अलीपुर चठ, जिला गुजरानवाला, निज्द लाहौर, मार्फत अल्ला दित्ता साइकिल पंक्चर मिस्त्री पहुँच कर चौधरी फजलदीन पेंशन याफ्ता लांसनायक को मिले।
मजदूरी का समय : बैंकों में उन दिनों सुबह साढ़े आठ बजे से रात के दस-ग्यारह बजे तक लगातार काम होता था। जबकि सरकारी दफ्तरों में बेकार रहने का समय नौ से साढ़े चार तक था। पहले तो रात गए तक काम करने की कोई शिकायत नहीं करता था और अगर कोई सिरफिरा आवाज उठाता तो उसका तबादला बारिश में चटगाँव, गर्मी में सक्खर और सर्दी हो तो कोयटा कर दिया जाता था, जो उस समय उद्दंड बैंकरों के लिए काले पानी की हैसियत रखते थे, लेकिन जो गर्दन मार देने के लायक होते उनको लाइन हाजिर कर दिया जाता था। यहाँ उनकी तुर्रा लगी पेचदार पगड़ी के सारे पेच एक-एक करके निकाले जाते। हमें याद नहीं कि दो-ढाई साल तक हमने और हमारे साथियों ने कभी चौदह घंटे से कम काम किया हो। दिन और रात का अंतर मिट चुका था और अगर था तो हजरत अमीर मीनाई के शब्दों में स्त्रीलिंग और पुल्लिंग की उलट फेर तक -
दिन मिरा रोता है तेरी रात को
रात रोती है मिरी दिन के लिए
दोपहर को कम ही लोग खाना खाते थे। घर-घर से साइकिल पर खाने के डिब्बे बटोर कर लाने वालों ने अपनी सर्विस और बारी-बारी से हर एक डिब्बे से बोटियाँ गायब करने का धन्धा शुरू नहीं किया था। स्टाफ के अधिकतर लोग लेखक सहित, ईरानी होटलों की तरफ चहलकदमी करके बेखाए-पिये वापस आ जाते। जहाँ तक हमारी याददाश्त का संबंध है, हवाखोरी का ये सिलसिला 1954 तक जारी रहा। कोई किसी से नहीं पूछता था कि आज भी तुमने खाना खाया कि नहीं। आठ-नौ बजे तक पेट का अलाव भड़क उठता। उसी को दबाने, बहलाने के लिए दरअस्ल ये कव्वाली होती थी। सभी भूख को निकोटीन या पान से बहलाते रहते थे। अलबत्ता चाचा फजलदीन चौकीदार वुड स्ट्रीट के फुटपाथ पर दो ईंटें रख कर आठ बजे मक्का की एक रोटी डाल लेता था, लेकिन जब तक दफ्तर में एक आदमी भी खाली पेट बैठा काम कर रहा होता, चाचा फजलदीन लुकमा तोड़ना पाप समझता था। ग्यारह बजे से पहले उसे शायद ही रोटी नसीब होती थी। कभी-कभी वो सबको अपने हाथ से मलीर के भुट्टे भून कर खिलाता और अपने गाँव के भुट्टों को याद कर के रुआँसा हो जाता।
कुछ दिन बाद ऐसा बिजोग पड़ा कि सिगरेट पीने की क्षमता भी न रही। क्षमता से हमारा अभिप्राय साठ-सत्तर है कि यही हमारा औसत था। बुरी बात और बुरी आदत का सही लुत्फ और लज्जत दरअस्ल अधिकता में ही आता है। साहिबो! कमी पर इतना ही जोर है तो नेकी में करो कौन रोकता है? कमी को तबियत ने कभी न माना। हमने सिग्रेट कम करने के बजाए बिल्कुल छोड़ दी और जुशांदे से काढ़ी हुई मलाबारी चाय के पियाले के पियाले चढ़ा कर भूख और नींद को भगाते रहे। चाय दरअस्ल इसी नेक काम के लिए बनी थी। कहते हैं कि छठी शताब्दी में एक तपस्वी बोधिधर्म धर्म प्रचार के लिए चीन गया और वहाँ एक दीवार पर निगाह जमा कर ध्यान करने लगा। एक दिन ध्यान के समय आँखें आप ही आप नींद से मुँद गईं और सारी तपस्या खंडित हो गई। क्रोध में आ कर उस ध्यानी ने वहीं अपने पपोटे काट कर फेंक दिए ताकि आँखें कभी बंद ही न हो सकें। धरती पर जिस जगह वो पपोटे और खून की बूँदें गिरीं, वहाँ नई कोपलें फूट निकलीं जिन्हें उससे पहले किसी ने नहीं देखा था। उनका नाम चाय पड़ा। उसी की याद में जेन मत वाले आज भी ध्यान और उपासना से पहले चाय का घूँट जुरूर लेते हैं। सो हम भी इस घड़ी इस अमृत के घूँट ले ले कर उस रात की बातें सुना रहे हैं।
हमने अहले - जबां ( परिष्कृत भाषा बोलने वाली ) से शादी क्यों की : सभा के अध्यक्ष का पूरा नाम (भूतपूर्व) सेकिंड लेफ्टिनेंट नवाब मुहम्मद उमर मुजाहिद नहास पाशा कुंजू था। बैंक में ताजा अवतरित हुए थे। स्वयं को कर्नाटक का नवाब बताते थे। तेवर और तनतने से नवाब ही लगते थे मगर ऐसा मालूम होता था कि अपने नवाबी इलाके के नाम से पहले उन्होंने 'कर' की बढ़ोत्तरी कर ली है, हैदराबादी उर्दू भी मद्रासी ढंग से बड़े फर्राटे से बोलते थे। क का उच्चारण ख करते थे। कमसिन हसीना को कुमरी और कुमरी को खुमरी कहते थे। अक्सर खान सैफुल मलूक खान का मजाक उड़ाते कि वो खुबानी को खुरबानी कहता है और हक नवाज चमया कुरबानी को कुरबानी। खुद कुरबानी को खुरबानी कहते थे। अपने नाम का उच्चारण यन.यम.यू.यम.यन.पी. कुंजू फरमाते थे। एक दिन हमने छेड़ा, सरकार ने सारा कर्नाटक छोड़ कर यू.पी. की औरत से क्यों शादी रचाई?
'खट्टा सालन, इमली चावल, और बघारे बैंगन खाते-खाते दाँत अमल गए थे, इत्तफाख से मुलाखात हो गई। सलीखामंद खानदानी खुमरी, लखनवी खलिया-खोरमा पकाने में ताख, खुबूल सूरत, घर चलाने के खायदे और खानून से वाखिफ और क्या चाहिए? वो खोंखियाए।'
'तो गोया ये आपके पंच खखार हुए' हमने कहा
'मगर आप भी तो मारवाड़ी रांगड़ हैं। आपने क्यों अहले-जबां से शादी की?'
'हमने तो यह गुस्ताखी केवल उर्दू जबान से अपनी झिझक निकालने के लिए की थी।'
'इही गल हुई जवानां वाली' चाचा फजलदीन ने हमारी बीबी से संबंधित मन्सूबा बनाने की दाद दी।
(कर) नाटक का नवाब : बैंक में कुंजू शहजादा गुलफाम कहलाते थे। इकहरा बदन, चंदनी रंगत और बातों में उसी की सुगंध, तीखे नैन-नक्श, ततैये जैसी कमर, नाक इतनी लंबी और नुकीली कि उसमें मँगनी की अँगूठी पहनाई जा सकती थी। कान पर मन्नत की बाली का रुंझा हुआ छेद, अच्छे लिबास के शौकीन थे। प्रसिद्ध था कि सोते में भी करवट लेने से पहले अपनी माँग और पाजामे की क्रीज ठीक कर लेते थे। उनके सुंदर कपड़े पहनने, सजने, सँवरने और बरबादी में औरतों की तरफ उनके रुझान का बड़ा हाथ था। मई-जून में भी 'पोलका' बुंदकियों का स्कार्फ बाँधते थे। एक बार हमने टोका कि आपका 1/3 वेतन बजाज और 2/3 दर्जी की नजर हो जाता है। पिछले महीने आपने अपने घर के बजट के दूसरे पलड़े में हमारे वेतन का पासंग डाला, तब कहीं डंडी बराबर हुई। बोले 'मैले, पुराने-धुराने कपड़े पहनने का अधिकार तो सिर्फ करोड़पति सेठों को है। नौकरी पेशा आदमी के तो अल्लाह ने चाहा तो यही अलल्ले-तलल्ले रहेंगे। मद्रासी भाषा में कहावत है हीजड़े ने सारी कमाई-मूँछ मुँडवाई में गँवाई। हमारे कबीले की यह आस्था है जो रुपया छोड़ के मरे, वो अस्ल बाप का नहीं। मेरे बाप ने न जाने कैसे आठ हजार रुपए जमा कर लिए थे, जिनसे एक कॉपरेटिव बैंक में एकाउंट खुलवाया। वो तो उनके मरने से एक महीना पहले बैंक फेल हो गया वरना सारी वंशावली मिट्टी में मिल जाती। मौला ने बड़ा करम किया।
हर आदमी की अपनी निश्चित चाल और आवाज होती है। ये प्रकृति का चमत्कार ही है कि ऐन वैसी चाल और आवाज दुनिया में न किसी की हुई, न होगी लेकिन जैसी अजीबो-गरीब चाल इन हजरत की थी, हमने इससे मिलती जुलती भी नहीं देखी। लगभग घुटनों पर हाथ रखे चलते थे। हाथों की पोजीशन ऐसी होती थी जैसे आंधी में साइकिल का हैंडिल मजबूती से पकड़े चढ़ाई चढ़ रहे हों। बहुत दिन बाद मालूम हुआ कि हारमोनियम के रसिया हैं और हर समय उसे गोद में उठाए-उठाए फिरने से उसी पोज में अकड़ कर रह गए हैं। हारमोनियम उठाए हुए न हों तो बैलेंस बनाए रखना मुश्किल हो जाता। कदम-कदम पर डगमगाते, लड़खड़ाते, कभी उलार हो जाते। अक्सर फरमाते कि पूरे मद्रास प्रांत और कर्नाटक में मुझसे अधिक तेज कोई टाइप नहीं कर सकता। हारमोनियम इतनी विद्युतगति से बजाते कि उँगलियाँ नजर नहीं आतीं। धुन भी कहीं नजर नहीं आती थी। प्रति मिनट डेढ़ सौ अक्षरों की हत्या कर लेते थे।
कर्ज लेने में उन्होंने कभी कंजूसी से काम नहीं लिया। कहते थे उधार से भाईचारा और समानता बढ़ती है। उस जमाने में सबका हाल पतला था।
कौन है जो नहीं है हाजतमंद : जिसको देखो, पाँव चादर से घुटनों तक बाहर निकले हुए हैं। ऐसों से कर्ज लेना, ले कर न देना, फिर लेना उन्हीं का जिगरा था। किसी का हाथ तंग होता तो यार लोग उल्टा उसी से कर्ज माँगने लगते-इस डर से कहीं पहले वो न माँग बैठे और कोई वाकई कर्ज माँगता तो लोग अपनी मुश्किलों का जिक्र इस तरह करते कि माँगने वाला भी रोने लगता। हमदर्दी और दिल पिघलाने का इससे अधिक प्रभावकारी ढंग अभी तक नहीं खोजा गया। उपमहाद्वीप के कई दूर-दराज के पिछड़े इलाकों में अब भी ये रिवाज चला आता है कि बिरादरी की बड़ी-बूढ़ियाँ किसी की गमी में शरीक होती हैं तो लंबा सा घूँघट काढ़ के बैठ जाती हैं और अपने-अपने प्यारे का नाम ले के बैन करती, दहाड़ती हैं। सब अपने-अपने मर्दों की खूबियाँ बयान करके सूखे आँसुओं से रोती हैं। अगर कोई अपरिचित पहुँच जाए तो वो एक घंटे बैन सुन कर भी ये तय नहीं कर सकता कि रोने-पीटने की इस सभा में आज का विशिष्ट मृतक कौन है? उन दिनों बैंक में भी यही मेल-जोल की रीत थी। अपने-अपने सम्मुख से मिल कर हाय-हत्या करने के बाद सब अपनी आवश्यकताओं और इच्छाओं को सामूहिक कब्रिस्तान में दफ्ना देते मगर इस तरह कि दूसरे दिन छँगुलिया से खोद कर निकाली जा सकें।
कुंजू कर्ज माँगने से पहले अपनी त्यागी हुई जमीनों का जिक्र जुरूर करते और रकबे दोहराते, तिहराते और चौहराते रहते। हर बार, पंद्रह-बीस हजार एकड़ की बढ़ोत्तरी ही नहीं, बल्कि पैदावार बढ़ाने वाले बयान से जमीन की प्रति एकड़ पैदावार को भी दुगना-तिगुना कर देते। कर्नाटक के पथरीले इलाकों में घास का तिनका भी नजर नहीं आता, वहाँ न सिर्फ गन्ने के जंगल के जंगल खड़े कर देते, बल्कि उनमें जंगली हाथियों और खुमरियों के रेवड़ के रेवड़ घुसा देते। जिस दिन हमारा सारा वेतन बारह घंटे के लिए कर्ज लिया उस दिन उनकी जमीनों का रकबा फैल कर इतना हो गया था कि समूचा सिंध उसमें समा जाए और फिर भी इतनी गुंजाइश रह जाए कि पंजाब के पाँच-छह जिले अपने सरकारी अमले और बदजबान पटवारियों समेत, उसमें खप जाएँ। अगले इतवार को पाक बोहेमियन काफी हाउस में मिर्जा ने पूछा, 'आपने कर्नाटक की जायदाद का क्लेम क्यों नहीं दाखिल किया?' झुंझला कर बोले, 'मुझे क्या बावले चूहे (हैदराबाद में कभी प्लेग फैल गया था, मुहल्ले के मुहल्ले साफ हो गए तभी से मुहावरे में कुत्ते की जगह चूहा घुस आया) ने काटा है? मैं क्लेम में किले के बदले क्वार्टर नहीं लेना चाहता। रियासतें भी कहीं राशन कार्ड पर एलाट हुई हैं। अफसोस आपका कभी रईसों से वास्ता नहीं रहा। पोतड़ों के रईसों की खू-बू सौ साल तक नहीं जाती' अगर लफ्ज खू (आदत) निकाल दें तो मुझे आपका दावा शब्द-शब्द स्वीकार है। मिर्जा ने हुज्जत की।
इंडियन आर्मी से डिस्चार्ज हुए सात-आठ साल होने को आए थे लेकिन बलिदान देने और लेने की आग अपने 36 इंच के सीने में दबी रखते थे। एक दिन कहने लगे जब मैं केनरा बैंक में चीफ कैशियर था तो तीन डाके पड़े।
'डाके'? हमने किस से पूछा' जी हाँ! बैंक में डाके नहीं पड़ते तो क्या ओले पड़ते? अपनी हाजिरजवाबी से हमारा खुला मुँह बंद करके उन्होंने बड़े विस्तार से पहले डाके में अपनी तेज दिमाग़ी का किस्सा सुनाया जिसका खुलासा ये था कि जैसे ही डाकू ने 38 बोर का पिस्तौल निकाला, उन्होंने बड़ी दिलेरी से एक-एक हजार रुपए के नोटों की गड्डी उसकी कनपटी पे रख कर पिस्तौल लूट लिया।
इंद्र का अखाड़ा : 1940 ईसवी में सेना में भर्ती होने से पहले कोचीन हो आए थे कि जिंदगी का भरोसा नहीं। मरने के बाद तो गुनाह का मौका स्वर्ग में भी नहीं मिलने का। बैंक में रोज शाम को इंद्र सभा सजाते और एनार्कुलम की नारियों की छब दिखलाते। शोख बच्चे की गेंद की तरह टप्पा खाती हुई द्राविड़ी काठी, कॉफी जैसी महकती-दहकती रंगत, उभरे-उभरे जामुनी होठ। खाल जैसे कुंवारी थाप तले कसी हुई ढोलक, काले ग्रेनाइट की चट्टानें आदमी के रूप में। कहते थे वहाँ कोई गृहस्थिन, शरीफ औरत अपने सीने और पेट नहीं ढांकती। अंधेरे उजाले कोई औरत चोली पहने हुए नजर आए तो इसका मतलब है कि बिकाऊ माल है और साथ रात बिताने की दावत दे रही है। भले घरानों में वो अंग जो रूप की राजधानी हैं, कपड़ों के अलंकार के मुहताज नहीं होते। हरचंद कि वो कोचीन में तीन रात से अधिक नहीं ठहरे लेकिन उसमें ही जो उनकी इच्छा भरी आँख ने देखा वो हमारे होठों पे नहीं आ सकता। रोज एक रंग के विषय को सौ ढंग से बताते। हर शाम एक नई खुमरी का नखशिख वर्णन करते और हमारी विषयाग्नि को पेट्रोल से बुझाने की कोशिश करते।
मद्रास छोड़े मुद्दत हो चुकी थी लेकिन उसकी बुराई किसी तरह बर्दाश्त न थी। एक दिन मद्रासी कॉफी, लुंगी, पापड़, सर राधा कृष्णन और अचार की तारीफ करते-करते मुँह से निकल गया कि बंबई वाले गंवारों की तरह चीख-चीख कर बोलते हैं और बंबई के अलावा हर शहर को.... लंदन, न्यूयार्क और पेरिस को भी .... बाहरगाँव कहते हैं। इसका उत्तर बंबई के प्रतिनिधि, कराची के वर्तमान निवासी, अब्दुल रहमान हाजी सुतली वाले ने ये दिया कि मद्रास में यूनिवर्सिटी का वाइस चांसलर भी तहमद बाँधे सड़क पर नंगे पैर घूमता है और औरतें साड़ी के नीचे पेटीकोट नहीं पहनतीं। इस पर दोनों में खूब धर-पटक हुई। एक दूसरे को इस बेदर्दी से उठा-उठा कर फेंकने लगे जैसे कुली मालगाड़ी में से वो पेटियाँ उठा कर फेंकते हैं जिन पर fragile लिखा होता है। जब दोनों में फेंकने और फिंकवाने की क्षमता न रही तो एक दूसरे से गुत्थम-गुत्था होकर फर्श पर पड़ रहे। दोनों प्रांत किसी तरह अलग होने का नाम नहीं लेते थे। अंत में हमने ये कह कर बीच बचाव कराया कि साहिबो! हमें देखो, हमारे छोड़े और छूटे हुए वतन राजस्थान में ये सब जब्त की जाने वाली वस्तुएँ पाई जाती हैं मगर हमने तो किसी बाहरगाँव वाले का सिर नहीं फोड़ा। हरी मिर्च के अचार और कच्ची राजस्थानी चुनरी से गाल लाल गुलाल, गले से एक बालिश्त नीची चोली जिसकी धाईं में फिसलने के लिए निगाह भर का रास्ता, सिंघाड़ा से टखने से एक हाथ ऊँचा लंहगा और फिर -
रात जले कुछ जगमग - जगमग होवत है
कोई ओढ़े चुनरिया सोवत है
हमने तो इन चीजों पर कभी हाथापाई नहीं की। बोले अस्ल लड़ाई तो हाथ-पैर की होती है। ये कमीनों की तरह जबान चलाता है।
प्रदर्शित आवारगी और हा हू के बावजूद अपनी तंदुरुस्ती का बहुत ध्यान रखते। उल्टी-सीधी योग की कसरतें करते, सूरज निकलने से पहले पद्मासन में दम साधे, अपनी नाक पर निगाह जमाए संसार पर चिंतन करते। अक्सर उपदेश देते कि अनावश्यक साँस न लो। साँस बचाओ। कल काम आएगी। जितनी साँस कम लोगे, उतनी ही संख्या में साँसों में उम्र बढ़ जाएगी। उनके इस कार्य से दफ्तर में आक्सीजन की काफी बचत हो जाती। निहार मुँह दो गिलास नमक का पानी पी कर उल्टी करते फिर नथुने में सूत की डोरी का फतीला चढ़ाते, यहाँ तक कि उसका दूसरा सिरा हल्क से निकल आता। फिर उसे हौले-हौले खींच कर निकाल लेते। इस क्रिया को दोहरा कर दोनों नालें साफ करते। ये उन्हीं से मालूम हुआ कि इससे दिमाग रौशन और आत्मा विकसित, ऊर्जादीप्त होती है वर्ना हम तो अब तक इसी भ्रम में थे कि नाक साफ करने से नाक ही साफ होती है। अक्सर उपदेश देते कि सफलता के लिए स्वास्थ्य, परिश्रम, उदारता और बुद्धिमत्ता अत्यंत आवश्यक है और इसके सुबूत में अपने आपको पेश करते।
उनसे छोटे-बड़े जितने भी सकेंडल जुड़े हुए थे उनके आविष्कारक, निर्माता, व्यवस्थापक और प्रचारक वो स्वयं ही बताए जाते थे। अपने बारे में किए गए आधारहीन अनुमानों की वो हमेशा पुष्टि कर देते थे। अपनी शान में तमाम गुस्ताखियों और शरारतों के सूत्रधार दरअस्ल वो स्वयं थे। एक उम्र ऐसी भी आती है कि आदमी को तुहमत से खुशी मिलती है कि चलो इस लायक तो समझा। अनगिनत तुहमतें अपने ऊपर लगा ली थी जिनकी गिनती जोश साहब की आत्मकथा के 18 इश्कों से कहीं अधिक होगी।
प्रसिद्ध था कि हिरनियों का पीछा करने में खुतन (चीन का एक नगर जहाँ की कस्तूरी प्रसिद्ध है) से भी आगे जा चुके हैं। 'पे डे' पर red light area में दिल में उजाला कर लेते हैं। हालाँकि कराची के बाजारे-हुस्न में जितनी बदसूरती फी-इंच कूट-कूट कर भरी है उसकी मिसाल दुनिया में शायद ही मिले सिवाय कराची टी.वी. के। मगर कुंजू इस मामले में रंग, नस्ल, मजहब, जबान, कद की भिन्नता से भी ऊपर थे।
तेग तो तेग है हम तोप से लड़ जाते थे
बल्कि इस मैदान में अधेड़ उम्र के चचा इब्तिसाम बेग की प्रांतवादिता की खुल्लम खुल्ला खिल्ली उड़ाते कि 'बुढ्ढा हो गया मगर ठिरक नहीं निकली, चलो माफ किया मगर शराब शौक फरमाने की गरिमा से भी परिचित नहीं। इस कूचे में सारे विरोध मिट जाते हैं। आवारगी में भी प्रांतीय पक्षपात करता है। अपने प्रांत की तवायफ के सिवाय किसी की इज्जत नहीं लेता हालाँकि वो अब बिल्कुल खंडहर हो चुकी है जिसमें अब सिर्फ चमगादड़ें उल्टे पैर करके लटक सकती हैं। एक दिन मैंने बहुतेरा ललचाया कि हीरा मंडी में कुछ अधकचरा-अधकतरा माल आया है। अपन के साथ जापानी रोड चलो, पर बेग चचा नहीं माना। कहने लगा नहीं मैं तो उसी के पास जाऊँगा। उसने मेरे अच्छे दिन देखे हैं...
निकाह का छुहारा : सुना है औरत जीवन में केवल एक बार मुहब्बत करती है। इसका मतलब शायद यह है कि औरत एक ही मर्द से जीवन में एक बार से अधिक मुहब्बत नहीं करती। इसे हमारी गलत सोच ही समझिये, वरना हम तो मर्दों के बारे में भी कोई बात भरोसे से नहीं कह सकते इसलिए कि जो दिन दिल के बेलगाम, बेमुहार छोड़ने के थे, उस जमाने में करीब और दूर के बुजुर्गों ने दुआओं और उपदेशों से हमारी शारीरिक नाकाबंदी कर रखी थी। फिर भी हमारा विचार है कि मर्द भी इश्क-आशिकी सिर्फ एक ही बार ही करता है दूसरी मर्तबा अय्याशी और उसके बाद निरी बदमाशी। बकौल प्रोफेसर काजी अब्दुल कुद्दूस, एम.ए. आदमी खताओं और बुराइयों का पुतला है लेकिन नहास पाशा कुंजू के हर इश्क में उन्माद और ऊलजलूलपन का यह आलम कि जैसे ये दिल की पहली और आखिरी वारदात है, इसके बाद खुदकुशी कर लेंगे और अगर इसमें कामयाब न हो पाए तो निकाह कर लेंगे। चुनांचे सारी उम्र खुदकुशी और निकाह की सरहद पर अंधा भैंसा खेलते रहे। एक दिन डींग मारने लगे कि यह मेरा तीसरा निकाह है। निवेदन किया कि हमें तो एक बीबी भी आवश्यकता से अधिक मालूम होती है, लेकिन शरअ में चूँकि एक से कम, यानी बट्टा या टोटे की अनुमति नहीं इसलिए इस ईश्वरी कृपा के शुक्रान और भुगतान के सिवा चारा नहीं।
कहकहे के बाद बोले, देहात में ऊँट को कोई भी मरज हो - दस्त, कब्ज, बुखार, गठिया, अफारा, रतौंदी हर मरज की दवा एक ही है, लोहे की दहकती सलाख से दाग दिया जाता है। जाड़े में मस्त हो जाए तो दाग देते हैं। मस्त न हो तब भी दाग देते हैं कि सुस्त क्यों है। इसी तरह अपने हाँ हर मरज का इलाज, हर चिंता का निकास निकाह है। एक से पूरा न पड़े, चैन न आए तो दोबारा, तिबारा दागते हैं।
न मिरा इश्क फरिश्तों जैसा : कुछ दिनों से सुनने में आ रहा था तबियत फिर बहार पर है। एक ब्याही-त्याही पड़ोसन के गुलों में रंग भर रहे हैं। दिन भर लोहार की धोंकनी की तरह आहें भरते और डूब कर इश्किया शेर पढ़ते। स्त्री वशीकरण के लिए एक संन्यासी बाबा का दिया हुआ काजल लगाने लगे थे, एक दिन हमने टोका कि आपकी इच्छिता तो शादी-शुदा है। बोले जभी तो काजल लगाना पड़ रहा है वरना सुरमा ही काफी था।
उनके मियादी इश्क का काल एक घंटे से एक साल तक हो सकता था। लेकिन उस एक घंटे में जिससे 3600 लजीज सेकिंड होते हैं, वो भूत-प्रेत की तरह चिपट जाते थे। बताते थे कि नीलगिरि पर्वत की तलहटी में एक पहाड़ी 'खुमरी' ने उनसे बेवफाई की तो उन्होंने वहीं कुल्हाड़ी से नाक काट ली। इस पर चाचा फजलदीन चौकीदार ने टोका कि भला कुल्हाड़ी से नाक कैसे काटी जा सकती है। टाँग अलबत्ता काट सकते हैं। बोले तो फिर टाँग ही काटी होगी, कुछ काटा जुरूर था।
हसीनों की संख्या अधिक हो और कुंजू सिर्फ एक की अल्पसंख्या में हों तो हिम्मत नहीं हारते थे। कसाई कहीं भेड़ों की अधिकता से घबराता है, या प्रोफेसर काजी अब्दुल कुद्दूस के कथनानुसार, हाथी के सामने जितनी बार केला फेंको सूंड से उचक लेता है। उन दिनों कराची में पावंदे आए हुए थे। उनके घर से दो फर्लांग दूर उन्होंने अपनी पैवंद लगी छोलदारियाँ गाड़ रखीं थी। एक पावंदे की बीबी पर जान-माल से फिदा हो गए। कहते थे जब वो चटकीली धूप में एल्यूमीनियम की उल्टी पतीली सिर पे ओढ़ के पानी भरने निकलती है तो बिल्कुल मलिका मालूम देती है। पशमीने के खेमे में रहती है। एक दिन बैठे-बैठे कुछ ध्यान आया तो अपनी कुर्सी से गद्दी निकाल कर हमारी तरफ फेंक दी कि जब वो प्याल के बिछौने पर सोती है तो मैं इस गद्दी पर किस तरह बैठ सकता हूँ। वो मुँह अंधेरे फ्रेंच जाली का गट्ठर सिर पर रख कर अकेली बेचने निकल जाती। शौहर दिन भर रायफल गले में लटकाए बकरी और मुर्गियों की रखवाली करता। सुर्ख पिशवाज में खंजर उड़से रखती थी। तीसरे चौथे नहास पाशा कुंजू उससे एक आध गज कपड़ा खरीद लेते, जिसका लंगोट भी नहीं बन सकता था। इसलिए कि जहाँ तक हमारी अक्ल काम करती है, जाली का लंगोट सिर्फ मच्छरों से कुश्ती लड़ने के लिए कसा जा सकता है। दिन भर जाली पर हाथ फेरते और सूँघते रहते।
शहजादा गुलफाम और लंदन : विश्वयुद्ध की समाप्ति के बाद न जाने किस खाते में दो महीने लंदन गुजार आए थे। दस पौंड का एक चैक भुनाने के उत्सव में वैस्ट मिनिस्टर बैंक का पाँच मिनट तक गौर से मुआयना किया। इन अनुभवों से दो घंटे तक हमें लाभांवित करते रहे। हर शनीचर की शाम को एक नाइट क्लब के डांस की ऐसी तस्वीर खींचते कि क्या कहिए बल्कि कुछ न कहिए। एक बार नाच के दौरान हमें मुस्कुराते देख कर बोले आप क्या जानें? एक ही जलवे में आप जैसों की तो नकसीर फूट जाए। चश्मे के शीशे तड़ख जाएँ। स्ट्रिप टीज डांसर को इस तरह नचवाते कि वो बेपर्दा उनकी आँखों के सामने हुस्न की किताब के पन्ने पलटती चली जाती, यहाँ तक कि उनका पारा बिखर जाता।
कुंजू स्पेनिश और फ्रेंच भाषा पर फिदा थे। इसलिए कि वापसी में मैड्रिड और पेरिस में ठेकी ली थी। ऐफिल टावर की आखिरी मंजिल पर उन्होंने हसीनाओं की उपस्थिति में कानों में उँगलियाँ देकर अजान दी थी जिसे चर्चा के दूसरे पक्ष ने कानों में उँगलियाँ दे कर सुना था। क्लिक, क्लिक, क्लिक फोटो पे फोटो खींचे गए। कहते थे, 'स्पेनिश बहुत आसान भाषा है, मेड्रिड में मैंने तीन साल के बच्चों तक को स्पेनिश बोलते देखा' हमारी सांत्वना के लिए उन्होंने स्पेनिश बोल कर दिखाई, लगता था सचमुच तीन बरस का बच्चा बोल रहा है।
पहला ऐशियाई : अगर शेखी बघारना और झूठ बोलना पुलिस के हस्तक्षेप के लायक जुर्म होते तो उनके हाथों में स्थाई रूप से हथकड़ी पड़ी रहती और हम मुजरिम की नकल करने के जुर्म में सारी जिंदगी जंगले के पीछे मुँह पर रूमाल डाले गुजारते। तीसरे चौथे महफिल जमती। वही हंगामे वही हाओ-हू। एक दिन तरंग आई तो कहने लगे कि मैं पहला एशियाई था जिसने 1944 में इंग्लिश चैनल क्रॉस करने की हिम्मत की, वरना उस जमाने में तो कालों को स्विमिंग पूल में भी पैर भिगोने की अनुमति नहीं थी। जिस वक्त उन्होंने कसरती बदन पर ग्रीस लगा के इंग्लिश चैनल में छलाँग लगाई तो सैकड़ों गोरी 'खुमरियाँ' उन्हें पानी के हवाले करने आई थीं। एक लहर के बिल्लौर में लालची बगुला मछली की दुम चोंच में दबाए साफ नजर आ रहा था। जैसे ही उन्होंने या अली! कह के छलाँग लगाई, बर्फ की चादर में उनकी पूरी आउट लाइन तरश गई। जिसमें उनके डौले और रानों की मछलियों के उभार साफ नजर आते थे। 'खुमरियाँ' भौंचक्की हो कर देख रही थीं। इसलिए कि मैं पहला एशियाई था...
वो फूलदार लंगोट बाँधे प्रदर्शन करने में व्यस्त थे कि हमारी हँसी निकल गई। उन्होंने खुद को संभाला, आखिर को घाघ थे। कहने लगे बात खत्म होने से पहले ही ही ही ही! ठीठी करने का क्या मतलब? मैं कह ये रहा था कि मैं पहला एशियाई था जो इंग्लिश चैनल में छलाँग लगाते ही बेहोश हो गया था।
दूसरे विश्वयुद्ध के हीरो : महीने में एक दो बार ऐसा भी होता कि रात के ग्यारह बज जाते और एकाउंट किसी तरह बैलेंस होने का नाम न लेता। हिसाब को हर ब्रांड के सिग्रेट की धूनी और चाय के तरेड़े दिए जाते, लेकिन दो और दो किसी तरह चार न हो पाते। फर्क कभी एक लाख का निकलता और कभी सिकुड़ कर तीन पाई का रह जाता जो इस पेशे में एक लाख से जियादा जानलेवा और जोखिम का होता है। यह फर्क बारिश में भीगी हुई चारपाई की कान की तरह होता है। एक पाए पर बैठो तो दूसरा उठ खड़ा होता है। सारे मुहल्ले के लौंडों, लाडियों को कुदवाना पड़ता है। एक रात नहास पाशा कुंजू ने तरस खाके चुपके से अपनी जेब से एक पैसा डाल कर हिसाब बैलेंस कर दिया। उस रात तो सब खुश-खुश घर चले गए लेकिन दूसरे दिन अस्ली गलती मिल गई। तीन हफ्ते तक उस पैसे के कारण एकाउंट बैलेंस न हो सका। ये पैसा फूली हुई लाश की तरह हिसाब की सत्ह पर तैरता रहा और हमारी रातें काली होती रहीं। जब ऐसी काली रात आती तो एक-डेढ़ बजे पटाखे चलने की आवाजें आतीं। होता यह था कि नहास पाशा कुंजू जब तंग आ जाते तो हजार-हजार पेज के लैजर इतने जोर से बंद करते और पटखते कि पटाखे छूटने लगते। ये घोषणा होती इस बात की कि हिसाब किताब जाए भाड़ में। अब द्वितीय विश्वयुद्ध से संबंधित आपबीती का ट्रेलर दिखाया जाएगा। सब अपने-अपने बिलों से निकल कर उनके आस-पास इकट्ठे हो जाते और वो अपने शाहनामे के अलग-अलग हिस्से सुनाते जिनसे साबित होता था कि जर्मनी की पराजय में उनकी केंद्रीय भूमिका थी। सिद्दी रजीग में एक कुँए की मुंडेर की ओट लेकर उन्होंने थ्री नाट थ्री रायफल से एक ही गोली ऐसी मारी कि लुफ्ट वाफे जहाज के दोनों पर झड़ गए और वो फड़फड़ाता हुआ पेट के बल कुँए में आन गिरा। तबरक में जनरल रोमेल ने उनसे टक्कर ली। सच और झूठ का संग्राम था। बुरी शक्तियाँ एक तरफ, खुदाई फौजें दूसरी तरफ। उन्होंने युद्ध के मैदान में खुदा के पक्ष में एक जोशीला भाषण दिया जिसके बाद बड़ा खून-खराबा हुआ। 'घमासान का युद्ध हुआ। ऐसा कंफ्यूजन था कि पता नहीं चलता था कि गोली खुद को लगी है कि साथी को। जिधर नजराँ उठा के देखो बंदूखाँ, तोपाँ ठाँय-ठाँय चल रही हैं। मौतां हो रही हैं। जिंदगी का पहला मौखा था कि एक घंटे तक औरताँ का खयाल नहीं आया। मौत का फरिश्ता सिर पे चक्कराँ पे चक्कराँ लगा रहा है। घोड़ाँ और टैंकाँ एक दूसरे पर टक्कराँ पे टक्कराँ मार रहे हैं....।'
'घोड़े'? हमने आश्चर्य से पूछा
'और क्या हाथी टक्कराँ मारते? हाथियाँ का इस्तेमाल तो पोरस की मौत के बाद ही बंद कर दिया गया था। हाँ तो मैं ये कह रहा था कि चारों तरफ तोपाँ गोलाबारी कर रही थीं, तीन गोले तो मेरे डेंटर पर लगे।'
उन्होंने बाईं आस्तीन उलट कर तीन बहुत स्पष्ट निशान दर्शकों को दिखाए। ऐसी तीन बहुत स्पष्ट निशान हमारी बाईं बाँह पर भी है, आपकी बाँह पर भी होंगे। हमने पूछा 'तीनों गोले एक साथ लगे'? तिलमिला उठे, कहने लगे 'जी नहीं खिबला! क्यू बना कर बारी-बारी पधारे थे।' सबने हमारे मूर्खतापूर्ण सवाल पर जोरदार अट्टहास किया।
हमारी और उनकी पेशी : टेलीफोन से दस मिनट का बिछोह भी सह्य न था। कितने भी व्यस्त हों... हमारा अभिप्राय है गप्प मारने में व्यस्त हों... फोन जुरूर कर लेते थे। चाहें 197 (पूछताछ) से यही पूछना हो कि यह टेलीफोन डैड तो नहीं है। डायल घुमाते-घुमाते उनकी फोन की उँगली में ठेक पड़ गई थी। कहीं भी छेद दिखाई पड़े तो उसे घुमाने की कोशिश जुरूर करते थे। दिन भर ग्राहकों से या आपस में गप्प लड़ाते रहते। शाम को छह-सात बजे कमीज के कफ पर स्कॉचटेप से ब्लाटिंग पेपर चिपका कर बैठ जाते। बाउचर्स और लैजर पर तेजी से हस्ताक्षर करते जाते और कफ से रौशनाई सुखाते जाते। कुछ दिन बाद किसी मुँहजले ने जड़ दी कि बिना चैक किए अंधाधुँध हस्ताक्षर कर देते हैं। सबूत में रजिस्टर और लेजर पेश किए जिनकी एंट्रियों पर चेकिंग के टिक मार्क नहीं थे। मिस्टर एंडरसन के सामने उनकी पेशी हुई। खूब लताड़े गए लेकिन बाहर आकर कहने लगे कि मैंने जनरल मैनेजर का दरवाजा ठोकर मारकर खोला (सुबूत में अपना जूता दिखाया जिसकी नोक से पालिश ही नहीं, कुछ चमड़ा भी दो महीने से उतरा हुआ था। एंडी बड़े प्यार से मिला। देर तक वर्ड-वार की बातें होती रहीं।
दूसरे दिन उन्होंने अपने विशेषाधिकार चाचा फजलदीन को शिफ्ट कर दिए। चौकीदारी के अलावा अब उसकी यह भी ड्यूटी हो गई कि बंदूक को लालची बच्चे की तरह छाती से लगाए शाम को उकड़ूँ बैठा झूम-झूम कर एंट्री के सामने चैकिंग के टिक मार्क लगाता जाए। जब वो काम करता तो ऐसा लगता कि लेजर पर आटा गूँध रहा हो। बेचारा अनपढ़ था। इसीलिए एक घंटे में पाँच सौ निशान लगा देता था। स्वयं उनकी हिम्मत साढ़े तीन सौ से अधिक नहीं पड़ती थी। जिम्मेदारी का अहसास बुरी बला है।
अभी इस पेशी के चर्चे बंद नहीं हुए थे कि उनका फिर चालान हो गया। चपरासी ने सावधान किया 'बड़ा साहब आज शार्ट सर्किट की तरियों चड़-चड़ चिंगारियाँ छोड़ रिया है।' जुर्म का कारण ये कि इंस्टिट्यूट ऑफ बैंकर्स के तत्वावधान में 'राष्ट्रीय बचत और उसके प्रभावी उपाय' पर निबंध लेखन की प्रतियोगिता हुई थी। उसमें नहाश पाशा कुंजू ने एक चार लाइन का जब्त किए जाने लायक लेख लिखा था जिसमें हमारी भी आत्मिक भागीदारी थी। चुनांचे हम भी सुलतानी गवाह के तौर पर पेश हुए। लिखा ये गया था कि शासन अगर नोटों पर प्राकृतिक दृश्यों, टेढ़े-मेढ़े पेड़ों और मरम्मत न किए जा सकने वाले ऐतिहासिक खंडहरों (जिन पर सैंट्रल बैंक के गवर्नरों के हस्ताक्षर इस तरह होते हैं कि जैसे इस बुरी हालत के बनाने और बिगाड़ने के वही जिम्मेदार हैं) के बजाए NUDES (नंगी तस्वीरें) छापनी शुरू कर दे तो आजकल के नौजवान उन्हें स्वयं से अलग करके खर्च करने के बजाय अपनी जेब में सीने से लगाए रखने पर मजबूर होंगे। इस जमाने में नई नस्ल को फिजूलखर्ची से दूर रखने की यही एक उपाय है।
तांत्रिक साधना और लाल तोते : दो तीन महीने से कुंजू को हस्तलिपि समझने की झक लगी हुई थी। शाम को अलग-अलग हैंडराइटिंग और हस्ताक्षरों के नमूने सामने रख कर अपनी समझ-बूझ के आधार पर लेखन करने वाले के चरित्र के ढंके-छुपे कोनों पर रौशनी डालते। कहते थे कि मैं I पर नुक्ता लगाने और T काटने के ढंग से बता सकता हूँ कि लिखने वाले के जूते की ऐड़ी किस तरफ से घिसी हुई है। इतवार को किस समय सो कर उठता है। मोजे कितने दिन बाद धोता है। गंजा है या खपरैला। कई बार तो सारा चाल-चाल एक डैश, एक कौमे में निचुड़ कर आ जाता है। यही नहीं, यहाँ तक दावा करते थे कि मैं नमूने की चार लाइनें लिख दूँ और आदमी बिल्कुल उसी स्टाइल में नकल करता रहे तो सारा चाल-चलन खुद बदल जाएगा। हमने बड़ी बेसब्री से पूछा, क्या बाल भी उग आएँगे? बोले जब कश्ती साबितो-सालिम थी, जब सिर पर पूरे बाल थे तो आपको कभी उनसे कोई फायदा पहुँचा।
फिर एक दौर ऐसा आया कि वो चिंतित रहने लगे। कोचीन की अलिफ-लैला खत्म, मलयालम गीत रद, एक चुप सी लग गई। रात को चार बजे तक बैंक में न जाने किस उधेड़बुन में लगे रहते और दिन भर जम्हाइयाँ लेते रहते। इस अचानक बदलाव का कारण पूछा तो कहने लगे मेरे अब्बा का इंतकाल हो गया है। दूसरे एक जिन्नी मुझ पर आशिक हो गई है, जिसके कारण मेरे सीने के तीन बाल सफेद हो गए हैं। (रेशमी स्कार्फ हटाकर दर्शकों को चर्चित तीन अदद इश्क में डूबे बाल दिखाए।) जिन्नी के बेटे को अरबी का बगदादी कायदा पढ़ा रहे थे। एक दिन फरमाया कि तीन माह पहले का जिक्र है। मैंने टाट का कुर्ता पहना। मलेर के बाग में चालीस रात शेर की खाल पर बैठ के जलाली वजीफा पढ़ा (तंत्र साधना की।) मलयालम गाली, प्याज और लहसुन बिल्कुल छोड़ दिया। जिन्नी को बदबू आती थी। खजूर और ऊँटनी के दूध पर गुजारा था। ऊँटनी के दूध में बबूल के कांटों और आक का रस होता है। गंदे खून और खयालात की सफाई करता है। परिंदों की बोली समझने लग गया था। मुँह से तबला बजाता तो सारंगी और पायल की आवाज निकलती। जरा आँख बंद करता तो बिल्कुल सामने आ खड़ी होती।
'कौन' हमने बेचैन होकर पूछा?
'मौत! और कौन'
झुंझलाहट के बाद कुछ देर मौन रहे, फिर बिजली गिराने के सिलसिले को जारी रखते हुए बोले 'उंतालीसवीं रात को आधे चाँद की रात थी। एक बजे के आसपास खजूर खा कर गुठली थूकी तो वहीं पीपल का पेड़ उग आया। अब जो हौज में चलते हुए फव्वारे के ऊपर खड़े हो कर नहाने लगा तो देखता क्या हूँ कि हर बूंद का एक लाल तोता बन गया है और पीपल के एक-एक पत्ते पर बैठकर अल्लाहू-अल्लाहू कर रहा है।
'लाल तोता?' हमसे न रहा गया। खान सैफुल मलूक खाँ ने हमें टहूका दिया। कहने लगे 'चुपकर बदबख्ता! यहाँ और कौन-सी बात साइंस के हिसाब से हो रही है जो तुझे तोते के रंग पर अचम्भा है।'
अपनी बात आगे बढ़ाते हुए बोले 'अजानों के समय 101 तावीज पतंग के कागज पर केसर से लिखकर, सुहागन के हाथ के पिसे हुए आटे की गोलियों में लपेटता और सेठ गफ्फार भाई ने जो फैंसी मछलियाँ हौज में पाल रखीं थीं उन्हें खिला देता। जर्मनी से टैक्सटाइल मिल मशीनरी के साथ एक फानूस और मछलियाँ, Accessories दिखाकर इम्पोर्ट की थीं। सब मुझे पहचानने लगी थीं। देखते ही दुम हिलाती आती थीं।'
'चालीस दिन बाद कुछ चमत्कार हुआ।'
'हुआ। सब मछलियाँ मगर गईं। मालियों ने मुझे धर लिया। ढाई सौ रुपए देने पड़े। इसे रिश्वत कह लो चाहे हरजाना। अब दूसरा मंत्र पढ़ रहा हूँ। सुबह भुने कपूरे खाता हूँ। बैंक से सुबह चार बजे सीधा क्लिफटन जाता हूँ और सूरज निकलने से पहले कमर-कमर पानी में खड़े होकर अमल पढ़ता हूँ। सौ के नोट को दस का तो इसी वक्त बना सकता हूँ, है किसी के पास? पूरनमासी की रात को श्मशान घाट जाता हूँ और राख आँखों से मलता हूँ। चैक पर किए हुए दस्तखत को निगाह भरके देख लूँ तो सारी रौशनाई उड़ जाए।'
चाचा फजलदीन : उस जमाने में टाइम भी बताते तो इस अंदाज से जैसे दैवीय अनुभूति हुई है। कलाई पर बंधी हुई घड़ी से इस सूचना का कोई संबंध नहीं। चचा फजलदीन बड़ी श्रद्धा से उनकी बात सुनता। एक साल पहले उसने अपने गाँव जाकर इस बुढ़ापे में तीसरी शादी की थी। निःसंतान था। दो बीबियाँ मर चुकी थीं, मगर वो अपनी नस्ल चलाने के लिए लड़का छोड़ना जुरूरी समझता था। दुल्हन के मेंहदी लगे हाथों से बालों में मेंहदी का खिजाब (मूँछों पर हमेशा काला खिजाब लगाता था, कहता था मेंहदी लगी मूँछ को मुटियार और डाकू कुछ नहीं समझते) लगवाकर अजीब-सा हुलिया बनाए लौटा। एक दिन कहने लगा कि बुढ़ापे की शादी और बैंक की चौकीदारी में जरा फर्क नहीं। सोते में भी एक आँख खुली रखनी पड़ती है और चुटिया पे हाथ रख के सोना पड़ता है। हमने गुजराती की कहावत सुनाई कि जवानी की बीमारी, बुढ़ापे की गरीबी, जाड़े की चाँदनी और बुढ़ापे की शादी पे हुक्के का पानी (यानी लानत)। हमने कहा चाचा! तुमने तीन शादियाँ कीं और कोई सबक हासिल न किया। बोला क्यों न किया। आइंदा किसी की बीबी या पक्की उम्र की औरत से शादी नहीं करूँगा। मेरी तौबा है।
चंद दिन पहले गाँव से पोस्टकार्ड आया था कि आपकी सब गाएँ, ढोर-डंगर खैरियत से हैं। पंच कल्याण भैंस के दो थन मारे गए। अल्ला दत्ता मिस्त्री की बाईं आँख फ्यूज हो गई और ये कि आपके बाल-बच्चे के यहाँ बाल-बच्चा हुआ है। बहुत होनहार और काला है। चचा फजलदीन ने चैक की सियाही उड़ाने वाली करामात बड़ी श्रद्धा और ध्यान से सुनी। उसकी इच्छा थी कि कुंजू नवजात के चेहरे की सारी सियाही चूस लें। वापसी डाक से उसका फोटो मँगवाने को तैयार था।
अब कुंजू बताते कि मेरे दादा जान आजादी की लड़ाई के योद्धा थे। उन्होंने अंग्रेजों के खिलाफ जंग की, जिसमें उनका सिर शहीद हुआ। हजरत अपना कटा सिर बाईं हथेली पर रखे और दाएँ हाथ से तलवार चलाते, खूनम-खून काले रंग के घोड़े पर सवार श्रीरंगापट्टम से बंगलौर आए। तेरहवें मील पर पहुँच के वो और मुश्की घोड़ा शहीद हुए। अपनी जनाजे की नमाज खुद पढ़ायी और सलाम फेर के गायब हो गए। पीर घोड़ा शाह का मजार आज भी वहाँ है।
इस सिलसिले में खान सैफुल मलूक खान ने ये रिसर्च की थी कि इसका दादा एक अरबी घोड़े की चोरी के इल्जाम में पकड़ा गया। कोतवाल ने मुँह काला किया और काले गधे पर उल्टा बिठाके शहर से निकाला। कालिख की वज्ह से पता नहीं लगता था कि दादा कहाँ खत्म होता है और गधा कहाँ से शुरू होता है। चर्चित गधे की टाँगों में जब तक जान रही चलता रहा। अंत में तेरहवें मील पर पहुँचकर ऐसा बैठा कि फिर न उठा। यहीं उसकी कब्र बनी। दादा भी यहीं टिक गया। कुछ अर्से बात जब उसकी मौत हुई तो यहीं दफनाया गया। बंगलौर वालों की बेध्यानी से कब्रें गडमड हो गईं। बड़े बूढ़ों का कहना है कि उनका मजार काले गधे की पायंती है, मुजाविर कहते हैं सिरहाने। बहरहाल ये खोज न हो सकी कि किसमें कौन आराम कर रहा है। एक लाल बुझक्कड़ ने ये भी बताया कि दोनों एक साथ मरे और वो गधे पर बैठा हुआ, उसी पोज में दफना दिया गया और उसी पर अनंत नींद में सो रहा है। चुनांचे मजार की ऊँचाई उसकी लंबाई से जियादा है। दूसरी कब्र खाली है। खुदा ही बेहतर जाने....
कम खर्च ऊँचे घर का रहन - सहन : तरह-तरह की खबरें सुनने में आ रही थीं। खान साहब ही कहीं से ये खबर लाए कि सैकिंड लेफ्टिनेंट एन.एम.यू. एम.एन.पी.कुंजू सरासर फ्राड है। पहले दर्जे का झूटा लपटाई। सैकिंड लेफ्टिनेंट नहीं है। हद ये कि कुंजू भी नहीं है, अस्ल नाम कुछ और है। मद्रासी भी नहीं। वजीफे और जंतर-मंतर सब बकवास है। घटिया आदमी है। कपड़े के इम्पोर्टरों से एक गज लट्ठा तक लेने से नहीं चूकता। चावल के गोदाम चैक करने जाता है तो हर बोरी में तीन बार सुम्मा घोंपता है और जो बांगी निकलती है उसे झोले में बटोर कर ले आता है। कपड़ा और चावल नजीर मुहम्मद चपरासी को बख्श देता है। जिसके नौ बच्चे हैं। खुद इंश्योरेंस कंपनियों से कमीशन खाता है। बैंक के कर्जदारों से कर्ज लेता है। बीबी भी सगी नहीं है। एक यूँ ही सी औरत के साथ यूँ ही सा रहता है। इस इकट्ठे होने में दोनों ने शरअ (इस्लामी कानून जिसके नियमों से निकाह बँधता है) का हस्तक्षेप नहीं होने दिया।
मन तिरा काजी बगोयम तू मिरा काजी बगो : मुँहबोली बीबी है। वही उसकी ऊपरी आमदनी का ऊपर उतारती है। इसके अलावा कर्ज के जोर पर गली-गली, दर-दर, औरत-औरत मारा फिरता है। पिछले साल तो एक तवायफ ने उसे घर में डाल लिया था। कम खर्च ऊँचे घर का रहन सहन।
हमने कहा 'आवारगी अपनी जगह, मगर इसमें भी तो चमन के सौंदर्य का सुबूत दिया जा सकता है।'
मिर्जा बोले 'किस दुनिया की बात करते हो। बकौल अशरफ सुबूही, रोना तो यही है कि जिसमें रस है, उस पे बस नहीं और जिसपे बस है उसमें रस नहीं और दिल की बात पूछो तो जब तक सीख कबाब में से दहकते अंगारों और धुएं की लपट न आए, चटखारा नहीं आता। जैसे भरी पूरी संपूर्ण रागिनी होती है, वैसे ही संपूर्ण नारी होती है। संपूर्ण रागिनी इकतारे पर नहीं बजा करती। मेरे सरकार!'
गबन गाथा : ये आज से लगभग पचास बरस पहले की बात है लेकिन हमें अच्छी तरह याद है कि उस दिन जुमेरात (बृहस्पतिवार) थी। इसीलिए कि जुमेरात को वो काम शुरू करने से पहले अपनी डैस्क पर एक मैसूरी अगरबत्ती जलाते थे। उस दिन वो तबियत की खराबी का बहाना करके घर चले गए। दूसरे दिन भी नहीं आए। तीसरे दिन खाते बैलेंस किए गए तो एक लाख का फर्क आया। रात भर दस बारह आदमी गलती की खोज लगाते रहे, सुबह पाँच बजे रहस्य खुला कि नहास पाशा कुंजू ने एक खाते से एक लाख रुपए अपने जाली एकाउंट में ट्रांसफर करके गबन कर लिए। आदमी दौड़ाए गए, मगर उनका सुराग न मिला। इतवार को ग्यारह बजे रात पुलिस अपनी तफ्शीश से इस निष्कर्ष पर पहुँची कि वो जुमेरात को बैंक से एक लाख रुपए निकाल कर सीधे एयरपोर्ट गए और ग्यारह बजे की फ्लाइट से बंबई चले गए जहाँ वो बैंक और कानून की पकड़ से बाहर थे। उस दिन चाचा फजलदीन बहुत रोया। गम में रोटी नहीं खाई। कभी तैश में आ कर कहता 'अगर तुझे चोरी ही करनी थी तो मर्दों की तरह गाय भैंस चुराता। यह क्या झक मारी?' फिर सिर पीट कर कहता 'बेटा यह तूने क्या किया अगर तुझे पैसे की ही हवस थी तो मुझे बताया होता। मैं अपनी सारे महीने की तनख्वाह तुझे दे देता। अब क्या होगा?' एक बार एकाउन्टेंट छुट्टी पर था और नया मैनेजर तिजोरी की दोनों चाबियाँ खुली दराज में रखी छोड़ गया। उस समय तिजोरी में दस लाख रुपए थे। चाचा फजलदीन चाबियों को सीने से लगाए रात भर ला इलाहा इल्लल्लाह रटता, टहलता रहा। उसकी बीबी टी.बी. की आखिरी स्टेज में मुँह से खून डालती, इलाज को तरसती खानेवाल में अपने मैके में दम तोड़ रही थी। चाचा को केवल चार सूरतें (कुरआन के भाग) और 73 तक गिनती आती थी कि यही उसकी तनख्वाह थी। दस लाख रुपए में तो बकौल उसके इतनी भैंसे आ सकती थीं कि सारे का सारा गाँव अपने प्यारों से खाली कराना पड़ता और उसने तो सिर्फ आदमी कमाए थे।
उस जमाने में एक लाख रुपए का गबन आज के एक करोड़ के बराबर होता था। बैंकों में बरसों ऐसी वारदात के चर्चे रहते बिल्कुल उसी तरह जैसे बातूनी औरतें अपनी पिछली जचगी (बच्चा पैदा करने) की डींगें उस पल तक मारती रहती हैं जब तक उन्हें या श्रोताओं में से किसी को ताजातरीन जचगी न हो जाए। जिसने सुना, सिर पीट कर रह गया। उस प्रतिक्रिया से कुछ छुट्टी मिली तो एक दूसरे पर जुर्म की असावधानियों के आरोप लगाए गए। पुलिस ने पहले तो चार गवाहों के बयान कलमबंद किए फिर खुद उन्हें बंद कर लिया, मगर रुपया न बरामद हुआ। अलबत्ता कुंजू की दराज से इंक उड़ाने के कैमिकल के अलावा दो कापियाँ और चैक बुक भी बरामद हुईं। जिनमें वो जाली दस्तखत बनाने का अभ्यास किया करते थे। उनमें लेखक के हस्ताक्षर भी शामिल थे।
पाँच-छह महीने बाद बंबई से आने वालों ने बताया कि उस रुपए से उन्होंने बारह टैक्सियाँ चलाईं। जब वो चलते-चलते पाँच रह गईं तो औने-पौने ठिकाने लगा कर फिल्म प्रोड्यूसर बन गए और कोचीन की एक लोक कहानी फिल्मानी शुरु की लेकिन कहानी खत्म होने से पहले ओछी पूंजी खलास हो गई। हमारा खयाल क्या यकीन है कि फिल्म में हीरोइन की जगह जितनी साँवलियों और खुमरियों को उन्होंने डाला होगा। उसके लिए तो कारूँ का खजाना भी अपर्याप्त होता। लक्ष्मी जिस चोर दरवाजे से आईं थी उसी से रातों-रात उघल गईं। पैसे-पैसे और रात की बासी औरत के लिए मुहताज हो गए।
मगर वो यूँ हार मानने वालों में से नहीं थे। गुत्थी खोलने के लिए पैसा न हो तो फिर जबान की कैंची चलती है। अल्लाह ने उनकी जबान को बला की तासीर दी थी और आँख में जादू। उसी का करिश्मा कहना चाहिए कि अब वो बंबई के पीरों के पीर बने बैठे हैं और उनकी गिनती चमत्कारी पुरुषों में होती है। खानकाहे-आलिया दुनिया के दर्शन की जगह है और उनके जलाली वजीफों की सारे महाराष्ट्र और आंध्र प्रदेश में धूम है। आधी रात से तड़के तक मुसल्ले (नमाज की चटाई) पर बैठे रहते हैं और दुआ पढ़ते रहते हैं। अपना आपा मिट्टी में मिला चुके हैं। एक दिन कव्वाली की महफिल में हाल (उन्माद, सूफी मत के अनुसार तुरीय से पहले की अवस्था) आ गया तो उसी आलम में खानकाह से बाहर निकल आए और सिर के बाल नोचते और सीना पीटते, नंगे पैर चल दिए। पीछे-पीछे मुरीद और कव्वाल हारमोनियम उठाए 'बसद सामाने-रुसवाई सरे-बाजार मी रक्सम' गाते जा रहे थे। आधा मील तक इसी तरह सड़क पर दीवानों की तरह से रक्स चलता रहा। मैरीन ड्राइव पर ठठ लग गए। सारा ट्रैफिक जाम हो कर रह गया। 1970 में बंबई से आने वाले एक इस्माइली परिचित के हाथों उन्होंने मद्रासी कॉफी, चंदन की माला, सुर्मे और अपनी तस्वीर की भेंट भेजी। तस्वीर के नीचे वो पंजाबी टप्पा लिखा था जिसने कभी दिलों को गरमाया अैर जीवन की कठिनाइयों को आसान बनाया था। जाड़े-पाले में दिए भी तरफ देखने से भी गरमाई आ जाती है। गुजरी हुई सुहबतें एक-एक करके याद आईं और उनके साथ न जाने क्या-क्या याद आ गया। जब कोई किसी पुराने दोस्त को याद करता है तो दरअस्ल अपने को याद करता है। देर तक उस तस्वीर में अपने को देखा किए। वही चौड़ा माथा, वही हल्के से खुले होंठ, वही जहीन मुस्कुराती आँखें। पर न जाने किस ईर्ष्यालु जिन्नी की नजर लगी है कि दाढ़ी सफेद गाला हो गई है, फिर भी यह देख कर जरा ढारस बंधी कि आजकल आँखों में सुर्मा नहीं लगाते। काजल लगाते हैं। दुम्बालादार।
नक्शा हमारे पापी ताक का : हमें नाम, मर्दों के चेहरे, रास्ते, कारों के मेक, शेर की दोनों पंक्तियाँ, पहली जनवरी की वार्षिक शपथ, बेगम की सालगिरह और सैंडिल का साइज, ईद की नमाज के नारे, बीते साल की गर्मी-सर्दी, ऐश में खुदा का नाम और तैश (गुस्से) में नाखुदा का डर, कल के अखबार के हैडिंग, दोस्तों से नाराजगी के कारण और न जाने क्या-क्या याद नहीं रहता। नून. मीम. राशिद के भूगोल भूल जाने वाले हीरो की तरह हम इतना बड़ा दावा तो नहीं कर सकते कि -
उसका चेहरा उसके खद्दो - खाल याद आते नहीं
इक बरहना जिस्म अब तक याद है
इसलिए कि इस स्थिति में याददाश्त की खराबी से अधिक चाल-चलन की खराबी दिखाई देती है।
8 का अंक और हम : दिन महीने और सन याद नहीं रहे सिर्फ इतना याद है कि 26 तारीख थी। वो भी इसलिए कि किसी सन और महीने की 26 तारीख को ही एक ज्योतिषी ने यह वह्म हमारे दिल में डाला कि 8 का अंक या वो अंक जिनका जोड़ 8 हो जैसे 17, 26, 1961 वो कार, मकान या फोन नंबर जिनके अंकों का जोड़ 8 बने हमारे लिए बुरे साबित होंगे। हद ये कि 8 जैसे फिगर वालियों, आठवीं शादी, 62 साला औरत और सत्तरवीं सदी ईसवी से भी सावधान किया था। ये अजीब संयोग है कि जीवन की अधिकतर मायूसियां और नाकामियाँ उन्हीं तारीखों में प्रकट हुईं जिनका जोड़ ये मनहूस अंक बनता है। जिसे अब तो लिखते हुए भी दिल डरता है। इसका डर दिल में ऐसा बैठा है कि पिछले साल हम मनगोरा से पिंडी रात के एक बजे पहुँचे और दिसंबर की पूरी रात होटल इंटरकाटिंनेंटल के लाउंज में बैठ कर गुजार दी कि मनहूस 575 नंबर के कमरे में ठहरने की हिम्मत नहीं पड़ती थी और दूसरा कोई कमरा सुबह 7 बजे से पहले खाली होने का चांस न था। हम यह दृश्य देखने के लिए बिल्कुल तैयार नहीं थे कि सुबह हम उस कमरे में मुर्दा हालत में पाए जाएँ।
यथा संभव हम कोई नया कपड़ा, नया काम या सफर, मनहूस तारीख (8,17,27) को शुरू नहीं करते। उस दिन हमें जन्नत में भी जाने का अवसर दिया जाए (जबरदस्ती की और बात है) तो हम किसी उचित तारीख तक दुनिया ही में गुजर-बसर करने को प्रधानता देंगे। होने को तो हमारे हक में 8 नंबर का जूता भी अक्सर मनहूस साबित हुआ है लेकिन 7 नंबर काटता बहुत है। लाख इस superstition को दिमाग से निकालने की कोशिश करते हैं मगर कुछ न कुछ बात ऐसी हो जाती है जिससे इसकी पुष्टि होती जाती है। एक दिन हमने अपनी पैदाइश की तारीख, महीने और सन के अंक जोड़े तो हासिल 8 निकला। उस दिन से हमारा यह वह्म और पक्का हो गया। किसी ने सच कहा है जो बात भेजे में अक्ल और तर्क के जरिए नहीं घुसी वो अक्ल और तर्क से कैसे निकाली जा सकती है। इस कारखाने का निराला ढंग है। 'यां वही है जो एतबार किया।'
हमारे ज्ञान की परीक्षा : हम यह कह रहे थे कि हमें सिर्फ इतना याद है कि 26 तारीख थी और शाम के छह बज रहे थे। सुबह साढ़े छह बजे नाश्ते के बाद, पेट को पचाने की तकलीफ नहीं दी थी। बाहर सड़क पर एक ठेले वाला दिन भर दूधिया भुट्टों से रास्ता चलते लोगों को ललचाने के बाद अब खुद ही भून-भून कर खा रहा था। सोती-जागती अँगीठी पर भट्टों और कोयले की चड़-चड़ से राल बनाने वाली ग्रँथियाँ इस बुरी तरह भड़कीं कि जब तक हमने अपनी इकन्नी को भुट्टे में परिवर्तित न कर लिया, 'यार को मैंने, मुझे यार ने सोने न दिया।'
अँगीठी से भुट्टा शाहजहानी छेद के रास्ते हम तक पहुँचा और हमने बेताबी से मुँह मारा (भुट्टे, मुर्गी की टाँग, प्यार और गन्ने पर जब तक दाँत न लगें रस नहीं पैदा होता-मिर्जा अब्दुल वदूद बेग) अभी दस बारह दानों पर ही हमारी मुहर लगी होगी कि एंडरसन फाइल हाथ में लिए आ धमका। उसे देखते ही हमारे रोंगटे खड़े हो गए फिर खुद हम खड़े हो गए, दोनों हाथ छोड़ कर अटेंशन। अलबत्ता भुट्टे को, जिसमें हमारी गाढ़ी कमाई का दूधिया रस भरा हुआ था, दाँतों से पकड़े रखा। इस सूरत में भुट्टा उसकी पतलून पर गिराए बगैर 'गुड आफ्टर नून' कहना एक ऐसे शख्स के लिए, जिसके चेहरे पर प्रकृति ने केवल एक ही मुँह बनाया है, असंभव था। इसलिए हमने आतुरता से अपना दायाँ हाथ, जो नमक और नींबू के रस से लगभग धुल चुका था मिलाने के लिए आगे बढ़ा दिया। जितना लंबा हाथ हमने सम्मान से आगे बढ़ाया था ठीक उसी अनुपात में महोदय पीछे हट गए। तिस पर हमने अपना नींबू और सम्मान में लिथड़ा हुआ हाथ तह करके पतलून की जेब में रख लिया और केवल सिर और भुट्टे की समानांतर चलने वाली डुबकी से सलाम किया।
कड़वी मुस्कुराहट के बाद फर्माया 'हैलो! नीरो भुट्टे से बाँसुरी क्यों बजा रहे हो?'
हमने इस वाक्य की दाद, बिना मुँह खोले, बंद हँसी यानी हल्क की अंदरूनी हँसी को ऊपर ही ऊपर नाक से निकाल करके देनी चाही तो महोदय ने उँगली के इशारे से मना करते हुए फर्माया अपनी कटलरी डिसइन्फेक्ट करके मुझसे मेरे चैंबर में मिलो। इसलिए हाथ धो कर हम बैंक के माई-बाप के सामने पेश हुए।
बोले 'ये चीज जिसके सिरे तुम्हारे दोनों कानों से बाहर निकलने हुए थे, बताओ कहाँ पैदा होती है?'
'पाकिस्तान में'
'शाबास! तुम इसे जन्नत का मेवा भी बात देते तो मैं तुम्हारे भरोसे में हस्तक्षेप न करता लेकिन तुम्हारी जानकारी के लिए सूबा सरहद में बेहतरीन मकई पैदा होती है। गन्ना भी। बताओ गन्ने से क्या चीज बनती है?
'शक्कर'
दुबारा शाबासी देते हुए फर्माया 'तुम उन लोगों के जियादा काबिल हो जो तुमसे काबिल है। हाँ खूब याद आया शक्कर से जिस दिन तुम लोग मीठी पुल्टिस बना कर मुर्दों entertain करते हो, उसे क्या कहते हैं?'
'हलवा। शबे-बरात का!'
'शुक्रिया! अच्छा अब यह बताओ कि फ्रंटियर में और कौन सी चीज ऐसी बहुतायत में पैदा होती है जो दूसरी जगह नहीं होती?'
'पठान'
'शोखी और गुस्ताखी की विभाजक रेखा बाल बराबर होती है। मिस्टर गौरी ने अभी आफ्टरनून में शिकायत की है कि तुमने हिसाब के कागजों की गलती को बर्नार्ड शॉ के अश्लील वाक्य से ढकने की कोशिश की। यह शिकायत दुबारा न सुनूं। बर्नार्ड शॉ के ड्रामों के बजाय एकाउंटेंसी और कामर्शियल ज्योग्राफी पढ़ा करो। खाली दिमाग शैतान की वर्कशॉप होता है लेकिन तुम्हारा दिमाग तो उसका बैडरूम भी है।
हा! हा! हा! चिमनी की तरह हर समय धुआँ देते रहते हो और यह भी पता नहीं कि फ्रंटियर में सबसे उम्दा किस्म का वर्जीनिया तंबाकू पैदा होता है। इंग्लैंड को तंबाकू से आलिंगित कराने का श्रेय सर वाल्टर राले के सिर है। इसकी खेती, पैदावार, व्यापार और कर्जों से संबंधित तुम्हारा ज्ञान जीरो है। क्यों न अगले सोमवार से अपने अज्ञान की सीमा को उचित सीमा तक सिकोड़ लो।
सैफुल मलूक खान उसी क्षेत्र का रहने वाला कबायली है। अली कुली खान ने इसे बैंक में रखवाया था, तुम्हारी तरह भविष्य की चिंता और हिसाब-किताब से बरी है। अनथक मेहनत और मूर्खता का इससे सुंदर मिश्रण एशिया में मेरी नजर से नहीं गुजरा, मगर नेक आदमी है। गौरी तुमसे अप्रसन्न है। आगामी चार सप्ताह खान की डैस्क पर ट्रेनिंग लो और अपनी खुट्टल जानकारी का विस्तृत विवरण अगले महीने पेश करो।
तंबाकू पर हमारी रिसर्च के डायरेक्टर : और यूँ हम खान सैफुल मलूक खान के चार्ज में दे दिए गए। छरहरा बदन, चौड़ा हाड़, कंधे कुछ झुके हुए जिसका कारण विनम्रता न थी। चम्पई रंग धूप से सँवला चला था। नाक गंधारा की मूर्तियों जैसी, सारे दिन आँखों से मुस्कुराते रहते, सुता हुआ मगर खिला-खिला चेहरा, मजबूत ठोड़ी पर खिलंदड़े बचपन का अंतर्राष्ट्रीय ट्रेड मार्क यानी चोट का निशान, कान जैसे किसी ने जग का हैंडिल लगा दिया हो। सिर पर कराकुली टोपी बड़े टेढ़े ऐंगिल से पहनते, इंद्र माँग उससे भी अधिक टेढ़ी होती थी। मँझले ब्रेकिट .... को बहला-फुसला कर चित्त लिटा दिया जाए तो उनकी मूँछ बन जाए। उँगलियाँ सिगरेट के धुँए से हल्की बैंगनी। इतने लंबे थे नहीं जितने लगते थे। हँसी आती तो एक दम खड़े हो जाते फिर विकेटकीपर की तरह झुक जाते और अपने घुटने पकड़कर गर्दन उठाते और वहीं से संबोधित की सूरत देख-देख कर कहकहे लगाते रहते। यह उनकी खास अदा थी। सही उम्र नहीं मालूम लेकिन अपनी कोऑपरेटिव गलतियों की मुद्दत को हमारी जवानी के बराबर बताते थे। अपने माँ बाप की चौथी औलाद थे। पश्तो, हिंदको, पंजाबी, फारसी और उर्दू फर्राटे से बोलते थे और एक भाषा से दूसरी भाषा में इस सफाई से गीयर बदलते कि सुनने वाले को खबर भी न होती। अंग्रेजी उन विशेष अवसरों पर बोलते जहाँ आदमी कुछ न बोले तब भी बखूबी काम चल जाता है। अरबी की पकड़ का अंदाजा नहीं लेकिन हे और ऐन (दो विशेष ध्वनियाँ जो हल्क से निकाली जाती हैं) सही स्थान से निकालते थे, यानी उस स्थान से जहाँ से हम जैसे अज्ञानी उल्टी करते हैं।
उर्दू गजल , पित्ती और इतिहास : शेरो-शायरी से तबियत बेजार थी। एक बार यार लोगों ने उन्हें डान अखबार के वार्षिक 'अजीमुड्डान' मुशायरे में ले जाना चाहा, किसी तरह तैयार न हुए। हमारे मुँह से निकल गया, छोड़ो भी, टिकट जियादा बिक गए हैं और जगह तंग। दंगा फसाद का अंदेशा है। अब जिद पकड़े हैं कि जुरूर चलूँगा। 'जिगर' मुरादाबादी के एक शेर की दाद जम्हाई से दी और हफीज जालन्धरी की 'रक्कासा' को तो खर्राटों पर उठा लिया। हमने टहूका दे कर कहा, खर्राटे लेना मुशायरे की तहजीब के खिलाफ है।
फर्माया 'उर्दू की दो तीन गजलें लगातार सुन लूँ ध्यान से तो कसम खुदा की मेरे तो पित्ती उछल आती है।' गालिब की हर गजल का कम से कम एक शेर पहचान कर ऐलान करते कि गालिब ही का लगता है, हमारा इशारा मक़्ते (वो शेर जिसमें उपनाम डाला जाता है) की तरफ है। भागने का अवसर न हो तो मारे-बाँधे शेर सुन लेते थे, समझ में आ जाए तो मुस्कुरा देते, समझ में न आए तो हाथ मिलाते।
साहित्यिक और ज्ञान की बातें सुन कर खाँ साहब का कबायली खून खौलने लगता। अक्सर कहते, 'तुम्हारी ज्ञानभरी बातें सुन कर मेरे सिर में तो विद्वता के गूमड़ निकल आए। टोपी तंग हो गई है।' कोई भी ऊटपटाँग शेर पढ़ दे तो इस तरह झूमने लगते जैसे-क्या नाम उसका-साँप का फन संपेरे की पोंगी के सामने! अलबत्ता इतिहास से शौक था लेकिन बस इस हद तक जहाँ वो मैट्रिक के कोर्स में आता हो या लापरवाह और बेध्यान लोगों को टोकने के लिए प्रयोग किया जा सके। हमें नसीहत करनी या सहमाना हो तो किसी नकारा मुगल बादशाह की नजीर पेश करते। अपने अंजाम से हम काँप जाते, इसलिए कि हमारे पास कोई पुश्तैनी सल्तनत भी न थी, जिसे खो सकें। मुगल बादशाहों ने अगर खान साहब से मशवरा कर लिया होता तो आज भी सब पर हुकूमत करते होते और हम कमर में सुनहरे पटके और सिर पर राजपूती पगड़ियाँ बाँधे बाअदब-बामुलाहिजा खड़े होते।
हाथ ला उस्ताद , क्यों कैसी कही : अजब स्वभाव और ताकत पाई थी। दरवाजे पर अगर PUSH लिखा हो तो अपनी तरफ खींचते और PULL लिखा हो तो बाहर ही तरफ धक्का देते। रोना इस बात का था कि अक्सर दरवाजे उनकी मर्जी के ऐन मुताबिक खुल और बंद भी हो जाते थे। कभी कोई गंदा चुटकुला सुनाने बैठते तो सुनने वाले की समझ में न आता कब कहाँ हँसे। हँसी की भूमिका बनाने के तौर पर चुटकुला शुरू करने से पहले खुद हँसने लगते और सुनने वाले के पंजे में पंजा डाल कर बैठ जाते। हम भी घंटों उनके चुटकुलों से पंजा लड़ा चुके थे। बांए हाथ को खुला रखते ताकि संबोधित की रानों पर मार-मार कर चुटकुले से लाल कर सकें। लोग उनके चुटकुलों पर शिष्टाचारवश भी नहीं हँसते थे। इस डर से कि झूठों भी दाद दे दी तो दूसरे चुटकुले की काठ में जकड़ दिए जाएँगे।
गुस्सा नाक पर रखा था जो समय-असमय फिसल कर मुँह से गालियों की शक्ल में ढल कर निकलता रहता था। बाजीगर की तरह अपने मुँह के साइज से भी बड़े गालियों के गोले निकालते रहते थे। बुजुर्गों की गढ़ी गढ़ायी तरकीबों, परंपरागत शैली से परहेज करते थे। गालियों की अपनी राह अलग निकाली थी, कभी कोई बहुत ही अशिष्ट विषय अंतरिक्ष से अवतरित हो जाए तो जबान का उपयोग नहीं करते थे, कैलीग्राफिक स्टाइल में लिख कर हमें दिखा देते थे। गालियों की लिखावट का इससे बेहतर नमूना आज तक हमारी नजर से नहीं गुजरा। वैसे मुहब्बती आदमी थे। ब्वाय स्काउट की तरह रोजाना कम से कम एक नेकी ऐलानिया करते थे। एक दिन कहने लगे कल रात मैंने एक शख्स को बड़ी बेइज्ज ती और माँ बहन की गालियों से बचा लिया।
पूछा 'कहाँ? कैसे?'
बोले 'मैंने अपने गुस्से को कंट्रोल किया।'
देखने में आया है कि कई काहिल गलियर गाली को तकिया कलाम बल्कि गावतकिया कलाम की तरह प्रयोग करते हैं। लेकिन खान साहब हर गाली समझ कर देते थे। जैसे फरीदा खानम समझ के गजल गाती हैं।
एक दिन खान साहब ने बहस के बीच एक अवसरवादी लीडर और कुछ नौ-दौलतिये ठेकेदारों को दल्ले और भड़वे कह दिया। इस पर हसन डिबाइवी ने टोका कि 'खान साहब कम से कम यू.पी. में शरीफ लोगों का यह ढंग नहीं कि किसी को भड़वा कहें।' बोले 'आप भी उस जमाने की बात करते हैं जब सारे शहर में कुल दो भड़वे हुआ करते थे।'
अब्दाली : शिकार का शौक दीवानगी की हद तक था। इतवार को तड़के साइकिल पर निकल जाते। कहते तो यह थे कि कीर्थर अैर मंघू पीर की पहाड़ियों में जंगली बकरे Ibex मारने जा रहा हूँ लेकिन कराची से बीस मील के दायरे में फाख्ता तक नहीं छोड़ी थी। आखिर में चील-कव्वों पर गुस्सा उतारने लगे थे। भरमार टोपीदार बंदूक इस्तेमाल करते थे, जिसमें बारूद गज से ठोक-ठोक कर भरा जाता है। बंदूक की लंबाई हमारे कद से दुगनी थी, बशर्ते हम पंजों के बल खड़े हो जाएँ। उसकी मक्खी हमसे इतनी दूर स्थित थी कि हमें तो चश्मे की मदद से भी दिखाई नहीं पड़ती थी। उनका दावा था कि इसी उपकरण से उनके परदादा ने अहमद शाह अब्दाली के साथ हिंदुस्तान पर हमला किया था। इसी कारण हम इसे प्यार में अब्दाली कहते थे। फरमाते थे कि आदत सी पड़ गई है, इसे अपने पहलू में लिटा कर, लिबलिबी पर उँगली रखे, दाईं करवट सोता हूँ। एक पल को भी उँगली अलग हो जाए तो पट से आँख खुलती है। उनकी हालत उन जिद्दी बच्चों की सी थी जो दूध छुड़ाने के बाद चुसनी मुँह में लिए-लिए सो जाते हैं।
हमने पूछा लिबलिबी पर उँगली रख कर सोने में आपको डर नहीं लगता? फरमाया, विलायती बंदूक थोड़ा है। आप ही तो उस दिन मजे ले ले कर बता रहे थे, कि मौलाना शिबली नोमानी की बंदूक भी उनकी तबियत की तरह निकली, बिना इरादा चल गई, पर यह बंदूक आजकल की कटखनी, बेकही बंदूकों की तरह नहीं है जो छेड़छाड़ से ही बेचैन हो जाती हैं। बिना इरादा-बिना कोशिश, यह भी खान साहब की विनम्रता थी वरना हमने तो यही देखा कि इरादे और कोशिश से भी नहीं चलती थी। हमारे जुमलों की तरह धूल चाट जाती थी।
दाल रोटी , यानी अन्न से अन्न खाना : तबीयत खराब होने या किसी और मजबूरी के कारण इतवार को शिकार खेलने न जा सकें तो सनीचर को दोपहर और शाम की नमाज के बीच के समय में कजा खेलते थे। इतवार को शिकार के गोश्त का नागा हो जाए तो सुबह से बौलाए फिरते। उस दिन मुर्गे के गले पर अल्लाह की बड़ाई बयान करते। ऐसा मुर्गा हरगिज नहीं खाते थे जिसने अपनी अजान न दी हो। मुर्गी को छूते तक नहीं थे। कहते थे कि गजनी खैल गाँव में बालिग मुर्गा जनाने में घुस आए तो औरतें झट बुर्का ओढ़ लेती हैं। एम्पर्स मार्केट से खुद देखभाल कर बालिग मुर्गा खरीद कर लाते और किबलारू (पश्चिम) करके बंदूक से ढेर करते, फिर हलाल करते। अक्सर कहते कि दूसरे का हलाल किया हुआ गोश्त खाने से आदमी बुजदिल, एक बीबी वाला और वाचाल हो जाता है। इससे तो बेहतर आदमी दाल रोटी खा ले मगर हम कबायली भूखे भले ही मर जाएँ अन्न से अन्न नहीं खाते। जभी तो ये हाल है कि नसवार की चुटकी लेकर जरा छींक दूँ तो सारे दफ्तर की नाफ टल जाए। हम सुरक्षा के लिए घर से बाँह पर ताबीज बँधवा कर नहीं निकलते। गले में पिस्तौल डाल कर निकलते हैं।
फायदा?
'मुगल बादशाह जिस दुश्मन को अपने हाथ से मारना नहीं चाहते थे उसे हज पर रवाना कर देते या झंडा, घोड़ा, नक्कारा और खिलअत (शाही पोशाक) देकर दक्खिन या बंगाल जीतने के लिए भेज देते। लेकिन हम दुश्मन को शॉर्ट-कट से जहन्नुम रसीद करते हैं।'
'दुश्मनों के दुश्मनी की तीव्रता के हिसाब से तीन दर्जे हैं। दुश्मन, जानी दुश्मन और रिश्तेदार।'
'ईमान से, ये जुमला आपका नहीं मालूम होता। पश्तो में कहावत है कि रिश्तेदार अगर कत्ल भी करेगा तो लाश धूप में नहीं पड़ी रहने देगा।
तंबाकू खुर्दनी , दुखानी और चशीदनी : ये थे खान सैफुल मलूक खाँ जिनके सामने हमारे घुटने एक महीने तक सुबह से शाम तक मुड़ते और सीधे होते-होते सुन्न हो चले थे। तंबाकू पर एथोरिटी समझे जाते थे कि तंबाकू पैदा होने वाले क्षेत्र से संबंध रखने के अलावा सिगरेट और हुक्का पीते थे। तंबाकू खाते थे, नसवार लेते थे। गरज कि चर्चित वस्तु को अपने अस्तित्व में घुसेड़ने का जतन करते रहते थे। सलाम करने के बाद हमने अर्जी लगाई कि हम तंबाकू से संबंधित बुनियादी बातें जानना चाहते हैं। जवाब में नसवार की डिबिया आगे बढ़ाते हुए बोले, हाजिर है।
'हमारी मुराद तंबाकू खुरदनी व नौशीदनी या तंबाकू दुखानी से नहीं।'
'इसमें मेरी तरफ से किवाम चशीदनी का इजाफा फर्मा लीजिए। थूकने वाला और फूँकने वाला तंबाकू कहते हुए तकलीफ होती है?' उन्होंने हमारी फारसी की थूथनी जमीन पर रगड़ते हुए कहा।
'हम इसकी खेती, व्यापार, आढ़त वगैरा के बारे में जानना चाहते हैं।'
तंबाकू के बारे में पहली बात तो ये याद रखिए कि कराची का हवा-पानी इसे रास नहीं आता, इसे ही क्या किसी को रास नहीं आता। अलबत्ता जैसा तंदुरुस्त, कीमती और खालिस गधा यहाँ देखा, सारी धरती पर इसका जोड़ीदार नहीं मिलने का। अजब शहर है, हर बात उल्टी। वो किस्सा नहीं सुना धोबी वाला, बरेली से नया-नया आया था। एक हजार रुपए लेकर गधा खरीदने निकला तो गधे बेचने वाले ने झिड़क दिया, जा-जा! बड़ा आया गधा खरीदने वाला। अंटी में कुल हजार रुपल्ली ही हैं तो घोड़ा क्यों नहीं ले लेता। ना साहब तंबाकू कराची के रेता-बजरी में जड़ नहीं पकड़ सकता।
'खान साहब! मनी-प्लांट बगैर मिट्टी, खाद और धूप के; केवल पानी की बोतल में उगता है। इसी तरह हमारे यहाँ कामयाब लोगों की जड़ें ह्विस्की की बोतल में बढ़ती और फैलती हैं।'
उठ कर खड़े हो गए फिर घुटनों के बल झुके और तीन बार सुब्हान अल्लाह! सुब्हान अल्लाह! सुब्हान अल्लाह! कहने के बाद बोले, 'आप अच्छा डायलॉग बोल रहे हैं। ऐसा डायलॉग मैंने 1925 में पेशावर में सुना था। एक थियेट्रिकल कंपनी आई थी। हीरोइन का पार्ट एक मर्द ने गजब का किया था। आप ही की तरफ का था। ईमान से, आपकी के तरफ के मर्द अनूठे और बड़े काम के होते हैं। हालाँकि आप तो जयपुर की मशहूर चीजें सिर्फ साँड, खाँड, भांड और रांड ही बताते हैं। हाँ तो तंबाकू के सिलसिले में याद रखने लायक ये है कि व्यापार के अलावा ये और किसी मतलब के लिए फायदेमंद नहीं।'
'कुछ तो हवा पानी के बारे में बताएँ, प्रति एकड़ पैदावार क्या होती है?'
'पहले सवाल का जवाब आठवीं क्लास के भूगोल में है। मेरे बेटे के किताब में लिखा है। सुअर की औलाद तीन साल से इसी क्लास में मॉनिटर है। दूसरे सवाल का जवाब चार सद्दे (एक तहसील) का पटवारी देगा। बड़ा बदमाश आदमी है। हम दोनों एक ही सिख मास्टर के हाथ से बरसों पिटे हैं।'
'तंबाकू का पौधा कितना बड़ा होता है?'
'जितना आप समझ रहे हैं, उससे काफी बड़ा। फ्रंटियर का सेर 105 तोले का होता है।'
रैड क्लिफ के कान काटे गए : हम कागज पैंसिल लेकर तंबाकू पर नोट्स लेने लगे तो वो रूठ कर बैठ गए। कहने लगे अगर इल्म हासिल करने का ऐसा ही लपका है तो पहले चेला बनना पड़ेगा। छुट्टी के दिन कमरे पर आएँ। शागिर्द बना कर जंगली बकरे के कबाबों पर नियाज दिलाऊँगा।
अगले इतवार को हम भोर में सात बजे बिहार कॉलोनी पहुँचे, जहाँ उनका कमरा घुटने-घुटने कीचड़ में चाकीवाड़ा और बिहार कॉलोनी के संगम पर हिचकोले खा रहा था। सुनने में आया था कि ये सारी कॉलोनी समुद्र के लैवल से कई फिट नीचे स्थित है। कुंआ खोदने की जुरूरत नहीं पड़ती, गैरतमंद सिर्फ मुंडेर खींच कर चुल्लू भर पानी निकाल कर मुहावरे के शेष हिस्से पर कार्यवाही कर सकते हैं। कमरे के सामने इसी खदबदाती दलदल में दस-बारह लड़के और मेंढक सूरज की तरह 'इधर डूबे उधर निकले, उधर डूबे इधर निकले' कर रहे थे। लड़कों के बेतहाशा बढ़े हुए पेट नीले काँच की तरह चमक रहे थे। एक लड़का पाजामा पहने हुए था, लेकिन कमीज नदारद। शेष लड़कों की अर्धनग्नता का क्रम इससे उल्टा था। इसे कमरा इस लिहाज से भी कह सकते हैं कि ये एक कच्ची-पक्की मस्जिद से लगा हुआ था जिसकी दीवार पर गेरू से लिखा था 'ये खुदा का घर है। खुदा के कोप से डरो। यहाँ पेशाब करना पाप है।' किसी जालिम ने पहले वाक्य और अन्य कुछ शब्दों पर इस तरह कोयला फेरा था कि दूर से अब सिर्फ, 'खुदा के कोप से पेशाब करना पाप है' पढ़ा जाता था।
हमने कमरे की कुंडी खटखटायी। वो प्रकट हुए, मलेशिया की शलवार पर सफेद बनियान जिस पर जगह-जगह ताजा खून के टापू बने हुए थे। हाथ में शिकारी चाकू जिससे जीता-जीता खून टपक रहा था। वो अपने कुत्ते का एक कान काट कर जख़्म को हुक्के के पानी से डिसइन्फेक्ट कर चुके थे और दूसरे की काँट-छाँट की तैयारी थी। कुत्ते की नाक ऐसी चमक रही थी जैसे अभी-अभी वार्निश का पुचारा फेरा हो। पूछा, खान साहब! ये क्या? बोले, हलवाई के इस हरामी पिल्ले को शिकारी कुत्ता बना रहा हूँ। मरदान में जवान गबरू घोड़े को आख्ता (वृषण काटना) कर दो। चूँ नहीं करता, ये नामर्द कान कटवाने में इतना बावैला करता है। आपका कराची भी अजब शहर है। न मर्दों का स्वभाव न औरतों का रूप। उनका खयाल था कि कान कटवाने के बाद कुत्ता अधिक वफादार हो जाता है, फिर कभी दगा नहीं करता। उसका नाम उन्होंने रेड क्लिफ रखा था। कुछ देर मसाला पीसने की सिल पर चाकू तेज करने के बाद हमारी हथेली पर एक पैसा रख कर कहने लगे 'इस सुअर का खून पतला है। जरा लपक कर फिटकारी तो ले आओ।' हाय वो भी क्या दिन थे जब एक पैसा एक पैसे के बराबर होता था और एक रुपया एक रुपए के ही बराबर होता था।
एक पैसे में फिटकरी का इतना बड़ा डला आया जो बकौल उनके, हमारे कानों के लिए भी काफी था। सस्ता समाँ था। मिर्जा कहते हैं कि आज केवल एक टब पर जितनी लागत आती है, इसमें उन दिनों पीर इलाहीबख्श कॉलोनी में पूरा मकान बन जाता था। इसके बावजूद खुदा के बंदे झुग्गियों में रहते थे। वेतन कम जुरूर थे मगर कीमतें भी तो कम थीं। फिर वेतन बढ़े। कीमतें भी चढ़ गईं। वेतन और बढ़े, कीमतें और चढ़ गई। नौकरी पेशा वर्ग की हैरानी भी बढ़ती गई। रहस की दो पंक्तियाँ -
बार - बार दरजन घर झगड़त ठारढ
जुई जुई अंगिया सीवत हुई सुई काढ़
नारी बार-बार दरजिन के घर जा जा कर झगड़ती है कि मैं तुझे रोज अंगिया ढीली करने के लिए देती हूँ, मगर तू जब सीती है, और तंग कर देती है। जवानी ऐसी भर कर आई है कि उसे ये भी होश नहीं कि दरजिन बेचारी तो रोज उसे ढीला कर देती है मगर वो तो एक और वज्ह से (जिसका भला सा नाम है) तंग ही होती चली जाती है। तो साहिबो! यही हाल सफेदपोशों के वेतन का है।
हमने कहा, खान साहब! कहीं जानवरों के साथ अत्याचार करने में चालान न हो जाए।
'मैं 1946 में हुंजा गया, सुनहरे मुर्गे और बर्फ़ानी चीते का शिकार करने। वहाँ न्यूजीलैंड का एक Bird watcher मिल गया। उसने बताया कि जब मैं बच्चा था तो गड़रियों और गल्लाबानों को दुम्बों को अपने दाँतों से जी हाँ अपने दाँतों से काट-काट कर आख्ता करते देखा। मैंने तो फिर छुरी फिटकरी इस्तेमाल की है।
एक झलक कमरे की : खान साहब के कमरे को गौर से देखा तो अपने मकान से कोई शिकायत न रही। छत टिन की नालीदार चादर की, जिसमें कनस्तर की चादर के तीन-चार पैवंद लगे हुए थे, हर पैवंद के चारों तरफ कोलतार का टापू। एक दीवार में, फर्श से छत तक टेढ़ी-मेढ़ी दराड़ें पड़ गई थीं जिस पर प्लास्टर दुर्बल आदमी के हाथ की रगों की तरह उभर आया था। दीवारों पर नसीहत और प्लास्टर टपकने के अलावा पिछले किराएदार के बच्चों की क्लासों और पढ़ाई की कठिनाइयों का बखूबी अंदाजा होता था। शहतीर के बीच में जो लोहे का कड़ा था उसमें एक खुली हुई छतरी उल्टी लटकी हुई थी। यही उनका छींका और अलगनी थी। एक कोने में अब्दाली इस ऐंगिल से पसरी खड़ी थी जैसे दो बजने में बीस मिनट हैं। पास ही एक बारहसिंघे का सिर लगा था जिसकी एक आँख और खाल झड़ चुकी थी। हर सींग पर कुछ न कुछ लटका हुआ था। एक पर प्लास्टिक मढ़ा हुआ सौला हैट, दूसरे पर बनियान सूख रहा था। तीसरे पर बैंक की चाबियाँ। दरवाजे की कील पर टंगी हुई पतलून पर मक्खियाँ अपनी पाचन क्रिया का असर छोड़ गईं थीं। लेकिन कमरे में कहीं भी मक्खियाँ भिनभिनाती दिखाई नहीं देती थीं। सब हमारे मुँह पर बैठी थीं।
दरवाजे से जरा हट कर एक चीड़ का खोखा रक्खा था। यह रैड क्लिफ का आराम घर था। इसकी छत पर मेहमान बिठाए जाते थे। सरकंडे का एक बड़ा मूढ़ा भी था जिसकी बान की सीट गल चुकी थी। उसमें एक छोटा मूढ़ा, जिसकी पीठ झड़ चुकी थी, जड़ दिया गया था। दूसरे कोने में फटे हुए नमदे पर एक मटका औंधा देख कर हम मुस्कुरा दिए तो बोले, 'आपके हाँ तो मटके सिर्फ पीने, बजाने और सिर पे रखने के लिए प्रयोग होते हैं।' दालान (जिसका क्षेत्रफल दो चारपाइयों के बराबर होगा बशर्ते कि वो दूल्हा-दुल्हन की हों यानी पट्टी से पट्टी मिली हुई हो) की ओर खुलने वाले दरवाजे में एक पिंजरा झूल रहा था जो शायद विनम्रता और शालीनता सिखाने के लिए लटकाया गया था। उसके नीचे झुक कर बड़ी सावधानी से निकलना पड़ता था कि पेंदें से पानी, बाजरे और बीट की फुहारें पड़ती रहती थी। उसमें एक सहमा हुआ सुंदर रंगों वाला पंछी बंद था। पूछा, 'इसे क्या कहते हैं?' बोले, 'चकोर'। पूछा, 'पंछी बावरा चाँद से प्रीत लगाए- वाला चकोर? वही जो चाँद के गिर्द चक्कर लगाता है?' बोले, 'आपकी तरफ लगाता होगा। फ्रंटियर का चकोर इतना उल्लू नहीं होता। खैबर के पहाड़ों में चाँदनी के अलावा उसका दिल बहलाने के लिए कुछ और भी होता है।' पूछा 'हुजूर ने दिल बहलाने के लिए पाला है?' बोले, 'नहीं। हमारे यहाँ चकोर नेक शगुन के लिए पाला जाता है। मालिक की हर आफत को अपने ऊपर ले लेता है फिर अचानक एक दिन मर जाता है। जो उसकी बीमारी है कि मालिक की आई उसको आ गई। कराची भी अजीब शहर है। तीन चकोर मर चुके हैं। यह सुअर भी परसों से ऊंघ रहा है। इसे आप ले जाइए । आपकी हालत तो इससे भी जियादा खराब है।'
हुजूर आहिस्ता - आहिस्ता , जनाब आहिस्ता - आहिस्ता : उन्हें कृपालु देखा तो हिम्मत बढ़ी 'खान साहब तंबाकू की कितनी किस्में होती हैं?' बोले 'दो, पहली वर्जीनिया दूसरी (हिचकिचाते हुए) गैर वर्जीनिया।'
पूछा, 'सूबा सरहद में तंबाकू कहाँ-कहाँ पैदा होता है?'
बोले, 'जहाँ-जहाँ खेती की जाती है, खूब पैदा होता है।'
पूछा, 'सुना है मरदान, चार सद्दा, नवां कली और तहसील सवाबी में तंबाकू के आढ़ती पाए जाते हैं।'
बोले, 'जहाँ माल है वहाँ व्यापार, जहाँ व्यापार है वहाँ आढ़त जुरूर होगी।'
उन्होंने तंबाकू का ज्ञान पानी कर दिया।
सरवर साहब ने कुछ दिन बाद तंबाकू की तीसरी किस्म बता कर हमारे अज्ञान की खाई भरी तो नहीं, हाँ उस पर पुल जुरूर बना दिया जिस पर से एंडरसन की सवारी निकल सकती थी। बोले, तंबाकू का स्तर तो सरकारे-आलिया हर हाइनैस नवाब सुल्तान जहाँ बेगम के जमाने में हम रामपुरी पठान बढ़ाते थे। चित्रित चिलम में पुराने गुड़ का किवाम और दो आतिशा तंबाकू कड़वा दो रसा बगैर तवे के रख कर पूरी क्षमता से कश लगाते तो एक बालिश्त ऊँचा शोला लपक उठता। जिसके सुल्फ़े का शोला जियादा ऊँचा जाता वही मर्द ठहरता। सबसे तेज तंबाकू रमजानी कहलाता था। रमजान में हुक्के के रसिया इसी से समूह में रोजा खोलते। पहला कश लेते ही हजरते-दाग जहाँ बैठ गए बल्कि जहाँ लेट गए-लेट गए। रोजा रखने वाले बारी-बारी अपने स्तर के अनुसार दम लगा कर रोजा खोलते और उसी क्रम से बेहोश होते चले जाते। रामपुरी तंबाकू से किसी को कैंसर होते नहीं देखा, हार्टफेल होता था। उनकी फातिहा भी इसी पर दिलाई जाती थी।
खान साहब की तबियत बिगड़ने लगी थी, हमने विषय बदलने में खैरियत समझी।
'जबसे आपकी दाईं आँख खुली है (बाईं हमने तो हमेशा ही बंद देखी, संबोधित का चेहरा भी निशाना बाँध कर देखते थे।) आपको शिकार की लत है, हमें बचपन ही से हाथी और व्हेल के शिकार के किस्सों में दिलचस्पी है।'
दिल जीत लेने वाली मुस्कुराहट के बाद बोले '8 नंबर की बस में बैठ कर व्हेल का शिकार थोड़ा मुश्किल है। आप इल्म के बड़े लालची साबित हुए हैं। सब कुछ एक ही हल्ले में जान लेना चाहते हैं। मेरा मास्टर सरदार गुरुबचन सिंह मस्ताना कहता था कि पुत्तर जी। इल्म भंग नहीं अफीम है। इसका नश्शा धीरे-धीरे नस-नाड़ियों में उतरता है। क्या बताऊं हीरा उस्ताद था। कुल तीन मुल्ला थे। सबसे पास की डामर की सड़क सत्तर मील दूर थी। बहुतों के घरों में लालटेन तक न थी। मास्टर गुरुबचन सिंह कड़कड़ाते जाड़े में हैरीकेन लालटेन ले कर निकलता। घर-घर जा कर लड़कों को इकट्ठा करता। अपने घर ले जाता और वहाँ चटाई पर बिठा कर हमें रात के ग्यारह बजे तक इम्तहान की तैय्यारी करवाता। एक दिन अपने किरपान पर हाथ फेरते हुए बोला 'ओये बुकरात दे पुत्तरो। साइंस इल्म का दरिया है, भंग का गिलास नहीं कि सीधा दिमाग को चढ़ा और चंगा-भला बंदा भक से उड़ गया। और भंग छानने वाले कपड़े को रेशे-काजी कहते हैं। काजी कहकहे वाले काफ से। जहाँ काफ और काफ से जरा भी शक हो वहाँ काफ लिखा करो।
त से तिलेर , तीतर और तिलवर : तो आज मैं आपको सबसे छोटे परिन्दे (पंछी) के शिकार की तरकीबें बताऊँगा, फिर क्रमानुसार चरिन्दों (चौपाए), खतरनाक गजिन्दों (डंसने वाले), फाड़ खाने वाले दरिन्दों और आखिर में काले सिर वाले की बारी आएगी। आपने तिलेर देखा है?
'शेव करते समय रोज दर्शन कर लेता हूँ,' खास अदा के साथ कमर दोहरी कर झुक गए और घुटने पकड़े-पकड़े हमारी सूरत देख कर देर तक हँसते रहे। फिर फर्माया 'चितकबरा होता है इसलिए अबलका भी कहते हैं। मुट्ठी में दबा लें तो पता भी न चले कि खाली है या भरी। आप उसे तन्हा कभी नहीं देखेंगे। दो-तीन सौ का झुंड बना कर बसेरा करते हैं। चुटकी भी बजा दो तो साथ भर्रा मार कर उड़ जाएँगे। तिलेर सिर्फ फस्ल के वक्त नजर आता है। फस्ल को नुकसान पहुँचाने वाले कीड़ों मकोड़ों को खा जाता है। इसी लिए शासन की सुरक्षा प्राप्त है। चोरी-छिपे मारना पड़ता है। प्रकृति ने कैमोफ्लाज के लिए ऐसा रंग और शक्ल बनाई है कि पेड़ पर बैठा पत्तों में बिल्कुल दिखाई नहीं पड़ता लेकिन दुनिया की कोई ताकत इसे चोंच खोलने से नहीं रोक सकती। बस इसी पर मार खाता है। आवाज पर निशाना लगाया जाता है। इसे मरना स्वीकार है मगर चुप नहीं रह सकता। इसकी जबान का तीन आँच का काढ़ा बना कर गूंगे आदमी को पिलाएँ तो सात दिन में पटर-पटर बोलने लगे। बेजबान बहू एक घूँट पी ले तो दो दिन में उसकी सास बावली हो कर मर जाए और मुर्दे की जबान पर दफ्नाने से पहले एक बूंद टपका दी जाए तो मुनकिर-नकीर (मौत के फरिश्ते-यमदूत) उस कब्रिस्तान की तरफ ही न आएँ।'
'बड़े छर्रों को बर्दाश्त नहीं करता, डस्ट इस्तेमाल करना पड़ता है। एक फायर में सौ तिलेर गिरा लीजिए। दो तो छर्रे के कणों से घायल हो कर गिरते हैं, पचास-साठ केवल आवाज की धमक से जान छोड़ देते हैं, बाकी देखा-देखी। हाँ एक बात का ध्यान रहे, जमीन पर गिरने के डर से रास्ते में ही ठंडा हो जाता है। इसलिए कलमा पढ़ कर फायर करें वरना मुरदार हो जाता है। जरा छुरी फेर दो तो बेर सी गरदन अलग हो जाती है। चहे से भी अधिक खुशबूदार गोश्त, हड्डियाँ सिवैयों से अधिक बारीक और कुड़कुड़ी, हड्डी समेत करर-करर खाते हैं। शक्ल और जुस्सा सबका एक सा। कम से कम आदमी की आँख नर-मादा में अंतर नहीं कर सकती। तिलेर और उर्दू शब्दों के स्त्री लिंग-पुल्लिंग पहचानने में छठी इंद्रिय चाहिए। इसकी नस्ल बड़ी तेजी से बढ़ती है, इसमें तो यही मालूम देता है कि इसमें नर भी होते हैं। खुदा बेहतर जाने। उर्दू में तो तबले के भी नर-मादा होते हैं।'
'अच्छा! अब अगले इतवार को तीतर के शिकार पर बात होगी। मैदानी पंछी है, लड़ाका, सजातीय के अलावा किसी से नहीं लड़ता। दादू में एक अपाहिज रईस ने बेटे के अकीके पर बीस देग़ें काले तीतरों की पकवायीं थीं। जश्न में पूरा कस्बा निमंत्रित था। उसके अंदाज से तो मालूम होता था कि बच्चे की पैदाइश पर उसे खुशी से अधिक हैरत है। अच्छा परिंद है। सुब्हान तेरी कुदरत-सुब्हान तेरी कुदरत।'
निवेदन किया, 'अब तीतर सियाने हो गए हैं। सुल्तान तेरी कुदरत, सुल्तान तेरी कुदरत।'
बोले, 'इस जुमले की दाद किसी और से लीजिए। मैं मौजूदा हुकूमत के खिलाफ नहीं।'
'फिर किसी दिन आपको सजावल ले चलूँगा। झील में पड़ी हुई मुर्गा बियाँ ऐसी लगती हैं जैसे अभी-अभी किसी सभा में लाठी चार्ज के बाद लोग जूते छोड़ कर भाग गए हों। सुंदर वन चलें तो शेर का शिकार भी खिलवा सकता हूँ। शेर के शिकार में दो-तीन सौ आदमी चारों तरफ से हाँका करें तो सबसे पहले सुअर निकलते हैं।'
निवेदन किया, 'राजनीति में भी यही होता है,' बोले, 'फिर वही! आपने बस्टर्ड (तिलवर) देखा है। पहाड़ी चिड़िया है। ठठ्ठा के पास बरादाबाद की पहाड़ियों में नवम्बर से उतरनी शुरू होती है।'
कहा, 'तो आज का सबक हुआ। त से तिलेर, तीतर और तिलवर...और तंबाकू?'
फरमाया, 'कभी पठोर मोरनी के कोफ्ते खाए हैं? बड़े खस्ता होते हैं।'
आप से तुम , तुम से तू होने लगा : अगले इतवार को शिकार पर जाने का वादा करके हम, तंबाकू से संबंधित जिन बातों से उन्होंने हमारी ज्ञान वृद्धि की थी, को सीने से लगाए विदा हुए। सोमवार को बैंक में दोपहर तक दोनों ही लिए-दिए रहे। तीसरे पहर को पश्तो की तीन-चार दिल को आनंद देने वाली गालियों से अहम् और अस्तित्व के परदे उठ गए। आपसे तुम, तुमसे तू होने लगा। तीन चार दिन में हम दोनों एक दूसरे की जिंदगी में इस तरह प्रविष्ट हुए कि स्वयं भी निर्णय करना कठिन था कि कौन किसमें घुसा हुआ है। हमारी क्या मजाल कि छोटे मुँह से बड़ी बात कहें। यह तो ऐसा ही होगा जैसे कोई खरबूजा दावा करे कि वो दस्ते तक छुरी में घुस गया है।
वृहस्पतिवार तक अंतरंगता इतनी बढ़ गई कि हमने कहा,' आप गुरू, हम चेले। किसी दिन गरीबखाने पर भी पधारिए।' बोले, 'आपका गरीबखाना कहाँ है?' निवेदन किया, 'पीरबख्श कॉलोनी में। यहाँ से आठ मील।' बोले, 'रास्ते में कोई शिकार-शिकूर है?' हम चुप रहे। क्या कहते।
इन्हीं पत्थरों पे चलकर अगर आ सको तो आओ
मिरे घर के रास्ते में कोई फाख्ता नहीं है
हमें उदास देखा तो दिल बढ़ाया, 'दावत सिर आँखों पर, मगर बुरा न मानिएगा, कराची में आप लोग पुलाव में बराबर का गोश्त डालते हैं। हम दुगने के आदी हैं।' हमने जरा बुरा न माना। इसलिए कि अपने बयान के उस हिस्से में जिसका संबंध हमारे पुलाव से था, उन्होंने पहले ही 90 प्रतिशत गोश्त अधिक डाल दिया था वर्ना क्या पिद्दी क्या पिद्दी का शोरबा। फिर बोले, 'आप चारसद्दा आएँ तो रेता खिलाऊँगा। पूरे दुंबे को उसी की खाल में लपेट कर उसी की चर्बी में अंगारे पर भूनते हैं। काले दुंबे का गोश्त बड़ा मीठा और मुलायम होता है।'
गले में नथिया गली : शब्दों की दुर्गति-हमारे मुँह से निकल गया कि फाख्ता तो सुख-शान्ति की प्रतीक है और कबूतर तो बड़ा ही भोला पंछी है। इसे मारना महापाप है। कहने लगे, 'राम! राम! तू बेटी ब्राह्मण की, क्या जाने इसका स्वाद। मास्टर गुरुवचन सिंह, खुदा उसे मुआफ करे, कहता था कि मुसलमान किसी जानवर को जिंदा नहीं देख सकते, सिवाय सुअर के। आपको शायद जानकारी न हो, अगले वक्तों में किसी रईस को अधेड़ उम्र में लकवा हो जाता-जो अक्सर होता था-तो हकीम उसका इलाज जंगली कबूतर के बाजुओं की गर्म फड़फड़ाहट और हरियाली बन्नी के आँचल की हवा से करते थे। खान साहब हर सोलहवें मिनट एक सिग्रेट पीते थे। उसमें पंद्रह मिनट अपने हाथ से सिग्रेट मैन्यूफैक्चर करने के लिए होते थे और एक सिग्रेट पीने का। सिग्रेट सुलगाने से पहले पँखा बंद कर देते। कहते कि तेज हवा से सिग्रेट खत्म हो जाता है और सारा धुआँ बरबाद हो जाता है। महीन कागज पर तंबाकू की तह जमाते। हर पत्ती हर कण की दिशा ठीक करते। बीच में पीपरमिंट की एक सलाई रखते और थूक से चिपका कर बर्फीले कश लेते और सिगरेट न पीने वालों की महरूमी पर एक मिनट तक मुस्कुराते रहते।
'आप इस खखेड़ में क्यों पड़ते हैं बने-बनाए सिग्रेट क्यों नहीं पीते?' हमने पूछा।
'रेडीमेड सिग्रेट? क्या, आपने तुख्मी आम चूसा है?'
'जी हाँ! हजार बार!'
'अगर कोई तुख्मी का रस निकाल कर बिल्लौरी गिलास में पेश करे तो क्या वही मजा होता जो खुद दुहने में आता है?
'एक तुख्मी की हम पर भी कृपा हो।'
फौरन यानी पंद्रह-मिनट में एक सिग्रेट बनाया और उसमें पीपरमेंट की सबसे बलिष्ठ सलाई रखी। हमने जो आँख मींच कर दम लगाया तो गला नथिया गली हो गया।
पूछा, 'आप पाइप क्यों नहीं पीते?' पाइप से सिर्फ उन लोगों को आराम आता है जो न सिग्रेट की कूवत रखते हैं, न हुक्के की ताकत। दस बरस पहले मरदान में उन्होंने हुक्का शुरू किया था लेकिन पहले तो उनकी बीबी ने गालिब की बीबी की तरह उनके खाने-पीने के बर्तन अलग रखे फिर खुद उन्हें भी अलग रखने लगीं।
सनीचर को पूछने लगे 'तो फिर चल रहे हैं कल शिकार पर, शागिर्दी के लिए कल का दिन अच्छा है। 8 तारीख है। 8 मेरा लकी नंबर है।'
'चलने को तो चले चलेंगे मगर एक निवेदन है। वो ये कि सफर और शिकार में सरकार कोई गाली नहीं देंगे।'
'मंजूर मगर एक शर्त पर, आप भी कोई शेर नहीं बकेंगे। दफ्तर की बात और है। बाहर बन्दा कोई बेहूदी या बेतुकी बात बरदाश्त नहीं कर सकता।'
लैला भी हमसफर हो तो महमिल न कर कुबूल
'फिर वही-आपकी दुम कभी सीधी नहीं होगी। आपको मालूम है गोलकुन्डा के सुल्तान का एक बेतुका शेर सुनकर जहाँगीर बादशाह इस कदर नाराज हुआ कि तुरंत गोलकुन्डे पर चढ़ाई करने की आज्ञा दे दी। जहाँगीर आज जिंदा होता तो खुदा की कसम मुगल फौज सारी उम्र आपका घेरा डाले पड़ी रहती।'
सीढ़ी और नास्टेलजिया : बैंकों में इतवार रो-रो कर आता है और सोमवार रुला-रुला कर जाता है। इतवार को जरा देर से आँख खुली। हम बिहार कॉलोनी वाली बस से उतरे तो देखा खान साहब हमारे स्वागत के लिए बस अड्डे पर आधे घंटे से खड़े सिग्रेट बना रहे हैं। आलिंगन, हाथ मिलाना और सलाम हुआ। ऐसी कबायली गर्मजोशी से गले लगे कि हम बड़ी मुश्किल से शेष रस्मों की पूर्ति के लिए स्वयं को उनके प्रेम के शिकंजे से आजाद करा सके। अगर हम अपने सीने पर इस तरह हाथ न बाँध लेते जैसे जन्नती बीबियाँ नमाज पढ़ते समय बाँध लेती हैं, तो चार-पाँच पसलियाँ टूट चुकी होतीं। कबायली आलिंगन में परस्पर प्रेम का अनुमान उन पसलियों की गिनती से लगाया जाता है जो इस कार्य के समय टूट जाएँ और मर्दानगी का उनसे जो बच जाएँ। हमारे दुबलेपन और पसलियों का मजाक उड़ाते हुए बोले कि आपको सीने से लगाने पर यूँ लगता है जैसे बाँस की सीढ़ी से गले लग रहा हूँ।
अजान के बाद बिजली के खंभे से लगी हुई साइकिल उठाई। हमने कहा 'ये तो पितरस (प्रसिद्ध व्यंग्यकार जिनका साइकिल पर अद्भुत लेख है) की साइकिल मालूम होती है।'
'नहीं तो! मेरी ही है। क्या वो भी चाकीवाड़ा में रहता है?' उसके नंगी तलवार के से डंडे बिठा कर हमें अपने घर ले चले। हमने पीछे आरामदेह कैरियर पर बैठना चाहा तो उन्होंने अनुमति नहीं दी। कहने लगे, 'पहले तो ये सीट जंगली बकरे की लाश के लिए रिजर्व है। दूसरे हमारे यहाँ मेहमान की तरफ पीठ करके बैठना शालीनता के विपरीत समझा जाता है। मेहमान किसी समय भी पीछे से छुरा घोंप सकता है। मालूम होता है आपने इतिहास का ठीक से अध्ययन नहीं किया। इतिहास पढ़ने के तीन लाभ हैं। एक तो यह कि पूर्वजों के विस्तृत हालात की जानकारी के बाद आज की हरमजदगियों पर गुस्सा नहीं आता। दूसरे याददाश्त तेज हो जाती है। तीसरे, लाहौल विला, तीसरा फायदा दिमाग से उतर गया। कराची भी अजीब शहर है हाँ! तीसरा भी याद आ गया। खाने, पीने, उठने, बैठने, भाइयों के साथ मुगलिया बरताव की सभ्यता से परिचय होता है। आगे बैठने पर याद आया कि शाहजहाँ के समय में यह सवाल उठाया गया था कि महावत शाही अम्मारी के आगे बादशाह की तरफ पीठ करके बैठता है जो सिर से पैर तक शालीनता के विपरीत है। इसलिए हमारे अपने इलाका गैर से एक शुद्ध रक्त के सय्यद साहब इम्पोर्ट किए गए जो महावत की पीठ से पीठ मिलाकर बादशाह की तरफ मुँह करके बैठते थे। आश्चर्य है बादशाह को ये ध्यान कभी न आया कि गुस्ताख हाथी उस की तरफ परमानेंट पीठ किए रहता है।'
इस पर हमने कहा 'राजस्थान के राजपूतों में उल्टा रिवाज है, ऊँट पर बैठी हुई औरत के आसन को देख कर एक मील दूर से बता सकते हैं कि वो सवार की बहन है या बीबी। बहन को राजपूत सरदार हमेशा आगे बिठाते हैं ताकि खुदा न ख्वास्ता वो गिर पड़े तो फौरन पता चल जाए। बीबी को पीछे बिठाते हैं।'
'और महबूबा को?'
'अपहरण के लिए देस में हमेशा घोड़े इस्तेमाल होते हैं।'
'देस में!!! आपका मन अभी तक मीरा बाई के देस में, अटका हुआ है पंडित यूसुफी! रेत के टीले, बंजर धरती, ऊँट हद ये कि ट,ठ,ड,ड़ देख कर आप नास्टेलजिक हो जाते हैं। आपके देस जयपुर में ले दे कर एक झील थी, साँभर झील और यह सड़ांदी खारी झील है जो सारे हिंदुस्तान को नमक सप्लाई करती है। आपको यह ध्यान नहीं रहा कि ब्राह्मणों का धर्म अपनी रसोई में मुसलमान के पाथे हुए उपले जलाने से भ्रष्ट हो जाता था। पाकिस्तान का दाना पानी खाते इतने दिन हो गए मगर अब भी वही रट 'मैं चने मटर के खा लूँगी तू ले चल जमना पार' थान है थान। ये पाकिस्तान है। आप भी किस पोली, पिलपिली, पोपली धरती को याद करते हैं जिसमें दिग्विजयी घुड़सवार अपने भालों से तंबू भी न गाड़ सकें। कभी आकर खैबर की जमीन देखिए। जरा सी असभ्यता से पाँव पड़ जाए तो टन-टन खतरे का एलार्म बजता है। गोलियों के मुँह फेर देता है।'
वो चमक गए थे। हमने कांटा बदल कर गंभीर दार्शनिक सवाल किया।
'औरत के बारे में क्या खयाल है?'
'अक्सर खयाल आता है' उन्होंने जवाब दिया।
अजीब बात है, हमने बहुत बार राजपूतों के स्वाभिमान और बहादुरी की कथाएँ सुनायीं, जरा भी जो प्रभावित हुए हों। एक दिन बात करते हुए हमने कहा 31 दिसंबर 1949 तक जब हम जयपुर से चले हैं; वनस्पति घी बेचना, खरीदना, बनाना, रखना और खाना राजस्थान की सीमा में दंडनीय अपराध था। छह महीने का सश्रम कारावास मिलता था। फड़क उठे। बोले यह बात हुई। इसके बाद कभी राजपूतों का जिक्र आता तो बड़े ध्यान और सम्मान से सुनते।
हम ताजा-ताजा हिंदुस्तान से सफर और हिजरत की धूल झाड़ते हुए अवतरित हुए थे। एक नए जन्म और आदर्श की इच्छा में अपना कालावधि से बढ़ा नाल न केवल स्वेच्छा और सानंद बल्कि अपने हाथ से काटा। घाव भर चला था, पर भरते घाव की मीठी सलसलाहट का आलम ये कि 'जहाँ मालूम होती थी वहीं मालूम होती है' इसी आलम में एक दिन उनके पूछा-
'आपको हिंदुस्तानी कल्चर पसंद नहीं?'
'इसके जो हिस्से हमें पसंद आते हैं, उनसे बेशक निकाह कर लेते हैं?'
शिकार को रवाना होने लगे तो उन्होंने हमें सख्ती से मना किया कि शिकार पर रवाना होने पहले चाकू का नाम हरगिज-हरगिज नहीं लेना चाहिए। शिकार नहीं मिलता। चुनांचे यही हुआ। फिर एक छागल पानी की अपने गले में डाली और एक थैला मूँगफलियों का हमारे गले में टाँगना चाहा ताकि हमारे दोनों हाथ जिनसे आगे चल कर बहुत से काम लेने थे, खाली रहें। हमने पीछा छुड़ाने के लिए कहा, 'हम मूँगफली नहीं खाते।' बोले हमने तमाम उम्र बादाम खाए हैं मगर इस मेवे में खराबी क्या है?' निवेदन किया 'मूँगफली और आवारगी में खराबी ये है कि आदमी एक बार शुरू कर दे तो समझ में नहीं आता खत्म कैसे करे?' हमारी राय से सहमत होते हुए मूँगफली का तोबड़ा उन्होंने अपनी गर्दन में लटकाया। हम चीखते चिल्लाते ही रह गए और उन्होंने ये कहते हुए पखाल हमारे कंधे पर डाल दी। 'ऊंठ अड़ांदे ई लद्दी दे नी' (ऊँट को बिलबिलाते हुए ही लाद देना चाहिए। ये इंतजार नहीं करना चाहिए कि ऊँट बिलबिलाना बंद करे तो हम लादना शुरू करें।)
पूछा, 'मेवों में हुजूर को कौन-सा मेवा पसंद है?
बोले, 'निकाह का छुआरा'
साढ़े आठ बजे हम दोनों साइकिल पर मंघू पीर की पहाड़ियों की तरफ जंगली बकरे की तलाश में रवाना हुए। थोड़ी दूरी तय करने के बाद हमें कैरियर पर बैठने की इजाजत मिल गई। जरा देर बाद हाँफते हुए कहने लगे 'अब आप पीछे बैठे-बैठे आराम से पैंडिल मारिए, मैं हैंडिल चलाता हूँ। जरा एहतियात से पैंडिल मारिएगा, कराची का ट्रैफिक बावला है।
आदेशानुसार हम उनकी कमर पकड़ कर पैंडिल से जोर-आजमाई करने लगे। साइकिल चलाने के इस ढंग में एक निहायत बारीक कानूनी नुक्ता उन्होंने ये बताया कि पुलिस डबल सवारी के जुर्म में दोनों में से किसी का चालान नहीं कर सकती। जो हैंडिल पकड़े हुए है वो पैंडिल मारने में शरीक नहीं है और जो पैंडिल मार रहा है उसका बाकी साइकिल से कोई कानूनी तअल्लुक नहीं है। अगर आपको मजिस्ट्रेट ने एक महीने की भी सजा की तो सुअर के पाँव के नाखून खींच लूँगा और पैदल इलाका गैर में ले जाकर कत्ल कर दूँगा।
साइकिल के वो तमाम अतिरिक्त बचे हुए पुरजे और सजावटी टीम-टाम जिनकी गिनती मैकेनिकल अय्याशी में हो सकती थी, खुद को मिट्टी में मिला चुके थे और देखने में अब यह ढांचा साइकिल का एक्सरे मालूम होता था। हैंडिल पर न जाने कैसे एक शीशा लगा रह गया था जिसकी पहली नजर में यही उपयोगिता मालूम देती थी कि सवार को पता चलता रहे कि पिछला पहिया अभी तक साइकिल में लगा हुआ है कि नहीं। पूछा, 'इसमें तेल क्यों नहीं देते?' बोले, 'तेल देने में झंझट ये है कि फिर घंटी लगानी पड़ेगी।' साइकिल के मडगार्ड ही नहीं ब्रेक भी गायब थे, लेकिन चलाने के बाद ब्रेक की कमी महसूस नहीं होती थी, इसलिए कि साइकिल का जो पुरजा जिस जगह था, वहीं से ब्रेक का काम कर रहा था, फिर भी हमारे सुपुर्द यह काम था कि जैसे ही वो इशारा करें, हम जूते की एड़ी से नंगे पहिए को आगे बढ़ने से रोकें। चार पाँच मील ब्रेक लगाने के बाद हमारे जूते की दाईं ऐड़ी झड़ कर कहीं गिर गई। खान साहब ने बाईं ऐड़ी प्रयोग करने का संकेत किया तो हमारे पास आदेश का उल्लंघन करने के अलावा कोई विकल्प न रहा। उस्तादी शागिर्दी अपनी जगह, लेकिन इससे तो आप भी सहमत होंगे कि एक पाँव से लंगड़ाना दोनों पाँव से लंगड़ाने से अच्छा है।
वो जो पंजाबी कहावत है गधे का एक मील और कुम्हार का सवा मील, सो वो हम पर हर मील खरी उतरी। जब सहनशक्ति जवाब देने लगी तो हमने शिकायत की कि कैरियत बहुत चुभ रहा है। बोले, 'आप मेरी सीट पर बैठ कर देखें तो पता चले कि चुभना किसे कहते हैं। आपको गलतफहमी हुई है। आपके कूल्हों पर गोश्त नहीं है। ये अस्ल में आपकी ही पर्सनल हड्डियाँ हैं जो आपको चुभ रही हैं। आपके अगर कूल्हे होते तो आज ये हालत नहीं होती कि जरा पायचां साइकिल की चेन में आ गया तो सारी पतलून उतर के टखनों पे आ रही। दरअस्ल आपके यहाँ कमर से लेकर टखनों तक पतलून के लिए कोई रोक है ही नहीं। खैर से आपकी उम्र ही क्या है। इस उम्र में तो कूल्हे नई फस्ल के पहले गरमे (खरबूजे) की तरह होते हैं। आपने लखतई (लौंडों का) नाच देखा है? कत्ल हो जाते हैं।'
'हमारा पालन बहुत पवित्र माहौल में हुआ है। जवानी में हमने मोर के नाच के अलावा और कोई नाच नहीं देखा।'
उतर कर घुटने पकड़कर झुक गए। 'फिर भी आप लोग खुश होते हैं तो मुजरे, मुशायरे करवाते हैं। आतिशबाजी छोड़ते हैं, लेकिन हम हर भावना को बंदूक से प्रकट करते हैं। हमारे यहाँ फिल्म का कोई गाना या डायलॉग पसंद आए तो दर्शक इसकी दाद पिस्तौल से देते हैं। डिश, डिश, डिशाऊं, हॉल में जितने अधिक पिस्तौल चलें, उतना ही मालिक खुश होता है कि फिल्म हिट हो गई।'
'गोली छत से टकरा कर उल्टी दर्शकों को नहीं लगती?'
'छत ऐसी बनाते हैं कि बारिश और गोली को गुजरने में तकलीफ न हो।'
खान गुलाम कादिर खान : फर्लांग भर डायलॉग के बाद हमने चुभन से परेशान हो कर स्वयं को हथेलियों के जैक पर उठा लिया तो कहने लगे आप ये बंदरों की-सी हरकतें क्यों कर रहे हैं? निवेदन किया, 'बंदर में हमें इसके अलावा कोई बुराई नहीं दिखाई पड़ती कि वो मनुष्य का पूर्वज है। शेष वर्णन ये कि कैरियर का एक इंच गहरा साँचा हमारे बदन पर छप चुका है और अब इसमें कई ऐसे कैरियर ढाले जा सकते हैं।'
हैंडल से दोनों हाथ छोड़कर ताली बजाई फिर उस चमड़े की सीट को, जिस पर वो बैठे थे, अपनी रानों में दबाते हुए अपने दादा खान गुलाम कादिर खान का किस्सा सुनाने लगे कि उन्होंने एक बार अपनी रानें भींच कर एक मुँहजोर घोड़े की पसलियाँ तोड़ दी थीं।
हमने कहा 'आपके दादा जानी मरहूम...' बात काटते हुए बोले 'दादा जानी? जान क्या मतलब? आप रेख्ती (उर्दू की स्त्रैण शैली) कबसे बोलने लगे ...वो खान, इब्ने-खान, इब्ने खान था।'
'आपके दादा खान और अब्बा खान मरहूम तो बहुत गर्वीले और खूंखार होंगे? तलवार, जी नहीं बंदूक के धनी होंगे?'
मूँगफली की कागजी झिल्ली उतारते हुए बोले 'इस शक में आपको शुब्हा क्यों होता है?
'एक बार की बात है, मेरा दादा गाँव नवां-कली, तहसील सवाबी, जिला मरदान में (नोट कीजिए, यह इलाका तंबाकू का दिल है फिर न कहिए मैं तंबाकू के बारे में कुछ बता के नहीं देता) हाँ तो मेरा दादा खान गुलाम कादिर खान नवां-कली की सड़क पर गोली खेल रहा था। उर्दू वाली कच्ची गोली नहीं अस्ल काँच की गोली। सात साल का था। इतने में अंग्रेज डिप्टी कमिश्नर सफेद घोड़े पर सवार उधर आ निकला। गन्ने की औलाद ने बड़े अपमानजनक ढंग से अपने अर्दली को हुक्म दिया इस डैम छोकरे को हमारे रास्ते से हटा दो। मेरा दादा गुस्से से कंधारी अनार हो गया। ये बंदूक तो खैर घर पर थी। आव देखा न ताव, गले में लटकी हुई गुलैल में वही शीशे की गोली भर कर ऐसी ताक कर मारी कि ठीक निशाने पर यानी सुअर की दाईं आँख में जा कर बैठ गई और ऐसी फिट हुई कि निकाले से नहीं निकली। सारी उम्र वही लगाए फिरा।'
हमने पूछा 'उस जमाने में नवां-कली में वर्जीनिया तंबाकू पैदा होता था?'
जवाब मिला 'वो शेर दिल और गैरतमंद पठान था, एक बार किसी काम से दर्रा गया। वहाँ एक कोठरी के सामने चारपाई पर शिमरोज खान चादर ताने दोपहर की नींद ले रहा था। महमंद कबीले का सरदार और पुराना परिचित था। मेरे दादा ने सलाम किया मगर उसने लेटे ही लेटे 'पखेर रा गल्ले!' कह कर मिलाने के लिए हाथ बढ़ा दिया। कबायली तहजीब के अनुसार सम्मान को न उठा। मेरा दादा इस हतक से बहुत नाराज हआ। इसके दो महीने बाद वो जिक्र है। बारिश के दिन थे, दादा खान गुलाम कादिर खान कच्ची सड़क पर खड़ा औरतों से हँस-बोल रहा था कि सामने से शिमरोज खान कीचड़ में फचाफच करता, आता हुआ दिखाई दिया। दादा वहीं कीचड़ में चादर ओढ़ कर लेट गया। लोगों ने पूछा, गुलाम कादिर खान! खैर तो है? दादा ने जवाब दिया, उसका खाना खराब हो, शिमरोज खान ने मुझसे लेटे-लेटे हाथ मिलाया था, मैं भी लेटे-लेटे ही मिलाऊँगा।'
'तंबाकू की फस्ल मंडी में कब आती है?'
सवाल का नोटिस न लेते हुए बयान जारी रखा 'खान गुलाम कादिर खान सरदारों का सरदार था। बिना कुलाह के साढ़े छह फिट कद, डौलों की मछलियाँ इतनी सख्त कि नाई उन पर उस्तरा तेज कर लेता था। 98 साल की उम्र पाई। एक महफिल में बनारस की बिब्बो तवायफ नाचते-नाचते उसके सामने आई। न जाने कौन-सी अदा भा गई, अपनी हथेली पर खड़ी-खड़ी को अधर उठा लिया। तख्त पर सोता था मगर जब तक उस पर उसका खास गद्दा बिछा न हो, नींद नहीं आती थी। इसमें काफिर दुश्मनों की मूँछें भरी थीं। नाश्ते में बारह अंडे साबुत निगल जाता था।'
'साबुत?' हमारे मुँह से अनायास निकला।
'जी हाँ! मैंने तो किसी मुर्गी को आधा अंडा देते नहीं देखा। आखिरी समय तक दाँतों से दुंबे की नली तोड़ कर गूदा निकाल लेता। भुना हुआ आधा बर्रा चट करके पारा चिनार के आधा दर्जन सेब खा जाता था। कभी देखे हैं? चितरालन के गालों जैसे होते हैं। पारा चिनार के आगे जो गगनचुम्बी पहाड़ ईरान, अफगानिस्तान और पाकिस्तान की सीमा का संतरी है, उसे सफेद पहाड़ कहते हैं। सारा पहाड़ काला और नंगा है, सिर्फ चोटी पर बर्फ की बिकनी (Bikni) बारह मास अटकी रहती है। दादा ने यहाँ दो बर्फ़ानी चीते मारे थे। ननिहाल की तरफ से उसकी रगों में तातारी खून था। वो जब जोश मारता तो घोड़ी का दूध जुरूर चख लेता था। चालीस सफेद घोड़ियाँ अलग अस्तबल में बंधी रहती थीं, जहाँ मर्दों का जाना मना था, घोड़े के सिवा कोई पाँव नहीं रख सकता था। उसके गालों पर सुनहरी रुआं चमका और आवाज दोशाखा होने लगी तो बाप के हुक्म के मुताबिक एक सौ एक चिड़ियाँ पर बाँध कर सुबह ही उसके सामने डाल दी जातीं। वो अपने जूतों तले उनके सिर एक के बाद दूसरा कुचलता चला जाता था। कुरड़, कुरड़, कुरड़। एक साल तक यही चलता रहा ताकि दिल मजबूत हो जाए। मेरा दादा भी घोड़ों पर जान छिड़कता था। दो मील दूर से, टाप से यह पहचान लेता था कि घोड़े पर कोई चौड़ी छाती वाला शेर, दिलेर सवार है या डरपोक। कभी रकाब पे पाँव रख कर घोड़े पर नहीं चढ़ा। जब वो दुश्मन को ढूँढने के लिए तूरे-खम के पहाड़ी रास्तों में घोड़ा डालता तो दूर-दूर तक सुमों से छूटती हुई चिंगारियों की जगमग-जगमग बन जाती थी। रात-दिन घुड़सवारी के कारण उसकी टाँगें ब्रेकिट की तरह मुड़ गई थीं। उसने पूरे 49 साल यानी अपना आधा जीवन घोड़े की नंगी पीठ पर गुजारा।'
'और बाकी आधा?'
'उसने ग्यारह औरतें कीं। खरा, नर आदमी था। बगैर ढाल और कवच के तलवार चलाता था।'
'मगर आप तो कह रहे थे आपके स्वर्गीय दादा के पास यह बंदूक थी।'
'हाँ! थी, मगर बंदूक से सिर्फ काफिरों को जहन्नुम रसीद करता था। कबायली रिश्तेदारों और मुसलमानों को तलवार से शहीद करता था।'
कुरेदते हो जो अब राख , जुस्तजू क्या है
हमारी तंबाकू की खड़ी फस्ल को पाला मार गया। कुछ देर बाद हमने छेड़ा, 'उस्ताद कभी आपने इश्क किया है?'
बंदूक छितियाते हुए बोले 'खुदा के लिए चुप रहिए, मुझे जंगली बकरे की मस्त बू आ रही है। बोक बकरा लगता है?'
हम मूली की भुजिया और परांठे की बाकी बची हुई डकार निगलते हुए चुप हो गए। थोड़ी देर बाद हमने राख को फिर कुरेदा, 'खान साहब आपने कभी इश्क किया है?'
'आप लौंडे के बारे में पूछ रहे हैं या हिजड़े के?' वो खुद ठिठोली पर उतरे।'
'आपको कभी कोई औरत अच्छी लगी?'
'मैंने तो कोई जवान औरत बदसूरत नहीं देखी, मगर आप भी तो अपने पत्ते दिखाइए, कभी किसी से इश्क किया? शादी माँ-बाप की पसंद से की या अपनी पसंद से की?'
'मैंने अपनी बीबी की पसंद से शादी की।'
घुटने पकड़ कर हँसने लगे, 'आपकी शादी तो इस तरह हुई जैसे लोगों की मौत घटित होती है। अचानक, बिना मर्जी के।'
कुछ देर के बाद जिज्ञासा की, 'शादी के बाद कोई शिकार-शिकूर हुआ या मचान पे टंगे-टंगे हाँका-शांका ही देखते रहे। कोई affair ?'
'मुफलिसी वज्हे-पारसाई है!' (निर्धनता आत्मनियंत्रण का कारण है)
'तो मुफलिस ही से सही।'
'बहम्दुलिल्लाह! (ईश्वर की कृपा से) हम बहुत संतुष्ट और मुकमह हैं।
'यह मुकमह क्या बला होती है जी?'
'मुकमह उस ऊँट को कहा जाता है जो सैर-सपाटा करते हुए हौज पर सिर ऊँचा करके खड़ा हो जाए।'
'कुरआन की कसम खाके बताओ ये शब्द तुमने किससे सीखा?'
'जुमे की नमाज के बाद मौलवी खैरुद्दीन ने इसकी अच्छाइयाँ बयान की थीं!'
'तो यूँ कहो। मौलवी चाकीवाड़ा में ही रहता है। उसकी तो दो बीबियाँ हैं। तीसरी मौलवियाइन कुछ दिन हुए मौत के कुँए में मोटरसाइकिल चलाने वाले के साथ भाग गई और क्या-क्या अच्छाइयाँ बयान की थीं उस मुकमह ने?'
'जन्नत की शराब, हूर और गुलाम के अलावा कई चीजों का जिक्र किया था और कहा था कि जो मुसलमान अपनी नजरें नीची रखेगा और पवित्र रहेगा, उसको जन्नत में अपनी ही बीबी हूर की शक्ल में मिलेगी।'
'खू!!!! फिर मरने से फायदा ही क्या हुआ?'
रैड क्लिफ से हमारी आत्मीयता : इस अनूठे सफर में सबसे कम तकलीफ साइकिल को उठानी पड़ी बल्कि हमें तो साइकिल भी उठानी पड़ी। आगे-आगे रैड क्लिफ चल रहा था, उसके चरण चिन्हों पर हम। कुल मिलाकर फायदे और खूबियों के रैड क्लिफ का एक खुला फायदा ये दिखाई पड़ा कि लौंडों ने साइकिल पर पत्थर नहीं मारे, कुत्ते के मारे। रास्ते में खान साहब खूं-खूं खाँसने लगे, पूछा 'खांसी हो गई है?' बोले, 'ऊंह कोई विशेष बात नहीं। सिगरेट का तंबाकू खत्म हो गया। उससे निकोटीन की कमी हो गई है।'
हमने कहा 'नहीं आप कई दिनों से खाँस रहे हैं। इलाज क्यों नहीं कराते?
बोले 'डॉक्टर शफी को गला दिखाया था। फीस लेकर कहने लगा, सिगरेट छोड़ दो। मैंने कहा, अगर सिगरेट ही छोड़नी होती तो तेरे पास क्यों आता?' जरा देर दम लेने के लिए एक पपीते के पेड़ की नाम भर की छाँव में बैठे तो हमने रैड क्लिफ की पूँछ पर हाथ फेरा कि यही हिस्सा हमें उसके जबड़े से सबसे दूर नजर आया। अलावा इसके, उसे खुजली भी हो रही थी। एक महीने पहले खान साहब को हो चुकी थी। चलने से पहले उन्होंने इसे कार्बोलिक साबुन से खूब रगड़-रगड़ कर नहलाया। लेकिन साहिबो! गीला नहाया हुआ कुत्ता सूखे कुत्ते से अधिक पलीद होता है।
हमें रैड क्लिफ की पूँछ सहलाते और चर्चा के प्रारंभ को चर्चा के अंत को हिलाते देख कर बहुत खुश हुए। कहने लगे 'गौर कीजिए तो भौंकना कुत्ते का अधिकार और पूँछ हिलाना उसका कर्त्तव्य है। इस काफिर के सामने अफगान ग्रेहाउंड भी पानी भरता है। आस-पास की गलियों की कुतियाँ इस पर जान छिड़कती हैं। इस कुत्ते की वफादारी का अभी से ये हाल है कि जिस रास्ते से मैं गुजर जाऊँ-चाहे वो कितना उलझाव भरा हो इसके दो घंटे बाद आप इसे आँखों पर पट्टी बाँध के छोड़ दें तो ये मेरी खुशबू लेता इस लीक से एक इंच भी इधर-उधर नहीं होगा।'
'लीक न कहिए, नसवार का राजपथ कहिए।'
पान और कल्चर का रचाव : नसवार का नाम आते ही बिगड़ गए। 'सरकार मुजरा अर्ज है! पान, तंबाकू, गिलौरी, किवाम के बारे में हुजूर की क्या राय है?'
'पान की क्या बात है, पान में जब तक कत्था, चूना, छालियाँ और कल्चर एक खास अनुपात और नफासत से घोटे न जाएँ, पान पान नहीं बनता। हमने ये भी देखा कि आदमी को खाना अपनी बीबी के हाथ का पचता है और पान पराई के हाथ का रचता है। साजिद रजा लखनवी तो कहते हैं कि गंगा-जमनी खासदान से वरक लगी गिलौरी उठा कर सही उच्चारण और अंदाज से 'आदाब अर्ज' कहने के लिए तीन नस्लों का रचाव दरकार है।'
'गुस्ताखी मुआफ! मेरा खयाल है कि अगर तीन नस्लें इस तरकीब से पान खा लें तो चौथी नस्ल 'आदाब अर्ज' करने के लिए पैदा ही नहीं होगी और हाँ! ये भी तो आप ही ने बताया था कि... रानी केतकी... की हीरोइन ने अपने मुँह की पीक से अपने प्रेमी को प्रेम पत्र लिखा था और ये भी आपने बताया था कि वाजिद अली शाह जिस जमाने में मटिया बुर्ज में अंग्रेजों की कैद में थे तो उन्होंने लखनऊ से माशूक महल के हाथ के कटे हुए नाखून और अपनी एक चहेती लौंडी के पान का उगाल बतौर निशानी मँगवाया था। हम नसवार से कम से कम ये काम तो नहीं लेते। महबूबा को चिट्ठी हम मुँह की राल से नहीं, खून से लिखते हैं। अपना खून नहीं, दुश्मन का।'
'किबला! खत पत्तर तो पोस्ट ऑफिस के जरिए हम जैसे मजबूर, अपाहिज भेजते हैं। आप तो खुद चर्चा के विषय को मय चारपाई उठा लाते हैं।'
'अगर एक शब्द भी जबान से और निकला तो यहीं तुम्हारा रेता (पूरे दुम्बे को भून कर बनाया गया अफगानी गोश्त) बना दूँगा।'
अब्दाली की नाल का अगला हिस्सा पतलून की बैल्ट से हैंडिल के साथ बाँध दिया गया। उसका धड़ कभी हम बाएँ हाथ से थाम लेते कभी कंधे पर रख लेते। कुंदा पिछले पहिए से तीन फिट पीछे निकला हुआ था। टाई जियादा फड़फड़ाने लगी तो हमने उस पर बाँध दी-जिस तरह लोहे और सरियों के ट्रक के पीछे लाल झंडी लहरा दी जाती है। हमने पूछा हमारी गैर-मौजूदगी में आप अब्दाली किस तरह ढोते थे?
बोले, ' आप भी कैसे Embrassing सवाल करते हैं।' निवेदन किया, 'हम तो केवल अपने ज्ञान को बढ़ाने के लिए पूछ रहे थे।'
हमारे ज्ञान की प्यास पर धीरे से मुस्कुरा दिए, बोले, 'बिहार कॉलोनी का एक मलंग इतवार के इतवार मंघू पीर 'दे उसका भला, जो न दे उसका भला' करने जाता है। उसे पीछे बिठा लेता हूँ। अंधा है। आँख वाले सभी फकीर उससे जलते हैं। फकीर के लिए आँखें न होना बड़ी नेमत है।'
अगर फिरदौस : आखिरी ब्रेक लगा कर इधर-उधर देखा तो विश्वास न हुआ कि ये जगह उनकी शिकारगाह हो सकती है। मंघू पीर के उथले तालाबों के किनारे जंगली बकरों के पगमार्क कहीं न दिखाई दिए। अलबत्ता कुछ बूढ़े मगरमच्छ और उनसे भी अधिक बूढ़े कछुए गोते लगा रहे थे और इस भयानक बीमारियों के पानी को मामूली खाल की बीमारियों के रोगी अपने बदन पर डाल रहे थे। यहाँ सायकिल एक तंदूर वाले के सुपुर्द करके और चार तंदूरी रोटियों की एडवांस बुकिंग कराके शिकार की तलाश में हम पैदल निकले। खान साहब ने मंघू पीर की पहाड़ियों पर नजर डाली तो देर तक अफसोस किया किए कि सैकड़ों साल से फिजूल, बेकार पड़ी हैं वरना कबायली जंग के लिए इससे बेहतर जगह कसम खुदा की, जमीन पर तो क्या फिरदौस में भी नहीं मिलेगी।
हमीं अस्तो हमीं अस्तो हमीं अस्त
अब्दाली चलती है : उन्होंने अब्दाली के कुंदे को एक तीन फिट गहरे गड्ढे में टिका दिया और खुद उसकी कगार पर खड़े हो गए। तब कहीं नाल उनके कानों तक आई। अब बंदूक भरने की क्रिया शुरू हुई। बंदूक भरते जाते और उसकी प्राण लेने वाली खूबियाँ बयान करते जाते।
'हॉलैंड एण्ड हॉलैंड, वैब्ले स्कॉट और परडी की बंदूकें तो इसके सामने टीन की फुकनियाँ हैं, फुकनियाँ'
टॉयलेट पेपर, गत्ते की टिकलियाँ, ऊँट की मेंगनी, बबूल के पीले-पीले फूल, बारूद, छर्रों और गालियों की अनगिनत तहें जमायी गईं। हर तह के बाद लोहे के गज से ठोंकने, कूटने का काम हमारे सुपुर्द हुआ और हम तह को कूटते रहे, कूटते रहे जब तक कि सारा मसाला और हम एक जान न हो गए।
आखिर में टोपी चढ़ायी गई अगर हम ये कहें कि इस कार्यवाही में एक घंटा लगा तो अतिशयोक्ति होगी, इसलिए कि 55 मिनट लगे थे जिनमें नाबालिग ऊँट की मेंगनी तलाश करने के 10 मिनट हमने शामिल नहीं किए। तीन-चार बार फुस्स होने और उतनी ही भाषाओं में गाली खाने के बाद अब्दाली चली तो एक आलम था।
हमने ऐसा धमाका जिंदगी में नहीं सुना था। हम तो हम, चरिंदे, परिंदे और गजिंदे तक अपनी पाँचों इंद्रियां या उनकी जितनी भी इंद्रियां होती हैं, खो बैठे। भेड़ों को हमने जीवन में पहली बार अलग दिशाओं में भागते देखा। मंघू पीर के मगरमच्छ घबरा कर तालाबों से बाहर निकल आए और दर्शक तालाबों में कूद पड़े। जिस जगह हम पानी की छागल छाती पे रखे चकरा कर गिरे थे वहाँ से हमने कुछ देर तक एक पहाड़ी को भी कलाबाजी खाते देखा। वो तो खुदा ने खैर की वरना बीच में अगर गड्ढा बाधा न बनता तो खान साहब बंदूक के धक्के से उस पार न जाने कितनी दूर पत्थरों में जाकर गिरते। भूचाल ही तो आ गया। वातावरण में दूर-दूर कागज के टुकड़े, सिगरेट की पत्ती, गत्ते के डाट, धूल, धुआँ और न जाने क्या-क्या उड़ने लगा। उन तमाम चीजों की मदद से उन्होंने छर्रों को शिकार तक पहुँचाया। हर तरफ धुआँ ही धुँआ था। जहाँ तक नजर काम करती थी-यानी छह इंच तक-कुछ नजर नहीं आता था। हमने अपने चेहरे पर जमी हुई कालिख को रूमाल से पोंछा। अभी तक माहौल में अनगिनत च़ीजें मय हमारे होश के उड़ रही थीं। छर्रे तो छर्रे, नाबालिग ऊँट की मेंगनी तक मय टॉयलेट पेपर शिकार का पीछा कर रही थी। अब कुछ-कुछ समझ में आया कि मराठे पानीपत में मैदान छोड़ कर क्यों भाग खड़े हुए थे। खान साहब ने कुछ देर रुकने का इशारा किया ताकि हर उड़ने वाली चीज धरती पर गिरे तो पता चले कि उनमें कौन सी अपंछी थी। फिर 5 मिनट तक दोनों ने हर गिरी हुई चीज को उठा-उठा कर देखा कि ये भूतपूर्व पंछी तो नहीं। बहुत ढूँढने के बाद, कीकर की ओट में एक तीतर का बच्चा दिखाई पड़ा जिसे हमने रूमाल डाल कर आसानी से पकड़ लिया। ये उड़ नहीं सकता था और उसके बदन पर छर्रे का कोई निशान नहीं था।
खिसियाने हो गए। फरमाया! कि पैंतालीस साल पहले मैं अपने सौतेले भाई के सिर पर अखरोट रखकर उड़ा देता था लेकिन अब ध्यान नहीं बैठता। निशाना चूकते ही वो पंछी की वंशावली की जनाना शाखों पर हल्ला बोल देते। सब जानवरों और पंछियों को पश्तो में गाली देते लेकिन कबूतर से उर्दू में संबोधित होते। कहते थे कि कबूतर सैय्यद होता है।
हमारी चपाती का उल्टा - सीधा : तीन फाख्ताएँ गिराने के बाद उन्होंने हमें सूखी टहनियाँ, तिनके, छपटियाँ और झाड़-झंखाड़ जमा करने का हुक्म दिया और खुद चूल्हे का डोल डाला। अब्दाली में परिंदे के पर नोचने और पेट के अंदर की चीजें निकालने का ऑटोमेटिक इंतजाम था। वो इस तरह कि दस फिट की दूरी से (यही बंदूक की लंबाई होगी) छर्रों की बाढ़ से उसके सारे पर मय बाजू उड़ जाते थे। कई बार तो मरहूम का कीमा और बची चीजें देखकर ये बताना मुश्किल हो जाता था कि उसका संबंध किस नस्ल से है। खान साहब ने नुची-नुचाई फाख्ताएँ बंदूक के गज में पिरो कर आग पर भूनीं। भूनते-भूनते कहने लगे कि पतीली से सभ्य आदमी वो काम लेता है जो पुराने समय में पेट से लिया जाता था यानी खाने को गलाना। आपकी कराची में तो कीमे में भी पपीते की गलावट लगाते हैं। हद ये है कि सादा पानी पचाने के लिए उसमें फ़्रूट सॉल्ट मिलाते हैं। हमारे यहाँ तो रोटी भी पत्थर पर पकती है और आटे का तो क्या कहना। जिस चक्की का पिसा हम खाते हैं वो नदी के किनारे फाख्ता की तरह कू-कू-कू-कू करती है और आदमी को जन्नत से निकलवाने वाली चीज (गेहूँ) पीसती है। गुस्ताखी मुआफ! कराची की रोटी तो दोनों तरफ से उल्टी मालूम देती है। कराची भी अजीब शहर है। आप हमारी नान खाकर बाड़ा का दो घूँट पानी पी लें तो कसम खुदा की या तो हुकूमत के खिलाफ बगावत कर दें या काजी के सामने फिर से हार-फूल पहन कर बैठ जाएँ।
खान साहब ने दो फाख्ताएँ इनायत कीं और एक छोटी सी टोटर और फाख्ता पर सब्र किया। हमने संकोच में एक बड़ी फाख्ता वापस करनी चाही तो उन्होंने ये कह कर इन्कार कर दिया कि ये ठीक से हलाल नहीं हुई थी। रोटी के बारे में ये तय हुआ कि उसका सूखा भुगतान तंदूर पर पहुँच के कर देंगे। हमारी साबुत फाख्ता में छर्रे ही छर्रे भरे हुए थे, जिन्हें हम पपोल-पपोल कर इस तरह थूक रहे थे जैसे जिनंग फैक्ट्री बिनौले फेंकती जाती है कि रूई की रूई, बिनौले का बिनौला अलग हो जाता है।
खाने के बाद छागल से पानी निकाल कर तामचीनी के मग में उबाला, थैले से चाय की पत्ती और चीनी निकाली और एक बकरी को पकड़ कर चौथा तत्व निकाला।
हमारा कच्चे घड़े से दरिया पार करना : शिकार खत्म हुआ तो हम फिर अपना मतलब जबान पर लाए। तंबाकू के बारे में भी कुछ हो जाए। कहने लगे 'इस हराम फस्ल के बारे में एक बात ये और याद रखिए कि अकेला पौधा है जिस पर कोई पंछी चोंच नहीं मारता। इसलिए आज तक कोई पंछी गले के कैंसर और आर्थिक परेशानियों में नहीं पाया गया। आप नोट्स लेने के शौकीन हैं, बेशक नोट कर लीजिए।'
हमारी हिम्मत बढ़ी। पूछा 'इसकी खेती के लिए क्या-क्या जुरूरी है?'
बोले 'तंबाकू के पौधे के लिए मिट्टी और खाद बहुत जुरूरी हैं।'
पूछा 'और पानी?'
बोले 'हाँ वो भी होना चाहिए'
ये थी अमृत की वो बूंद जो सारे सागर को मथ कर हमने निकाली। वापसी में इधर-उधर के विषयों की ओट से निकल कर हमने आखिरी वार किया।
'जिला मरदान में तंबाकू सबसे पहले किस सन् में उगाया गया?'
बोले 'ये कौन सा सन् है?'
'याद नहीं।'
'नूरजहाँ का बाप कौन से सन् में अपनी बेटी को सामान में बाँध-बूंध कर हिंदुस्तान में टपका था?'
'याद नहीं।'
'सिकंदर लोधी की माँ ने बाबर को कौन से सन् में कोहेनूर हीरे की भेंट दी थी?'
'याद नहीं।'
'आप कितने साल पहले पैदा होते तो नादिरशाही कत्ले-आम में मारे जाते?'
'खबर नहीं।
'तो फिर तंबाकू की खेती का सन् जाने बगैर आप अपनी मूली की भुजिया हज्म नहीं कर सकते? इल्म के जोर से आप स्कूल मास्टरी कर सकते हैं, बैंक में अफसरी नहीं कर सकते। कच्चे घड़े से ये दरिया पार नहीं होने का। फलसफा पढ़ के आदमी सिर्फ एक काम कर सकता है, दूसरों को फलसफा पढ़ा सकता है। फलसफा पढ़ने के बाद ब्याज खाने से सर्दी-गर्मी हो जाती है।
लो वो भी कहते हैं कि ये बेनंगो - नाम है
शाइस्ता लोग कैसे गाली देते हैं : पाकिस्तानी बिजनेसमैन, ब्यूरोक्रेट और बैंकर की डिक्शनरी में 'इंटेलेक्चुअल' से जियादा सड़ी गाली कोई नहीं और हम ये बात सारी उम्र यही गाली खाके बेमजा हुए बगैर कह रहे हैं। शुरू-शुरू में ये अजीब-सा लगा था कि डिप्टी जनरल मैनेजर से लेकर चपरासी तक, सभी हमारी एम.ए. की डिग्री का मजाक जुरूर उड़ाते हैं। हालाँकि हमने कई बार समझाया कि हमने फिलॉसफी में एम.ए. केवल समय काटने के लिए किया था। शिक्षा बिल्कुल उद्देश्य नहीं था। ज्ञान की बढ़ती लंबाई पर आर्थिक पोशाक तंग ही नहीं चुटकियों से जगह-जगह से मसकने लगी थी। हद ये कि बैंक के एकाउंटेंट भी जो एक मिडिल स्कूल से फारिग हुए थे और खुद को घोषित तौर पर अंडर-ग्रेजुएट कहते थे, वो भी जहाँ हमसे जोड़-घटाने की कोई छोटी-बड़ी गलती हो जाए तो इसी डिग्री पर हाथ डालते थे। एल.एल.बी. को तो फिर भी लोग एक पूरा अपाहिज समझ कर माफ कर देते थे मगर फिलॉसफी का एम.ए.??? हमारे यहाँ मजाक काने का उड़ाया जाता है। अंधे को अंधा और नाई को नाई नहीं कहते, हाफिज जी और खलीफा कहते हैं। शालीनता की सीमा ये कि फैज साहब मुश्किल पसंद आदमी ठहरे, अपनी शायरी के बदले में वस्ल के अलावा कुछ और भी राहतें माँगते हैं। सूली और फाँसी से कम की बातें नहीं करते लेकिन हम तो अपने आप को धरती की सत्ह से इतनी ऊँचाई पर देखने के इच्छुक न थे। फिर ये बुजुर्ग क्यों हमें ऱोज सुबह 9 बजे से शाम के 7 बजे तक उस डिग्री की सूली पर चढ़ाये रखते थे। हम खुद भी नीचे उतरना अधिक जानलेवा समझते थे। इसलिए कि नीचे तो वो खुद होते थे। हमने कहीं पढ़ा था कि रूस के बादशाह जार ने अपनी मलिका कैथरीन को ये सजा दी थी कि उसके प्रेमी का सिर काट कर स्प्रिट के शीशे के मर्तबान में उसके कमरे में बिल्कुल आँखों के सामने सजा दिया था, सो हमारी डिग्री भी कुछ इसी तरह की चीज निकली।
हमने कहा 'आप सही कहते हैं। जो कुछ पढ़ा लिखा वो हमारे कुछ काम न आया। फिलॉसफी में एम.ए. तो बाद की बात है हम तो जीवन की कोई गुत्थी मैट्रिक के एलजबरे की मदद से भी न सुलझा सके। तीन दिन हुए बच्ची सख्त बीमार थी। उसके लिए इंजेक्शनों की जुरूरत पड़ी। हमने यूनिवर्सिटी में फर्स्ट आने का गोल्ड मेडल, जो कई साल से बेकार पड़ा था, प्रोफेसर काजी अब्दुल कुद्दूस के हाथ सर्राफे में बिकवा दिया। ढाई तोले का गोल्ड मेडल 27 रुपए में बिका। आगरा यूनिवर्सिटी ने चाँदी पर सोने का पत्तर चढ़वा दिया था। काजी अब्दुल कुद्दूस ने सात रुपए नक्द और 27 रुपए की पूरी रसीद हमें थमा दी। कहने लगे बीस रुपए जरा खर्च हो गए। बड़ी सख्त जुरूरत थी।'
खान साहब चौंक कर साइकिल से उतर पड़े। 'अच्छा हम पर भी जरा पैगम्बरी वक्त आन पड़ा है। ये अँगूठी बेचनी है। सर्राफ का पता क्या है? भरोसे का आदमी है?'
दूसरे दिन लंच की छुट्टी के बाद हमारे पास आए और अलग ले जाकर एक लिफाफा हमें थमा दिया। उसमें हमारा गोल्ड मेडल था, उनकी उँगली में अँगूठी नहीं थी।
शिकार तो एक बहाना था वरना अस्ली उद्देश्य तो अपनी तबीयत और अब्दाली का जंग दूर करना था। उस सहेली को कंधे पर रखते हुए एक बार बोले 'खैर मैं तो फिर भी पित्ता मार लूँ मगर इस पठानी को तो साप्ताहिक वर्ज़िश चाहिए। मंघू पीर की जिन पहाड़ियों को उखेड़ कर कबायली इलाके में ले जाना चाहते थे, हमें तो ऐसी लगीं जैसे रेगिस्तान को गर्मी दाने निकल आए हों, बारिश के एक ही छींटे में भूसी सी उड़ जाएँगी। इस ऐतिहासिक शिकार के बाद समानता सी हो गई।
न कोई बंदा रहा और न कोई बंदानवाज
उस्ताद शागिर्द का अंतर मिट गया। मतलब ये कि दोनों एक दूसरे के उस्ताद हो गए और निजी विषयों में एक दूसरे को न सिर्फ गलत मशवरा देने लगे बल्कि उन पर दृढ़ता से अमल भी करवाने लगे। शाम को तोड़ के समय एक दूसरे के काम में हाथ बंटाते। आपसी सलाह मशवरे के बिना कभी कोई गलती नहीं करते। बैंक के लेजर-पन्नों पर सामान्यतः तीस-पैंतीस एंट्रियां होती हैं। उन्हें तेजी के साथ टोटल करने में उन दिनों में हमें ़खासी मुश्किल होती थी। कभी पाई खा जाते, कभी आने बढ़ा देते और रुपयों का सही हासिल लगाना तो कभी याद ही नहीं रहता था। (खान साहब तो खींच तान के हमारे आनों की नाभि (नाफ) तो बिठा देते मगर दोनों तरफ की पसलियाँ तोड़ देते यानी पाइयों और रुपयों का टोटल नहीं मिलता था। प्रोफेसर काजी अब्दुल कुद्दूस एक शाम अपने दर्शन करवाने बैंक आए तो हमने हासिल भूल जाने की आदत का जिक्र किया। इर्शाद किया 'आप भी वही कीजिए जो वाजिद अली शाह करते थे।'
यहाँ बैंक में ? : 'और क्या वाजिद अली शाह मटिया बुर्ज में नजरबंद होने के बाद नमाज पढ़ने लगे थे मगर रकअतें भूल जाते थे। इसका हल ये निकाला गया कि एक चोबदार हर रकअत के बाद एक बादाम जानमाज के हाशिये पर रख देता था। अवध के नवाब हर सिजदे के बाद कनखियों से बादाम गिन कर यह फैसला करते उन्हें फिर खुदा के हुजूर रुकूअ और सजदे करने हैं या आराम से घुटनों के बल बैठ कर अत्तहियात पढ़नी है।'
हमारा अर्जी लिखनाः एक दिन कहने लगे कि आपकी अंग्रेजी हालाँकि इतनी अच्छी नहीं जितनी मेरी पश्तो फिर भी एक अर्जी अंग्रेजी में इस विषय की लिख दीजिए कि मुझे फौरन तरक्की दे कर मरदान का मैनेजर बना दिया जाए। जोर पैदा करने के लिए अंत में यह बढ़ा दीजिएगा कि उस इलाके में जो रकमें डूबेंगी उन्हें सिवा मेरे कोई सुअर वसूल नहीं कर सकता। पश्तो में एक कहावत है जिस इलाके का हिरन होता है वहीं के कुत्तों के काबू चढ़ता है। इसका शाब्दिक अनुवाद कर दीजिएगा। हमने कहा मगर मरदान में तो बैंक की कोई ब्रांच नहीं है। बोले मुझे तरक्की देनी है तो फटीचर बाप की औलाद को ब्रांच भी खोलनी पड़ेगी, और हाँ यह भी साफ-साफ लिख दीजिए कि अगर मेरी तरक्की नहीं हुई तो मैं पड़ौसी की लड़की को ट्यूशन पढ़ानी शुरू कर दूँगा। हमने कहा ये धमकी तो पड़ौसी को दहला सकती है, अंग्रेज जनरल मैनेजर इससे नहीं डरेगा। झल्ला कर बोले तो फिर ये वार्निंग दे दीजिए कि मैं Spanish civil war में चला जाऊँगा। हमने कहा मगर ये गृहयुद्ध तो बंद हो चुका। बोले, ओफ्फोह! मैंने दो दिन से अखबार नहीं देखा। निवेदन किया, इसे खत्म हुए तो तेरह साल हो गए। बोले अच्छा तो फिर कोई और धमकी लिख दीजिए।
हमने एक निहायत विनम्र अर्जी एक उँगली से हिज्जे कर कर के इस तरह टाइप की, जैसे मलिका पुखराज और ताहिरा सय्यद गाना टाइप करती हैं। इसमें माननीय का ध्यान निवेदक की काबलियत, बुढ़ापे, अधिक औलाद और गबन से पैदायशी नफरत की तरफ आकृष्ट कराया गया। तकलीफ के साथ दस्तखत करने के बाद उन्होंने उसके चारों तरफ अपने हाथ से काला मातमी हाशिया खेंचा। अब एक-एक से कहते फिर रहे हैं कि मैंने जनरल मैनेजर से जवाब तलब कर लिया है कि मेरी तरक्की तीन साल से क्यों रुकी हई है। कल ही सुअर ने मुझे बुलाया। मेरे शोकाज नोटिस को अक्षर-अक्षर पढ़ा। अपना पार्कर हथेली पे रख के मुझे पेश किया और कहने लगा खुद अपना प्रोमोशन आर्डर लिखो और जहाँ चाहो खुद को पोस्ट कर लो।
आश्चर्य हमें इस बात पर हुआ कि छह सप्ताह के अंदर-अंदर मरदान में बैंक की ब्रांच खुल गई और वो सचमुच उसके मैनेजर बना दिए गए। उन्होंने हमें कामयाब दरख्वास्त लिखने पर बधाई दी और वो उँगली चूमी जिससे हमने टाइप किया था। उस दिन से वो हमारी अंग्रेजी की योग्यता और हम उनकी अंग्रेजी की योग्यता की गुणग्राहकता के कायल हो गए। ये उनकी मुहब्बत थी कि उठते-बैठते हमारी अर्जी लिखने की दाद देते वरना उन्हीं के कथनानुसार, फंसी हुई घोड़ी निकलवाने के बाद कौन किसी को पहचानता है।
हमने इस घटना का जिक्र करते हुए मिर्जा से कहा 'देखा ये सब आत्मसंकल्प के करिश्मे हैं। आत्मसंकल्प से पहाड़ भी अपनी जगह से हिल जाते हैं।'
बोले 'अगर तुम पहाड़ के आत्मसंकल्प की बात कर रहे हो तो मैं भी सहमत हूँ।'
स्वतंत्र-स्वभाव नियम, कानून की पाबंदी नहीं मानता था। रमजान में हमारे साथ स्टेशनरी रूम में चाय पीते हुए बोले, 'रमजान में जरा ये परेशानी है कि सहरी (रोजे रखने से पहले भोर में खाया जाने वाला खाना) और इफ्तारी (शाम को रोजा खोलने का खाना) करने से लंच और डिनर भूख में फर्क आ जाता है।' हमने पूछा, 'हुजूर ने कभी खाना भी छोड़ा है।'
बोले 'हाँ! बारह साल पहले तीन रोजे रखे थे। हर एक से तकरार, जिससे देखो गोली-गुफ्तार, इसको झिड़का, उसको डाँटा और तो और अपने बॉस को तमांचा मार दिया कि रोजा रखता है, नमाज क्यों नहीं पढ़ता? इसके बाद दोनों लोगों ने रोजों से तौबा की। चौथे रोजे से बासी ईद तक एक-एक के घर जा कर अलग-अलग माफी माँगता रहा। अब मुझमें इतनी क्षमता नहीं कि हर ऐरे-गैरे की ठोड़ी में हाथ दे दे कर माफियाँ माँगता फिरूं।
नौशेह्रा की लड़ाईः जिस समय का यह जिक्र है उसके अट्ठारह-उन्नीस साल बाद 1970 में नौशेह्रा जाने का अवसर मिला। जनवरी की एक निहायत ठंडी सुबह थी। झुके कंधे वाले तूरे-खम के पहाड़ों पर दो दिन से बर्फ पड़ रही थी। हम बैंक की निर्माणाधीन बिल्ंिडग के सामने धूप में नक्शा फैलाए ठेकेदार से उलझ रहे थे। झगड़े का पहला कारण तो यह था कि दूसरी मंजिल पर जहाँ जीना खत्म होना था, सीढ़ी से छत की ऊँचाई ठेकेदार के कद के बराबर थी। जिसका मतलब यह था कि पाँच फिट एक इंच से अधिक लंबा कोई शख्स रात को तेजी से चढ़ता चला जाए तो आखिरी सीढ़ी पर उसके घमंडी सिर का जुरूरत से जियादा हिस्सा अपने-आप अलग हो जाएगा। ठेकेदार का पक्ष था कि पहले तो नक्शा पास करते समय हमारी आँखें खुली हुई थीं दूसरे ये तो एक तरह का safty device है। बैंक से सेंध लगाने वालों और डाकुओं की सिर कटी लाशें आए दिन ऐसे निकलेंगी जैसे गरदनतराश चूहेदान से लालची चूहों की लाशें। दूसरी समस्या यह थी कि ड्राइंग रूम ऊपरी मंजिल पर था और जालिम ने ढलान ऐसा रखा था कि उस मंजिल के सारे कमरों और सारी छत का पानी पिछली बारिश में ड्राइंग रूम में खड़ा हो गया। खैर, इसका हल तो उसने यह निकाला कि ड्राइंग रूम में एक बड़ी नाली निकाल दी जाएगी। उससे पानी की आखिरी बूंद तक खिंच कर नीचे खड़ी हुई कार पर गिरेगी। जिससे वो धुलधुला कर झमाझम करने लगेगी। नक्शे में यह कार बराबर दिखाई गई थी। बेध्यानी में हमने यह नोटिस नहीं किया था कि यह इतनी चमक क्यों रही है?
तीसरा सिरदर्द यह था कि बिल्डिंग के सामने एक शीशम का पेड़ था। जिसने मुख्य दरवाजे और साइन बोर्ड को इस तरह अपनी ओट में लिया था कि बैंक के नाम का सिर्फ ऊप पढ़ा जा सकता था। ठेकेदार का विचार था, अक्लमंद को इतना ही इशारा काफी है, इसलिए कि और कोई बैंक अपने नाम से पहले the नहीं लगाता। फिर यह भी कि पाला-पोसा पेड़ काटना गुनाह होता है। ये पेड़ नक्शे में अखरोट का दिखाया गया था, जिसकी छाँव में कुछ कर्ज न लौटाने वाले सुस्ता रहे थे और कुछ नए कर्जदार उसकी छाल के दंदासे से दाँत उजाल कर बैंक पर मुस्कुराते, तेज-तेज कदमों से जाते दिखाए गए थे। एक अखरोट पर तो शाहीन अपनी चोंच रगड़ रहा था। सच तो यह है कि नक्शे पर इस पेड़ से पूरी बिल्डिंग में जान पड़ गई थी मगर वास्तविक स्थल पर प्रकृति इस पेड़ को नक्शे के मुताबिक उगाने में नाकाम रही थी।
यूसुफी का कुआ ँ : चौथा झगड़ा यह कि निचली मंजिल में मेहमान के कमरे के सामने बल्कि ऐन दहलीज पर एक 25 फिट गहरा कुआँ था जिसे वो भरने के लिए किसी तरह तैयार नहीं था, इसलिए कि इसका पानी बहुत मीठा था। नक्शे में उस कुएँ की जगह एक गोल निशान O बना हुआ था, जिसे हमने खम्बा समझ कर नक्शा पास कर दिया था। इस घटना के डेढ़ साल बाद हमने एक अमरीकी महिला आर्किटेक्ट से कराची के एक आफिस का नक्शा बनवाया तो उसमें हमें बीस ऐसे निशान O दिखाई दिए। हमारा माथा ठनका। हमने पूछा बीबी! इतने बहुत से कुओं का क्या करेंगे? ठंडे, मीठे पानी के हैं? वो हक्की-बक्की रह गईं। शादी की अँगूठी को तेजी से उँगली पर घुमाते हुए बोलीं, मुझे पाकिस्तान में दफ्तर डिजायन करते हुए आठ साल हो गए मगर ऐसा मजाक किसी म्त्गहू ने आज तक नहीं किया। आपको यह खयाल कैसे आया? फिर यह कि पाँचवें फ़्लोर पर कुएँ कैसे खोदे जा सकते हैं? सुना है आप उर्दू में रदवे लिखते हैं, क्या उर्दू में खम्बे को कुआँ कहना FUNNY बात होती है?
चर्चा नौशेह्रा के ठेकेदार और मीठे कुएँ की हो रही थी, बात किसी और मीठे धारे में बह निकली। काफी देर झक-झक के बाद समझौता हमारे इस सुझाव पर हुआ कि कुएँ को soak pit में बदल दिया जाए। ठेकेदार इस शिष्ट विजय पर बहुत प्रसन्न और रोमांचित था कि गढ़ा अपनी जगह कायम रहेगा। नाम में क्या रखा है।
निर्माण कला की बारीकियों पर बहस और द्वंद का दरवाजा (जो अब तक बारादरी बन चुका था) बंद नहीं हुआ था कि बिल्डिंग के सामने एक तांगा, जिसका दायाँ पहिया भेंगा था, आकर रुका। उससे खान साहब प्रकट हुए। हमें रास्ते पर जोर-जोर से झगड़ते देखा तो दुआ-सलाम के तकल्लुफ को बंदूक की नोक पर रख कर पहले ठेकेदार से उसका और उसके बाप का नाम पूछा और फिर उसका नाम वल्दियत के साथ ले ले कर गालियाँ देनी शुरू कर दीं। उन्हें इससे गरज नहीं थी कि झगड़ा क्या है और कौन सच पर है। वो दोस्त के साथ थे, गालियाँ और रेता बनाने (पूरी भेड़ को भून कर बनाया गया गोश्त) की धमकियाँ बढ़ने लगीं और उनकी आँखों में खून उतर आया तो हमने मध्यस्थ बन कर बीच-बचाव कराया। उसे मौखिक सजा देने के बाद उन्होंने 'बाई दी वे' गड़बड़ समझने की कोशिश की और चुटकी बजाते समस्या नं. 3 और 4 का एक जुड़वाँ हल में पेश किया कि बैंक के सामने जो शीशम का घना पेड़ बिल्डिंग की खूबसूरती को खराब कर रहा है उसे उखाड़ कर विवादित कुएँ में लगा दिया जाए।
फूल की पराकाष्ठा : क्रोध की लाली चेहरे से विदा हुई तो खान साहब को देख कर कलेजा धक से रह गया। रिटायर होने के बाद एक अरसे से एकांतवास कर रहे थे। शायद बैंक के ही किसी आदमी ने उन्हें हमारे आने की सूचना दी और वो तांगा पकड़ कर ऐसी घोर ठंड में आठ-नौ मील नौशेह्रा मिलने आए थे। सिर पर कत्थई रंग का ऊनी कंटोप जिसे पूरा खोल लें तो मुँह का लैटर बाक्स सा बन जाता है। मलेशिया की शलवार, कमीज तह की हुई। सफेद चादर का सीने पर क्रास बनाए हुए। कफ के बटन और नकली दाँत गायब। मुँह की पुड़िया सी बँध गई थी। हाथ और उँगलियाँ जैसे बूढ़े पेड़ की जड़ें। एक आँख पर हरे रंग का छज्जेनुमा कपड़ा जो रौशनी से बचने के लिए आँख बँधवाने के बाद कई लोग बाँधते हैं। कंधे झुके हुए, चेहरा दुखों की धूल से अटा हुआ। अँगीठी के सामने भी हमने अपने दोनों हाथ बगल में दे रखे थे और लग रहा था जैसे जूतों में उँगलियों की जगह बर्फ की डलियाँ रखी हैं। पेशावरी चप्पल में उनके पाँव बिना मोजों के थे। वो हमारे लिए धूप छोड़ कर एक तरफ साए में बैठ गए।
वक्त ने कैसी इमारत ढाई थी। दुबारा आँख भरकर देखने की हिम्मत नहीं पड़ती थी। बहुत सोचा, कुछ समझ में न आया कि क्या कहें। आखिर ये मुश्किल उन्होंने आसान कर दी। कहने लगे, 'हाय! यूसुफी साहब! यह आपको क्या हो गया? वो हमारा दिलदार कहाँ गया?'
हमने कहा, 'आपने बड़ी तकलीफ की, मैं कार भेजकर बुलवा लेता।'
जवाब में उन्होंने अब्दाली की तरफ इशारा किया जो कार में उस सूरत में खड़ी की जा सकती थी कि छत में एक छेद कर दिया जाए जिसमें से नाल चिमनी की तरह निकली रहे और सुलगती गालियों का धुआँ निकलता रहे।
पूछा 'आज कल क्या चल रहा है? बोले, इसी हराम फस्ल को उगाया था। पूरी खाद, पूरा पानी और प्राविडेंट फ़ंड डाला मगर अजब बावली मंडी है। जब फस्ल जोरदार हुई तो कीमतें गिर गईं और जब मेरी सारी फस्ल को पाला मार गया तो चढ़ गईं। बस इसी ज्वार भाटे में सब कुछ बह गया। अब तबीयत में मंदी का रुझान पाया जाता है।
हमने आँख के आप्रेशन पर हमदर्दी और अफसोस जाहिर किया तो दूसरी आँख से मुस्कुराते हुए बोले 'जी हाँ! मेरी आँखें अब इतनी कमजोर हो गई हैं जितनी आपकी बीस साल पहले थीं।'
कुछ देर बाद उन्होंने एक ट्रे से कपड़ा हटाया, कहने लगे 'आपके लिए रेता लाया हूँ। बेटी ने सारी रात जाग कर पकाया है।'
'और भाभी....?'
उन्होंने दृढ़ता से अब्दाली को थामा और सिर झुका लिया।
हमें अपने से अधिक उदास देख कर कहने लगे (मैं तो तुम्हारे पास रोने को आया था मगर तुम्हारी आँखें तो पहले ही लाल हैं।) यह आपको क्या हो गया? आधा घंटा गुजर गया। आपने एक पंक्ति तक नहीं पढ़ी। कोई शेर सुनाइए । जी बहुत उदास है।
'वो बातें, वो रातें सब ख्वाब हुईं। वो जवान मर गया, अब तो आप सुनाइए ।'
(ऐ खुदा! मुझे गुलाब का फूल बना दे कि मैं महबूब के गोद में पत्ती-पत्ती होकर बिखर जाऊँ)
विदा होने लगे तो मलेशिया की कमीज पर मोतियों की माला बिखर गई। अब्दाली पर सिर टेक कर कहने लगे' बच्चे सब घर बार के हुए। वक्त नावक्त हुआ चाहता है। मंजिल अब दूर नहीं। बाबा ने यह बंदूक पहले-पहल चलवाई थी तो मेरी उम्र सात साल की थी। 65 साल की संगी साथी है। इसने बहुत दुख बँटाए हैं, कभी-कभी आहट सी इच्छा होती है कि इसे मेरे साथ ही दफ्न कर दिया जाए लेकिन कल रात ध्यान आया कि आपसे पहली बार वतन में भेंट हो रही है। एक दोस्त, एक पठान की तरफ से ये तुहफा कुबूल कर लीजिए। माना कि अनुपयोगी है।
'लेकिन एक शर्त पर, आप मेरी तरफ से वो सोने का ठीकरा-तमगा स्वीकार कर लेंगे जो जीवन में किसी काम न आया।'
जिंदगी ने उन्हें क्या दिया? कुछ भी तो नहीं। अपने अलावा कुछ भी तो नहीं मगर हाँ; जीने का एक निराला बांकपन; हर हाल में खुश रहने का और खुश रखने का हौसला, साँत्वना और हमदर्दी का एक सलीका, उन्होंने अपनी टेढ़ से जिंदगी को सम्मानित बना दिया। यादों और बातों के इन पन्नों को अभी पलट कर देखा तो खुद चौंक पड़ा।
इक महक सी लिखते हुए कैसे आई
जिंदगी को उन्होंने क्या दिया? अब जो गौर करता हूँ तो आश्चर्य होता है कि इतनी तंगी, इतने अभाव और ऐसी तन्हाई के बाद भी कितने प्रसन्न, कितने आनंदित। कितनी खुशियाँ, कैसी-कैसी खुशबुऐं बिखेरते चले गए कि आज दामन में नहीं समातीं। फूल जो कुछ धरती से लेते हैं उससे कहीं अधिक लौटा देते हैं।
... बहुत काम रफू का निकला : चपरासी ने आकर कहा, 'साहब सलाम बोलता है, हरामी का चश्मा खो गया है। आपको इंग्लिश गालियों का अनुवाद करने के लिए बुला रहा है।
एंडरसन के सामने पेश होने से पहले हमने एक असंबंधित फाइल हाथ में ले ली। जिसे casual ढंग से पीछे लगा लेने से गर्म पतलून की सीट के छेदों, हवादानों और रफू के ऊपर किया हुआ रफू छिप जाता था। उसने कभी नहीं पूछा कि तुम इस फाइल को हर समय सीने बल्कि कूल्हों से क्यों लगाए फिरते हो।
तुम हँस दिए , तुम चुप रहे
मंजूर था पर्दा मिरा
मेज के सामने हम उसकी नाक की सीध में खड़े हो गए। यह इसलिए कि जहाँ उसके अस्तित्व, अंगों-प्रत्यांगों से और बहुत सी बुराइयाँ जोड़ी जाती थीं, वहाँ यह भी प्रसिद्ध था कि एक कान से ऊँचा सुनता है कोई दायाँ बताता कोई बायाँ। शायद वो खुद भी स्पष्ट नहीं था। हाथ का प्रश्नवाचक चिह्न कभी दाएँ, कभी बाएँ कान से पास बना कर बात दुबारा सुनता। चपरासी के अनुसार, जो स्वभाव से न्यायप्रिय था, दोनों कान आधे-आधे बहरे हैं। इसलिए श्रवणशक्ति ठीक रखने के लिए हमने यह निष्पक्ष ऐंगिल ढूँढ लिया था।
चेहरा औरत का धड़ ? : बोला 'पहली बात तो ये कि सुबह से मेरा चश्मा गायब है। इस बास्टर्ड से पूछता हूँ तो मुँह ही मुँह में वर्नाक्यूलर (देसी) गालियाँ बकता है। दूसरे यह कि कुछ दिन से देख रहा हूँ कि तुम्हारे चेहरे का रंग पीला पड़ गया है। मुझे पीले रंग से कोई विरोध नहीं लेकिन इस रंग की सही जगह वो नहीं जहाँ तुमने लगा रखा है। तुम्हारे चेहरे का एक्सप्रेशन हर वक्त ऐसा रहता है जैसा बजट के बाद बिजनेसमैन का। दुबले होते जा रहे हो। तुम्हारी पतलून की कमर ढीली हो गई है जिसमें तुमने बैंक के स्टेशनरी डिपार्टमेंट की पिन लगा रखी है। पांयचे भी ढीले हो गए हैं। तुम्हें खुले वातावरण और समुद्री हवा की आवश्यकता है..... बेहद। परसों तीसरे पहर एक जर्मन मालवाहक जहाज से मिसेज शिवारिज पहुँचे रही है। पहुँच रही है का क्या अर्थ... पहुँच चुकी है। जहाज कल से बर्थ के इंतजार में खड़ा है मगर न जाने क्यों डिसएम्बार्क होने की अनुमति परसों मिलेगी। उसका पति खुलना में पोस्ट है। तुम और यासूब पश्चिमी किनारे पर उसका सम्मान के साथ स्वागत करो। इस यात्रा में सवा दो महीने लगे हैं। आराम और स्वादिष्ट खाने के लिए कार्गो बोट से अधिक रईसाना यात्रा की कल्पना भी नहीं की जा सकती। केवल एक केबिन होता है। जहाज का सारा स्टाफ इकलौते यात्री के आगे-पीछे फिरता है। ड्रिंक न केवल मुफ्त बल्कि इतने अधिक कि लगता है व्हिस्की के ड्रम में बैठे हजारों मील बहे चले जा रहे हैं। जी चाहता है खुदा करे मंजिल कभी न आए। समुद्री जहाज की एक विशेषता यह है कि इसका एयर क्रेश नहीं होता, कम-से-कम मेरी जानकारी में तो नहीं। परसों समय से पहले गोदी पहुँच जाना। तुम्हें उस औरत को पहचानने में अधिक कठिनाई नहीं होगी। एक तो तुम बहुत योग्य हो, दूसरे उस जहाज में उसके अलावा सभी मर्द हैं। दो साल पहले मिली थी, तब अपनी उम्र 35 साल बताती थी, अब का पता नहीं। 35 तक पहुँचते-पहुँचते औरत मिस्री sphinx हो जाती है। चेहरा औरत का और धड़ इत्यादि बबर शेर के। हा! हा! हा! तुम्हारी आयु क्या है? अच्छा तो प्रोटोकोल में कोई चूक नहीं होनी चाहिए। तुम मेरा प्रतिनिधित्व करोगे और यासूब पाकिस्तान का। प्रोटोकोल की जानकारी जुरूरी है। एक दिन तुम्हें ब्रिटिश हाईकमिश्नर से भी मिलवाऊँगा। तुम्हारी ट्रेनिंग मेरा दायित्व है। नियमानुसार तो मेहमान को लेने मुझे स्वयं जाना चाहिए था लेकिन मैं उन गोभी खाने वाले नाजियों का दिमाग खराब नहीं करना चाहता। तुम्हें शायद मालूम न हो, हम जर्मनी को kraut land यानी गोभीखोरों का देश कहते हैं। उसके सामने गोभी का नाम न लेना वरना मुँह नोच लेगी और तुम्हारे मुँह पर नुचवाने के लिए चश्मे के सिवा कुछ भी नहीं, कुछ भी नहीं।
मशवरे हो रहे हैं आपस में : पिछवाड़े फाइल का घूँघट डाले हम इस कूचे से यूँ बेआबरू हो कर निकले। बाहर आ कर हमने अपने बॉस मिस्टर यासूबुल-हसन गौरी को ये जानकारी दी तो उनकी कलग़ी ढलक कर ऐड़ी से आ लगी, मुसीबत यह थी कि हमने कोई समुद्री जहाज नहीं देखा था और उन्होंने 35 साल की जर्मन औरत। इसलिए स्वागत के मोर्चे पर निकलने से पहले दोनों ने एक दूसरे के ज्ञान के गड्ढे को भरने की कोशिश की। उदाहरण के लिए हमने पूछा कि समुद्री जहाज गंतव्य तक पहुँचने के बाद भी शायद पानी में खड़ा रहता है या 'लेंड' करता है। रेल की तरह सीटी देता है या हवाई जहाज की तरह बिना हॉर्न के छुट्टा फिरता है? अरब सागर के पानी की ऊँचाई कराची की ऊँचाई और जहाज की ऊँचाई, इन दोनों से कितनी ऊँची या नीची होगी? सीढ़ी लगानी पड़ेगी? मालवाहक जहाज से पैसेंजर कैसे छुड़ाया जाता है? तूफान और बिजली के डर से अकेली औरत लोहे-लक्कड़ से लदे हुए कार्गो स्टीमर में किससे चिपटती होगी? जहाज में खम्बा होता है? उन्होंने भी 35 साल जर्मन औरत के बारे में कुछ ऐसे ही बेसिक सवाल उठाए। हम तो खैर थे ही रेगिस्तान के रहने वाले लेकिन वो भी कुछ कम प्यासे नहीं निकले। उनका बचपन एक छोटे से गाँव में बीता था और वो आज भी औरत की कल्पना घड़े के बिना कर ही नहीं सकते थे। जैसे-जैसे सवाल हुए, एक दूसरे के अज्ञान पर तरस आने लगा। उस समय उनकी एक दाढ़ में भयानक दर्द था, जिसके कारण उनका जबड़ा कान तक सूजा हुआ था। चेहरे का यह आधा हिस्सा बिल्कुल नार्मल और भला मालूम देता था। दूसरे आधे हिस्से में अनगिनत झुर्रियाँ और एक गढ़ा था जिसे केवल सूजन से भरा जा सकता था। बंबई से कराची तक की यात्रा एक मालवाहक जहाज में कर के पाकिस्तान आए थे जिसका भला-बुरा स्केच बनाकर हमारी खोजबीन की थोड़ी बहुत संतुष्टि कर दी वरना हमें तो बचपन में पानी के उद्देश्य और निर्माण के बारे में कुछ और ही जानकारी दी गई थी, जिसमें जहाज और जर्मन औरत दूरबीन से भी दिखाई नहीं पड़ते थे।
पानी में तैरने को मछली बनाई तूने
मछली के तैरने को तूने बनाया पानी
लेकिन हमें महसूस हुआ कि जब तक उनकी दाढ़ जबड़े से बल्कि जबड़ा दाढ़ से अलग न कर दिया जाए जर्मन औरत का नख-शिख उनके सूजे हुए भेजे में नहीं घुस सकता। उन्होंने केवल माल ले जाने वाला जहाज और हिटलर का फोटो देखा था और उन्हीं से जर्मन औरत का अनुमान लगाने की कोशिश कर रहे थे।
सच तो ये है कि हमें जिंदगी की बेसिक जानकारी और अधूरी जवानी के अभावों का ज्ञान फिल्मों के द्वारा होता है। निकटता और भेद भरी बातें तो दूर हमने तो किसी मदमाती के सामने अपने मोजे भी नहीं उतारे। आज भी हमारे विचार मुँह खोल कर अपना नाम नहीं बता सकते। जिन पत्थरदिल सुंदरियों पर हमारी जवानी की हाय पड़ी उनके मुँहासे निकल आए, कइयों के तो जुड़वाँ बच्चे भी हुए।
अंत में यह निर्णय हुआ कि हम परसों यानी इतवार को उनके होटल पहुँच जाएँ। वहाँ आपसी सलाह-मशवरे से एक दूसरे के ज्ञान की प्यास बुझाई जाएगी।
हम ठीक दस बजे सिंध इस्लामिया होटल पहुँच गए। कमरे के तीन कोनों में तीन चारपाइयाँ पड़ी थीं और चौथे में एक माचा। हमारा सिर उसके पायों के कंधे तक आता था। यह बैंक के चार अफसरों का कछार था, जिन्हें विभिन्न ब्रांचों से अधेड़ावस्था, निकम्मेपन, उद्दंडता, रिश्वतखोरी के कारण तबादला करके यहाँ एक दूसरे पर छोड़ दिया गया था। जेल में अनाड़ी चोर-उचक्के और साधारण जेबकतरे आदी मुजरिमों और खूनियों के सामने थर-थर काँपते हैं सो यही हमारी हालत थी। दो चारपाइयाँ और माचा तो बसे हुए थे, हाँ यासूबुल-हसन गौरी की झलंगी चारपाई अंधेरी पड़ी हुई थी। टूट हुए बानों की दाढ़ियाँ कहीं खशखशी, कहीं चुग्गी, कहीं भरवाँ, कहीं एक मुट्ठी दो उँगल और कहीं जमीन पर झाड़ू दे रही थीं। उसी की पट्टी में टाँग का आँकड़ा अटका कर हम भी झूलने लगे। हमारे घुटने आँखों को छू रहे थे। मुहावरा कुछ भी कहता रहे मगर उस समय कोई हमारे घुटने पर मारता तो आँख जुरूर फूटती। गौरी साहब को पूछा तो पता लगा कुछ दिन पहले उन्होंने अपनी दाढ़ फुटपाथ पर प्रेक्टिस करने वाले एक दाँत-उखाड़ से 3श्च् आने में प्लास से निकलवाई थी, उसमें सेप्टिक हो गया। अब उसका इलाज करवाने एक होम्योपैथ के यहाँ गए हैं, आते होंगे।
चार दरवेश : न्यूनाधिक 6 महीने से यह जीजोड़ा कुनबा इस स्वर्ग में खा, पी, रह रहा था। पेटूपन के अतिरिक्त हमें उनमें कोई चीज साझी नजर नहीं आई। सुबह नाश्ते में पाव भर हलवा और एक-एक दर्जन पूरियाँ प्रति व्यक्ति। हाँ किसी का पेट खराब हो तो तीन परांठे। खाना बोल्टन मार्केट के 'अल्लाह की रहमत का मुहम्मदी होटल' (जी हाँ आज भी इसका यही नाम है। अब तो फोन भी लग गया है) में खाते। इसलिए कि वहाँ पाँच आने में एक भुना हुआ तीतर मिल जाता था। दस आने में पेट भर जाता था। पंद्रह आने में नीयत भी भर जाती थी। जिस चीज को हमने माचा कहा है वो वस्तुतः एक मचान थी जैसी खेत के बीचों-बीच दिखाई पड़ती है, जिनके नीचे से ग्याभन भैंस सरलता से निकल जाती है। इसके नीचे पहियों वाली एक अस्पताली चारपाई पार्क्ड थी। जो रात- बिरात अचानक आने वाले मेहमान के लिए लुढ़का कर कमरे के बीच में ऐन पँखे के नीचे बिछा दी जाती थी। पँखे के नीचे चारों में से कोई नहीं सोता था, इसलिए कि छत के जिस लोहे के कुंडे में बीस साल से वो हिल रहा था, वो 3/4 घिस चुका था। चारों अपनी चारपाई पर सोते और वो उस पर जागता था।
दरवाजे के दाईं तरफ वाली चारपाई पर मौलूद अहमद तिरमिजी नहाने के बाद तौलिया बाँधे बैठे थे। हमने उनके कंधों पर कुहनियाँ रख कर सम्मान में उठने से रोका। किसी समय उनके भतीजे की चीनी के बर्तनों की अच्छी बड़ी दुकान थी। नालायक को रेस खेलने का चस्का लग गया। उसे पकड़ने हर इतवार को रेसकोर्स जाते थे। वो खैर तवायफों के फेर में पड़ कर रेस छोड़ गया लेकिन चचा जान वहीं के यानी घोड़ों के हो रहे। हर घोड़े की वंशावली और उसके बाप-दादों की खरगर्मियाँ उन्हें डेटवाइज कंठस्थ थीं।
मुझे याद है वो जरा - जरा
उन्हें याद हो कि न याद हो
चारपाई के सिरहाने वाली दीवार पर एक फोटो था जिसमें वो जिताने वाले घोड़े की गर्दन में हाथ डाले होठों पर होठ रखे खड़े थे। होठों वाली बात समझ में नहीं आई, इसलिए कि चूमना आवश्यक था तो संबंधित सुम चूमते।
दाईं ओर की चारपाई पर अहमदुल्ला 'शशदर' पसरे थे। कहते थे कि अहमदुल्ला कुछ अधूरा-अधूरा सपाट-सा लगता था। पैंतीस साल पहले बंबई में नौकरी की तो अंग्रेज एकाउन्टेन्ट मिस्टर उल्ला कह कर पुकारने लगा इसलिए मैंने नाम के साथ शशदर जोड़ लिया। वैसे उसी काल में दस-बारह गजलें कह कर उतने ही मुशायरों में खुद को हूट करवा चुके थे। अक्सर बताते कि बंबई में अच्छे सुनने वाले दुर्लभ हैं। लखनऊ में तो उस गए-बीते काल में भी ऐसे-ऐसे श्रोता शेष थे जो कि तीन दिन के मुशायरे में दाद देते-देते बेहोश हो जाते थे। दो-तीन गजलें हमें भी सुनायीं। 25 प्रतिशत शेर छंद से बाहर थे, शेष शालीनता से। आयु 57 के लगभग होगी। सारा जीवन कुंवारे रहे मगर निठल्ले नहीं रहे। अब पाप करने की क्षमता चुक रही थी। दो साल पहले अंतिम प्यार में नाकामी हुई और सुंदरियों के सामीप्य की संभावना न रही तो पीर हजरत सय्यद गुलंबर शाह का दामन पकड़ लिया।
गर नहीं वस्ल तो हजरत ही सही
गुलंबर शाह किसी खानदानी या पैदाइशी विवशता के कारण नहीं बल्कि अपनी इच्छा व क्षमता से सय्यद बने थे। हमारे देखते ही देखते सय्यद हो गए फिर रहमतुल्ला अलैह।
हर आदमी के साथ एक शैतान पैदा होता है। अहमदुल्लाह शशदर ने अपने शैतान को मुसलमान करके उसकी लवें कतर दी थीं और टखनों से ऊँचा पाजामा पहनवा दिया था। अब आके न जाने वाले बुढ़ापे ने चेहरे पर गहरी खन्दकें खोद दी थीं। वैसे सेहत और काठी मजबूत थी अगर वो जन्म-वर्ष जो उन्होंने नौकरी के फार्म में भरा था, वाकई ठीक था तो उन्होंने 3.5 साल की उम्र में मैट्रिक कर लिया होगा। जिस दिन उनकी पतलून में से पाजामा झाँकता दिखाई देता वो जुमे का दिन होता था। हकीमी में भी थोड़ा बहुत हाथ डालते थे। हर बीमारी का इलाज अंजीर से करते थे, पुराने और गुप्त रोगों का इलाज सड़े अंजीर से करते थे।
मचान पर कंबर अली शाह विराजमान थे। गर्म जलेबी खा रहे थे। पट्टी से आधा धड़ नीचे लटका कर चिपचिपाते हुए हाथ को हमसे हाथ मिला कर साफ किया। शाह जी का सही वज्न कभी निश्चित न हो सका। सुनने में आया था कि एक बार किसी के 'बाथरूम स्केल' पर चढ़ गए तो सुई बावली हो गई। चलना-फिरना तो बहुत बाद की बात है उठना-बैठना दूभर था। हर समय हाँफते रहते। गप के शौकीन हालाँकि एक साँस में तीन शब्दों के बाद चौथे पर पंक्चर हो जाता था। आठ-दस थोते साँस ले कर ताजा दम होते तो यह भूल जाते कि किस विषय पर वाक्य का दम टूटा था, इसलिए नए विषय पर फिर से नए वाक्य बनाते। इसी तरह दिन भर चिकने खंभे पर चढ़ते, फिसलते रहते। पूरा शरीर एक स्थायी कराह था जिस पर काली बैल्ट से भूमध्य रेखा खींच लेते थे ताकि उत्तर और दक्षिण पहचानने में आसानी रहे। रूप-स्वरूप मौलवी मुहम्मद इस्माइल मेरठी के आसमानी गुंबद की तरह -
बनाया है क्या दस्ते - कुदरत ने गोल
चुरस है न झुर्री न सिलवट न झोल
कछुआ प्रोफेसर से जीत गया : शाह जी का सारा जीवन एक स्लो मोशन फिल्म था सिवाय उन तीव्र क्षणों के जब मन खाने या दूसरे की बुराई पर लगा हो। एक बार कुर्सी पर दोपहर के खाने के बाद की नींद ले रहे थे कि सपने में एक मोटी रसीली सी जलेबी देख कर आँख खुल गई। हमें मुस्कुराते देखा तो बोले 'लो जी! मध्य एशिया और तुर्की में संसार के सबसे दीर्घजीवी पाए जाते हैं। मालूम है क्यों? लंबी उम्र का राज वस्ततः लंबी नींद, मोटी खाल और slow living में छिपा है। प्रोफेसर काजी अब्दुल कुद्दूस उसे उड़े। वाक्य जोड़े 'उदाहरण के लिए कछुए को ही लीजिए, सैकड़ों साल जीता है। अकबर के समकालीन कुछ कछुए आज भी जीवित हैं। यह मैकेनिज्म प्रकृति ने कछुए में ही रखा है कि कोई चीज जरा भी अरुचिकर लगी तो सट से गर्दन अंदर कर ली, दूसरी स्थिति में 'जब जरा गर्दन निकाली देख ली।' सूखे से जी ऊब गया तो घंटों पानी में दम साधे पड़े हैं। हद ये कि शार्क मछली तक कछुए को सुअर बराबर समझती है। अगर मैं आवागमन में विश्वास करता तो परमात्मा से यही प्रार्थना करता कि हे भगवान! तेरी लीला न्यारी है, मुझे तू अगले जन्म में कछुआ बना दे। इंसान और वो भी प्रोफेसर बिल्कुल न बनाइयो।'
इंद्रधनुष रंग : हँसी बिल्कुल बच्चों जैसी, हँसते तो हँसते ही चले जाते। जरा सी बात पर सारा शरीर जेली की तरह थुलथुलाता। दूसरे को लंबी बात नहीं करने देते थे। कोई स्वभाव से अपरिचित बात को तूल देता तो केवल अपना विशेष नोट 'काम अधिक है और समय कम है' दे कर बैठे-बैठे सो जाते। थोड़ी-थोड़ी देर में आँख खोल कर सभा का रंग देखते और मुस्कुरा कर फिर सो जाते। शाह जी ने सारा जीवन संसार को इस तरह देखा जैसे किसी ने कच्ची नींद उठा दिया हो।
खिला स्वभाव, मीठी भाषा, महफिल सजाने में महारथ, बाहर-भीतर एक। किसी को परेशान नहीं देख सकते थे। अक्सर कहते थे कि कई आलोचक तो संसार में ऐसे कमी निकालते हैं जैसे P.W.D. का बनाया हुआ हो। उन्होंने स्वयं तो कभी नहीं कहा लेकिन सुना और बाद में देखा भी कि उनका इकलौता बेटा अविकसित और अल्पबुद्धि है। शाहजी से पहले-पहल परिचय हुआ तो चेहरे पर चेचक के गहरे-गहरे गड्ढे देखे थे, फिर कभी दिखाई न पड़े। बस मुस्कुराहट का एक इंद्रधनुष याद है जिसके दोनों किनारे इसी धरती से फूटे थे।
जेहलम के रहने वाले थे। वही जियाला, मर्द ही मर्द उगाने वाला जेहलम, जिसके लोग खुदा के बारे में कल्पना के लिए थानेदार को देखते हैं। लंबाई वही जिसका जिला जेहलम में कोई नोटिस नहीं लेता यानी छह फिट। पच्चीस साल टांगानिका में बिता गए थे लेकिन दिल अभी भी खजूर में अटका हुआ था। इसलिए जब वो यह भूमिका बाँधते कि 'हमारे हाँ तो चलन यह है कि...' तो यह समझा नहीं जा सकता था कि उनका मुँह टांगानिका शरीफ की ओर है या जेहलम की ओर। उदाहरण के लिए जब वो यह कहते कि 'हमारे हलवाई की जलेबी अँगूठे के बराबर मोटी होती है,' तो उनका इशारा जेहलमी पाँव के अँगूठे की ओर और प्रशंसा पात्र टांगानिका का हलवाई मूलचंद होता था।' होठ छुआते ही शीरे की पिचकारियाँ छूटने लगती हैं', (यह कह कर अपनी जीभ फर्जी शीरे में लिथड़े हुए होठों पर बार-बार फेरते। इस चीज पर जान देते थे) और जब वो यह कहते कि 'हमारे हाँ कोई B.A. फर्स्ट डिवीजन में पास कर ले तो प्राइमरी स्कूल में मास्टर हो जाता है और फेल हो जाए तो फौज में कप्तान।' तो उनका संकेत जेहलम की शिक्षा प्रणाली की निकम्मेपन की ओर होता था।
पच्चीस साल वतन से बाहर रहे। घाट-घाट का पानी पिया नहीं तो चखा जुरूर था लेकिन लहजे में पोठोहारी मिठास बाकी थी और बोली पर अब भी देहात की सोंधी शब्दावली चढ़ी हुई थी। नमूना देखिए 'मैं टांगानिका से बाई एयर फ्लाई करके गाँव आया। तरीख-शरीख तो याद नहीं। हमारे चक के दूधिया भुट्टों में रस पड़ गया था पर दाना कठोर नहीं हुआ था। दिया-जले हवाई जहाज ने रनवे पर तीन खेत दौड़ कर एक दम टेक ऑफ किया। अभी चार बाँस ही ऊपर उठा होगा कि ऐसी घुमेर आई कि क्या बताऊं। जैसा कि बचपन में पाखाने में पहला सिग्रेट पीकर हाल हुआ था। तीन बार सूरा-ए-यासीन (कुरआन का हिस्सा) के बाद दस हजार फिट ऊपर पहुँचे तो वाह वाह! बादलों के ये मोटे-मोटे गाले ऐसी आपाधापी से उड़ रहे थे जैसे गुस्से में भिन्नाये हुए अपने दुल्ला धुनिए की धुनकी हुई रुई। जब उसकी औरत शैदां और अलिफदीन पटवारी परस्पर सहमति से एक दूसरे का मुँह काला करते हुए पकड़े गए और परिणामतः वो खुदा बख्श जुलाहे के साथ भाग गई। अजी उधर अपने टांगानिका में अपहरण की आवश्यकता ही नहीं पड़ती। करना खुदा का क्या हुआ कि अचानक एक एयर पॉकिट आया और जहाज ने हाइट लूज की, लो जी 1/100 सेकिंड में पच्चीस तीस कुंऐं नीचे उतर गया। लगा जैसे दिल हल्क में आकर फँस गया है। जैसा कि मैट्रिक का रिजल्ट देख कर हुआ...'
शाह जी के बारे में प्रसिद्ध था कि मैट्रिक में फेल होने के बाद आत्महत्या की कोशिश की, उसमें भी फेल हुए।
हर चारपाई के नीचे एक टीन का ट्रंक, खड़ाऊं और लोटा रखा था। सिवाय शाहजी के मचान के। शाहजी अपने तमाम पतलून तकिए की प्रेस के नीचे, और बुशर्ट खूंटी पर रखते थे। कहते थे कि मोजे केवल शादी के दिन पहने थे। सेहरे के बिना बिल्कुल बेकार मालूम देते हैं। उन्हें जब चौथे चाँद से उतरना होता तो साथी बारी-बारी अपना ट्रंक बतौर पायदान रख देते और वो उस पर पाँव रख कर सहारे से नीचे उतर जाते। पहले यहाँ मौलूद अहमद तिरमिजी का बक्सा स्थायी रूप से पड़ा रहता था लेकिन एक दिन शाहजी ने बेध्यानी में पूरा भार उस पर डाल दिया तो लचक कर चपाती हो गया और कपड़ों में दबी हुई ह्विस्की की बोतल चूर-चूर हो गई। मौलूद अहमद तिरमिजी बहुत बिगड़े कि शाहजी ने मेरी जुमे की अचकन अपवित्र कर दी। इस दुर्घटना के बाद हर ट्रंक की बारी तय कर दी गई। शाह जी को बाथरूम जाना होता तो बारी वाला अपना ट्रंक रख कर निजी निगरानी में उतरवाता-चढ़वाता। तीनों रूममेट शाह जी को पानी नहीं पीने देते थे, इसलिए बैंक पहुँचते ही वो पानी और बाथरूम पर टूट पड़ते।
एक खिड़की खुली हुई है अभी : शाह जी के जिम्मे हमें दूसरे देशों के कैरेन्सी-एक्सचेंज के भेदों और नखरों से परिचय कराना था लेकिन वो दूसरे देशों के भौगोलिक विवरणों में कानों तक धंसे हुए थे और कैरेन्सी एक्सचेंज पर नजर डालने की न तो मुहलत थी न जुरूरत और 'दूसरे देशों को' तो हम रवानी में लिख गए वरना वो टांगानिका (अब इसे तंजानिया कहते हैं) से एक इंच भी आगे-पीछे बढ़ने-हटने को तैयार न थे। हम उनसे टांगानिका के ब्रिटिश बैंकों के काम करने के ढंग के बारे में पूछते तो वो शेरों, घड़ियालों, अजगरों और दूसरे नरभक्षियों के शिकार करने के ढंग बताने लगते। कई बार तो प्रश्न पूछने का अवसर ही न मिलता, इसलिए कि वो हमें देखते ही कहते कि आज तो ऐसा लगता है कि आप काम करने के मूड में नहीं हैं। रज के गल-बात होती। जब कोई रसभरी बात कहनी होती तो दो वाक्य पहले ही मँगलाचरण या भूमिका के रूप में सिसकारी भर के एक आँख मींच लेते और दूसरी से उसकी प्रतिक्रिया देखते रहते। क्रियात्मक रूप से वो नेक और बदचलनियों से दूर रहने वाले आदमी थे। अपने चारों ओर पवित्रता की एक आसमान चूमने वाली दीवार खींच रखी थी लेकिन उसकी चिनाई इस कारीगरी से की थी कि थोड़ी-थोड़ी दूरी पर झिरियाँ, छेद और झरोखे छोड़ दिए थे। इन मोखों में से वो एक आँख बंद करके दूसरी तरफ का हाल कुछ इस तरह देखते और दिखाते कि हमारी तो दोनों बंद हो जातीं। जंगली अफ्रीका के नंगी तलवार के से हालात वो उम्मीद का लंगर थामे हमें कुछ इस तरह सुनाते कि तड़प के जी चाहता कि गृहस्थ जीवन को धता बता कर शेष आयु मध्य अफ्रीका के जंगल में एक सलाद का पत्ता बाँध कर और उसी को खा कर गुजार दें। पिछली पीढ़ी के इस अधेड़ की चंचलता बड़ी गनीमत थी।
अभी पिछली शरारत के नमूने पाए जाते हैं
हमारी ट्रेनिंग में हाथी कूद पड़ा : यासूबुल हसन गौरी की दाढ़ की चर्चा निकली तो हमने उस्ताद जौक का शेर पढ़ दिया।
जिन दाँतों से हँसते थे हमेशा खिल - खिल
अब दर्द से हैं वही रुलाते हिल - हिल
शेर सुन कर शाह जी पहले तो खिल-खिल हँसे फिर आँख बंद करके जेली की तरह थल-थल हिले। आँख खुली तो अफ्रीका में थे और हाथियों ने घेरा था। शुरू हो गए। उनके हाँ हाथी-दाँत की लंबाई कितनी होती है? हाथी बूढ़ा हो जाए तो पहले उसके खाने के दाँत गिरते हैं या दिखाने के? मस्ती से हाथी के दाँत का रंग कैसा हो जाता है? उसको देख कर हथिनी कैसी मतवाली चाल चलती है। उन्होंने मौलवी अहमद तिरमिजी का काला कंबल ओढ़ के मचान पर ही गजगामिनी चाल चल कर दिखाई जो वाकई ऐसी थी कि अगर हम हाथी होते तो हमारे दाँतों का रंग बदल जाता।
हाथी से प्यार का ये हाल कि अक्सर कहते, आप क्या जानें हाथी कितना मूल्यवान जानवर होता है। मलाया के एक कवि ने एक प्रेमी से कहलवाया है कि अगर मुझे अपनी प्रेमिका के बदले में हाथी भी दिया जाए तो न लूँ।
हमने मस्त हाथियों से कुचले जाने से बचने के लिए पूछा, 'अच्छा यह बताइए पूर्वी अफ्रीका में बैंक के अंग्रेज अफसर, काले और साँवले ग्राहकों और आधीनस्थ कर्मचारियों से कैसा व्यवहार करते हैं।' उत्तर में वो उद्दंड हाथी पकड़ने की तरकीबें बताने लगे। हमने प्रश्न दुहराया पर खुदा जाने सुना भी या नहीं। बोले, 'आहो जी! हमारे हाँ खास सत्कार में साँप के सीख कबाब और समूचा भरवाँ हाथी परोसा जाता है। इसके चारों तरफ इंसानी खाल से मढ़ी हुई ढोलक पर नाच होता है। नंगा!'
'नंगा?' हमने बड़े चाव से पुष्टि और विवरण चाहा।
'हाँ जी! देखने वाले सब नंगे होते हैं।'
उन्हें विवरण पर उतारू देख कर हमने अफ्रीकी बैंकों के अफसरों के व्यवहार के बारे में अपनी कुरेद बंद कर दी जिससे शाहजी ने बेचैन हो कर जंगली जानवरों के अनेकानेक पत्नीव्रती-जीवन के भेद खोलने शुरू कर दिए। बारह बजे यासूब गौरी एक ईंट बगल में दबाए कांखते-कराहते होटल लौटे। होम्योपैथ को तो पुलिस एक गुप्त रोग के लाइलाज रोगी के साथ मारपीट करने की वज्ह से दफा 307 में बंदी बना कर ले गई। हाथों-हाथ उसके बाप ही से मशवरा किया और उसके मशवरे और फीस के बदले में बेटे की जमानत का इंतजाम अपने जिम्मे लिया। बुढ़ऊ अपने बत्तीस दाँतों के अलग-अलग दर्द और एक-एक के साथ छोड़ जाने का अलग-अलग अनुभव रखते थे। वो उस समय अपनी हालत के वास्तविक कारण को खरल में कूट रहे थे अर्थात् पान की अलग-अलग चीजों को कूट कर मसूढ़ों की मुश्किल आसान कर रहे थे। उन्होंने सुर्ख ईंट या भाड़ की भूबल से जबड़ा सेंकने की हिदायत की थी। मुसीबत कि कराची में दोनों गायब, मुहावरे के लिए भी अनुपलब्ध। कराची वाले भाड़ में जाओ के बजाए दूसरी असंतुलित आसमानी जगह का हवाला देते हैं। इस शहर में ईंट का मतलब हमेशा ताश की ईंट होता है। पत्थर का जवाब भी इसी से दिया जाता है और इसी से एक दूसरे की ईंट से ईंट बजाई जाती है।
बड़ी खोज के बाद एक बूढ़े पारसी की उससे भी अधिक बूढ़ी कोठी मिली। जिसकी आधी पोपली कंपाउंड वाल से उन्होंने आँख बचा कर नुस्खे का मुख्य अवयव खींच निकाला। अब सवाल यह था कि परदेस में यानी होटल में ईंट को गर्म किस तरह किया जाए। मौलवी अहमद तिरमिजी ने सुझाव दिया कि जबड़े और ईंट को लाल तार से बाँध कर ईंट में बिजली का करंट 'पास' कर दिया जाए। यह सुनते ही शाह जी अपने जबड़े पूरे खोल कर इतना हँसे कि देर तक उनके हल्क में फुदकता हुआ कव्वा दिखाई देता रहा। हँसी रुकी तो बोले, 'हमारे यहाँ तो ईंट ऐसी आलीशान और तुरंत असर करने वाली होती है कि हाथी की दाढ़ की टकोर भी जा सकती है। हमने पूछा, 'आपके हाँ क्या बुढ्ढा बेदाँत हाथी भी गन्ने का शौकीन होता है?'
गो दाँत को जुंबिश नहीं ....
इस पर यासूबुल हसन गौरी ने हमें ऐसी प्रकोपित दृष्टि से देखा कि अगर हम मोम के बने होते तो जहाँ-जहाँ उनकी दृष्टि पड़ी थी वहीं से पिघल जाते। शाह जी का जवाब मुँह के मुँह में रह गया। बस बाईं आँख मींच कर मुँह में गंडीरी चूसने की-सी आवाज निकाली और स्वीकृति में सिर को इस तरह हिलाया किए जैसे स्वयं गन्नों के खेत के खेत रोंदते मसलते मस्ती में चले जा रहे हैं।
ने हाथ बाग पर है ने पा है रकाब में
इसलिए कि स्वयं हाथी हैं और दाँतों का रंग है कि हर क्षण बदलता जा रहा हैं। स्वयं हाँफे, देर तक हमें भी हँफाते रहे। हाथी की निजी भावनाओं का इससे बेहतर प्रकटन हमारी तो क्या हथिनी की नजरों से भी न गुजरा होगा।
किराए के हार : उन चार दरवेशों के सलाह-मशवरे से मेहमाननी (शाह जी आने वाली के लिए यही स्त्रीवाचक संबोधन प्रयोग कर रहे थे) के स्वागत का विवरण तय हुआ जिन्हें वस्तुतः जहाज और औरत से संबंधित 251 साल की गलतफहमियों का निचोड़ कहना चाहिए। (हम पाँचों की उम्रों का जोड़ 251 साल बनता था) अंत में यासूब गौरी ने कहा कि तीन गोटे के हार अवश्य लेते आना। हमने पूछा, एक औरत के लिए एक पर्याप्त न होगा। बोले, 'मिस्टर यह स्वयंवर नहीं है कि गले में एक जयमाला डलवाई और कुंवारी कन्या को सुरमई घोड़े पर आगे बिठा के ऐड़ लगाई और यह जा वो जा'
हमने हाँ में हाँ मिलाते हुए कहा 'जैसे नाटक में पृथ्वीराज चौहान सिर पे मुकुट सजाए संयोगिता को भगा कर ले जाता है, मगर हमने जो खेल देखा उसमें तो पृथ्वीराज घोड़े की बजाए संयोगिता के ऐड़ लगा रहा था।'
'लाहौल विला' उन्होंने तिरस्कार से कहा, गौरी होने के कारण वो स्वयं को पृथ्वीराज का प्रतिद्वन्द्वी और शत्रु समझते थे। इसलिए जब पृथ्वीराज को बाग खींचनी होती तो वो संयोगिता को खींचता था। बाग काफी छोटी थी। संयोगिता को पूरी क्षमता से खींचने के बाद भी घोड़ा आगे नहीं बढ़ रहा था। जिसका एक कारण यह भी हो सकता है कि घोड़ा काठ का था और दूसरी सवारी की काठी का क्या कहना।'
'यह खेल कहाँ चल रहा है?'
उन्हें उग्र सुरमई घोड़े से बड़ी कठिनाई से विषय की ओर लाए तो देर तक हिनहिनाया किए।
बोले, 'तुम्हारी खोपड़ी में इतनी सी बात नहीं घुसती। एक हार तुम्हारी तरफ से भी तो होना चाहिए। क्या केवल दुआओं का हार उसके गले में डालोगे?'
'और तीसरा हार?'
'एक बात अनुभव की आज बताता हूँ, जीवन में काम आएगी, कभी किसी V.I.P. को हार पहनाने जाओ तो एहतियातन एक हार अतिरिक्त ले जाया करो। पता नहीं ऐन मौके पर कौन एक्स्ट्रा हरामी निकल आए जिसे हार न पहनाओ तो नुकसान पहुँचा देगा। मैंने यह बाल पाउडर से सफेद नहीं किए हैं। चालीस बरस बैंक में झक नहीं मारी। तुम्हें जुमे-जुमे आठ दिन हुए हैं अंडे से निकले और अण्डे की पूर्णता बस यही है कि मुर्गा बन जाए। और हाँ! गोटे का नया हार आठ रुपए का आता है। बैठे-बिठाए 24 रुपए की हत्या हो जाएगी।' निवेदन किया, 'सेठ तय्यब भाई वली मुहम्मद के पास 1949 से हजार-हजार के रद्द किए हुए नोट पड़े हैं। उनके हार बनवा कर क्यों न पहना दें।' बोले, 'वो तो उन्हें नई मस्जिद के चंदे में देना चाहता है। तुम यह करो कि बॉस के बैरे से तीन हार किराए पर ले आओ। डेढ़ रुपए में काम बन जाएगा। बॉस को अब तक जितने हार पहनाए गए हैं वो सब उस बेईमान ने जमा कर रखे हैं। उन्हें किराए पर चलाता है। पिछली बार जब बॉस लंदन से छुट्टी बिता कर लौटा था, तब भी हमने उसी बेईमान से हार किराए पर ले कर पहनाए थे लेकिन ऐसा न हो कि मेहमाननी हार पहने-पहने ही सटक जाए। बहाने से तुरंत उतरवा कर अपनी Safe Custody में ले लेना।'
हाथों - हाथ : अगले दिन हार लेकर दोनों बैस्ट-व्हार्फ पहुँचे। जहाज हमारे आशंकित-भयभीत अनुमान से कुछ अधिक ही बड़ा निकला। हमारा विचार था कि जब हम उस पर एक कदम जमा कर रखेंगे तो झोंक से उलल कर हिचकोले खाने लगेगा लेकिन हमें अपने भार से मायूसी हुई। जहाज पर इधर-उधर हट्टे-कट्टे मल्लाह खुश-खुश फिर रहे थे-परंपरागत मल्लाहों की तरह, जिनकी मिंची-मिंची आँखें धूप में नहाए हुए टापुओं को तरसती हैं। जहाँ गर्म दिन और अंगारा औरतें मुस्कुराती रहती हैं। जहाज पर एक मल्लाह से पूछा कि मिसेज शिवारिज कहाँ मिलेगी?
बोला, 'रात तीन बजे तक तो उसकी नाइटी कप्तान के केबिन की खूंटी पर टंगी देखी गई थी, वो भी कहीं पास ही पड़ी होगी।'
एक और विश्वसनीय चेहरे वाले मल्लाह से, जिसकी दाढ़ी और नेकर औरों से लंबी थी, पूछा तो उत्तर मिला 'कल तक तो Sailors उसे बास्केट बाल की तरह उठाए-उठाए फिर रहे थे। उसी के कारण जहाज दो दिन बर्थ पर नहीं लाया गया।'
तीसरे ने कहा 'आप उस Fragile Cargo की डिलीवरी लेने आए हैं। पानी के खजाने को सूखे पर उतारना चाहते हैं? क्या आप दोनों मुझे एक करारी लौंडिया से मिलवा सकते हैं? प्लीज! मेरे पास डालर हैं।'
हमारे होश और यासूब साहब का चालीस साल का अनुभव उड़ गए।
'मास्टर ऑफ सैरीमनीज तो खैर वो थे लेकिन कार्य-विभाजन यह तय हुआ था कि निर्णय के क्षणों में निर्णय वो लेंगे। विचार वो रखेंगे। उन विचारों को अंग्रेजी कपड़े हम पहनाते चलेंगे। इसलिए कि उन्होंने खुले दिल से स्वीकार कर लिया था कि हमारी बुद्धि और उनकी ग्रामर कमजोर है। बहरहाल दोनों ने अच्छे रखरखाव से काम लिया। न हमने उनके जबड़े पर वाक्य चिपकाया जिस पर आज उन्होंने हींग का लेप लगा रखा था और न उन्होंने हमारी पतलून पर आक्षेप की उँगली उठाई। थोरियो का कथन है 'हर ऐसी मुहिम पर शक करो, फजीहत भरी जानो जिसके लिए नए कपड़े पहनने पड़ें।'
हमारे आनंददायक कर्तव्य : फिर उसका केबिन भी मिल गया। वो उसके दरवाजे पर अपना सिर हाथों से थामे खड़ी थी। हमें देख कर न जाने क्या दिल में आया कि अंदर जा कर बर्थ पर लेट गई। हल्के मेंहदी रंग का लंबा स्कर्ट पहन रखा था। उस जमाने में शरीर-दर्शी Hot Pants, Minis, Hipsteo साड़ियों का चलन नहीं हुआ था। दिलवालियाँ ऐसे अवसरों पर बत्तियाँ बुझा देती थीं।
यासूब गौरी ने अपनी राष्ट्रीय इच्छाओं के अनुवाद के लिए हमें आगे कर दिया। हमने मिलाने के लिए हाथ बढ़ाया तो उसने नींद भरी आँखों से मुस्कुराते हुए अपना हाथ सीने पर रख लिया।
नजरिया से भर दूंगी छूने न दूंगी शरीर
यासूब गौरी लेटी हुई मेहमाननी को हार पहनाने झुके तो उसने उनकी गर्दन में बाहें डाल दीं और उनकी गुद्दी पर सारा बोझ डाल कर उठना चाहा। वो नशे में धुत्त थी। एक हाथ न जाने कैसे उनके दुखते हुए जबड़े से टकरा गया। इस पर उन्होंने ऐसी चिंघाड़ मारी कि वो दुबारा लेट गई और लेटे-लेटे अपनी फूलों की टहनी सी कलाई आगे बढ़ा दी। वो दृश्य देखने लायक था, जब यासूब गौरी ने हमें धक्का दे कर अपने रास्ते से हटाया और फर्श पर 'नील डाउन' हो गए जिस तरह अंग़्ऱेजी फिल्मों में प्राचीन काल के knights हुआ करते हैं। अपनी हींग लिपटी नाक से उस मरमेड के हाथ को चूम कर हमें भी यह प्रोटोकॉल कर्तव्य पूरा करने का इशारा किया। हमने उसका हाथ चित्त करके शादी की दूसरी लकीर को चूमा।
कयामत के दिन हमें हसीनों को भी मुँह दिखाना है। कैसे कह दें कि हसीन चेह्रों को देख कर जो ठंडक पड़ती है उससे हमने स्वयं को वंचित रखा। उसके बाएँ कंधे पर एक ताजा नील था। पिंडलियों पर महीन-महीन सुनहरी रुवां जैसे खटमिट्ठे आड़ू पर होता है। नाखून इतने नुकीले जैसे पेंसिल शार्पनर में डाल कर उँगलियों की नोकें बनाई हों। एक नाखून टूटा हुआ था। उम्र पैंतीस से ऊपर ही होगी कि आवाज में एक ठसक आ गई थी। मुँह से अजीब तरह के भबके निकल रहे थे। यासूब गौरी ने तसल्ली दी कि अस्ली जर्मन बियर है। वो बुरी तरह लड़खड़ा रही थी। यासूब गौरी ने आँखों ही से हर कदम पर कौली भर-भर ली।
गले में गोटे का हार डालते हुए हमने 'वैलकम टू पाकिस्तान' कहा। उसने भी पश्चिमी जर्मनी की तरफ से शुभकामनाएँ दीं और आशा प्रकट की कि दोनों देश बहुत जल्द एक दूसरे के और पास आ जाएँगे। इस भविष्यवाणी को पूरा होने में अधिक देर नहीं लगी इसलिए कि वाक्य समाप्त होने में पहले ही वो हमारे मुँह से मुँह मिला कर, दोनों के कंधों पर हाथ रखे पैंडुलम की तरह झूलने लगी। अलबत्ता हमारे सुख को बढ़ाते हुए अपने फूल बदन का सारा झोंक इस प्रकार डाला कि हमारी चाल, शतरंज के घोड़े जैसी हो गई। अगर यासूब गौरी के जबड़े पर हींग का लेप न होता तो यह आनंद वर्षा उन पर होती और फूल बदन का बोझ उठा कर ढाई घर की चाल उन्हें चलनी पड़ती। कुछ देर बाद कहने लगी 'दो महीने से यह जहाज भंवर में है। बंदरगाह पर भी ठीक से खड़ा नहीं हो सकता और उन लहरों को तो देखो, कैसी शोखियां मार रही हैं। उफ्फोह! तुम्हारे कदम भी बहके-बहके पड़ रहे हैं। तुम्हें तो चक्कर आ रहा है। (अपना लाल पर्स खोलते हुए) तुम्हारा जी मिचला रहा है। लो यह गोली खा लो। मतली बंद हो जाएगी। नन्हा ऐरिक पेट में था तो रोज सुबह खाती थी।' खैर गोली तो हमने शर्मा-शर्मी में खा ली लेकिन तीन चार दिन तक हौल उठते रहे। सुबह उल्टी होती और ऐसा लगता जैसे पतलून कमर पर से तंग होता जा रहा है।
उसने मुहब्बत भरी फुसफुसाहट में लगभग हमारा कान चबाते हुए पूछा कि 'मुझे लेने वो कच्चा बीफ और मारम्लेड खाने वाला बुड्ढा जॉन बुल क्यों नहीं आया?' हमने एंडरसन की ओर से झूठी क्षमा याचना की कि आज उसे कहीं कॉकटेल पर जाना है। कराची मैट्रोपोलिटन शहर ठहरा, रोज कहीं न कहीं पार्टी होती है। कराची बड़ा शहर है। फ्रेंकफर्ट से तीस गुना बड़ा। कराची पाकिस्तान का दरवाजा है। बोली, 'जहाज का कप्तान कह रहा था कि कराची पाकिस्तान का फुट स्टूल है। बड़ा सुअर है वो।'
झूम-झटक आधा रास्ता ही तय किया होगा कि वो कंधों के झूले से छलाँग लगा कर खड़ी हो गई। कहने लगी, 'हाय मैं कैसी भुलक्कड़ हूँ। तुम्हारा परिचय कप्तान से तो कराया ही नहीं। बहुत डैशिंग है। बिल्कुल Gregory pack लगता है। दोनों कहारों ने कंधों की जोड़ी की दिशा कप्तान के केबिन की ओर कर ली। हर छह-सात झोंकों के बाद वो हमारी टाई पकड़ कर नीचे उतरती और हमारी चाल ठीक करके वापस चढ़ जाती।
ग्रेगरी पैक ने हमें भी सीने से लगाकर प्यार किया : ग्रेगरी पैक ने उस समय केवल सफेद नेकर और हवाई चप्पल पहन रखी थी, माथे से पसीने के रेले बह रहे थे, उसके गाल और पेट पर जो खरोंचें थीं उन पर कत्थई खुरंड आ गए थे। सीने पर एक बहुत बड़ा दिल गुदा हुआ था और उसके अंदर किसी भूतपूर्व प्रेमिका की नग्न तस्वीर tatoo की हुई थी। तस्वीर के पेट पर हसीना का नाम भी लिखा था जो अब पढ़ा नहीं जा सकता था, इसलिए कि उस पर अमरीकी झंडे के सितारे गुदवा कर नाम मिटा दिया गया था।
शेवा - ए - इश्क नहीं हुस्न को रुसवा करना
बाएँ हाथ पर ग्रेगरी पैक ने अपना पूरा नाम गुदवा रखा था ताकि किसी दुर्घटना या जंग में कट कर गिर जाए तो जिन साहब को मिले वो अखबार में विज्ञापन देकर अस्ली मालिक को लौटा दें। वो हमें देख कर बहुत मुस्कुराया। ऐसी गर्मजोशी से हाथ मिलाया कि हमारी उँगलियों की हड्डी से हड्डी बजा दी। कहने लगा, 'आइए । जश्न मनाएँ। आप इस खूबसूरत बोझ के सैंडिल में ड्यूटी फ्री शैम्पेन का सेहत का जाम पीना पसंद करेंगे या अच्छे मुसलमान की तरह डिसेंट्री के रोगाणुओं से भरपूर कराची वाटर?'
यासूबुल हसन गौरी ने पासपोर्ट लेते और फार्म आगे बढ़ाते हुए पूछा, 'कस्टम में डिक्लेयर करने के लिए कुछ है?'
ग्रेगरी पैक नजरों से मिसेज शिवार्ज के अंग-प्रत्यंग की तलाशी लेते हुए बोला 'आफ कोर्स। 38-29-36 और मंझली संख्या में एक गैलन duty free liquor'
वो उसे अलविदा कहने सीढ़ी तक आया विदा के समय हमें भी सीने से लगा कर देर तक चिंचोड़ा। गौरी को हींग के लेप ने एक बार फिर बचा लिया। जीने से उतरने लगी तो न जाने क्या दिल में आई कि दोनों हार उतार कर ग्रेगरी पैक के गले में डाल दिए और हम देखते के देखते रह गए। गौरी ने जिन कर्ज में डूबी नजरों से हमें देखा उसकी तस्वीर खींचना हमारे बस का काम नहीं। वो सिर से पाँव तक साक्षात गाली बने खड़े थे। तीसरा हार उन्होंने हमें पहना दिया।
प्रोफेसर काजी अब्दुल कुद्दूस गालिब की विभिन्न पंक्तियों को फेंट कर अक्सर कहते हैं कि तंगदस्ती (तंगी) न हो तो तंदुरुस्त आदमी की तमन्ना का दूसरा कदम गृहस्थी की सीमा के बाहर पड़ता है। यूँ तो कोई इच्छा न होगी जिसका जुर्म हमने न किया होगा।
हजारों ख्वाहिशें ऐसी कि हर ख्वाहिश पे घर बिगड़े
सीमा ये है कि तंदुरुस्ती की इच्छा भी की है लेकिन खुदा गवाह है कि अनकिए पापों की इस चर्चा न करने योग्य सूची में मालवाहक जहाज का कप्तान बनने की इच्छा कभी सम्मिलित नहीं हुई थी। अब रह-रह कर पछतावा हो रहा था कि हाय! यूँ सूखी धरती पर समय नष्ट न किया होता तो क्या-क्या मजे करते। भाग्य में अगर जहाज का कप्तान होना नहीं लिखा तो कम से कम कछुआ ही होते।
रह गया दिल में जो कुछ था जौक - ख्वारी हाय , हाय !
'अजब हरियाल औरत है!' हमने कहा।
'मिस्टर! तुम अभी Bankers और Sailors को नहीं जानते। कट्टे को भी दुह कर फेंक दें।'
इस इंतजार में किस - किस से प्यार हमने किया : यासूबुल हसन गौरी को दाढ़ के दर्द का सहारा ले कर वैस्ट व्हार्फ नंबर 37 में छोड़ा तो रात हो चुकी थी। हल्की-हल्की बारिश हो रही थी। फ्लड लाइट्स की रौशनी में फुहार ऐसी लगती थी जैसे सामने मोतियों की लड़ियों का पर्दा पड़ा हो। समुद्री हवा से पाम के पत्ते मंजीरे बजा रहे थे। दूर लंगर डाले जहाजों की रोशनियाँ आसमान के नीचे झिलमिल-झिलमिल कर रही थीं। मिसेज शिवरिज कहने लगी तुम लाउंज में प्रतीक्षा करो। मैं सामान संभाल-सुंघवा कर दो मिनट में आती हूँ। हम प्रतीक्षा करते रहे। आध घंटे बाद बैरे से अपने कमरे में ही बुलवा लिया। बन-सँवर कर निकली तो आलम ही कुछ और था, हम भी दिल मजबूत किए बैठे रहे। उसमें हमारी प्रिय ऐक्ट्रेस अदा गार्डनर की छब मारती थी। उस समय उसके आर-पार संक्षिप्त कपड़ों के संकोच और उनसे प्रकट और अप्रकट... को देख कर बड़ा तरस आया कि ओफ्फो! जर्मनी में कपड़े की इतनी तंगी है। मालूम होता है कि वहाँ की मिलें अभी हमारे जैसा मोटा सूत भी नहीं बना सकतीं। शालीनता का विषय है, मुहावरे की ओट लेकर बस इतना निवेदन कर सकते हैं कि 'ओछे के घर तीतर, बाहर रहे न भीतर।' तराशी हुई भौंहों की कमान खींचते हुए बोली, 'तुम्हारा बहुत कीमती समय नष्ट हुआ। किस तरह तुम्हारा धन्यवाद दूं। थकन से चूर हूँ, यहाँ फ्रेंच ब्रांड मिलती है? कप्तान आने ही वाला है। मिस्टर शिवरिज को भी खुलना ट्रंक-काल करनी है। उसे बहुत करती हूँ। कल तीसरे पहर जहाज चला जाएगा। शाम को तुम यहीं मेरे साथ खाना खाओ। परसों सुबह की फ्लाइट से ढाका जाना है। मगर याद रहे, मैं साढ़े दस से पहले डिनर को हाथ नहीं लगा सकती। ड्रिंक्स का सत्यानाश हो जाता है।'
'धन्यवाद! मगर उस समय तो हम बैंक में होंगे।'
खिल उठी, 'वंडरफुल! क्या वहाँ ड्रिंक्स की व्यवस्था होती है? हा! हा! कराची इज ए वंडरफुल सिटी! गेट वे टू पाकिस्तान! अच्छा तो'
'गुट नाइट!'
'See You!'
रकम डूबने का दृश्य : सारे बैंक में खलबली मची हुई थी। हमने अहमद नवाज चीमा से पूछा, 'यह क्या शोर-शराबा है?' बोले, 'यहाँ तो रोज एक न एक सियापा होता रहता है। कब्र खोदने वाला हर मुर्दे पर आँसू बहाने बैठ जाए तो रोते-रोते अंधा हो जाए। मिट्टी पाओ, बादशाहो!' मिस्टर कैन्टीन वाला से पूछा, 'साहब ये क्या हल्ला-गुल्ला है?' बोले, 'इधर तो चौबीस क्लाक हाहाकार मचेला है। अभी जूना टंटा खत्म नहीं हुआ कि नवा फड्डा हो गया। बैंक का भट्टा बैठ गया। जब तलक साला लोग हमारा पगार नहीं बढ़ाएँगा, अक्खा दिन, डेली इसी तरह लफड़ा रहेगा। अभी तो तुम साला इंस्पेक्टर ऑफ ब्रांचेज हुआ है। आगे-आगे देखिए होएँगा क्या।'
हुआ यह कि एक ब्रांच मैनेजर ने जंजबार इलैक्ट्रिक कंपनी को एक रेडियोग्राम और प्रेस की भेंट के बदले में साढ़े चार लाख रुपए हैड ऑफिस की अनुमति और स्वीकृति के बिना चुपचाप ऋण दे दिए और उस ऋण को मासिक रिपोर्टों में भी नहीं लिखा। आठ-नौ महीने बाद यह लाश बदबू देने लगी। जाँच से पता लगा कि जंजीबार इलैक्ट्रिक कंपनी ने जाली इन्वायस और शिपिंग कंपनी के बिल ऑफ लीडिंग (जिनसे पता चलता था कि उसने साढ़े चार लाख रुपए की कीमत का सामान अपने ढाका ऑफिस को भेजा है) से जुल देकर बैंक से साढ़े चार लाख रुपए हथिया लिए। ढाका में जब नौ महीने तक हुंडी नहीं सकारी गई तो माल की ढुंढैया पड़ी। बैंक की चट्टोग्राम ब्रांच ने सूचना दी कि जो क्रेट, बोरियाँ और पट्टियाँ बंदरगाह पर पड़ी हैं उन्हें सर्वेयर ने खोला तो अंदर पत्थर, कोयले, लोहे के टुकड़े और डॉन अखबार की रद्दी निकली। कुछ शव भी बरामद हुए। यह उन चूहों के थे जो उल्लेखित समाचार-पत्र का सम्पादकीय खाते ही ढेर हो गए और जाँच की तो पता चला कि इस कंपनी ने इसी तरह तीन और बैंकों के साथ धोखा किया है और अब इसका मालिक नूरुल-हसन शेख स्थान व दुकान का स्थानांतरण करके ढाका चला गया है। जहाँ उसने एक बंगाली लीडर को अपना स्लीपिंग पार्टनर बनाकर पूर्वी पाकिस्तान की सरकार से बिजली के सामान बनाने की फैक्ट्री लगाने के लिए पचास लाख रुपए के आयात लाइसेंस प्राप्त कर लिए हैं, जिन्हें धड़ाधड़ ब्लैक में बेच कर रातों-रात करोड़पति बन गया है। हाल ही में एक और बंगाली स्लीपिंग पार्टनर मिसेज-को पाँच लाख रुपए के सुंदर सपनों की भेंट देकर जूट मिल का लाइसेंस प्राप्त कर लिया है, जिसे पंद्रह लाख में बेच कर पाकिस्तान से जाने वाले वरिष्ठ अधिकारियों के लिए रोम में एक कैडीलेक कार, शानदार फ्लैट और यात्री को 'होम-सिक' होने से बचाने लिए एक सुंदर सी सेक्रेटरी का प्रबंध किया है, जिसकी अंग्रेजी उसके चरित्र से अधिक टूटी-फूटी थी, लेकिन उसकी गिनती अपव्यय में नहीं की जा सकती। देखा गया है कि व्यापार में एक चौथाई पूंजी के साथ तीन-चौथाई सैक्स का निवेश कर दिया जाए तो फिर कारखाने और फैक्ट्रियाँ हर साल बच्चे देती चली जाती हैं।
यह सब बातें सामने की सही परंतु नूरुल हसन शेख बैंकों की रकमें वापस नहीं करता। कहता है, 'उतावला सो बावला। रकमें सुरक्षित हैं। (यह कुछ झूठ भी नहीं था इसलिए कि रकमें स्विटजरलैंड के बैंक में नम्बरी एकाउंट में वास्तविक रूप से सुरक्षित थीं।) जब मेरे बनाए हुए रेडियो, पँखे, रेफ्रीजरेटर और एयरकंडीशनर बाजार में गर्म पकौड़ों की तरह बिकने लगेंगे तो उन सूदखोरों की पाई-पाई चुका दूँगा।' वह उनमें से था जिनकी सबसे बड़ी पूंजी उनकी जुबान होती है। जब तक वह चलती रहे, सोने की बरसात होती रहेगी। उसने बैंकों की आँखों में धूल नहीं झोंकी, बड़ी सफाई से सुर्मा लगाया था लेकिन ऐसे काण्ड बैंकों में होते रहे हैं। बैंक के बड़े अधिकारियों के चेह्रों पर चिंता और व्यग्रता के कोई लक्षण नहीं थे। यूँ भी बैंक में नौकर होने के बाद करोड़पतियों के धन का हिसाब रखते-रखते आठ अंकों से कम की रकम आँखों में जँचती ही नहीं और अपना वेतन तो बिल्कुल रेजगारी लगता है।
फिर भी हमारी खाल आवश्यकतानुसार मोटी नहीं हुई थी और हम सारे समय सिस्मोग्राफ की तरह काँपते रहते थे कि उसका काम ही भूकम्पों के झटके रिकॉर्ड करना है। तेईस वर्ष इस व्यवसाय से संबंधित रहने के बाद हम इस परिणाम पर पहुँचे हैं कि आदमी अपनी आँखों के सामने किसी को करोड़पति बनता देख ले तो मानवता और उच्चादर्शों पर से उसका भरोसा पूरी तरह उठ नहीं जाता तो हिल जुरूर जाता है। बैंकर की पथराई हुई आँखें रोज यही दृश्य देखती हैं और उस बेचारे को बकौल मिर्जा अपने विश्वास को रोज हुक्के की तरह ताजा करना पड़ता है। शनैः शनैः उसकी आवश्यकता भी नहीं रहती। शासन और धन की प्राप्ति की यही शैली रही है। सदा से यूँ ही होता आया है कि जिस मिट्टी से फूल खिल सकते हैं, जिस कोख से धान फूट सकते हैं-वह तपती धरती जो इस प्रतीक्षा में है कि कोई प्यासा इस्माईल एड़ियाँ रगड़े और उसकी छाती से जमजम के धारे फूट निकलें-उसे हमने पत्थर होते देखा है और फिर उसी पत्थर को हीरा बनते देखा है। जिससे हर चीज कट जाती है। जिसे कोई चीज नहीं काट सकती।
इस समय हमारे साथी जीलानी साहब मद्रास में छपी हुई पुस्तक bank frauds and forgeries अपनी दराज से निकाल कर खोले बैठे थे। पुस्तक क्या थी, जालसाजी और धोखाधड़ी की संपूर्ण निर्देशिका थी। इसमें बैंक से संबंधित हर प्रकार की ठगी और धोखाधड़ी के काण्ड इतने विस्तार और मनोहर ढंग से वर्णित थे कि बैंक में जो बेचारे यह तक नहीं जानते थे कि गबन क्या होता है, वे भी दस-पंद्रह मिनट में इस कला की बारीकियों से काम-चलाऊ परिचय प्राप्त करके स्वयं को गबन के आरोप में गिरफ्तार करवा सकते थे। पाँच-छह मिनट तक पन्ने पलटने के बाद जीलानी साहब ने ऐलान किया कि अगर बैंक के हर अधिकारी को उसका पृष्ठ 43 पढ़वा दिया गया होता तो आज बैंक की तिजोरी से साढ़े चार लाख रुपए अधिक होते। पंजाब बैंक लिमिटेड अमृतसर के एक कैशियर ने इसी तरह पच्चीस हजार रुपए का गबन किया था। सरदार मोहन सिंह, सब इंस्पेक्टर ने इस जालसाजी मार्गदर्शिका की सहायता से उसके घर से 35 हजार रुपए बरामद कर लिए। इसके बाद अमृतसर में कोई फ्राड नहीं हुआ।
शाम तक आदेश हुआ कि इस केस की जाँच और रकम की वसूली के लिए हमें पहली फ्लाइट से ढाका जाना होगा। चुनांचे इस उद्देश्य से हम दूसरे दिन ढाका पहुँच गए। तारीख अब स्मृति से उतर गई। इतना याद है कि पहली बार होटल शाह बाग की खिड़की से झाँक कर देखा तो कृष्ण चूरा (मौलश्री) के पेड़ों में आग सी लगी हुई थी। एक-एक पत्ती फूल और हर फूल अंगारा बन गया था। नीचे हर ओर हरियाली ही हरियाली थी या काई की मखमली चादर ताने ठहरा हुआ पानी। धरती कहीं नहीं दिखाई देती थी। ऐसा लगता था कि किसी पत्ती या पत्ते को छू भी लिया तो पानी टपक पड़ेगा। हरियाली के इतने भिन्न-भिन्न शेड हमने जीवन में कभी नहीं देखे थे। इस खिले-खिले दृश्य के जिन हिस्सों में जान पड़ गई थी वह चिड़ियों के रूप में चहचहाने लगे थे। बारिश थमने के बाद बिजली के तारों पर तले ऊपर बैठी हुई चिड़ियाँ ऐसी लग रही थीं जैसे पाश्चात्य संगीत की नोटेशन। शाम को मिटफोर्ड रोड और नवाबगंज की सैर को जाने लगे तो एक मित्र ने चेताया कि 'रास्ता भूल जाओ तो किसी से उर्दू में न पूछना। ढाका शहर को यह गौरव प्राप्त है कि उसने हमारे युग के सर्वाधिक विशिष्ट और सम्मानित धार्मिक विद्वान को उर्दू के समर्थन पर सरे-बाजार जूतों का हार पहनाया।'
गाय बकरी के बराबर और बकरी बिल्ली के बराबर देखकर बड़ा प्यार आया। बिल्लियां नहीं दिखीं। अलबत्ता मच्छर बहुत स्वस्थ और बलिष्ठ दिखे-ततैये के बराबर। जरा ध्यान दिया तो हर शोर मचाने वाली चीज-मेंढक, मैना, नद्दी, कौवे, बादल और लीडर-अपने साइज से बड़ी दिखाई दी। ढाका मस्जिदों का नगर कहलाता है। शाम की अजान के बाद हर तीसरे घर से लड़कियों के गाने और हरमोनियम की आवाज सुनाई दी। दफ्तर पहुँचे तो बैंक के जर्मन मैनेजर ने शिकायत की कि स्टेट बैंक ऑफ पाकिस्तान का बंगाली मैनेजर कॉमर्शियल बैंकों की दिन-प्रतिदिन की आवश्यकताओं के लिए भी ढाका से कराची रुपया भेजने में आनाकानी करता है। कहता है बंगाल का रुपया बंगाल ही में रहना चाहिए। याद रहे! पाकिस्तान बने अभी दस साल भी नहीं हुए थे।
एक आविष्कारक से भेंट : नूरुल हसन शेख (जिन्हें ढाका में सब नूरुल कहते थे) के संतोष और प्रफुल्लता को देखकर विचार आया कि संभवता हम ही स्नायु-दुर्बलता का शिकार हैं कि अकारण घबराए फिर रहे हैं। प्रसिद्ध अर्थशास्त्री लार्ड कींस ने बड़े पते की बात कही थी कि अगर आप बैंक से एक हजार पौण्ड का ऋण लें तो आप बैंक की दया पर निर्भर होंगे परंतु यदि आपने दस लाख पौण्ड ऋण ले लिया तो बैंक आप की दया पर निर्भर होगा। यह भी कुछ इसी प्रकार का मामला था। नूरुल का दफ्तर और शोरूम अत्यंत शानदार और बैंक के हेड ऑफिस से कई गुना बढ़िया था। उन्होंने अपने गोदाम का निरीक्षण करवाने से साफ इनकार कर दिया। कहने लगे आप को इसका अधिकार नहीं है। मैं दर्जी को दाई के उत्तरदायित्व पूरे करने की अनुमति नहीं दे सकता। अलबत्ता अपनी फैक्ट्री का निरीक्षण कराया जिसे वह अपनी प्रयोगशाला कहते थे परंतु जो वास्तविक रूप में बैंक के रुपए का वधस्थल था। रेफ्रीजरेटरों के बीस-पच्चीस खोखे पड़े थे जिन्हें वह स्व-रचित कहते थे। उनकी मशीन का आविष्कार करना शेष था। इसी प्रकार एयरकंडीशंड के स्विच का आविष्कार कर लिया था। उनके कथनानुसार स्विच ही में सारी मशीन की जान होती है। आपने इस संसार रूपी प्राकृतिक कार्यशाला के सिवाय कोई और कार्यशाला बिना स्विच के चलते देखी है? बस दस लाख के और ऋण की कसर थी। कर्जों को पुरजों में ढालना इस आविष्कारक के बाएँ हाथ का खेल था, परंतु कर्ज ब्याज रहित हो। यह नहीं कि -
रकम बढ़ती गई जू ँ जूँ अदा की
मैं एशिया का व्यस्ततम व्यक्ति हूँ, अतः गिरवी, माल और जमानत का प्रतिबंध भी न हो। साहब! अमेरिका में तो बैंक मुस्कान पर ऋण दे देते हैं।
अलबत्ता एक इलेक्ट्रिक शेवर का आविष्कार पूर्ण कर चुके थे जिसकी लंबाई छह फिट होगी। हमारे विचार में इससे खड़े हुए ऊँट की हजामत आसानी से की जा सकती थी। कुछ और रुपया होता तो वह इस उपकरण को और छोटा करके मानवीय हजामत पर राजी कर सकते थे। ये और बात कि कुछ दिन पहले उसके काम-काज का प्रायोगिक प्रदर्शन एक भीड़ के पक्ष में मारक सिद्ध हुआ था। इस शेवर को ऑटोमैटिक जंबूर, मोचने, बाल उखाड़ने वाले रंदे और मुँह तोड़ने वाले विद्युतीय वसूले जैसा देखकर हम जैसा विज्ञान का अज्ञानी भी तुरंत मान गया कि यह उपकरण आदमी तो आदमी जटाधारी वट्वक्ष की दाढ़ी-मूँछ को भी जड़-सहित उखाड़ कर फेंक देने की सामर्थ्य रखता है। वह अपने आविष्कार के लाभ देश में ही सीमित रखना चाहते थे अन्यथा अमेरिका में तो यह उपकरण इलेक्ट्रिक चेयर के स्थान पर सुविधापूर्वक इस्तेमाल हो सकता था।
नूरूल देर तक राष्ट्र के दुर्भाग्य पर शोक प्रकट करते रहे जो उनकी बुद्धि से पूरा लाभ उठाने को तैयार नहीं था। प्रादेशिक संस्थाओं ने अलबत्ता उनकी भरपूर आर्थिक सहायता की जिससे उनकी बर्बादी में और वृद्धि हुई। उन्होंने एक और उल्लेखनीय आविष्कार दिखाया। यह एक छोटी सी डिबिया थी जिसमें एक अच्छाई और सौ बुराइयाँ थी। इसका उपयोग यह बताया गया कि अगर आप इसे अपने टेलीफोन के तार से जोड़ दें तो जो व्यक्ति भी आपको फोन करेगा उसका फोन डैड हो जाएगा। पूछा, इससे फायदा। फरमाया, विज्ञान का काम तो आविष्कार करना है, लाभ की खोज संसार स्वयं करे। नोबेल पुरस्कार के संस्थापक एलफ़्रेड नोबेल ने जब डायनामाइट का आविष्कार किया तो उसको इसके उपयोग का अनुमान तक न था। ईजाद (आविष्कार) और औलाद के लच्छन पहले से ही मालूम हो जाया करते तो संसार में न कोई बच्चा होने देता न आविष्कार।
ऐक्स - रे चश्मा : कहने लगे एक 'एक्स-रे चश्मे का प्लान भी कल्पना में बिल्कुल तैयार है। शेवर छोटा हो जाए तो इसकी बारी आए। पूछा, यह क्या वस्तु होती है? कहा, 'आपके मतलब की चीज है। आपने गुजरांवाला का 'अफीम छोड़' गोलियों का विज्ञापन देखा है? यह भी वास्तव में एक सुधारजनक उपकरण है। हम और चकराए। उनका उद्बोधन हुआ, 'इस चश्मे को लगाकर जिसे देखा जाए, उसकी माँसपेशियाँ, नयन-नक्श, रंग-रूप सब गायब हो जाएँगे। मात्र शरीर की 206 हड्डियाँ दिखाई देंगी। पेरिस के नाइट क्लबों, समुद्र-तट, न्यूड कॉलोनीज और नृत्यागारों में प्रवेश से पहले दर्शकों को बलात् यह शिक्षा देने वाले चश्मे पहना दिए जाएँगे। पूछा, यह चश्मा पहनकर ब्लू फिल्म देखी जाए तो क्या सिर्फ हड्डियाँ नजर आएँगी? हमारे अनाशातीत प्रश्न पर क्रमानुसार आश्चर्य, असमंजस, मुस्कान दर्शाने के बाद बोले कि जब इस चश्मा का उपयोग सार्वजनिक रूप से हो जाएगा तो ब्लू फिल्मों की शूटिंग ऐक्स-रे कैमरों से हुआ करेगी।
यह सब अधूरे आविष्कार ड्राइंग-बोर्ड पर पैसे के लिए जीभ निकाले पड़े थे। सामान्य उपकरण जैसे रेफ्रीजरेटर, रेडियो, पँखे इत्यादि का विवरण हमने इस लिए नहीं दिया कि उन पर तो वह पहले ही ऋण लेकर ठिकाने लगा चुके थे। उन्होंने हमारी बातों को बड़े ध्यान और असम्मान से सुना और हमारे तकाजे के उत्तर में इच्छा प्रकट की कि अगर हमारा बैंक अतिरिक्त पच्चीस लाख ऋण दे दे तो दूसरे ओछे बैंकों के ऋण चुका दें। इससे यह सुविधा रहेगी कि इकट्ठे चार बैंकों से चौमुखी के स्थान पर केवल एक ही से सुलटना, एक ही से दीवानी फौजदारी करनी पड़ेगी।
सट्टे की प्रचलित विधाएँ : नूरुल एक समय में रूई के सट्टे में भी बैंकों की किस्मत आजमा चुके थे। अपना ही दीवाला नहीं निकाला। तीन चार बड़ी तगड़ी पार्टियों को भी ले डूबे। कारण यह बताते थे कि बैंक अनाप-शनाप ऋण देते चले गए। चुनांचे मैंने खरीदने के मामले में जल्दी और बेचने में देरी कर दी। यहाँ तक कि जुलाई का महीना आ गया। मुलतान की गर्मी बिनौले के जिगर तक उतर गई। गर्मी खाई हुई रूई और लड़की का कौन लिवाल होता है? उन्होंने इसके अलावा सट्टे की अन्य प्रचलित विधाओं में भी हाथ आजमाया। उस जमाने में तो नींव-चाली में इस पर भी शर्तें बदी जाती थीं कि अब जो कार सामने से निकलेगी उसका नंबर एकल होगा या जोड़ा। अमुक महिला उम्मीद से है, बताओ लड़का होगा या लड़की। जान-पहचान के गर्भ-धारी घराने और जचगियों में लंबे-लंबे अंतराल उनके अनुमान और जुए-बाजी के लिए बिल्कुल अपर्याप्त सिद्ध हुए तो अस्पताल के मेटरनिटी वार्ड में प्रवेश लेने वालियों पर शर्तें लगाई जाने लगी। उसी वार्ड में किसी पठान गनमैन के यहाँ लड़की पैदा हो गई तो एक सेठ का ऐसा दिवाला निकला कि जच्चगी समाप्त होने से पहले उसके अपने बच्चे रोटी को तरसने लगे।
दावे से मुल्ला नसरुद्दीन और रसीले नैन तक : हमने हिम्मत करके पूछा, 'आपने कराची से जो स्विच, प्लग, तार, इलेक्ट्रिक मोटर और पम्प पूर्वी पाकिस्तान भेजे थे, वह कोयले में किस तरह बदल गए?'
'यह प्रश्न तो मुझे करना चाहिए। आखिर बैंक मुझे उत्तरदाई है। मैं अपने स्लीपिंग पार्टनर को क्या मुँह दिखाऊँगा। आपने चटगाँव पोर्ट ट्रस्ट से भी पूछा?'
'यह तथ्य है कि आपने उस माल के बिल ऑफ लोडिंग पर हमारी कराची ब्रांच से साढ़े चार लाख रुपए वसूल किए।'
'आप ठीक कहते हैं।'
'फिर आपने हुंडी नहीं छुड़ाई और माल नौ महीने चटगाँव में सड़ता रहा।'
'आप फिर ठीक कहते हैं। माल नौ महीने सड़ता रहा और आपका बैंक सोता रहा। आपने साइंस पढ़ी है?'
'मैं दर्शनशास्त्र का विद्यार्थी था।'
'जभी! तो गोया आप कोयले की खान में सुर्मा लगाकर जाते हैं। लेकिन श्रीमान पर सुकरात से अधिक बुकरात की छाप है। तो कृपानिधान आप इसे नौ महीने और पड़ा रहने देते तो आश्चर्य नहीं कि कार्बन की प्रक्रिया से कोयले हीरे बन जाते।'
'क्रेट और पट्टियाँ आपने बंद की थीं?'
'मगर खोलीं किसी और ने। बैंक ने माल बदल दिया है। मेरे साथ धोखा किया गया है। मैं लुट गया। मैं बर्बाद हो गया। मैं दावा कर रहा हूँ। (एक फुट लंबा केला बढ़ाते हुए) लीजिए। गुस्सा थूकिए और इसका स्वाद लीजिए। अरे साहब तीन-चार इंच ही सही। मुंशीगंज का है।' नूरूल ने एकाएकी अपनी शैली बदल कर कहा। केले की लंबाई को चार-इंच प्रति बकोटा कम करते हुए निवेदन किया, 'नालिश पर याद आया। मुल्ला नसरुद्दीन पर एक पड़ोसी ने दावा दायर किया कि मुल्ला मुझसे एक बहुत कीमती सुराही माँग कर ले गए, मगर जब लौटायी तो चटखी हुई थी। मुल्ला ने जवाब दावा में लिखा कि पहले तो मैंने दावेदार से सुराही ली ही नहीं। दूसरे, मैंने जिस समय सुराही वापस की तो बिल्कुल सही सलामत थी। तीसरे जब मैंने सुराही ली तो वह पहले ही चटखी हुई थी।'
फड़क गए। हाथ पर हाथ मारकर कहने लगे, बैंक में भी बड़ा-बड़ा पड़ा हुआ है। इसी बात पर अनन्नास की एक फांक हो जाए। कोमिल्ला से मँगवाया है और यह कच्चे नारियल की डाब मजेदार है। पेट को ठीक करती है। नजर बढ़ाती है। आँखें चमकने लगती हैं। आपको बंगाली नयन दिखाएँ? नयन रसीले, बाण कटीले, (मुस्कान मय अंतराल) अच्छा कल सही। हा! हा!, हाथ लाओ यार!
टेबिल फैन और फैन टेबिल का अंतर : यहाँ हम अपने निरपराध पाठकों को ऋण की वसूली और डूबी हुई रकमों की वापसी के अभियान में अकारण और अवैतनिक रूप से सम्मिलित नहीं करना चाहते कि झगड़ा अपनी जगह और हँसी-दिल्लगी अपनी जगह। इनमें से पहला हमारा व्यवसाय है और दूसरा मिशन। बहरहाल उनकी जादुई कार्यशाला में हम अपनी आँखों से सोने को पीतल होते देख चुके थे। एक अविष्कार ऐसा निकला जिसकी नवीनता और उपयोगिता के हम कायल ही नहीं खरीदार भी हो गए। यह एक पँखा-मेज थी जो अपने आविष्कारक के दस वर्षीय बैंक-तोड़क अनुभवों का निचोड़ थी। तीन भारतीय कोऑपरेटिव बैंक उसके शॉक से सात वर्ष से कलकत्ते में मूर्छित पड़े थे। उनका दावा था कि इसमें कहीं कोई जोड़, कोई कील नहीं है। सीधे पिग आयरन से ढाली गई थी। तेजाब और हमारी कहानियों की कुमारियों की तरह थी यानी किसी इंसानी हाथ ने नहीं छुआ था। उसके पायों के बीच में चार बिजली के पँखों को मेज के तख़्ते पर उल्टी फाँसी दी गई थी। सार यह कि हमारी तुच्छ कलम उसका शब्द-चित्र बनाने में असमर्थ है, इसलिए तूलिका का सहारा लेना पड़ रहा है।
हमने टेबिल फैन तो भाँति-भाँति के देखे परंतु यह फैन टेबिल उन सबकी उलट थी। वह इसे फैन टेबिल के नाम से ही पेटेंट कराना चाहते थे। इसका संक्षिप्तीकरण 'फैनी' किया। अधिक प्यार उमड़ता तो डार्लिंग कहते। इसका भोला-भोला डिजाइन देखा तो अनायास आविष्कारक पर प्यार आने लगा। पूछा, 'साहब! पँखे तो मेज पर ऊपर रखे जाते हैं। आपने इन्हें नीचे उलटा क्यों लटका दिया? बोले, 'बड़ी देर बाद आपने एक सही सवाल किया है। आम बाजारी पँखे फिजिक्स के घिसे-पिटे सिद्धांतों पर बनाए जाते हैं। मैंने यह पँखा एनोटोमी के उसूलों पर बनाया है। इसीलिए आपको समझने में देर लग रही है। कड़ाके की सर्दी पड़ रही हो तो बताइए सर्वाधिक ठंड किसे लगती है?
'हमें!'
'लाहौल विला कूव्वत। मेरा तात्पर्य था शरीर के किस भाग को? आपने देखा होगा कि सर्दी में सबसे पहले पाँव ठंडे होते हैं। दम भी पहले पैरों ही का निकलता है। अतः सिद्ध हुआ कि अगर मानव-शरीर को ठंडक पहुँचानी है तो पँखे का मुँह पाँव की ओर होना चाहिए न कि सिर की ओर। छत और मेज के पँखे विज्ञान की दृष्टि से सरासर अवैज्ञानिक हैं। मैंने इस पर बड़ी माथापच्ची की है। पँखे को सिर से पैर तक उतारने में साढ़े तीन लाख रुपए लगे हैं। अच्छा अब यह बताइए कि जब आप रात को लान पर बैठे हों तो आपको सबसे अधिक किस बात से तकलीफ पहुँचती है?'
'महिलाओं के चेहरे साफ नहीं दिखाई देते।'
'ए कुरबान जाऊँ! मगर यह तो अंदरूनी तकलीफ हुई। बाहरी बताइए ?'
उधर जाता है देखें या इधर परवाना आता है : हमने अपनी मंदबुद्धि पर बहुतेरा जोर डाला मगर कोई और उपचार के लायक तकलीफ याद न आई। हमें असमर्थ देखकर स्वयं भेद खोला कि लान पर सबसे बड़ी न्यूसेंस मच्छर होते हैं जो पैरों पर डंक मार-मार कर लाल चुनरी बना देते हैं। टेबिल फैन की हवा केवल चेहरे और धड़ को लगती है और ऊँचे पेडस्टल फैन से कोई दूसरा पेडस्टल फैन ही लाभांवित हो सकता है। परिणाम आपने स्वयं अपनी आँख से देखा होगा कि पार्टियों में महिलाएँ एक हाथ से बड़े सलीके से पल्लू ढलकाती रहती हैं और दूसरे से पिंडली के ददोड़ों की जलन मिटाती रहती है; तो उन्हें इस दशा में देखकर आपकी क्या प्रतिक्रिया होती है?'
'मच्छरों से ईर्ष्या होती है।' हमने नूरजहाँ की तरह दूसरा कबूतर भी छोड़ दिया।
'भाई! आप तो शायरी करने लगे। इसे कल रात पर टाल दीजिए। तो! निवेदन यह है कि जब फैनी पूरी रफ्तार से चलेगी तो मजाल है एक मच्छर भी हम जैसे लालचियों की नजर की लपेट में आ गया तो वहीं भस्म हो जाएगा।'
बाजार हम गए थे , इक चोट मोल लाए : तत्पश्चात उन्होंने मेज पर दो मन के बाँट रखवाए और स्वयं भी उस पर टाँगें लटका कर बैठ गए। फिर स्विच ऑन किया गया। फैक्ट्री के निरीक्षण और अकोमल बहस के मध्य हम पसीने से शराबोर हो चुके थे और 'कार्डराय' की पतलून में से पसीना छूट रहा था। यूँ भी ढाका में कपड़े छह महीने बारिश से तर रहते हैं और छह महीने पसीने से। लेकिन फैनी ने दो ही मिनट में केवल हमारा सारा पसीना सुखा दिया बल्कि हमें तो शंका होने लगी कि अगर यह दो-चार मिनट और चलती रही तो आँतरिक नमी भी खींचकर हमें खड़ंक कर देगी। हमारी भीगी हुई कमीज पापड़ हो गई थी और जरा चले तो वही पतलून सुइश-सुइश करने लगी।
हमने बिल्कुल केजुअल अंदाज में इसका मूल्य पूछा। घाघ थे। भाँप गए।
'भेंट है, सरकार! दो बनाई थीं। एक तो गवर्नर, पूर्वी पाकिस्तान हेलीकॉप्टर में डाल कर ले गए। दूसरा दाना आपकी भेंट। बढ़िया चीज है फैनी डार्लिंग!' उन्होंने प्रियतमा को चुमकारते हुए कहा।
'कीमत क्या है?' हमने फिर पूछा।
'माचिस होगी?'
'जी नहीं।'
उन्होंने अपनी सेक्रेटरी से माचिस मँगवा कर हमें पकड़ा दी और डपट कर बोले, 'जलाइए !' हमने डरते-डरते एक तीली जलाई तो कहने लगे, 'अब इस फैक्ट्री में आग लगाइए।' हमने हक्का-बक्का होकर पूछा, 'क्यों?' बोले, 'पहले आग लगाइए, फिर जिरह। जल्दी कीजिए, आपकी उँगली जल रही है।' पूछा, 'मगर क्यों?' फरमाया, 'इसलिए कि ब्रदर! यह सब कुछ आप ही का है। आप मुझे अपने स्लीपिंग पार्टनर से भी अधिक प्रिय हैं। यकीन न आए तो खुदा की कसम! फैक्ट्री में आग लगा दें।'
'यह आपकी मुहब्बत है मगर कीमत क्या है?' हमने इधर उधर देखा। आस-पास कोई ऐसी चीज नजर न आई जिसमें अकेली माचिस से आग लगाई जा सके। चारों तरफ लोहा ही लोहा था। 'पिग आयरन'
'अर्ज तो किया! साढ़े तीन लाख रुपए लागत आई है। आपको रिआयत से नौ सौ में दे दूँगा। घर की बात है ब्रदर!'
हमने पाँच सौ नकद और चार सौ का चेक प्रस्तुत किया। जिन्हें झपट कर जेब में रखने के बाद वह दस मिनट तक स्वीकार करने से इन्कार करते रहे।
उन्होंने हमारे विजिटिंग कार्ड पर छियालीस साल की गारंटी लिखते हुए कहा कि इस अवधि में पँखों की कार्यक्षमता में बाल बराबर भी अंतर आ जाए तो मेरी कब्र पर जुमेरात की जुमेरात जूते मारना। 46 साल से अधिक की गारंटी पर हमने भी अनुरोध नहीं किया इसलिए कि फिर बात सन् 2000 से आगे निकल जाती और इक्कीसवीं शताब्दी तक केवल इस उद्देश्य के लिए जिंदा रहने का हमारा कोई इरादा नहीं था कि बस बैठे कब्र पर जूते मारते रहें और वह भी ढाका में। पँखों के स्थायित्व का कारण यह बताते थे कि यह उन्होंने अर्ध जल-मग्न जहाज से 'साल्वेज' किए थे जो चटगाँव के निकट एक द्वीप से टकरा कर नाकारा हो गया था। ये उसके Exhaust Fans थे। डूबा हुआ जहाज तो हमने नहीं देखा लेकिन रेलवे कंपार्टमेंट जुरूर देखे हैं जहाँ बिल्कुल ऐसे ही पँखे मात्र सजावट और यात्रियों को आपस में लड़वाने के लिए लगाए जाते हैं। जैसोर सिल्क, जामदानी की साड़ी, ढाका मलमल के दुपट्टे, बेंत की पिकनिक बास्केट, शाही किवाम, दरियाई मोती, अजगर की खाल का पर्स, सजावटी ट्रे और सम्पान, रसगुल्ले और चमचम, मिर्जा के लिए कोमल कोंपलों की चाय जिसमें सिलहट की नवयौवनाओं के हाथों की सुगंध बसी हो-हमारा पर्स ऐसी फरमाइशों की पर्चियों से भरा हुआ था। परंतु फैनी की कीमत चुकाने के बाद हमारे पास इतने पैसे भी न रहे कि मुंशीगंज का आधा केला या जुमे की नमाज के बाद आजीविका में वृद्धि की दुआ के लिए ढाका मलमल की एक दुपल्ली टोपी भी खरीद सकें।
... खैर से हम घर को आए : घर वापस आए तो उपहार-स्वरूप केवल स्वयं को लाए। लेकिन जब हमने थोड़ा विस्तार से बताया कि करनाफली पेपर मिल्स में हमारे समकक्षों को किस तरह छाँट-छाँट कर बेदर्दी से कत्ल किया गया और फिर देखते-देखते हजारों-हजार आदमी हैजे में कैसे चटपट हुए तो सबने हमारी खाली हाथ वापसी को काफी जाना। बीबी और बच्चों ने खुदा का शुक्र अदा किया कि हमने अपनी चालाकी से उनको क्रमशः विधवा और अनाथ होने से बचा लिया। फैनी की खरीदारी की सूचना हमने जान-बूझकर किसी को नहीं दी ताकि 'सरप्राइज' का तत्व बना रहे।
बालम गाड़ी : एक महीने बाद क्लियरिंग एजेंट ने सूचना दी कि फैनी सकुशल पहुँच गई है। हम उसके स्वागत को स्वयं गोदी पहुँचे। अब सवाल यह पैदा हुआ कि इसे घर कैसे पहुँचाया जाए। ट्रक के लिए यह बहुत छोटी थी। ऐसा ही था जैसे कोई क्रेन से माचिस की डिबिया उठवाए। फिर किराया तीस रुपए। ऊँट-गाड़ी के मुँह में यह जीरा लगती थी। गधा-गाड़ी वाला कहता था कि जमीन पर उँगली से नक्शा बनाकर पता समझा दो। सात रुपए डेढ़ आने में घर पहुँचा दूँगा। (डेढ़ आना बीड़ी के बंडल का भी हमारे ही मत्थे मढ़ा गया। उसकी औरत बड़ी चांडाल थी) हम फैनी को गधा-गाड़ी में अकेला नहीं छोड़ना चाहते थे, हालाँकि वह बेचारा तो हमें ड्राइवर की मानद सीट पर बैठा कर बंदर रोड और जमशेद रोड होता हुआ, दस मील पीर इलाही बख्श कालोनी तक हमारा जुलूस निकालने को तैयार था। लेकिन गधे पर बिना मुँह काला किए बैठना हमें अधूरा-अधूरा सा लगा। अंततः यह हल निकाला कि हमने खान सैफुल मुलूक खाँ की साइकिल ली और अटकाव से लगे-लगे चलने लगे। थोड़ी ही देर में पसीने के रेले बहने लगे तो इस विचार से बड़ी ताजगी महसूस हुई कि अगर ट्रक से ले जाते तो अकारण तीस रुपए का खून हो जाता। 23 रुपए की बचत दिल्लगी नहीं (इस से पंद्रह पैकेट सिगरेट खरीदे जा सकते थे)। मात्र गणितीय बचत के जोर से हमारी जेब फटी पड़ रही थी। सचमुच की बचत तो खुदा जाने इंसान को कितना घमंडी बना देती होगी।
पुरानी नुमाइश के पास बालम-गाड़ी (गधे का नाम बालम था) वाले ने ताली बजा कर कहा, 'बाबूजी! तुम्हारे टायर में बड़ा सुंदर फुँकना निकल रहा है।' इससे पहले कि इस दृश्य से हम भी मजा लेते, ट्यूब का गुब्बारा इतने जोर से फटा कि हम एक फिट हवा में उछल कर बालम की पीठ पर गिरे और वह हमें लेकर तीन फुट उछला। साइकिल बिना सवार के पंद्रह बीस कदम आवारा चल कर एक अमरीकन टूरिस्ट महिला (जो गधा-गाड़ी का फोटो ले रही थी) की सुडौल टाँगों के बीच हैंडिल की बनावट के कारण रुक गई। महिला के हाथ में कैमरा और मुँह में गाली थी।
हमने अमरीकन गाली और गेहूँ का मजा चखा : हम भी इस अमरीकन नार को कुछ उत्तर देते लेकिन हमारा नमकहलाल पेट इस समय अमरीकन गेहूँ की रोटी पचाने में व्यस्त था।
सुनकर जो पी गए ये मजा मुफलिसी का था
खूब याद आया! अमरीका से पहले-पहल दान के गेहूँ की खेप आई तो प्रधानमंत्री मुहम्मद अली बोगरा ने कराची के ऊँटों के गले में 'थैंक यू अमरीका!' की तख्तियाँ लटकवा कर नगर में परेड करा दी थी। अमरीका को यह गेहूँ का नशा और ऊँटों द्वारा राष्ट्रीय कृतज्ञता की भावना को व्यक्त करना बहुत भाया। चुनांचे उसने मुनासिब ही बशीर ऊँट वाले को प्रधानमंत्री के स्थान पर अमरीका यात्रा का निमंत्रण दिया। मिर्जा अब्दुल वुदूद बेग का कौल है कि अमरीकी गेहूँ बिल्कुल शुद्ध और अस्ली होता है। अस्ली से उनका आशय है कि इसके बीज खास उसी बाली से प्राप्त किए गए थे जिसका एक दाना खाते ही हजरत आदम स्वर्ग से निकाले गए।
इससे, खुदा न करे, आदम के पाप के अपमान का उद्देश्य नहीं। यह आदम ही का पाप था कि एक सुनसान, निर्जन बियाबान गृह, पृथ्वी को उपवन बनाया गया। वरना न जाने कितने चाँद-सूरज होंगे कि अंधे अंतरिक्षों में हजारों बरसों से, आदि से अंत तक अपने आदम की खोज में यूँ ही चक्कर काटते रहेंगे।
कसम की रोटी : वेस्ट-व्हार्फ से पीर इलाही बख्श कॉलोनी तक की यात्रा पूरी करने में साढ़े तीन घंटे लगे। घर आया तो बालम-गाड़ी वाले ने नया मुद्दा उठा दिया। कहने लगा चार मन वज्नी कारखाना ढोया है। चार रुपए चढ़ाने-उतारने के अलग से देने होंगे। हमने कहा, खुदा के बंदे! यह तो ग्यारह रुपए बन गए। इतने में तो हम इसे नई विक्टोरिया गाड़ी में ठाठ से ला सकते थे। बोला, 'बरोबर ला सकते थे। पन वह घसियारा भी चढ़ाई-उतराई के दाम ऊपर से ले लेता, घोड़े-घास के पैसे अलग। पंद्रह रुपए ठाठ से धरवा लेता। क्या नाम उसका -
सब ठाठ पड़ा रह जावेगा - जब लाद चलेगा घसियारा
बाबूजी, सात रुपए तो अकेले बालम ही की मजूरी हुई। मैं तो इसकी आधी दिहाड़ी माँग रिया हूँ। किरांची में गधा आदमी से जियादा कमावे है।' हमने कहा, 'मुसलमान हो, खुदा से डरो। सामान उतारने-चढ़ाने की मजदूरी तो किराए में ही शामिल होती है।
हमारा ये कहना था कि उसने गधे के तोबड़े से रोटी का एक सूखा टुकड़ा निकाला और हमारे हाथ पर रखकर बोला, 'तुम्हारा मिजाज शरीफ चाहे तो भले ही गधे का हक मार लो, पर मेरे मासूम बाल-बच्चों के गले पे काए को छुरी फेर रिए हो। बाबूजी! तुम भी मुसलमान, मैं भी मुसलमान। ला इलाह इल्लाह' जो बेफुजूल अड़ी करे, अल्लाह उस पे उसकी आल-औलाद पे रिज्क का दरवाजा बंद कर दे। उसे पुल सिरात पर अंधे सुअर की सवारी नसीब हो। तुम खुद ही इस रिज्क को हाथ लगा के बताओ मजूरी-किराए में फर्क है कि नहीं?' हमने रोटी का टुकड़ा हाथ में लेकर स्वीकार किया कि है तो। यह सुनकर वह विजयी ढंग से मुस्काया। अब हमने टुकड़ा उसके हाथ में थमाकर पूछा, 'अब तो ईमान से बताओ कि चढ़ाने-उतारने की उचित मजदूरी क्या होती है?' रोटी को होठों और माथे से लगाते हुए बोला, 'साँईं! डेढ़ रुपया!' यह कहकर टुकड़ा हमारी हथेली पर स्थानांतरित किया और हमारे सामने हाथ जोड़ कर कहने लगा, 'तुम्हें यह भी मंजूर नहीं तो बाबा रिज्क को हाथ लगा को जो कुछ दे दोगे, ले लूँगा। दोनों समय मिल रहे हैं।'
दोनों धर्म-संकट में थे। हमने शीघ्रता से यह बूमरैंग-रोटी का टुकड़ा उसके हाथ पर रखकर अपने दोनों हाथ पतलून में छिपाते हुए कहा, 'लो ये डेढ़ रुपया। मगर अन्न तुम्हारे हाथ में है। कसम खा के कहो मैंने लादने उतारने में बराबर की मेहनत की थी या नहीं?' उसने सूखे टुकड़े को सिर पर रखकर स्वीकार किया और डेढ़ रुपए में से हमारी आधी मजदूरी बारह आने, हमारा पसीना सूखने से पहले हमें चुका दी और इससे पहले कि कसमें खा कर हम एक दूसरे को धर्म-संकट में डालें, उसने लपककर अपने गधे का जबड़ा खोला और कुहनी तक अंदर हाथ डाल कर रोटी का टुकड़ा उसके हल्क में झंड कर दिया।
पहुँची वहीं पे नान जहाँ का खमीर था
थोड़ी दूर जाने के बाद वह चित्त-प्रसन्न मजदूर कुछ सोचकर वापस आया और शेष बारह आने भी लौटाते हुए कहने लगा, 'बाबूजी! दोनों समय मिल रहे हैं। रोजे-कयामत के दिन खुदा को आकबत में मुँह दिखाना है। कयामत के मैदान में बालम तुम्हारा दामन पकड़ेगा, पर ये तुम्हारा और उसका निजी मामला है। तुम जानो वो जाने। अपनी-अपनी कब्र, अपना अपना जवाब। मैं तो ये जानूं तुम तो मुझसे भी जियादा पसीने में लहूलुहान हो रहे हो। तुम्हारे बच्चे मेरे बच्चों से भी छोटे हैं।'
हम भैंस से क्यों चमक गए : फैनी को जब उतार कर ढोया जा रहा था तो कुछ पड़ोसी टोह लेने के लिए अपनी एकरूपी, एकरंगी और एकभाषी औलादों के साथ फैनी के चारों ओर इकट्ठे हो गए थे। बालिश्त-बालिश्त भर के लौंडों ने जिन परामर्शों और प्रश्नों के सींगों पर हमें धर लिया, उनकी एक झलक देखिए :
'अंकल इसे दरी पे लिटाल के उतारिए।'
'अबे! ये तेरी नानी के मय्यत थोड़े है।'
'पाक एयरवेज का जो जहाज गिरा था ना! ये विसी के इंजन की अगाड़ी है। क्यों न अंकल?'
'साले! सिड़ी हुआ है। बैंक के गोदाम से आई है। अंडे फेंटने की फैक्ट्री है। अंधे को भी नजर आवे है। आँखें हैं या भैंस के...'
'चोट्टी के! इससे क्या शुतरमुर्ग के अंडे फेंटेगा?'
'तुझे कुछ पता भी है। आंटी भैंस के घी के लौंदे के लौंदे डाल के अंडे का ऐसा हलवा बनावें हैं कि बस स्टैंड तक भबके जावे हैं। एक ही चम्मच खाके मरखने से मरखने आदमी के मुँह पे रुआब आ जावे है। क्या नाम, ठठ्ठा से खोया आवे है। फिर बर्नस रोड की मलाई के साथ तर निवाला खिलावे हैं...' 'देखो लमड़े की दिल्लगी। भैंस का नाम आते ही साला रवाँ हो गया।'
फैनी को बरामदे में रखवा कर हम नहाने चले गए। छोटे से 6'x 6' के गुस्लखाने में हमारे ही नाप की एक पानी की टंकी रखी थी जो हर नहाने वाले के साथ कंधे से कंधा मिलाकर स्नान करती थी। उसे स्नान करवा के निकले तो देखा कि मुहल्ले की मदद से फैनी कमरे के बीच में पहुँच चुकी है और चमगादड़ की तरह छत की ओर पाँव किए पड़ी है। हमने बेगम से पूछा, 'इसे उल्टा क्यों कर दिया?' बोलीं, 'और लो! मैंने तो पँखे सीधे लगाए हैं। मगर यह है क्या?'
हमने कहा, 'तुम्हारी बर्थडे का पेशगी तुहफा है फैनी-तुम्हारी फैनी।' फैनी के एक उल्टे पाए को सहलाती, चुमकारती हुई बोलीं, 'बर्थडे में तो अभी ग्यारह महीने हैं खैर, मगर यह करती क्या है?' हमने कहा, 'बिजली से चलती है।' बोलीं, 'यह तो अंधे को भी नजर आता है।' हम चुप हो गए, इस डर से कि अंधे के माध्यम से संवाद में फिर भैंस अपने सारे अंगों सहित न कूद पड़े।
बिना लॉन का घर : थोड़ा सा भुलावा देकर हमने बेगम को धीरे-धीरे फैनी की कार्यक्षमता का परिचय देते हुए बताया कि गर्मियों में शाम के समय लॉन पर इससे अधिक काम की चीज की नारी-बुद्धि कल्पना भी नहीं कर सकती थी। इस पर उन्होंने बड़ी 'मैटर ऑफ फैक्ट' शैली में सूचना दी कि जिस क्वार्टर में हम पाँच साल से रह रहे हैं उसमें लॉन नहीं है। निकटतम लॉन गांधी गार्डन में स्थित है जो यहाँ से चार मील है।
वह जो कहते हैं कि नारी में INTUTION होता है वह संभवतः इसी चीज का नाम है, जिसका वह इस समय प्रदर्शन कर रही थीं। खुदा जानता है कि फैनी से पहली नजर में मुहब्बत के बाद से इस पल, इस खोज तक हमें यह खयाल ही नहीं आया था कि हमारे दो कमरों वाले क्वार्टर में लॉन नहीं है। जिस जगह हमारा पाईंबाग और बहुत खुला हरा-भरा लॉन लग सकता था, वहाँ यार लोगों ने हमसे पहले अपने क्वार्टर खड़े कर लिए थे। कइयों ने तो पगड़ी पर भी उठा दिए थे। स्वयं हमने सोने के बटन बेचकर 350 रुपए पगड़ी पर रातों-रात कब्ज़ा लिया था। पगड़ी में मकान के अलावा एक अदद लोटा जिसकी टोंटी जड़ से झड़ गई थी, दो झाड़ू मगर एक बढ़िया डबल बैड जिस पर पिछले किराएदार की मृत्यु हुई थी, शामिल थे।
इन मकानों की दीवार से दीवार ही नहीं, बल्कि रात को रहने वालों के सिर से सिर और कान से कान मिले हुए थे, इस लिए कि उनके बीच केवल कागजी ईंट की पर्दा होता था। चुनांचे जब रात ढले खुसर-पुसर इधर होती तो किसी बुजुर्ग के खंखारने की आवाज उधर से आती।
तुझे अठखेलियाँ सूझी हैं , हम बेदार बैठे हैं
कभी-कभी यह अंतर करना कठिन हो जाता है कि आधी रात को जो बच्चा पेट के दर्द से चीख-चीख कर हमें मुसीबत में डाल रहा है वह अपने दिल का टुकड़ा है या पड़ोसी के घर का चराग-जब तक कि अंधेरे में अपने हर बच्चे के मुँह पर हाथ रखकर यह जाँच न कर ली जाए कि चीख का ध्वनि-केंद्र दीवार के इस पार है या उस पार। काफी समय पहले की बात है मगर अच्छी तरह याद है कि पड़ोसी अब्दुल गफूर के अलार्म से हमारा मुर्गा जागता था और वो मुहल्ले की मस्जिद के मुल्ला को जगाता, फिर प्रलय आती।
मगर जैसे किसी की कुछ कमी महसूस होती है : हमें इसका बड़ा दुख था कि जहाँ जेल की बनी हुई दरी बिछी है वहाँ घास होती और घास में मच्छर होते तो सुखी हो जाते। यह शॉक अपने सिस्टम में आत्मसात करने के लिए कि जिस घर में हम पाँच साल से रह रहे हैं उसमें लॉन नहीं है, हमें तीन-चार दिन लग गए। सरफिरे 'मीर' पर तो इतना ही आरोप था कि उसने कभी झरोखा खोल कर उस और नहीं देखा कि बाग में वसंत कैसी धूमें मचा गया मगर हमने तो खिड़की के इस तरफ वाली स्थिति का नोटिस नहीं लिया, जहाँ फर्श पर चार प्यारे-प्यारे बच्चे दीवार से दीवार तक लोटते-लुढ़कते और उनके सिर एक दूसरे से बिलियर्ड की सुंदर गेंदों की तरह टकराते रहते थे।
इस घटना के कई वर्ष बाद की बात है। हमने बड़े रोमांटिक मूड में एक गोष्ठी में कहा, 'अब हमें हर सुख हर सुविधा प्राप्त है, मगर जिंदगी में किसी चीज की कमी महसूस होती है।'
मिर्जा, जो हमारे अज्ञान और अयोग्यताओं का पूर्ण ज्ञान रखते हैं, सुनकर बोले, 'जिस वस्तु की तुम्हें कमी हमेशा महसूस होती है उसे प्राचीन विद्वानों की शब्दावली में 'अक्ल' कहते हैं।
हमारी मच्छरदानी : दो-तीन दिन तो जी उदास रहा। फिर एकाएकी विचार आया कि अगर चित्त की मस्ती; धन-दौलत, बादल, वसंत, हरियाली और फूलों पर ही निर्भर होती तो कितने हैं कि स्वयं को प्रसन्न और सुखी कह सकते। जिस अनजानी महक के सहारे यह सारा जीवन गुजारा, उसे हवा का झोंका कहीं से उड़ा कर नहीं लाया। सारी पागल सुगंध आकांक्षा की कस्तूरी से ही फूटी।
जो बहार आई मिरे गुलशने - जाँ से आई
इस फकीराना गर्वोक्ति को वर्तमान परिस्थिति पर जो निराशाजनक होने के अलावा हास्यास्पद भी थी, लागू किया तो चित्त पर जो जंग लग गया था उसके छिलके एक-एक करके उतरने लगे। स्पष्ट था कि जो उपकरण लॉन पर अपना करतब दिखा सकता था, वह हमारे कमरे में भी वैज्ञानिक गुण प्रदर्शित करने से रुक नहीं सकता था। बस इतनी सी बात पर दिल पकड़ के बैठ गए। मच्छरों की जनगणना करके हिसाब लगाया तो इस नतीजे पर पहुँचे कि गांधी गार्डन के पूरे लॉन पर जितने मच्छर होंगे उससे दोगुने तो हमारे 12' x 12' कमरे में पले हुए थे। लॉन की जुरूरत तो हमें इसलिए महसूस हुई थी कि उस पर मच्छर होते हैं। गांधी गार्डन की कोई बपौती तो नहीं। सच सुनने वाले कानों से सुना तो कराची के मच्छर अपनी जगह से उलाहना दे रहे थे कि हम ही स्थान की शर्त की इच्छा में घिरे हैं, वो नहीं। सच पूछिए तो कराची में मच्छरदानी भी इस अर्थ में उपयोग की जाती है, जिसमें सुरमेदानी, तिल्लादानी (सूई-धागों का बटुआ) चायदानी, दूधदानी, हमदानी, समदानी (दोनों वंश-परंपरा), उर्दूदानी इत्यादि जिनमें संबंधित वस्तुओं को सुरक्षात्मक ढंग से बंद किया जाता है कि निकलने न पाएँ।
चाय के चोंचलेः वेतन से कर्ज की पहली किस्त कटते ही हमने फैनी की मुँहदिखाई का इंतजाम किया। 12' X 12' कमरे में जितनी देवियाँ और सज्जन गले मिले बिना समा सकते थे उससे कुछ अधिक ही चाय पर न्योत दिए। कराची में चाय के आतिथ्य का एक गुण है कि चाय ही पेश की जाती है। चाय के बहाने दूध नहीं पीते। लाहौर की तरह नहीं कि मुर्ग-मुसल्लम और कबाब पर कबाब चले आ रहे हैं और एक नहीं कई साहब हैं कि दूध से लबालब कप में तीन बूंद चाय टपकवा कर कह रहे हैं, 'मैं ते हमेशां स्ट्रांग चाह पीनावां (मैं तो हमेशा स्ट्रांग चाय पीता हूँ)। हम इसमें केवल इतना सा परिवर्तन करेंगे कि चाय दूधदान में होनी चाहिए और दूध चायदानी में। जापानी अपने चाय के शिष्टाचार और उसके सदियों पुराने चोंचलों की बड़ी डींगें मारते हैं लेकिन उन्हें चाहिए कि चाय, बातें और स्वास्थ्य एक साथ बनाने का हुनर लाहौर के जिंदादिल लोगों से आ कर सीखें। कराची में चूँकि पपीते और खरबूजे की गिनती सब्जियों में नहीं होती इसलिए अगर हम यह कहें कि हमने चाय पर फलों की व्यवस्था भी की थी तो इसे अतिशयोक्ति न समझा जाए। आम, स्पागेट्टी, शरीफे और खस्ता पैटीज खाने का शालीन ढंग अभी चलन में नहीं आया था इसलिए शरीफों और पैटीज की चर्चा हमने जानबूझ कर नहीं की और हाँ एक तरबूज भी था। बहुत मीठा तो नहीं मगर खालिस। खालिस से हमारा अभिप्राय यह कि उस काल में कराची के तरबूज गुलाबी रंग और सैक्रीन के इंजेक्शनों के आदी नहीं हुए थे और तरबूज की फांकों ने ग्राहकों को रिझाने के लिए लिपस्टिक लगानी नहीं सीखी थी। तरबूज का छिलका अगर गहरा-हरा हो तो सामान्य लोग संतुष्ट हो जाते और अंदर का हाल भाग्य पर छोड़ देते। तरबूज उस काल में ऐसे खरीदा जाता था जैसे आज कल शादी की जाती है-केवल सूरत देख कर मगर साहब अगले वक्तों की बात ही कुछ और होती थी। कच्ची सुराही भी खरीदनी होती तो यही नहीं कि बुजुर्ग सरे-आम टन-टन बजा कर रस्ता चलते हुओं तक की संतुष्टि कर देते थे कि देख लो कहीं से तड़खी हुई या झोझरी नहीं है बल्कि कुम्हार के चाक और कुम्हारी के चाल-चलन पर भी एक निगाह डाल लेते थे।
वो इक निगह जो बजाहिर निगाह से कम है
ये किनारा चला कि नाव चली : आखिरी मेहमान के आने तक आमंत्रितों के आधे श्रेष्ठ हिस्से का मेकअप पसीने से बह कर रूमालों में सुरक्षित होने लगा था।
फिर क्या - क्या रंग बहे इस दम
कुछ ढलक - ढलक कुछ चिपक - चिपक
सब पसीने में नहा चुके तो हमने फैनी पर से कंबल का घूँघट उठाया, जिसकी कानी ओट में वो हमारे आदेश की प्रतीक्षा में खड़ी थी। जैसे ही स्विच ऑन किया, चारों पँखे बड़े जोर से चलने लगे और उसके साथ फैनी भी चलने लगी। कुछ पल तेजी से चक्कर काटने के बाद वो पलक झपकते में धड़धड़ाती हुई एक महिला की कुर्सी के पायों में जा कर ऐसी फिट हुई कि वो वहीं सैंडविच होकर रह गईं। उठ कर झपाक से बरामदे में भी न जा सकीं। वो तो खुदा ने बड़ी खैर की वर्ना अगर पँखे उनके लाल चुने हुए दुपट्टों में उलझ कर जाम न हो जाते तो हमें बड़ी शर्मिंदगी उठानी पड़ती।
शुक्र है दुपट्टे से फैनी को कोई ठीक न हो सकने वाली हानि नहीं पहुँची। दुपट्टे के इस बीच में बिल्कुल उपयुक्त साइज के लाल रिबन बन गए थे। जिससे स्कूल जाने वाली बच्चियों की चोटियाँ चार-पाँच साल तक गूंथी जा सकती थी। फैनी को तो मना कर हम फिर करतब दिखाने के लिए बीच में ले आए मगर वो महिला कंबल का घूँघट काढ़ के ऐसी बैठीं कि फैनी को नाखुन तक न दिखाया।
अब हमें एकाएकी ध्यान आया कि जिस समय ढाका में फैनी के करतब दिखाए गए थे तो अल्लाह उसका भला करे 250 पौंड का नूरूल हसन शेख इस पर जम कर बैठ गया था जैसे सरकस में करतब दिखाने वाली हसीनाएँ घोड़े की पीठ पर दोनों टाँगें एक तरफ करके बैठ जाती हैं। इसलिए इस बार हम इसी आसन से बैठ गए। अब जो बेगम ने स्विच ऑन किया तो फैनी हमें उठाए-उठाए फिरकी की तरह घूमने लगी। एक बच्चा मम्मी की गोद से उतर कर जिद करने लगा मैं भी अंकल के साथ Merry Go पर बैठूँगा। चार पँखों की हार्स-पावर के जोर से फैनी इतनी तेजी से घूम रही थी कि अपना संतुलन बनाए रखने के लिए हमने अपनी टाँगें अंतिम इंच तक फैला दीं और हमारी Revolving लात की मार से बचने के लिए मेहमान और उनकी बेगमें निकटतम कोने में मुँह दे कर खड़े हो गए।
फैनी पर से छलाँग लगा कर हमने स्विच ऑफ किया। अब की बार हमने बेगम को भी फैनी पर बिठा के पँखे आन किए तो क्या मजाल है कि फैनी अपनी जगह से जरा भी हिल जाए। अब जो फैनी जम कर, जी लगा कर चली है तो प्रलय आ गई। चौतरफा झक्कड़ चलने लगे। कमरा वाकई इतना छोटा था कि उसमें इतनी अधिक ऑक्सीजन की समाई भी नहीं थी। ऐसी तूफानी हवाएँ हमने तो जीवन में केवल एक बार देखी थीं, जब चटगाँव में लाल साइक्लोन आया था। ऐसा लगता था कि कमरे की हर वो चीज जिसका भार फैनी और हम मियाँ-बीबी के भार से कम हो, हवा में उड़ रही है। दीवार पर टंगे हुए कैलेंडर के सारे पन्ने एक ही समय में पढ़े जा सकते थे। मर्दों के गाल अपनी ही टाइयों के थप्पड़ खा-खाकर लाल हो गए। सिग्रेटों के जलते सिरे सिग्रेटों से अलग होकर जुगनुओं की तरह उड़ने लगे। जैसे ही फैनी ने अपनी पूरी स्पीड पकड़ी कमरे में नीली-पीली आंधी आ गई। खिड़की दरवाजों के परदे इस तरह लहराने लगे जैसे एयरपोर्ट पर नारंगी रंग की हवा की दिशा बताने वाली बादनुमा सूंड लहराती रहती है। एक महिला की चोटी एरियल की तरह खड़ी हो गई। एक साहब की दाढ़ी में हवा से प्राकृतिक माँग निकल आई। फ्रेंच शिफान और बंबई से स्मगल की हुई बनारसी साड़ियों में कुछ देर तो ठंडे झक्कड़ चलते रहे फिर ऐसी हवा भरी कि भरी की भरी रह गई। औरतें गले-गले तक उन रंगीन बुलबुलों में डूब गईं। कुछ ने पंजों से बार्डर और दाँतों से पल्ला दबाने की कोशिश की तो बनारसी गुब्बारे और फूल गए। एक... पति ने पहले तो अपने हाथों से उन बुलबुलों को आग की तरह बुझाने की कोशिश की और फिर एक ही झपट्टे में दूसरी औरत के सिर से कंबल उतार के अपनी बीबी पर डाल दिया। लेकिन कब तक... ?
जब उठती थीं चोबें तो झुका जाता था खेमा
भरती थी हवा जब तो उड़ा जाता था खेमा
लेकिन शाबास है उस साहसी महिला पर जिसने इस आंधी में कमरे से भागने की कोशिश की। उसकी फूलदार साड़ी का जो हाल हुआ वो देखने योग्य और वर्णन से परे है। आपने आंधी पानी में कभी रंगीन छतरी को एकाएकी ऊपर उलटते देखा है? कमल सा खिल जाता है।
इस घटना को सोलह-सतरह साल होने को आए। घर भी अरसा हुए हमने बदल दिया और अब छत के पँखे प्रयोग करते हैं लेकिन उस बीबी ने फिर कभी हमारी चौखट पे पैर नहीं रखा हालाँकि अब तो वो तंग मोरी का पाजामा पहनने लगी हैं।
इस अफरा-तफरी में हम फैनी डार्लिंग का अंजाम तो बताना ही भूल गए। इस मुँहदिखाई के कुछ हफ्ते बाद हमें ओकाड़ा-मंडी जाना पड़ा। वहाँ गुड़ की एक दुकान का स्टॉक चैक करने पहुँचे तो माल कहीं दिखाई न पड़ा। मालिक दुकान से पूछा, मियाँ साहब! गुड़ कहाँ है? उन्होंने अपने मुँह पर अँगोछा डाला और दोनों हाथों से जोर-जोर से खजूर का पँखा झला तो जिंदा मक्खियों के नीचे से बोरियाँ और भेलियाँ प्रकट हुईं जिनमें मुर्दा मक्खियों को गुड़ में घोटा गया था। मन में आया, आइन्दा स्टॉक चैकिंग में आसानी रहेगी, फैनी इस गरीब को ही क्यों न पहुँचवा दें, लेकिन एक दिन मिस्टर एंडरसन से यूँ ही जिक्र आ गया तो उन्होंने केवल इस कारण गहरा अनुराग दिखाया कि उसके पँखे कभी समुद्री जहाज का हिस्सा रह चुके थे। 'समुद्री-जहाज शाही-सवारी है क्या कहना! और फर्स्ट क्लास में तो ड्रिंक्स इतने कि कोई गधा ही होगा जो ठोस आहार को हाथ लगाए।' दूसरे दिन हमने पँखे निकलवा कर उन्हें भेंट कर दिए और उन्होंने दोबारा उल्टा करके गुस्लखानों में (जहाँ आनंद के कुछ पल बीते थे) एक्जॉस्ट फैंस के तौर पर लगवा दिए। चूँकि उसूलन वो अधीनस्थों से मुफ्त चीजें लेने के विरोधी थे, इसलिए बदले में उन्होंने हमें अपना पासपोर्ट साइज फोटो हस्ताक्षर करके दिया।
कोई कुल्जुम , कोई दरिया कोई कदरा मद्दे
सात आफतों का कमरा : जीनत मेंशन में एक घुटा-घुटा सा अंधेरा केबिन था जिसमें ढंग की एक मेज भी इस स्थिति में समा सकती थी कि कुर्सी का खटराग न हो। इसमें चार आदमियों की कंधे से कंधा जुड़ी हुई बैठक की इस तरह व्यवस्था की गई थी कि दीवार में चीड़ का एक आठ फिट लंबा, डेढ़ फिट चौड़ा तख्ता कीलों से जड़ दिया गया था। जिसे इसलिए काउंटर कहते थे कि डिक्शनरी में इस चीज के लिए अलग से कोई शब्द नहीं था। बैठें तो कंधे से कंधा, जांघ से जांघ बल्कि कलम से कलम छिलता था। जब तक दोनों सिरों के आदमी जोर लगा स्वयं को अपने जुड़वाँ पड़ौसी से अलग न कर लें, बीच वाले उठ भी नहीं सकते थे। सब एक साथ उठते-बैठते थे। बिना नोटिस दाएँ-बाएँ सिर हिला कर लतीफे की दाद देने की अनुमति न थी। सौ साल पुरानी छत पर छिपकली भी जरा बेध्यानी से चलती तो हमारे सिर पर पलस्तर के लेवड़े गिरते। दीवार भुरभुरी और सीली-सीली। कीलें बार-बार उखड़ जाती थीं। अधिकतर समय हम तख़्ते को गोद ही में लिए बैठे रहते। इस ब्लैक-होल में किसी तरफ से रौशनी नहीं आती थी। हवा के झोंके अलबत्ता बाथरूम से गुजर कर बराबर आते थे और हर बार ताजा बदबू लाते। मच्छर-मक्खी यहाँ जिंदा नहीं रह सकते थे। खटमलों की चर्चा हमने जान-बूझ कर नहीं की वो इसलिए कि उनके जो हरावल दस्ते कॉलरों पर रेंगते हुए पकड़े गए, वो स्थानीय न थे। उनके खून के मुआयने से पता चलता था कि उनका संबंध पीरबख्श कॉलोनी, लालू खेत और आर्टिलरी मैदान के निवासियों के ब्लड गुप से है। सबसे दूर के कोने में 15 वाट का एक नंगा ब्लब लटका हुआ था। सब लोग उसे सुतली से खींच कर ऐसे निष्पक्ष बिंदु पर ले आए थे कि सबको बराबर तौर पर धुँधला दिखाई पड़े। यह बैंक का रजिस्टर्ड ऑफिस था। तीनों अफसर अलग-अलग अस्तित्व रखते थे लेकिन एक ही कमीज-पतलून की गागर में बंद थे। बैंक में नौकरी करते हुए हमें मुश्किल से तीन ही साल हुए होंगे कि एंडरसन ने कृपा करके हमें चीफ एकाउन्टेंट बना दिया। सेक्रेट्री और इंस्पेक्टर आफ ब्रांचेज के पदों पर हम पहले ही से नियुक्त थे। हमारी दिन-दुगनी, रात-तिगुनी उन्नति से बैंक को कुल 15 आने की हानि हुई, इसलिए कि तीन रबड़ के स्टैम्प बनवाने में उस जमाने में यही लागत आती थी। जैसा कि हम विस्तार से कह और बयान कर चुके हैं, इस उन्नति से हर चीज में एक आनंददायक बदलाव आ गया, सिवाय वेतन के; वो वही का वही रहा। एंडरसन डिसिप्लिन, दफ्तरी नियम-कानून रखरखाव का इतना पाबंद था कि कभी हमें नाम ले कर नहीं पुकारता था। बल्कि फाइल का विषय देख कर चपरासी को आदेश देता, 'इंस्पेक्टर ऑफ ब्रान्चेज को बुलाओ।' 'एक दम चीफ एकाउन्टेंट को लेकर आना माँगटा' और जिस पद के कारण तलब करता केवल उसी से संबंधित प्रश्न करता। दूसरे पद से संबंधित कुछ पूछना हो तो दो-तीन मिनट का गैप दे कर दुबारा बुलाता। एकबार उसने एक रिपोर्ट-शीट में, जिसे हमने स्वयं बनाकर स्वयं ही चीफ एकाउन्टेंट की हैसियत से हस्ताक्षर किए थे; एक मोटी सी गलती पकड़ी और हमें धमकी दी कि मैं चीफ एकाउन्टेंट के काम के अभी इन्सपेक्टर ऑफ ब्रान्चेज से सरप्राइज चैकिंग करा के परखचे उड़वा दूँगा। कभी शाबासी देनी हो तो यह नहीं कहता था कि मैं तुम्हारे काम से खुश हूँ, बल्कि केवल इतना स्वीकार करता कि जनरल मैनेजर पहली नजर में इन्स्पेक्शन डिपार्टमेंट से असंतुष्ट नहीं है। बातचीत सर्वनाम या उत्तम पुरुष में ही होती थी। हालाँकि चर्चित डिपार्टमेंट हमारे अकेले व्यक्तित्व पर आधारित थे और उनकी अलग दवात तक न थी। वैसे तो घंटी भी न थी लेकिन इसकी कमी हमने कभी महसूस न की। इसलिए कि उसे बजा कर बुलाने के लिए कोई अलग चपरासी न था। एक साझा चपरासी को हम निजी जेब से चार रुपए महीना देते थे। वो हमें सुबह-शाम सलाम करने के अलावा कभी-कभी ऑफिस का काम भी कर देता था।
हमारी मेहनत और रगड़ाई : अंतिम पदोन्नति से पहले हमें याद नहीं कि ढाई-तीन साल तक कभी ग्यारह बजे रात से पहले बैंक से छुट्टी हुई हो। कभी दैवयोग से सात-आठ बजे घर पहुँच जाते तो बेगम परेशान और हम स्कूल से भागे हुए बच्चे की तरह खिसियाने हो जाते। 'खुदा खैर करे! तबियत तो ठीक है', काम कभी इतना अधिक होता कि एक डेढ़ बजे तक खत्म होने की सूरत दिखाई न देती तो नींद उड़ाने की गोली खा लेते थे। हमें इन गोलियों से साजिद साहब ने परिचित कराया था, जो एक फार्वर्डिंग एजेंसी में काम करते थे। दिन भर आया हुआ माल छुड़वाते और रात को यह गोली खा कर जहाजों पर जाने वाला माल लदवाते। एक बार यह हुआ कि बीती रात की जगार से निढाल हो कर हमने शाम ही को यह गोली खा ली। अनुमान के विपरीत काम दस बजे ही निबट गया और घर आ कर हम चारपाई पर सुबह तक आँखें फाड़े मैडिकल साइंस की खोजों पर चिंतन करते रहे। जनरल मैनेजर ने यह फैसला कर लिया था कि जब तक स्टॉक एक्सचेंज में बैंक के शेयरों की कीमत नहीं बढ़ेगी, कर्मचारियों में एक चपरासी की भी बढ़ोत्तरी नहीं होने दी जाएगी। उधर कराची स्टॉक एक्सचेंज हमारी आधी रात की बद्दुआ से डरने वाला नहीं था।
काफी अरसे तक खड़े हो कर ऊँचे काउंटर पर स्वयं का काम किया या औरों का चैक किया। धीरे-धीरे सेहत गिरी तो शाम तक पैरों पर इतनी सूजन आ जाती कि सात बजे के बाद जूते उतारने पड़ते। कुछ महीनों से सीने में भी दाईं तरफ दर्द रहने लगा था, जिसका नोटिस लेना हमने शान के खिलाफ समझा कि दिल तो बाईं तरफ होता है। तकलीफ जब इतनी बढ़ गई कि महसूस होने लगा, चौबीस घंटे कोई बरमे से सीने में छेद कर रहा है जो पीठ के आर-पार हुआ जाता है, तो एक डॉक्टर को दिखाया। उसने नर्मी से कहा कि दायाँ फेफड़ा एफेक्टिड मालूम होता है। पूछा, 'काहे से?' रुखाई से बोला, 'ऑफ कोर्स, टी.बी.'। फौरन एक्स-रे, खून और थूक टेस्ट करवाने और तीन महीने की छुट्टी पर कोयटा या मरी जाने के लिए कहा। डेढ़ साल बाद जब हमारे आर्थिक कष्टों में आराम आया तो एक्सरे करवाया, इससे पुष्टि हुई कि दाएँ फेफड़े पर एक घाव था जो अपने आप भर चुका है।
उस जमाने में इस रूट पर कुल तीन लंगड़ी बसें चलती थीं। एक तो कानी भी थी। वो भी दस बजे बंद हो जाती थीं। दिन भर उनकी बीच सड़क पर यात्रियों के धक्कों और सुझावों से मरम्मत होती और रात को गैस की लालटेन की रौशनी में मालिक स्वयं उनकी आँत, ओझड़ी बाहर निकाल कर मुआयना और प्लास्टिक सर्जरी करता था। दस बजे के बाद रिक्शा, जिसमें साइकिल सवार जुता हुआ होता था, हैक्लो रोड से पीर इलाही बख्श कॉलोनी तक, दस आने से कम में नहीं मिलता था। यारों की जेब में इतने फालतू पैसे होते तो दोपहर का खाना ही न खा लेते या कम से कम सिग्रेट के दो टुकड़े करके तो न पीते। लेकिन जब से एक करोड़पति हृदय-रोगी को सिग्रेट के दो टुकड़े कर के सोने के सिग्रेट होल्डर में उड़स कर पीते देखा तो अपने टोटों के साइज पर ईर्ष्या होने लगी। अक्सर सात मील पैदल घर जाना पड़ता। चाहे रात के तीन बजे जाएँ। आंधी आए... बारिश आए... और चाहे तो बस ही क्यों न आ जाए, हम घर जुरूर जाते थे। हालाँकि बैंक में किस चीज की कमी थी। लाखूखा रुपया, पँखे, कमर सीधी करने के लिए मेजें, सुरक्षा के लिए गार्ड, रात भर काम करने के बाद सुबह मुँह धोने और उसे देखने के लिए वाश बेसिन और शीशा... सब कुछ अल्लाह ने दे रक्खा है, बीबी के सिवा। लेकिन साहिबो! जो सुख छज्जू के चौबारे, ओह ना बलख-बुखारे। घर पहुँचते तो बीबी आँखें मलती हुई उठतीं। तामचीनी के तसले में सुहाता-सुहाता गर्म पानी और दो चमचे नमक डालतीं और हम उस सलोने तसले में साँवले पाँव डाल कर बैठ जाते। किसी ने बताया था कि इससे पैरों की सूजन उतर जाती है। ठीक ही होगा, इसलिए कि सुबह शीशे में चेहरा कॉफी सुता दिखाई पड़ता था। सुबह भी इतनी थकान महसूस होती जैसे शाम हो। मेहनत सी मेहनत! थकन और ऐसी अटूट थकन कि एक-एक पसीने के छेद में उतर जाए और हड्डियों तक को चटखा दे। रुआं-रुआं कराहने लगता। कभी-कभी अनायास जी चाहता, अब के ऐसे सोएँ कि फिर न उठें।
कुछ उढ़ा दीजिए मौला मुझे नींद आती है
फिर खाना गर्म किया जाता और दोनों साथ-साथ खाते। वो एक प्राइवेट स्कूल में पढ़ाने लगी थीं। वेतन दोनों बच्चियों के दूध के डिब्बों के बराबर। अलबत्ता स्कूल के मालिक को तिगुने वेतन की रसीद देनी पड़ती थी। हमारे बीच एक मौन अनुबँध था कि कोई यह नहीं बताएगा आज दिन कैसे कटा। उनके लिए हमारे दिल से दुआएँ निकलती हैं। खुदा उनका सुहाग रहती दुनिया तक बनाए रखे। उन्होंने हमारी आदतें खराब कर दी हैं और हम घर गृहस्थी से इतने बेखबर हैं कि आज भी यह नहीं बात सकते कि हमारे कुर्ते में कितना कपड़ा लगता है? करेला कौन से मौसम में आता है? गोश्त कहाँ से आता है? चेचक का टीका किस उम्र में लगवाया जाता है? एक सेर बिरयानी में कितने सेर नमक पड़ता है?
फिर सुबह छह बजे उठ जाते और सात तक तैयार हो कर पैदल गुरु मंदिर पहुँचते। वहाँ से बस आसानी से मिल जाती थी। अनुभव ने सिद्ध किया था कि ढाई-तीन मील पैदल चलने में, पीर इलाहीबख्श कॉलोनी के बस स्टैण्ड पर धींगामुश्ती करने की तुलना में आधा पसीना भी नहीं आता। साढ़े-आठ तक दफ्तर पहुँच जाते और फिर उस चक्की में पिसते जिसके दो पाटों में आज तक कोई साबुत नहीं बचा।
शाहजहानी छेद : बैंकों में उस समय दीवार की ओर मुँह करके बिठाने की परंपरा थी। इसमें शायद यह लाभ छिपा हुआ था कि ध्यान इधर-उधर नहीं भटकता। आदमी एकाग्रता से घंटों दीवार और काम को घूरता रहता है। अफसर का मुँह भी नहीं देखना पड़ता। खैर हमें इस बैठक से चर्चा के योग्य कठिनाई नहीं हुई, इसलिए कि हम तो यूँ भी सारी उम्र दीवार का लिखा पढ़ते रहे हैं। दाईं ओर एक खिड़की थी जिसमें जंग खाई सलाखों का इस्पाती सेहरा लटक रहा था। यह सड़क की तरफ खुलती थी, लेकिन जनरल मैनेजर बहादुर के हुक्म से हमेशा बंद रहती थी। श्रद्धेय का विचार था कि खिड़की खुलने से बैंक के सिरढके राज अनुपयुक्तों पर खुल जाएँगे। कभी पट खुला रह जाता तो बाकायदा इन्क्वायरी होती-
किसने खोला ? कब खुला ? क्यों कर खुला ?
शाम को श्रद्धेय अक्सर अपने हाथ से कुछ दराजों की तलाशी लेते। जंग और दीमक ने तरस खा कर उस खिड़की में एक उपखिड़की बना दी थी जिसमें से चाय का कप और सिर आसानी से निकल सकता था। उसके सामने की एक सलाख किसी उद्दंड ने निकाल दी थी। जी घबराता हो तो हम उस छेद में से बारी-बारी सड़क की सैर देखते। यह शाहजहानी छेद कहलाता था। जनश्रुति है कि शाहजहाँ जब किला आगरा में कैद हुआ तो कैदखाने की दीवार में लगे हुए एक नगीने पर से नजरें नहीं हटाता था कि उसमें उसकी चहेती के मकबरे की पूरी आकृति दिखाई पड़ती थी। हमें सर्दी, गर्मी, फुहार पड़ने, धूप ढलने और चाँदनी फैलने का अनुमान इसी छेद से लगता था। वरना अंदर तो हमेशा झुटपुटे का दृश्य रहता था। सूरज ढलने के बाद इसे झाड़न से ढक दिया जाता था। इसलिए कि सुनसान सड़क और घुप्प अंधेरा देख कर दिल बैठने लगता था।
कुछ दिन से हम देख रहे थे कि एक सफेद बिल्ली शाहजहानी छेद के नीचे फुटपाथ पर अपने बच्चों समेत आ कर बैठ जाती है। एक दिन उसने बहुत मियाऊं-मियाऊं की तो हमने फुटपाथ पर बैठे मलबारी चाय वाले को इकन्नी फेक कर उसे दूध पिलवा दिया। इसके बाद यह दैनंदिन का क्रम हो गया कि वो शाम पड़ते ही वहाँ आ जाती और हम उसका अधिकार उसे दे देते। उसके बच्चों की बढ़वार देख कर जी खुश होता। कभी हम वहाँ न होते या उसकी पुकार पर ध्यान न देते तो वो जंगले पर चढ़ कर छेद से झाँकती। उसकी नीली आँखों से बड़ी बेबसी झलकती थी। दूध पी-पिला कर कुछ देर अपने बच्चों से हमारा जी बहलाती, फिर उठ कर चली जाती और दूसरे दिन छह बजे से पहले दिखाई न पड़ती। घर पर बच्चे रोज पूछते कि वो बच्चे आज कितने बड़े हुए। अगर हमें रविवार को बैंक न आना होता तो सनीचर की शाम को उसके दूध की इकन्नी चाय वाले को एडवान्स दे देते। कुछ दिन में तीसरे पहर से ही हमें उसका इंतजार रहने लगा। पालतू जानवर की चुप-दुसराथ और उसका प्यार कितना भरपूर होता है इसका अनुमान तभी लगता है जब आदमी दुखी हो या अकेला। उसके भी चार बच्चे थे।
सीमेंट का बम : बारिश के दिन थे। झड़ लग रही थी। ऐसी बारिश और ऐसी छत कराची में फिर कभी नहीं देखी। लगता था आसमान का पेंदा छलनी हो गया है। मकान की छत भी छलनी हो रही थी और कमरे के एक कोने से दूसरे कोने तक जाने के लिए छतरी लगानी पड़ती थी। कोई जगह ऐसी न बची जहाँ आदमी मौसम से बेखबर हो कर सो सके। इसके बावजूद हमने उस बेचैनी और फुर्ती का प्रदर्शन नहीं किया जिसका 'नजीर अकबराबादी' मजाक उड़ा गए हैं।
मुद्दत से हो रहा है जिनका मकां पुराना
उठ के हैं उनको मींह में हर आन छत पे आना
छत पर जाने से एक तो पड़ोसनें मच्छरदानी ओढ़ लेती थीं और उनके मर्द मच्छरदानी के बाँस ले कर बाहर निकल आते थे। दूसरे कोई जीना सिरे से बनाया ही नहीं गया था, इसलिए कि छत को अपने ही बोझ की सहार नहीं थी। दूसरे कमरे की छलनी के छेद इतने बड़े थे कि उसका परनाला ही सूख गया था।
एक रात ऐसी बीती कि छत रात भर रोती रही उसकी देखा-देखी बच्चे भी और उन्हें देख कर हमारी आँख भी भर आई। इन सब को रोने से बचाने के लिए हमने दूसरे दिन लंच के समय में आठ पौंड सीमेंट खरीदा और शाम को उसे लिफाफे में डाल कर, बौछार से बचाते-छिपाते बस स्टैंड की तरफ चले। इतने में एक गजों लंबी कार दाईं तरफ से हमारे आधे शरीर और लिफाफे पर बरसाती पानी की कीचड़ का स्प्रे पेंट करती हुई जूँऽऽऽ से गुजर गई। कुछ देर बार एक और कार आती दिखाई दी तो हमने दूसरा गाल भी पेश कर दिया, ताकि हमारे कपड़ों का बायाँ हिस्सा भी दाएँ के रंग का हो जाए। अंत में 19 नंबर की बस भी आ ही गई। कीचड़ में लथपथ होने का लाभ यह हुआ कि जीवन में पहली बार कुश्ती लड़े बिना बस पर चढ़ने में सफल हो गए। किसी ने फाउल नहीं मारा। किसी ने कमर में हाथ डाल कर पीछे नहीं खींचा। हम सीट पर बैठने ही वाले थे कि एक साहब जो हमारे बाद चढ़े थे, अपने ब्रीफकेस के बम्पर से हमें धकेल कर हमारी सीट पर बैठ गए। उन्होंने सफेद शार्क स्किन का सूट पहन रखा था जो तर-ब-तर था मगर बेदाग। हम उनके पहलू में छत का डंडा पकड़ कर बस के झटकों के साथ झूलने लगे। उनकी निगाहें हमें झिड़कती, परे हटने की हिदायत करती रहीं। बस बड़ी तेजी से कीचड़ उछालती जा रही थी और हम गीले लिफाफे को सीने से लगाए झूम रहे थे कि एक बुढ़िया ने अचानक सड़क पार करने की कोशिश की और बस दो जबरदस्त झटकों के साथ रुकी। खड़े हुए यात्रियों की लाइन में हर सिर पहले पीछे फिर आगे वाले सिर से टकराया। चोटिलों ने एक दूसरे को 'जरा होश करके खड़े हो' की चेतावनी दी। हमने लिफाफे को गिरने से रोकने के लिए उसमें मजबूती से उँगलियाँ गड़ा दीं। अचानक भीगा हुआ लिफाफा फटा और सीमेंट का परनाला शार्क स्किन के सूट पर धुआँधार गिरा। कुछ देर तक तो हमारे अतिरिक्त किसी की समझ में न आया कि सीमेंट का बम क्यों और कैसे फटा। लेकिन जब हवा में उड़ते हुए गुबार का अंतिम कण तक शार्क स्किन के सूट पर जम गया और हमारे हाथ में खाली लिफाफा रह गया तो दो साल का बच्चा भी बता सकता था कि क्या हुआ। दो साल की कैद हमने इसलिए लगाई है कि इससे कम उम्र का बच्चा सिचुएशन को समझ सकता है मगर शब्दों में व्यक्त नहीं कर सकता। बच्चे बोलने से पहले हँसना सीखते हैं। जैसे ही इन साहब पर इस दुर्घटना की गहराई और लंबाई-चौड़ाई प्रकट हुई उन्होंने रूमाल से अपने सूट को रगड़-रगड़ कर साफ करने की कोशिश की। लेकिन गीले सूट पर बढ़िया क्वालिटी का सीमेंट इल्जाम की तरह ऐसा चिपका कि -
फैलता है इस कदर जितना कि रगड़ा जाए है
उसने उस स्थिति में उर्दू, अंग्रेजी में जो कहा, खुदा उसे माफ करे, हमने तो उसी समय माफ कर दिया था। छापने योग्य वाक्य यही था कि परसों ही दरजी को 75 रुपए नक्द सिलाई दी थी। बस और उसकी जबान चलती रही। थोड़ी देर बाद अंतिम सीट से एक साहब ने ठेठ करखंदारी लहजे में हिदायत दी 'भाई जान! फौरन से पेश्तर नलके के नीचे नहा लो। झट देनी सीमेंट जम गया तो फट देनी मलिका टूरिया (क्वीन विक्टोरिया) की मूरत बन जाओगे। मुहल्ले के लौंडे लू-लू बना देंगे। बीबी साहब भी नहीं पछान पावेंगी। सीमेंटमय साहब ने मुँह से तो कुछ नहीं कहा लेकिन पहले ही परनाले पर बस से उतर गए।
चार-पाँच दिन बाद हम फिर उस बस में चढ़ने लगे तो हमारे आगे-आगे चार्टेड बैंक के मैनेजर की सेक्रेट्री-38-24-38-थी। कंडक्टर ने हमें आँख मार के सिक्कों का थैला बजाते हुए हाँक लगाई। 'बाबूजी! जरा संभल के। आगे-पीछे के बम्पर से होशियार! हाँ जी मैक्लो रोड, पोस्ट ऑफिस, सदर, गुरु मंदिर, जमशेद रोड, बड़ा घर (जेल) कॉलोनी। मेहरबान, कद्रदान बस में छुरी, चक्कू, चरस, गांजा और सीमेंट ले जाने की इजाजत नहीं है'
कराची की बरसात : पाँच-छह साल बाद ऐसी भर के बरसात होती है जो कराची के इतिहास और कीच़ड का हिस्सा बन जाती है। जीवन की सारी व्यवस्था ध्वस्त हो जाती है। इसे ढर्रे पर लाने में पाँच-छह साल लगते हैं। झुग्गी वासियों के लिए यह संकट, दैवीय प्रकोप का दरजा रखता है। देखा जाए तो गालिब भी बारिश को इसलिए नहीं पसंद करते थे कि जल स्तर बढ़ता है, खेती-बाड़ी को लाभ होता है बल्कि -
खुशी है ये आने की बरसात की
पिएँ बादा - ए - नाब और आम खाएँ
मौसम विभाग बारिश का वार्षिक औसत चार इंच बताता है। मगर यह ऐसा ही है जैसे हमारे वेतन, आदम जी सहगल और दाऊद सेठ की आमदनी को जोड़ कर हमारा औसत छह करोड़ निकाला जाए और उस पर हमसे इन्कम-टैक्स माँगा जाए। फिर घर के सामने कुर्की का ढोल बजा कर हमारी रचनाओं की अनबिकी कापियाँ, दवाएँ और टाइयाँ नीलाम कर दी जाएँ।
'बुलबुल के आँसुओं' का मुहावरा तो फिर भी गनीमत है, कराची में तो बारिश इस तरह होती है जैसे कोई मगरमच्छ आँसू बहा रहा हो। कराची के पुराने मकानों की छतों पर अक्सर आपको परनाले और मोरियाँ दिखाई नहीं पड़ेंगी। बहुत सी सड़कों पर बरसाती पानी बल्कि ट्रैफिक के निकास की भी कोई व्यवस्था नहीं मिलेगी। कराची को संसार के सारे नगरों के मुकाबले यह अनूठापन प्राप्त है कि यहाँ कभी छतरियाँ और बरसातियाँ नहीं दिखाई पड़तीं। भूले से किसी प्रोग्राम डायरेक्टर की खिड़की खुल जाए तो रेडियो स्टेशन सावन के गीत प्रसारित करने शुरू कर देता है। कराची के आसमान पर सावन-भादों में गहरे बादल और मौसम विभाग की भविष्यवाणियों की धुँध छाई रहती है।
सूखती फस्लों ने देखे हैं वो काले बादल
जो कहीं और बरसने को इधर से गुजरे
जब नदियों में बाढ़ आती है और पंजाब के लगभग सारे क्षेत्र पानी से तृप्त हो जाते हैं तो कराची के होटलों और बोतलों में से कई हजार क्यूसेक प्रति घंटा बादा-ए-नाब (शराब) की निकासी होने लगती है। गालिब होते तो यह हाल देख कर कितने खुश होते। कलकत्ते और उसके 'वो बादा हाय नाब गवारा कि हाय-हाय' को भूल जाते।
लेकिन इस साल सारे रिकार्ड टूट गए। बारिश और ऐसी बारिश हमने सिर्फ मसूरी में अपनी शादी के दिन देखी थी। दुल्हन वाले पुलावों की देग़ों में बैठ कर आ जा रहे थे। स्वयं हमें एक परात पर बिठा कर काजी के सामने पेश किया गया। फिर न हमने ऐसी हरकत की और न बादल ऐसा टूट कर बरसा। अजब दृश्य था, जिधर देखो पानी ही पानी। उस दिन हमें दुल्हन की आँख के अतिरिक्त कोई चीज सूखी न दिखाई पड़ी। हमने टूहका दिया कि विदा के समय दुल्हन का रोना परंपराओं में आता है। उन्होंने पलकें टपटपाईं मगर एक आँसू न निकला। फिर कार में सवार कराते समय हमने सेहरा चेहरे से हटाया। खूब फूट-फूट कर रोईं।
ऐसी ही बारिश उन दिनों कराची में हो रही थी। प्रोफेसर काजी अब्दुल कुद्दूस ने किसी से सुना था कि पिंडी में तो मुक्के के बराबर ओले पड़े हैं। ऐसा मूसलाधार बरसा कि हर तरफ जल-थल हो गया। सड़कें नदियों की तरह बह रही थीं। मैक्लो रोड पर चार्टेड बैंक के सामने ईरानी खानदान के एक बुजुर्ग की कार डुबकियाँ लगा रही थी और वो उसकी छत पर बैठे कराची म्यूनिस्पिल कार्पोरेशन को पुरानी फारसी में गालियाँ दे रहे थे। स्टाफ को साढ़े तीन बजे ही छुट्ठी दे दी गई थी और हम भी छह बजे तक ही उठने का इरादा रखते थे। तय समय से काफी पहले मोती (बिल्ली का नाम) आई, हमने जेब में हाथ डाला तो केवल तीन आने। अब उसे और उसके टब्बर को तीन आने का दूध पिलवा देते तो बस के टिकिट के पैसे न रहते। वो खिड़की के नीचे भीगती रही, रोती रही। हमने परवाह नहीं की। फिर उसने पंजों से खुर-खुर की और बार-बार छेद से झाँकने लगी तो हमने उसे झाड़न से ढक दिया ताकि एकाग्रता से काम समेट सकें। कुछ देर बाद वो अपनी भूख की तलाश में कहीं और निकल गई। बारिश थोड़ी थमी। हम उठने की तैयारी कर रहे थे कि चाय वाला, जिसने अपनी दुकान एक दरवाजे की आड़ में शिफ्ट कर ली थी, खिड़की खटखटाने लगा। हमने पूछा, 'क्या बात है?' कहने लगा, 'बाबूजी तुम्हारी बिल्ली रैली ब्रदर्स के ट्रक के नीचे आ कर मर गई। ये लो इसके बच्चे बिलख रहे हैं।' ये खून हमारी गर्दन पर था। अगर हम आज भी पैदल चले जाते तो कौन सी प्रलय आ जाती, चारों बच्चे बारिश में शराबोर थर-थर काँप रहे थे। हमने सबसे छोटे को मेज पर बिठा कर डस्टर से सुखाया तो उसकी आँखों की तरफ न देखा गया, बिल्कुल माँ जैसी थीं। बारिश फिर तेज हो गई और हमने खिड़की खोलकर तीन आने बहते नाले में फेंक दिए। उन्हीं के कारण वो अपनी जान से गई। हफ़्तों उसकी उदास नीली-नीली आँखें उस छेद से झाँकती दिखाई दीं। अंत में हमने तंग आ कर उस छेद पर बादामी कागज चिपका दिया।
बोल मेरी मछली कितना पानी : चाचा फजलदीन (चौकीदार) सुबह हमारे लिए फिर सीमेंट खरीद लाया था और इस गारंटी के साथ कि इस बार लिफाफा सीमेंट से अधिक मजबूत है। उसने कहीं से टोकरी भी ढूंढी जिसमें लिफाफा और मोती के चारों बच्चे रखकर हम बरसते मेंह में पैदल रवाना हुए। वो तीन आने हमारे पास होते भी तो कुछ काम न आते, इसलिए कि बसें चलनी कभी की बंद हो चुकी थीं। पानी की चादर चल रही थीं। पहले तो कुछ समझ में न आया कि सड़क कहाँ है। लेकिन सात-आठ डुबकियों के बाद आसान पहचान हाथ में आ गई। जहाँ-जहाँ पानी अधिक गहरा और गड्ढे थे, वहीं सड़क थी। बंदर-रोड बाढ़ पर आई हुई थी और हम उसकी लह्रों और कूड़े के थपेड़ों से बचते-बचाते गलियों-गलियों जा रहे थे। लाइट-हाउस सिनेमा के पास कमर-कमर पानी था, बशर्ते कि कमर वाले की लंबाई साढ़े छह फिट हो। लेकिन गली बहुत बेहतर थी। वहाँ सिर्फ कीचड़ थी, इसलिए हम उधर हो लिए। अभी कुछ डग ही भरे होंगे कि लगा कि किसी ने सिर पर मशक छोड़ दी। लेकिन मशक में से दिल्ली की निहारी का धोवन तो नहीं निकलता। वो तो खुदा ने खैर की कि सिर पर पहले तरबूज का हैलमेट आ कर फिट हो गया वरना फजरी आम की एक सेर वज्नी गुठली से सिर टुकड़े-टुकड़े हो जाता। गर्दन उठा कर देखा तो एक लड़की बाल्टी उल्टे, चौथी मंजिल की बालकनी में खड़ी खिलखिला रही थी। कहीं से आवाज आई '...हरा समंदर, बोल मेरी मछली कितना पानी' इसके बाद हमने बंदर-रोड पर डूबने को गलियों में नहारी में नहाने और फिसलने पर प्रधानता दी। लेकिन इससे ये न समझा जाए कि हमें फिसलने से खुदा न करे कोई विरोध है। नजीर अकबराबादी की तरह, हम तो कीचड़ न हो तब भी फिसलने के लिए जी-जान से तैयार हैं।
कीचड़ से हर मकां की तो बचता बहुत फिरा
पर जब दिखाई दी खुले बादलों की इक घटा
बिजली भी चमकी हुस्न की मेंह नाज का बरसा
फिसलन जब ऐसी आई तो फिर कुछ न बस चला
आखिर को वां ' नजीर ' भी आ कर फिसला
जूतों का इकलौता जोड़ा पानी में भीग कर मखमल की तरह मुलायम हो गया था। उसे और अधिक मखमली होने से बचाने के लिए हमने टोकरी में रख लिया। पानी में न केवल आनंद आया बल्कि उसकी उँगली पकड़े-पकड़े, बचपन भी लौट आया। हमें उन पर बड़ा तरस आता है जो बचपन में कभी नंगे पैर नहीं फिरे और न बारिश में नहाए। उन्होंने अपना बचपन गंवाया। वो क्या जानें कि जब बादलों के झमाझम तीर गर्मीदानों से भरे हुए बदन को बाढ़ पर रख लेते हैं तो कैसी गुदगुदी होती है और धरती का हर कदम पर बदलता हुआ स्वभाव और कोर पिंडा, उसकी नर्मी, गर्मी और कंटीलापन क्या चीज होती है। धरती अपना आपा और भेद जूते के तले को नहीं दिखाया करती।
जहाँ कतरे को तरसाया गया हूँ : रास्ते भर गहरी चिंता और पानी में डूबे रहे कि सुबह तक जूते कैसे सूखेंगे? 'उजले कपड़े लांड्री रजिस्टर्ड' भी बारिश के कारण दो दिन से बंद थी। बारिश से पहले उसके कर्मचारी शहर के धोबी घाट पर गंदे नाले में अर्जेंट धुलाई करते थे। बारिश के बाद यह सुविधा गली-गली उपलब्ध होगी। यह लांड्री कमखर्च यानी ढाई आने में दिन के दिन कमीज धो देती थी। जबकि शहर की और लांड्रियां उस जमाने में कमीज की अर्जेंट फड़वाई के छह आने लेती थीं। हम सोचने लगे कि घर में इतना पानी कहाँ कि कपड़े धो कर सुबह कोयले की प्रेस से सुखा लें। चर्चा के अंतिम छोर को बरसात में धूप के कर्तव्य भी निभाने पड़ते थे। घर में कोई मजबूत अलगनी भी नहीं थी जिस पर स्वयं को लटका कर कपड़े पहने-पहने सुखा लेते। कॉलोनी में नलके नहीं थे। मगर यह 'अकबर इलाहाबादी' का जमाना नहीं था कि नलके लगने को सामाजिक विपत्ति समझ कर सम्राट एडवर्ड की दुहाई दी जाए कि क्या जमाना आ लगा है -
पानी पीना पड़ा है पाइप का
हर्फ पढ़ना पड़ा है टाइप का
अल्लाह के करम से म्यूनिसिपल कॉर्पोरेशन ने हमें पहली दुर्घटना से मशक के द्वारा बचाए रखा। कॉलोनी की कोऑपरेटिव सोसायटी टैंकों के द्वारा पानी तो क्या बाँटती बूंद-बूंद को तरसाती थी। हमें तीन मशक दैनिक के कूपन मिलते थे। जान पड़ता था कि यह मशकें विशेष रूप से बकरी के समय से पहले पैदा होने वाले बच्चों की खाल से बनवाई गई थीं। इन तीन मशकों में भी भिश्ती अपनी क्षमता भर फूँक भर देते थे। रबर की खोज से पहले ऐसी मशकें तैरने के लिए प्रयोग होती थी। कभी धौंस-धपट या रोया-पीटी या आठ-दस आने की भेंट से एक मशक अतिरिक्त मिल जाती तो ईद बल्कि होली हो जाती। तीन दिन से सड़कें कट जाने के कारण टंकियाँ नहीं आई थी और पानी पीने का भी सब्र करना पड़ रहा था। घर के सामने वाली सड़क के नाले की सही गहराई अंतिम दशमलव तक तो हम नहीं बता सकते। इतना जुरूर ध्यान है कि एक लह्र हमारा चश्मा बहा कर ले गई और हम अब इस काबिल भी न रहे कि डुबकी खाए बिना पानी और सूखे में अंतर कर सकें। गली के नुक्कड़ पर शेख रहीम बख्श, मालिक रहीम बस सर्विस ने तरस खा कर एक पुराना ट्यूब दिया जिसे कमर में बाँध कर हमने चढ़ती नदी पार की। कॉलोनी के सारे मकान एक दूसरे की नक्ल थे और बिना चश्मे के तो हर मकान अपना लगता था। नतीजा यह कि तीन-चार जगह मुहल्ले वालों ने पान की एक-एक गिलौरी खिला कर वापस पानी में छोड़ दिया। जगह-बेजगह लंगर डालने के बाद घर आया तो देखा कि बरामदे और कमरे में नाले का पानी ठाठें मार रहा है। जिन नालियों का काम घर का गंदा पानी बाहर निकालना था, वो अब बिल्कुल उल्टा काम करने में लगी हुई थीं। यानी बाहर का गंदा पानी इनके माध्यम से भल-भल अंदर घुस रहा था। पानी के ऊपर जगह-जगह रुई के गाले तैर रहे थे। हुआ यह कि एक दिन हमने अपनी औलाद को समझाया कि शरीफों के बच्चे गिलासों और चप्पलों से नहीं लड़ा करते। खुदा उनकी उम्र लंबी करे। उन आज्ञाकारियों ने ऐसी गाँठ बाँधी कि फिर तकिए से अधिक कठोर चीज इस्तमाल नहीं की। एक चारपाई पर दोनों बच्चियां अपनी गुड़ियों पर छतरी लगाए सहमी बैठी थीं। छोटी के मुँह पर अभी तक दूध की मूँछें बनी हुई थीं। दूसरी चारपाई किताबों के मचान तले बिछी थी। जो कबाड़ी से खरीदे हुए 'सिबगे एंड संस पुस्तक विक्रेता एवम् पब्लिशर्स' के साइन बोर्ड को दीवार पर रेलवे के ऊपरी बर्थ की तरह लटका कर बनाया गया था। इस पर फकीर की सारी पूंजी-किताबें-तीन लाइनों में सजी हुई थीं और उनके ऊपर अन्य अनुपयोगी वस्तुऐं। इस फाल्स सीलिंग के नीचे चारपाई पर दोनों बेटे शर्मिंदा बैठे थे। बड़े ने सोते में निकर से बाथरूम का काम लिया था और अब अग्रिम बचाव कर रहा था कि देखिए अम्मी! मेरी निकर में आपके गुड्डू ने पेशाब कर दिया है। आश्चर्य इस पर था कि गुड्डू मियाँ सुबकियाँ ले ले कर विश्वास दिला रहे थे कि अम्मी अब नहीं करूँगा। लालटेन एक कोने में लटकी हुई, एक काली जबान बन गई थी। टूटे हुए ग्लोब पर जो कागज आटे से चिपकाया गया था वो आधा जल चुका था। उसकी आँख मरती हुई रौशनी में हमारे बच्चों ने बिल्ली के बच्चों को देखा और दोनों के बच्चे एक दूसरे को देख कर बहुत खुश हुए।
आज हमने अपना चेहरा देखा : बेगम बहुत प्रसन्न दिखाई दे रही थीं। कुछ देर बाद हमें कच्चे आँगन में ले गईं और कहा 'देखो आज मैंने दो टंकियाँ' पानी से भर ली हैं। बिल्कुल मोती की तरह, ढेरों कपड़े घुल जाएँगे।' तीन दिन से पानी बिल्कुल बंद था और लोग बूंद-बूंद को तरस गए थे। यह दो टंकियाँ उन्होंने बरामदे के परनाले के नीचे रख कर पानी से भरी थीं। उन्हें देख-देख कर बीबी इतनी प्रसन्न हो रही थीं, जैसे कोई खजाना मिल गया हो। यह दिखाने के लिए कि दोनों लबालब भरी हैं, उन्होंने लालटेन अपने चेहरे तक उठाई तो माँग में एक सफेद बाल दिखाई दिया जो इससे पहले हमने कभी नहीं देखा था। पानी ओले की तरह ठन्डा-ठार और मोती की तरह झिलमिल-झिलमिल कर रहा था। हमें उसमें अपना चेहरा दिखाई दिया।
कंगाली में जूता गीला : घर का सारा संसार चारपाई पर सुरक्षित कर लिया गया था। बच्चे एल्यूमीनियम की पतीली को तैरता देख कर खुशी से तालियाँ बजाने लगे। मिट्टी के चूल्हे से पानी उबल रहा था। देखा कि आज पैरों में सूजन नहीं है। इतनी देर ठंडे पानी में रहने से तलवे इतने गोरे हो गए कि हमें शक होने लगा कि किसी और के तो नहीं आ गए। सिलवटें पड़ने से गुड्डू मियाँ के अनुसार क्रेप सोल बन गए थे। थोड़ी देर में नाला उतर गया और सारे घर में उजली-उजली मुलायम मिट्टी की भारी तह छोड़ गया। बच्चे अपने पैरों के नन्हे-मुन्ने निशान देखने के लिए उस पर खूब चले। बिल्कुल ऐसे ही निशान पलंग की चादर पर भी थे मगर वो अधिक स्पष्ट और देर तक टिकने वाले थे। सोने से पहले हमने दोनों जूतों को फीते से बाँध कर लालटेन की गर्दन में हार की तरह लटका दिया ताकि सुबह तक सूख जाएँ।
सुबह साढ़े चार बजे बिजली के कड़कने से आँख खुली तो कमरे में चमड़ा जलने की चिरांद फैली हुई थी। उठ कर देखा तो मालूम हुआ कि जो जूता ग्लोब के टूटे हुए हिस्से पर था, उसकी ऐड़ी के ऊपर का पुश्ता जल कर अब पेशावरी चप्पल बन गया है। हम लालटेन और जूता बुझा कर ऐसे सोये कि सुबह के पौने सात बजे आँख खुली। उस समय तक बीबी हमारे कपड़ों पर इस्त्री करके अपने स्कूल पढ़ाने जा चुकी थीं। कपड़ों पर एक पर्चा रखा मिला जिस पर लिखा था कि रात में तुम्हें बता न सकी। डॉक्टर ने मुझे पीलिया बताया है। बेकार में ढेर सारी दवाएँ और इंजेक्शन लिख मारे हैं। मैं वापसी में पाकिस्तान चौक के होम्योपैथ डॉक्टर से दवा लेती आऊँगी। सफेद रंग तुम्हारा फैवरेट रंग भी तो है।
चोट की यात्रा : जूता ऐसी चीज नहीं कि जेवर की तरह माँग-ताँग कर पहन लिया जाए। इसके सिवाय कोई उपाय न सूझा कि चप्पल पहन कर बैंक जाएँ और तीन दिन बाद वेतन मिले तो नया जूता खरीद लें। फिर ध्यान आया कि अगर एंडरसन पूछ बैठा कि आज इंस्पैक्शन डिपार्टमेंट चप्पल पहने क्यों फिर रहा है तो क्या उत्तर देंगे। एक बार एक अफसर बैंक में बिना टाई के आ गया तो एंडरसन ने उससे पूछा 'आज क्या बैंक हॉलीडे है जो यूँ नंग-धड़ंग फिर रहे हो।' इसी तरह एक क्लर्क का तीन दिन का बढ़ा हुआ शेव देख कर दुअन्नी पकड़ाते हुए कहने लगा कि अपना केमोफ्लाज मुंडवा कर आओ ताकि चेहरा पहचान करके रजिस्टर में उपस्थिति लगाई जा सके।
दिमाग पर जोर डाला तो इसका हल भी निकल आया। चप्पल पहन कर एक पैर पर पट्टी बाँध लेंगे। किसी ने पूछा तो कह देंगे कि चोट लग गई है और ये कुछ ऐसा झूठ भी नहीं, आखिर आँतरिक चोट तो आई ही थी जिसके बारे में नूह नारवी सादा-बयानी कर गए हैं-
जिगर की चोट ऊपर से कहीं मालूम होती है
जिगर की चोट ऊपर से नहीं मालूम होती है
एक मूढ़े पर नीले रंग का झाड़न पड़ा दिखाई दिया। उसमें से एक लंबी सी धज्जी फाड़ कर पट्टी बाँध ली। तीसरे पहर एंडरसन की नजर पड़ी तो कहने लगा। 'चोट पर कभी रंगीन पट्टी नहीं बाँधनी चाहिए, पक जाती है। विशेषकर बरसात में।'
दूसरे दिन सुबह काम पर जाने के लिए तैय्यार होने लगे तो बेगम दुपट्टा ओढ़ते हुए कहने लगीं कि तुम्हारे इन लाड़लों ने नाक में दम कर दिया है और कुछ नहीं तो कमबख्त आधा दुपट्टा ही फाड़ कर ले गए। उनका दायाँ कान एक खोंते में से बाहर निकला हुआ था। हमने पट्टी तुरंत वापिस कर दी और जल्दी-जल्दी एक फटे पाजामे के लट्ठे की सफेद पट्टी बाँध कर बैंक चले गए। ग्यारह बजे किसी काम से एंडरसन ने बुलवाया। वापस आने लगे तो चश्मे को नाक की फुंगी पर रख कर उसके ऊपर से देखते हुए बोला 'just a minit तैमूर लंग। तुम्हारी चोट ने 24 घंटे में काफी यात्रा की है। दाएँ से बाएँ पैर में शिफ्ट हो गई है।'
अब जो हमने देखा तो धक से रह गए। जल्दी के कारण आज दूसरे पैर में पट्टी बाँध कर आ गए थे।
जाना हमारा काकटेल पार्टी में , डी . जे . और अँगरखा : तुम्हारे पास डी.जे. है, मिस्टर एंडरसन ने पूछा 'यह क्या होती है?'
'डिनर जैकेट। ब्लैक टाई'
'वही जिसका कॉलर काली साटन का होता है और पतलून पर बैंड बजाने वालों की सी रेशमी पट्टी लगी होती है?'
'सिलवा तो लो। बैंक से डिसमिस होने के बाद बैंक के व्यवस्थापकों की तरफ से बैंड बजाने पर कोई रोक नहीं। तुमने सुना होगा डिनर जैकेट पहन कर तो बैंकर की भी शरीफ लोगों की सी सूरत निकल आती है।'
'सर! मैं डिनर जैकेट पहन कर कहाँ जाऊँगा? उर्दू में मुहावरा है कि जंगल में मोर नाचा किसने देखा।'
'How Stupid' 'जानना चाहिए कि मोर तो सिर्फ अपनी मादा को दिखाने के लिए नाचता है। उसे आदमियों से क्या लगाव हो सकता है? प्रमोशन के बाद तुम बोट क्लब या सिंध क्लब के मैम्बर नहीं बने? क्या सारा वेतन दाल-रोटी पर ही बरबाद कर देते हो? अब तो गैर योरोपियन भी मैम्बर हो सकते हैं।'
'मैं बस से आता-जाता हूँ। पीर इलाही बख्श कॉलोनी के बस स्टॉप के भीड़-भड़क्के, कुश्तम-पछाड़ से दिल डरता है। दो-ढाई मील चल कर गुरु मंदिर से बस पकड़ता हूँ ताकि आफिस बिना कमीज के न पहुँचूँ।'
'बैंक के जनरल मैनेजर को इससे कुछ लेना-देना नहीं कि तुम अपने अर्ध-सहमत अस्तित्व को ड्राइंग रूम से बैंक में किस तरह ढो कर लाते हो।'
'बाई दि वे, मेरे क्वार्टर में कोई ड्राइंग रूम नहीं। हमारे हिस्से में एक कमरा आया है। जिसमें कोई कालीन भी नहीं, 'wall to wall' बच्चे बिछे रहते हैं'
'मैं तुम्हारे अभावों के चित्रण की शैली से बेहद प्रभावित हुआ। लेकिन याद रहे पश्चिम में निजी कठिनाइयों का 'स्ट्रिप टीज' अशिष्टता समझा जाता है, अच्छा तो 27 तारीख को मेरे साथ कॉकटेल में चलना। फिर तुम्हें 'caledonian society' के 'anual ball' में भी ले चलूँगा। स्काट कल्चर और पहनावे देख कर आँखें फटी रह जाएँगी। डिनर जैकेट फौरन बनवा लो। दुख है कि तुम्हारा कोई उपयुक्त फार्मल ड्रैस नहीं। तुम्हारे जितने भी पहनावे हैं सब के सब unscientific।
कैसे? हमने बात को तूल दी कि वो बातें करने के मूड में था।
'अजीब बात है, औरतें तो अपने खूबसूरत चेहरे को नकाब से और साथ में लगे हुए उन्नतिशील सामान को दुपट्टे से ढांक लेती हैं और मर्द? बुरा न मानना मैंने कलकत्ता म्यूजियम में अवध के नवाब की तस्वीर देखी थी। ढाका मलमल के अंगरखे में से एक अदद नवाबी चूची नमूने के लिए बाहर निकाल रखी थी, दूसरी भी वैसी होगी। Very unscientific, अपने कपड़ों पर ध्यान तो करो। 116 डिग्री टैम्परेचर में सिर पर बीस गज लंबा साफा और दक्खिन में दस गज घेर की शलवार। मानसून की उमस में अचकन और नाभि से ऐड़ी तक सरकस वालों का सा अन्डर-वियर। क्या कहते हैं उसे?'
'चूड़ीदार पाजामा।'
'All Very unscientific'
'लेकिन योरोपियन कपड़े तो इससे भी अधिक unscientific हैं। योरोप में बर्फ गिर रही हो और टैम्परेचर शून्य से 20 डिग्री कम हो तो हट्टे-कट्टे मर्द तो घुटनों तक दोहरे ऊनी मोजे, leggings और गर्म पतलून पहनते हैं और कोमल औरतों की टाँगें रानों तक खुली रहती हैं।'
'सूदखोर मुल्ला! तुम्हें नंगी टाँगों पर क्या ऐतराज है?'
'सर! मुझे तो बाकी कपड़ों पर ऐतराज है।'
'तुमने मुझे कल बेल्जियम फ्रेंक का भाव गलत बता दिया। भविष्य में ऐसी गलती न हो', उसने इस तरह कहा जैसे वाक्य सुना ही नहीं।
मय से गरज निशात है किस रूसियाह को : ये वो काल था जब ब्रिटिश कंपनियाँ, सेना, आई.सी.एस. और अंग्रेजों के अधीन काम करने वाले देसी अफसर अपने आपको प्रगतिवादी, सोशल और योग्य सिद्ध करने के लिए दिल पर पत्थर रख कर शराब पीना सीखते। कुछ दिन के अभ्यास के बाद ऐसे गति पकड़ते कि न पीने लिए दिल पर पत्थर रखना पड़ता था। रोज कहीं न कहीं कॉकटेल पार्टी होती थी और आदमी थोड़ा सोशल और शालीन हो तो साल के 365 दिन दूसरों के खर्च पर स्वयं को हर शाम उल्लू बनवा सकता था। कॉकटेल पार्टी एक साथ अंग्रेजों से भेंट, मुफ्त की शराब पीने और प्रभावी लोगों तक पहुँच का पासपोर्ट थी। अजीब ऊधम था। कुछ मुसलमान अफसर तो इस आरोप में निकाल दिए जाते कि वो सोशल नहीं यानी शराब नहीं पीते। शेष अफसरों को इस आधार पर निकाल दिया जाता कि वो 'Alcoholic' हो गए हैं और मिक्स पार्टीज में दुंद मचाने लगे हैं। दो चार ही भाग्यशाली ऐसे होते थे जो बर्खास्त होने के अपमान से बच पाते थे। यह वो होते थे जो डिसमिस होने से पहले ही लिवर के सिरोसिस के कारण सम्मानजनक ढंग से प्राण त्याग देते थे। एक कथावाचक के अनुसार पुराने समय में इंग्लैंड के लोग भूत, प्रेतों में बहुत विश्वास करते थे। हर औरत पर चुड़ैल, डायन का संदेह करते। फिर यह जानने के लिए कि वो वास्तविकता में चुड़ैल है या निर्दोष, गाँव के पंच-पटेल उसके हाथ-पाँव रस्सियों से कसते और भारी पत्थरों से बाँध कर निकटतम नदी में फेंक देते। अगर वो डूब जाए तो यह इस बात का सबूत था कि वो चुड़ैल नहीं बिल्कुल मासूम थी और अगर न डूबे तो उसका चुड़ैल होना तय। इस स्थिति में उसे पानी से निकालते। गर्म कपड़े पहनाते, अच्छे-अच्छे खाने खिलाते और फिर आग में जीवित जला देते कि चुड़ैल की उस काल में यही सजा थी। आरोपों का रूप बदलता रहता है मगर समय का दंड विधान आज भी वही है।
बना है शह का मुसाहिब फिरे है इतराता : मिस्टर एंडरसन कुछ दिन से हम पर कृपालु थे। हम उनके विश्वस्त परामर्शदाता थे। मतलब यह कि हर विशेष-विषय पर हमसे परामर्श करते और हमेशा उसके विपरीत काम करके सफल होते। दूसरे दिन उन्होंने फिर याद दिलाई, 27 तारीख न भूलना। ऐसी कॉकटेल पार्टियों के निमंत्रण प्राप्त करना तुम्हारी प्राथमिकताओं में से है। चोटी के अंग्रेजों से मैं स्वयं तुम्हारा परिचय कराऊंगा। इधर कुछ समय से हम स्वयं महसूस कर रहे थे, हालाँकि हमारे वेतन में एक पैसे की भी बढ़ोत्तरी नहीं हुई लेकिन जब से हम चीफ एकाउन्टेंट, सेक्रेट्री और इंस्पेक्टर ऑफ ब्रान्चेज के पदों पर एक ही समय में नियुक्त हुए है, हमारी इमेज में एक सुंदर परिवर्तन आ गया है। हमारा मतलब यह है कि इसी वेतन में अच्छे सिगरेट के दो टुकड़े कर के पीने लगे हैं। डालडा छोड़ कर अब शुद्ध घी के नाम पर धोका खाना शुरू कर दिया है। कपड़ों तथा अन्य वस्तुओं से भी स्तरीयता झलकती थी। यानी टाई की गाँठ फूली हुई होती थी। अब ऐसे मोजे भी नहीं पहनते थे जिनमें ऐसा छेद हो जिनमें से गर्दन निकाल कर अँगूठा आजादी की साँस ले सके।
जिस मुहल्ले में था हमारा घर : चाव में अगले सप्ताह मकान भी बदल लिया। उस मुहल्ले में एक नहीं कई सौदागर रहते थे। इलाके के Posh होने का अनुमान इससे लगा लीजिए कि हमारी छोटी बिटिया पड़ौसी के बच्चों के बारे में हमसे पूछने लगी, 'बाबा ये हर दिन ईद के कपड़े क्यों पहने फिरते हैं।' गुड्डू मियाँ ने पड़ौसी की दीवारों पर सागौन की र्झीहात्त्ग्हु अपने 6 वर्ष के जीवन में पहली बार देखी तो हमसे कहा कि 'उन्होंने दीवारों पर भी फर्नीचर लटका रक्खा है।' कुछ दिन बाद दाएँ हाथ वाली पड़ौसिन ने बताया कि बाएँ हाथ वाली पड़ौसिन कह रही थी कि हम अपने बच्चों को उसके कालीन पर आवश्यक कार्यों से निवृत्त कराने ले जाते हैं। मिलना-विलना तो केवल बहाना है। कोई पूछे, इन्हें इस Locality में आने की क्या मार पड़ी थी, ईरानी कालीन देखे बिना लाड़लों का पेशाब नहीं उतरता। हमारे बाथरूम में अब गर्म और ठंडे पानी की व्यवस्था थी यानी वाश बेसिन की टोंटी से गर्मियों में गर्म और सर्दियों में ठंडा पानी निकलता था। महीने के अंतिम दिनों में कोयले से दाँत नहीं मांजते थे बल्कि ट्यूब पर कूद-कूद कर टूथपेस्ट निकालते थे। संक्षेप में हर चीज से अफसरी शान टपकने लगी, बैंक एकाउंट से भी लाली झलकने लगी।
इन्हीं दिनों एंडरसन ने अपना G.E.C. का पुराना फ्रिज पालने-पोसने के लिए चार सौ रुपए में हमें बेच दिया। नया साढ़े सात सौ में आता था। हमारे यहाँ महीनों उसमें पपीते लुढ़कते रहे और बैंगन बर्फ़ाते रहे। पहले दिन तो हमने उसमें कोरी सुराही भी रक्खी देखी। तीन-चार दिन प्रयोग करने के बाद मालूम हुआ कि उसका स्वभाव एंडरसन की तरह है यानी चार-पाँच मिनट चल कर आगबबूला हो जाता और दुंद मचाने लगता। उसे ठंडा रखने के लिए हमने उसी कंपनी का बना हुआ पँखा सवा तीन सौ में खरीदा। नए फ्रिज की तुलना में कुल सौदा फिर भी 25 रुपए सस्ता पड़ा। पँखा चौबीस घंटे फ्रिज के ब्लडप्रेशर को बिगड़ने से रोकता था। गर्मी अधिक पड़े तो हम अपनी समझौता-चारपाई पँखे और फ्रिज के बीच डाल लेते थे।
यूसुफी के कपड़े : अब हम 'उजले कपड़े लांड्री रजिस्टर्ड' में आठ आने दैनिक दंड दे कर अपने कपड़े इस अर्जेंट बेदर्दी से नहीं धुलवाते और फड़वाते थे कि जो कमीज सुबह दफ्तर जाते हुए दे कर गए वो उसी शाम घर डिलीवर कर दी गई। उस काल में हम अपनी मैली कमीज रात को धोबी के पास बिल्कुल नहीं रहने देते थे। अब हमने आठ रुपए सैकड़ा में अपनी तीन कमीजें धोने के लिए एक नया धोबी लगा लिया। कपड़ों की चोरी भी नहीं करता था। बल्कि स्वभाव से इतना चौंकन्ना था कि पहली ही धोब में दो कमीजों के कालरों की दोनों नोकों पर सामने की ओर धोबी मार्का लगा दिया ताकि उन निशानों को देख कर परिचित पहचान जाएँ कि कमीज के नीचे हम ही हैं। पिछला धोबी कॉलर पर तो अच्छी प्रेस नहीं करता था, मोजों और अन्डरवियर में खूब कलफ लगाता था। बनियान में कलफ लगा कर सुकेड़ने की शिकायत हमने जानबूझ कर नहीं की। इसलिए कि 36 इंच का जो बनियान धुलने जाता था वो 46 इंच का होकर आता था। मियाँ वाली के इस धोबी की चौड़ी छाती से तंग आ कर हमने खुद ढूँढ-ढाँढ कर यह लखनऊ का धोबी लगाया था कि उसके नाप हमसे मिलते थे। लेकिन हम यह देख कर भौंचक्के रह गए कि बनियान पहली ही धोब में 56 इंच का हो गया और उसमें बॉस्केट बॉल की सी दो टोकरियाँ भी बन गईं। अगली धुलाई पर वो एक लड्डू, चाँद सा बेटा होने की खुशी में लाया। नवजात का वज्न एक पंसेरी बताता था, जिसकी पुष्टि हमारे बनियान से भी होती थी।
शेष रहा ऑफिस, तो वही क्लर्क जिनकी खुशामद करके हमने काम सीखा था, अब हमें तमीज से सर कहते फिर आँख मार कर हमारी जोड़-घटाने की गलती निकालने की हिम्मत करते। जमादार अजमल खाँ अब हमें तुम कहने लगा। पहले तुसी कहता था। यानी जैसा कि आपने ध्यान किया हमारा स्तर अपनी दृष्टि में ही कॉफी बढ़ चुका था। कई पल ऐसे भी आने लगे जब यूँ लगता जैसे हम हिंदू देवमाला की वो गाय हैं जिसके सींगों पर पृथ्वी ठहरी हुई है। जब वो थकन से झुरझुरी लेकर सींग बदलती है तो भूकंप आ जाता है। कराची की बड़ी-बड़ी पार्टियों में हम निमंत्रित होने लगे थे, बड़ी पार्टियों से हमारा अभिप्राय ऐसे कार्यक्रम हैं जिनमें मेहमानों की संख्या 4 हजार से अधिक हो और जहाँ मेहमानों की सूची टेलीफोन डायरेक्ट्री देख कर बनाई जाती हो। इनमें हमें, मेजबान सहित कोई नहीं पहचानता था, केवल तंबू-कनात वाले निजामे-दीन के आदमियों के जिनसे दैनिक मिलने के कारण अच्छी खासी बेतकल्लुफी हो गई थी।
कॉकटेल के नियम : खुदा और उसके बंदे मारें या छोड़ें, झूठ नहीं बोलेंगे। जब एंडरसन से ये सुना कि यहाँ शराब पीना आवश्यक कार्य है तो एक बार तो अजब रूहानी आनंद महसूस किया। धीरे-धीरे पार्टी की तैय्यारियाँ होने लगीं। अभी दो सप्ताह शेष थे। प्रोफेसर काजी अब्दुल कुद्दूस M.A. (Gold Medalist) से कॉकटेल पार्टी के मदमस्ती के नियमों के बारे में पूछा तो उन्होंने न्यूनाधिक वही जानकारी दी जो शेख सादी के काल में भी उपलब्ध थी। जैसे कि शराब, शबाब और धन पाकर जो मस्त न हो वही मर्द है। निवेदन किया, जिन बिचारों को ये लानत उपलब्ध न हो उनके मर्द होने का भी कोई चांस है कि नहीं? बोले क्यों नहीं। 'मर्द बायद कि हिरांसा न शुद' हिरांसा पर उर्फी का एक शेर सुनो। जो शेर उन्होंने सुनाया उसका उर्फी से ही नहीं हिरासाँ होने से भी कोई संबंध नहीं था। शेर का नशा बढ़ा और जबान खुली तो बोले कि गालिब ने शराब की तुलना में शहद को मधुमक्खी की उल्टी कहा है। शेर और शराब दोनों ही पर्दे में रहनी चाहिए और यह न भूलो तुम्हारे पेशे में पर्दा हराम है। कभी तुमने ध्यान दिया, शराब को ड्रिंक्स कहा जाए तो कम हराम होती है। हाँ जब नजरें-नजरों से और शराबें-शराबों से मिलें तो कॉकटेल हरजाई के प्यार की तरह तीखी और तेज हो जाती है 'क्या लोग शराबों का भी दीने-इलाही बनाते हैं?' हमने उनके हीरो अकबर महान पर चोट की।
'इसी को तो कॉकटेल कहते हैं। ऑक्सफोर्ड डिक्शनरी में आया है कि...?
उनकी ज्ञान की उड़ान बढ़ती चली गई तो हमने बैली लैडिंग कराते हुए पूछा 'प्रोफेसर! कॉकटेल पार्टी में गिलास कौन से हाथ में पकड़ते हैं? बोले 'ऑफ कोर्स! दाएँ हाथ में।' पूछा, 'फिर हाथ कौन से हाथ से मिलाएँगे?' थोड़ी देर सोच में पड़ गए। फिर बोले 'अगर दूसरे ने भी गिलास दाएँ हाथ में थाम रखा हो तो फिर बाएँ हाथ से ही हाथ मिलाना उपयुक्त है।'
मिर्जा अब्दुल वदूद बेग से सलाह की तो इस प्रारंभिक घोषणा के बाद कि कॉकटेल पार्टी देश की सबसे शक्तिशाली पार्टी है। बोले दो प्रेक्टिकल टिप देता हूँ। पहला यह कि ये चीज कड़वी होती है। मुँह नहीं बिगाड़ना चाहिए। तुम्हारा तो सारा बचपन जुशांदे, कुनैन के मिक्सचर, कैस्टर आइल, टिंक्चर आयोडीन और चक्रवर्ती की अर्थमैटिक से ही उलझते बीता है। फिर क्या डरना? हाय! क्या खूब कहा है जालिम ने -
जो पीने वाले हैं वो पीके मुँह बनाते हैं
जनाबे - शेख हैं जो मुँह बना के पीते हैं
पूछा 'और अगर हम बिल्कुल न पिएँ तो किस समय मुँह बनाना उचित होगा'?
'मगर ये तो आपके चेहरे का नॉर्मल एक्सप्रेशन है। खैर दूसरा टिप मैंने 'र्शीह दहत्ब्' मैगजीन में देखा था। लिखा था कॉकटेल पार्टी में कोई भी बैठ कर शराब नहीं पी सकता।'
'वर्जित है।'
पूछा 'क्यों?'
पहले तो चकराए। फिर संभल कर बोले 'हाँ। कॉकटेल में सब खड़े हो कर पीते हैं। ताकि जब गिर पड़ें तो अंदाजा हो जाए कि अब सब्र आवश्यक है।'
काले चावल , रम और घमंडी गरदन वाली : जैसे-जैसे 27 तारीख पास आती गई, हमारी घबराहट में बढ़ोत्तरी होती गई, सीधे रास्ते से भटकाने वाला कोई मार्गदर्शक न मिला कि हमारी दौड़ पाक बोहेमियन काफी हाउस तक थी। अंत में नवाबजादा गुफरानुल्ला खाँ से संपर्क किया जो कराची के हर क्लब के मैम्बर थे और जिनके बिना कोई कॉकटेल पार्टी पूरी नहीं समझती जाती थी। हर वाक्य पर चाहे अपना हो या पराया, अट्टहास लगाने के कारण The Laughing Cavalier कहलाते थे। एंडरसन के हमपियाला थे। हम पर कृपा रखते थे। बातों में रस और वो रचाव जो महफिलों में जाने, छके-छकाए शारीरिक आनंद, मीठे स्वभाव और पंद्रह हजार एकड़ जमीन से पैदा होता है। शहर से बाहर उनका बहुत बड़ा बाग था, जिसमें बोगन वेलिया की 100 से अधिक किस्में थीं। वैसे बड़े नियमों को मानने वाले और संकोची व्यक्ति थे। हलाल रोटी और हराम पानी पर बीत रही थी। बड़े प्यार से पेश आए। जापान से मँगवाए हुए गुलाबों की सैर करवाई। वो टुकड़ा भी दिखाया जिसमें उन्होंने काले चावल बोये थे, हमने पूछा, 'यह कोई अफ्रीकी वैरायटी है'।
बोले, 'नहीं। दक्षिण अमरीका गया था तो दो-चार मुट्टी बीज ओवरकोट में छुपा कर ले आया। लंदन में Hydrangea फूल के बल्ब भी ऐसे ही स्मगल किए थे। मिशीगन में भी जंगली चावल होता है, मगर वो बात कहाँ, इस साल बीस सेर चावल निकले। सात हजार लागत आई। जाते समय 1/2 पौंड भेंट ले जाना न भूलना।'
हमने पूछा, 'इन्हें खाते कैसे हैं?'
बोले, 'काले चावल तो घमंडी गरदन वाली मुर्गा बी और गुलाबी रम के साथ मजा देते हैं। दिसंबर में याद दिलाना। उनकी भी व्यवस्था कर दूँगा। इस्कंदर मिर्जा बड़े शौक से खाता है।' निवेदन किया, 'अगर जुरूरत पूरी करना ही उद्देश्य है तो अबकी महावट में सरकार केवल घमंडी गरदन वाली की व्यवस्था करवा दें।' कहने लगे, 'पहुँचाने की भी एक ही कही। तुम्हारा विचार है कि चूहेदान स्वयं चल कर चूहे के पास जाता है? हाँ! खाना पचाने के लिए तुम्हें आधा घंटे डारूथी (उनकी सेक्रेट्री) के साथ डांस करवा दूँगा, आगे तेरे भाग लछिए। उसी की Recipe से एक नयी डिश भी खिलवाऊँगा जो फ्रांस में अँगूर की बेल की सूखी डंडियों की नशीली आँच पर पकायी जाती है। इस पर शेरी का छींटा देते हैं।'
अजान के बाद अपने भूमिगत बार में ले गए। चार-पाँच बटन दबाए तो रंग बिरंगी रौशनियों से उनके चेहरे पर वो दिल को जीत लेने वाली नर्मी और हरीतिमा दिखाई देने लगी जो धीमे पेस्टल रंगों में होती है। एक कोने में नीग्रो औरत की लाइफ साइज नग्न मूर्ति रखी थी। उसके एक हाथ में काले रंग की माला थी और दूसरे में इंसानी खोपड़ी का पियाला। औरत का सिर उठा कर दो पैग डाल दें तो उसके स्तनों से व्हिस्की रिसने लगती। एक ममता भरी निपल पर लिपस्टिक का ताजा निशान और दूसरी से सिगार की गंध आ रही थी। गले में एक बिब बँधा था जिस पर मरदानगी के देवता हरक्यूलिस की तस्वीर कढ़ी थी। बाईं ओर ताक में गोथिक स्टाइल की एक खानकाह बनी हुई थी और उसके अधखुले दरवाजों पर सैक्यूएल जानसन के ये शेर खुदे हुए थे। जिन्हें हम शराब पीने को बढ़ावा देने के लिए नहीं बल्कि केवल इस कारण लिख रहे हैं कि यह इस कथानक के केंद्रीय पात्र एंडरसन का जीवन दर्शन था। जिसका वो प्रचार करते रहते थे। ये था वो यूनानी दर्शन जो स्कॉटलैंड की भट्टियों से हो कर हम तक पहुँचा था।
Hermit hoar, in Solemn Cell,
Wearing out life's evening grey;
Smite thy bosom, Sage, and tell
What is bliss, and which the way?
Thus I spoke; and speaking sigh'd;
Scarce repress'd the starting tear
When the hoary sage reply'd
Come my lad, and drink some beer
(ऐ बूढ़े दोस्त! तू इस अंधेरे से छोटे कमरे में अपने जीवन की मलगिजी शाम काट रहा है। बाबा! तू कि ज्ञानी है। अपने सीने पर हाथ रखकर बता कि सच में प्रसन्नता क्या है और उसका मार्ग क्या है? मैंने यह कहा और आहें भर-भर कर कहा। मैं अपने उमड़ते हुए आँसुओं को रोक ही रहा था कि बुड्ढा बोला, बेटा मेरे साथ थोड़ी सी बियर पियो)
हम सा कहें जिसे : ऐसी सुंदर कोमल-कोमल बोतलें, बिल्लौरी सुराहियां, रंगबिरंगे डिकेंटर, शीशे और बोयाम हमने अपने जीवन में नहीं देखे थे। तीन-चार सौ से कम न होंगे। हमारी दृष्टि को उन पर बहकते देख कर कहने लगे कि 'इनमें से चार-पाँच को पसंद कर लो। खाली होते ही घर भिजवा दूँगा। एक में मनी प्लांट लगा कर नेक शगुन के लिए बरामदे में लटका देना। दूसरी का टेबिल लैम्प बनवा कर उसी की रौशनी में अर्थशास्त्र की किताबें पढ़ते रहना।' हमने कहा, 'श्रद्धेय! एक बात समझ में नहीं आई। नशा-नशा होता है। देस-देस के लेबिल से क्या अंतर पड़ता है?' अट्टहास के बाद बोले। 'बच्चे! घूंसे, चुटकी, छुरी, गंडासे और बंदूक की चोट एक जैसी नहीं हुआ करती। हर देश के फूल, हर देश की नारी की गंध अलग होती है। व्हिस्की बहुत कोमल बड़ी तुनकमिजाज होती है। सिंध क्लब में कभी किसी नमाजी बैरे के हाथ लग जाएँ तो कसम खुदा की सारे पैग का सत्यानाश हो जाता है। नशा बड़ी कोमल चीज है, ये कोमल सा अंतर अगर तुम्हारी समझ में आ गया होता तो आज तुम्हारे कंधे शैम्पियन बोतल की तरह ढलके हुए न होते।' फिर इस कोमल से अंतर को दिमाग में बैठाने के लिए उन्होंने हमें शैम्पेन की बोतल निकाल कर दिखाई। हमें उस बेचारी पर बड़ा तरस आया।
शराब फूलों और कुत्तों का कोलंबस : पूछा 'इस डिकेंटर में क्या है?' बोले, 'रूसी वोदका, एक घूँट लेते ही आदमी पीछे मुड़ कर देखता है कि किसने घूंसा मारा। एक ही चुल्लू में उल्लू' पूछा, 'और इस इत्रदान में क्या भरा है?' बोले, 'पिघला हुआ पन्ना। फ्रांस की हरी कोन्याक, डिनर के बाद की चीज है। इसके बराबर जीवन-धारा रक्खी है - चैकोस्लोवाकिया की सौंफ की वाइन।' पूछा, 'और इस बिल्लौरी मुगदर में?' बोले, 'ये एक अफ्रीकी वाइन है। मर्दों का ड्रिंक्स सच पूछो तो यही है। एक चुस्की लेते ही महसूस होता है, गले से प्रदर्शनकारियों का मशाल जुलूस निकल रहा है। पूछा और यह बैल को सानी खिलाने की नाँद में क्या पड़ा छलक रहा है? और इसमें डोंगा क्यों डाल रखा है? बोले, 'ओह, ये पंच है। एक दोस्त के हाँ हाउसवार्मिंग पार्टी है। उसे भेजनी है। इसी तरह नाँद में भर कर लान में रख दी जाती है।' निवेदन किया यह तो गालिब के काल में भी होता था।
सहने - चमन में रख दी मये - मुश्कबू की नाँद
जो आए जाम भर के पिये और हो के मस्त
सब्जे को रोंदता फिरे फूलों को जाए फाँद
बोले, 'चार पंक्तियों की कविता को तो हिंदी में चौपाई कहते हैं। आपने तो बाग के सहन में तिपाई रख दी। मेरे वालिद की आदत थी कि जब कोई बुरी खबर सुनते या खड़ी फस्ल को पाला मार जाता या खानदान में कोई मर जाता तो शेर पढ़ा करते थे। आप तो खुश होते हैं तब भी शेर पढ़ते हैं।' फिर पूछा, 'और यह क्या बला है जो रंग और महक से मस्त खच्चर का पेशाब मालूम देती है?' कहने लगे, 'लाहौल विला कुव्वत! यह तो दुनिया की बेहतरीन बियर, म्यूनिख बियर है। नाजी क्रांति की नींव बियरय-बारों में ही रखी गई थी।'
उर्दू भाषा में शब्दों की तंगी का गिला करते हुए बोले कि 'हमारे हाँ हर तेज पानी के लिए सिर्फ एक गाली है ....शराब। इसी तरह कुत्ते की उर्दू में ले दे कर दो प्रजातियाँ हैं। दूसरी को छोटा भाई कहते हैं और आपको आश्चर्य होगा, फारसी में गुलाब तक के लिए कोई अलग शब्द नहीं। देखा जाए तो अंग्रेज ने हमें... पूरे महाद्वीप को... कुत्तों, फूलों और शराब की विभिन्न प्रजातियों और विशेषताओं से परिचित कराया। हमने बात बढ़ाई, 'वरना यहाँ क्या धरा था।'
कहीं था मवेशी चराने पे झगड़ा
कहीं पानी पीने - पिलाने पे झगड़ा
बोले, 'आप गलत पढ़ रहे हैं। मवेशी चराने पे अरब में झगड़ा होता था। अपने यहाँ चुराने पे होता है।
कॉकटेल गाइड : लीजिए दो-ढाई घंटे के प्रश्न-उत्तरों से लबालब कॉकटेल पार्टी की पथप्रदर्शिका... पहले पैग से सुबह के हैंगओवर (खुमार) तक... संपादित हो गई। नए आने वालों का परलोक संवारने के लिए शराब और उपद्रव का वर्णन प्रस्तुत है।
1. पहला नियम उन्होंने यह बताया कि जब तक कोई साझा जानकार परिचय न कराए, किसी से बात न करो। अंग्रेज तो जब तक परिचय न हो, किसी की गाली का जवाब भी नहीं देता।
2. एक ही जगह इतनी देर जम कर खड़े न होओ कि वाक्य पूरा हो जाए, घूमते रहो।
3. जो तुमसे स्तर में छोटा या अनुपयोगी हो या आगे चल कर काम न आ सके, उसके साथ से बचो लेकिन जो तुम्हारा नोटिस न ले, तुम भी उसका नोटिस न लो।
4. गम्भीर बातचीत न करो वरना लोग समझेंगे तुम अभी से बहके-बहके हो गए हो।
5. अगर टमाटर का जूस या नींबू-पानी पर साँसारिक मोह-माया छोड़कर निर्भर हो तो यह बिल्कुल न कहो कि मजहब के मना करने के कारण नहीं पी रहे हो या Practising Muslim हो, खूनी पेचिश का बहाना बना दो।
6. अगर चर्चा के विषय की जगह कुछ अला-बला यानी साफ्ट ड्रिंक पी रहे हो, तब भी लेडीज से बहकी-बहकी बातें करो। कॉकटेल का सबसे बड़ा फायदा यह है कि मर्दों को बदतमीजी करने का एक उचित बहाना मिल जाता है। अगर सुंदर है तो फ्लर्टेशन उसका अधिकार है और अगर बदसूरत है तो उसके साथ क्षमता भर फ्लर्ट करना शालीनता के कारण आदमी का कर्तव्य है। तुम बहुत कम बोलते हो। बंद-बंद से रहते हो। मैंने आदम जी की पार्टी में देखा कि औरतों से परिचय के समय तुम अपनी नजर, नीयत और नैक-टाई ही ठीक करते रहे गए।
क्या जनाने में पनपने की यही बातें हैं
बच्चा ऐसे समय में तो पलक झपकना भी रूप का अपमान है।
7. कॉकटेल पार्टी में हर एक से आत्मविश्वास के साथ, जम कर बातें करो। दूसरे की आँखों में आँखें डाल के बल्कि निकाल के। व्हिस्की के हर घूँट के बाद अपनी बात का वज्न बढ़ता हुआ साफ महसूस होता है। निवेदन किया, ये हालत तो 'लिब्रेम' की गोली से भी पैदा की जा सकती है। बोले, 'बड़ा अंतर है, उस्ताद जौक ने क्या अच्छा कहा है-
पीरे - मुगां के पास वो दारू है जिससे ' जौक '
नामर्द मर्द , मर्द जवांमर्द हो गया
लिब्रेम के बाद बिल्ली को चूहों की इच्छा नहीं रहती। फिर उसे सपने में छीछड़े नजर नहीं आते, बिल्ले नजर आते हैं। लेकिन शराब पी कर चूहे की मूछें इतनी अकड़ जाती हैं कि अपने बिल में नहीं घुस सकता। फिर वो बिल्ली की खोज में निकल खड़ा होता है किधर गई वो कमबख्त।'
8. जब हर बात funny और हर चेहरा सुंदर दिखाई देने लगे तो तुरंत कोई खट्टी चीज खा लो। यह उपलब्ध न हो तो अपनी बीबी की फोटो बटुवे में से निकाल कर एक नजर देख लो।
9. ढीले कॉलर की कमीज पहन कर जाओ। नशे में कोई गिर पड़े तो भूल कर भी उसकी नींद में बाधक न बनो। इंग्लैंड में इस शताब्दी के अंत में जिसे एडवर्डियन काल कहा जाता है, ऊँचे क्लबों में छोटे-छोटे छोकरे केवल इस काम पर तैनात होते थे कि जैसे ही कोई धुत्त मैम्बर कुर्सी से लुढ़क कर गिरे, वो मेज के नीचे घुस कर कॉलर ढीला कर दें ताकि दम घुटने से क्लब में मौत घटित न हो।
10. वापसी में अपना सारा बोझ कार के ब्रेक पर डाले रखो। बिजली के खम्बे से कार रोकने से बचो। खम्बे गिर जाएँ तो कुत्तों को बहुत परेशानी होती है।
11. नशा गहरा हो जाए तो तबियत बेतहाशा सच बोलने पर उतारू होती है। इसलिए घर पहुँच कर बीबी से बातचीत करने से बचो।
12. सुबह आँख खुलते ही लगने लगे कि देश में अंधेरा छाया हुआ है और शासन आपनी पॉलिसी से समाज को बरबादी के खड्ड में धकेल रहा है तो एक एस्प्रीन खा लो। दस मिनट में शासन की पॉलिसी में आराम आने लगेगा।
रूठी धरती : उन्होंने मौसम की तरकारियाँ और फल हमारे साथ किए और जीप में बिठा कर अपने बाग और फार्म की सैर कराई। कहने लगे दस घंटे दैनिक काम करता हूँ। मेरा बाप जमींदार था। मुझे भी खेती-बाड़ी से लगाव है। अक्सर होता है कि पार्टी से रात के ढाई-तीन बजे लौटता हूँ मगर सुबह साढ़े चार बजे अपने समय पर उठ जाता हूँ। पापी हूँ (उनकी आँखें डबडबा गईं) फज्र (भोर की नमाज) के बाद दो घंटे खेतों में जुरूर बिताता हूँ। अजीब हाल होता है। पौ फटने से पहले हर तीसरे मिनट क्षितिज और दृश्य का मूड आँखों के सामने बदलता दिखाई देता है। उजाले की हर लहर के साथ चिड़ियों के चहचहाने की लय भी बदलती जाती है। फिर एक-एक फूल से बातें होती हैं। सबसे अपनी यारी है। मैंने अपने जीवन में कभी कोई फूल बाली से नहीं तोड़ा, गेहूँ की सुनहरी बालें देखते ही झूमने लगती हैं। कभी कोई बूटा उदास, मांदा दिखाई दे तो दिन भर चुभन सी रहती है। जीवन को समझना चाहो तो कोई पेड़, कोई पौधा, कोई फूल... एक ही सही... कैक्टस ही क्यों न हो... लगा कर देखो तो सही। धरती किसान से, अपने चाहने वाले से, बार-बार बेवफाई करती है। फिर भी वो उस पर भरोसा करता है। धोखे पर धोखे खाता है। फिर भी प्यार किए जाता है और जब वो प्यार के लायक नहीं रहता तो गाँव छोड़ देता है। शहर जा कर अपना थका-हारा पिंजर किसी मिल को सौंप देता है। शहर में फिर उसे जीते-जी धरती अपनी सूरत नहीं दिखाती। दरी, चटाई, संगे-मरमर, सीमेंट, टाइल्स के फर्श और तारकोल के नीचे अपना मुँह छिपाए रहती है।
बॉटल से दबनेवाले ऐ आसमाँ नहीं हम : एक दोस्त ने अपनी मोटर साइकिल पर लिफ्ट दी, जिसका साइलेंसर फटा हुआ था। उसके 101 धमाकों से अपनी सलामी आप देते और लेते हुए, हम पार्टी में पहुँचे तो आठ बज रहे थे। उस समय कॉकटेल पार्टी अपनी जवानी पर थी। बल्कि कहना चाहिए कि उसके आधे हिस्से में तो जवानी भी जवानी पर थी। किसी ने ठीक ही कहा है कि रंग पर आने के बाद कॉकटेल में इतनी देर से सम्मिलित होना ऐसा ही है जैसे तेज चलते हुए Merry-Go-Round में बैठने की कोशिश करना। लॉन पर बड़ी जगमगाहट थी। पेड़ों और झाड़ियों में लाल-लाल, नीले-नीले, पीले-पीले बल्ब उन्हीं रंगों के कपड़ों को आँख मार रहे थे। ऐसा लगता था कि अधिकांश मेहमान न केवल आ चुके हैं बल्कि कई तो इस योग्य भी नहीं रहे हैं कि वापस जा सकें। बात-बेबात हँसी कि अकारण प्यार आए। आँखें गुलाबी, बदन गर्म और चेहरे लाल दहके हुए -
दहका हुआ है आतिशे - गुल से चमन तमाम
लान के दूसरे किनारे पर बैरे, मुगल बादशाहों की यूनिफार्म मय राजपूती पगड़ी पहने ड्रिंक्स बना रहे थे। कभी-कभी कोई बैरा आँख बचा कर चेकोस्लोवाकिया के बने गिलासों को मुँह की भाप से नम करके चमकते पैमाने को और चमका देता था। काफी मेहमान ऐसे थे जो किसी कॉकटेल से आ रहे थे या किसी और कॉकटेल में जानेवाले थे। हम नियम नं.3 पर दृढ़ता से जमे हुए थे कि जो व्यक्ति अपने से कम स्तर का दिखाई दे या आगे चल कर काम न आ सके, उसका नोटिस न लो। कुछ देर बाद अचानक रहस्य खुला कि यहाँ तो मामला ही कुछ और है। कोई हमारा नोटिस नहीं ले रहा है। चारों तरफ नजरें दौड़ायीं, हमें कोई अपने से कम स्तर का न दिखाई पड़ा। सुन्न हो गए। अब जो ध्यान से देखा तो मालूम पड़ा कि बड़े-बड़े लोग हमें इग्नोर करने की अनथक कोशिश कर रहे हैं। किनारे होते-होते हमने स्वयं को एक कोने में चीनी नारंगी की झाड़ी के पास टिका लिया और नमकीन बादाम और सींकों में अटकी हुई मुर्गी की कलेजी से मुँह बहलाने लगे।
शराब छोड़ना : इससे पहले हम किसी कॉकटेल में सम्मिलित नहीं हुए थे, सुना ही सुना था। इसलिए बेहद चकराए हुए थे। एक Exhibition हो तो बताएँ। हमारे साथ के लगभग सभी लोग घिस-घिसा कर नदी की चिकनी बटिया हो गए थे। लेकिन हम इस स्तर के दकियानूस और खुरदरे थे कि ड्रिंक्स का अनुवाद शराब और गम गलत करने वालों को शराबी कहते थे। उन्हीं चकराए दिनों की बात है हमने मिर्जा से कहा शराब इस्लाम में हराम है। फिर क्या कारण है कि जितनी चर्चा, जितनी प्रशंसा शराब की उर्दू-फारसी में है, उतनी संसार की सारी भाषाओं को मिला कर नहीं निकलेगी।
बोले 'चौदह सौ साल से पाप के ताक पर रखे-रखे उसका नशा सदी के बाद हर सदी तेज होता चला गया।'
अजान के बाद विस्तार किया कि मुगल बादशाहों ने कभी इस गुनाह को दंडात्मक नहीं रखा। अगर ऐसा करते तो अधिकतर बादशाहों का जीवन जेल में कटता। तख्त पर कौन बैठता? सुविधा के उपकरण... पुल, कुऐं, मस्जिद और भैंसों के स्नानागार यानी तालाब कौन बनवाता? लेकिन मजा कहाँ नहीं। जनाब मुहम्मद बाकर शम्स, लेखक 'लखनऊ का इतिहास' मिर्जा याहिया आसिफुद्दौला, वजीर-उल-मुमामालिक, रुस्तमे-जंग की धार्मिकता की प्रशंसा करते हुए लिखते हैं 'धार्मिक बहुत थे। पहले शराब पीते थे। गुफरान मआब (एक शिया फकीर) के चमत्कार से प्रभावित हो कर शराब से तौबा की और भंग शुरू की। उन्होंने भंग की भी खराबी बतायी तो उससे भी तौबा की और अफीम पर सब्र किया।' हम इतिहासकार तो नहीं मगर हमारी छटी इंद्रिय कहती है कि मिर्जा याहिया आसिफुद्दौला ने इसके बाद गुफरान मआब की सानिध्य से भी तौबा कर ली होगी।
लिलिपुट के राक्षस : सवा आठ बजे हमारे कॉकटेल के पथप्रदर्शक खिलखिलाते हुए प्रकट हुए और हमारी जान में जान आई। उन्होंने भद्र पुरुषों और सन्नारियों से हमारा परिचय कराना शुरू किया और हमने सर्कुलेट होने की कोशिश की। लेकिन हर बार खोटे सिक्के की तरह वापस कर दिए गए। एक साहब ने तो हमसे दो उँगलियों से हाथ मिलाया। सौ-सवा सौ प्रभावशाली पुरुषों के इस जमघट में हमें एक भी ऐसा न दिखाई पड़ा जिसकी कमाई हमसे कम हो। जिधर निगाह उठाई, जहाँ गए, वही एक दृश्य... उस लंका में सभी बावन गजे थे। और यहाँ यह हाल कि न सम्पन्नता न सम्मान न संभावना। हर राक्षस से हाथ मिलाने के बाद हमने अपनी लंबाई एक इंच घटती अनुभव की। साढ़े आठ बजे तक हम लॉन पर रेंगने लगे।
हमने पथप्रदर्शक से जाकर कर पूछा, 'हजरत! आपने तो हिदायत दी थी कि खाली व्हिस्की नहीं पीनी चाहिए। आपने दो पैग हमारी आँखों के सामने पिये और मुर्ग की कलेजी को हाथ तक नहीं लगाया।' बोले 'तुम्हारी नजर ठीक काम कर रही है। हाथ न लगाने का कारण यह है कि अंग्रेजों के बैरे मुर्गी हलाल करते समय ठीक से कलमा नहीं पढ़ते। ऐसा माँस वर्जित होता है। मना आई है।'
एक के बाद दूसरे टमैटो जूस के चार गिलासों के बाद हमारे जीवन का एक मात्र उद्देश्य यह रह गया कि बैरे से विनती किए बिना टॉयटेल का निकटतम रास्ता खोज लें। (कॉकटेल में बैरों, बूढ़ों और अपनी बीबी से बात करने से हमें सख्ती से मना कर दिया गया था) इतने में एक कनात के पीछे से एक बूढ़े अंग्रेज को एक हाथ से अपना सिर और दूसरे से पतलून थामे आते देखा तो जिन अंधेरी राहों से वो निकला था, उसी तरफ हम ऐसे हौले-हौले कदमों से रवाना हुए कि पेट का पानी न हिलने पाए। जान निकली जा रही थी। खैर इसका तो गम नहीं, आशंका थी जान निकलने से पहले कुछ और न निकल जाए। पचास-साठ संकोची पगों के बाद, जैसे कोई शीशे का बर्तन शीशे पर लदा हो, हमने अपनी मंजिल को जा लिया। बावर्दी बैरों की लाइन हाथ में छोटे-छोटे रंगीन तौलिए लिए खड़ी थी। एक शालीन दाढ़ीवाले बैरे ने बढ़ कर पूछा 'हुजूर उल्टी फर्माएँगे या पेशाब?'
न्यूटन जूनियर : रास्ते में मैकफर्न मिल गया, कहने लगा क्या बात है? अभी-अभी कछुए की तरह गए और लाइड्ज़ बैंक के घोड़े की तरह कुदकड़े लगाते वापस आए। तुम इतनी देर तक बिजली के खम्बे की तरह अकेले खड़े रहे। जीवन बहुत छोटा है। आओ तुम्हें एक अमरीकन बिजली से मिलवाऊँ। अमरीकी-पाकिस्तानी दोस्ती की पक्षधर, डिप्लोमैटिक कोर पार्टियों की जान है। संयुक्त राष्ट्र अमेरिका की मैत्री का प्रदर्शन ढीली गाँठ का घाघरा बाँध कर करती है। थोड़ी देर बातें सुनोगे तो गुलाम हो जाओगे।
किस तरह की लज्जत है तू चख देख मिरे यार
मैकफर्न बड़े गुणों का मालिक था, सबसे बड़ा गुण तो यह कि इस भरी महफिल में वो अकेला योरोपियन था जिससे हमारा परिचय ही नहीं, दोस्ती भी थी। दूसरा गुण यह कि वो किसी को उदास नहीं देख सकता था। हँसमुख, हाजिरजवाब। उन दिनों उसने न्यूटन की गुरुत्वाकर्षण की थ्योरी में एक क्रान्तिकारी परिवर्तन किया था। अर्थशास्त्र और छोटे कपड़ों पर उसकी बातचीत महफिल को घंटों गर्म रखने के लिए पर्याप्त थी। इनकी थ्योरी यह थी कि 1952 के बाद से धरती की गुरुत्वाकर्षण शक्ति हर चीज को नीचे खींचती है; सिवाय कीमतों, पाकिस्तानी ब्यूरोक्रेट्स के सिर और मार्डन ब्रा में रखी चीजों के, जो इस समय आकाश की गुरुत्वाकर्षण शक्ति के आधीन हैं। इस आकाशी खोज के कारण यह न्यूटन जूनियर कहलाते थे। हमें उदास और बेआसरा जान कर अपना प्यारा रखते और अक्सर अपनी चुलबुली बातचीत से हमारी सोती हुई बल्कि खर्राटे लेती हुई उमंगों को जगाते। इस समय हमें ललचाने लगे कि उसे एक नजर देखोगे तो दिल ही नहीं तुम्हारी घड़ी की धड़कन भी तेज हो जाएगी।
तुझसे भी दिल फरेब हैं गम रोजगार के : न्यूटन जूनियर ने उस आनंददायक... के बारे में जो जानकारी अपना मुँह हमारे कान से लगा कर दी, हमने उस आनंदी को उससे कुछ अधिक ही पाया। पुरुषों में बेलगाम ऊँट की तरह फिर रही थी। मैकफर्न ने यह भी बताया कि शायद तलाक हो जाए। मोटी आसामी की घात में है। जलता हुआ मकान किराए पर उठाना चाहती है। वो इस समय एक तिनके में पलवाया हुआ खट्टा जैतून खा रही थी। हाथ मिलाया तो लगा उसे 105 डिग्री बुखार है। बातों में भी सन्निपात की सी स्थिति। समुद्री नीले रंग के चुस्त कपड़ों पर से निगाहें और वाक्य फिसल रहे थे। कटी हुई V नैक लाइन ने समुद्री झाग घाटी में ऐसी आदमी डुबाओ डुबकी लगाई थी कि -
हो तैरने वाला शर्मिन्दा और डूबने वाला नाज करे
पीठ भी अंग्रेजी के U की तरह शालीन सीमा तक खुली हुई थी। लेकिन हमारे लिए इन सबसे अधिक यह लालच कि उसका पति एक अमरीकन कंपनी का मैनेजर था और उसके एकाउंट से हमारे दिन फिर सकते थे। दुगना-तिगुना सालाना इन्क्रीमेंट मिल सकता था जिससे हम नया चश्मा बनवा सकते थे। कालीन खरीद सकते थे।
ये वो जामा है कि जिसका नहीं उल्टा सीधा : योरोपियन औरतों के बारे में हमारी सोच है कि कुछ भी पहन लें, भली लगती हैं। कुछ भी न पहनें तो पिक्चर हिट हो जाती है। मगर सारा 'दोष नए योरोपियन फैशन पर रखता सरासर अन्याय होगा। सौ साल पहले इसी तरह नजीर अकबराबादी उस काल की काँट-छाँट पर अपनी प्रतिक्रिया दे गए हैं।
आगा भी खुल रहा है पीछा भी खुल रहा है
यां यूँ भी वाह वा है और वूं भी वाह वा है
इसी से मिलती-जुलती स्थिति नवाब दरगाह अली खाँ ने दिल्ली की प्रसिद्ध तवायफ अमर बेगम की अपने फारसी इतिहास में लिखी है जिसका उर्दू अनुवाद 'नादिरशाही कत्ले-आम की दिल्ली' में ख्वाजा हसन निजामी ने किया है। लिखते हैं 'इसका कमाल ये है कि यह हसीन और तवायफ होने के साथ-साथ अक्सर नंगी रहती है और महफिल में बिलकुल नंगी आती है और वो इस तरह कि शरीर के हिस्सों को बिल्कुल खोल कर उस पर पाजामे का चित्रण करवाती है। कमख्वाब के थान की तरह और बूटेदार पाजामे की तरह उसके शरीर पर पाजामे का चित्र बना होता है जो बिल्कुल पाजामा मालूम होता है। जब अमर बेगम अमीरों की मजलिस में नंगा पाजामा पहने हुए आती हैं तो कोई नहीं कह सकता कि यह नंगी है। इस रहस्य को उसके कुछ विशेष परिचित ही जानते हैं। अमर बेगम बहुत ही चर्चित रण्डी है। खैर अमर बेगम के बहुत ही चर्चित रण्डी होने का कारण तो स्पष्ट है, मगर अगले वक्तों के बुजुर्गों की शान ही कुछ और थी। हर बात में अच्छाई का पहलू निकाल लेते थे। इसलिए अच्छी और मीठी उर्दू में अनुवाद के बाद ख्वाजा हसन निजामी कि दिल्ली के रोड़े और आशिक थे, केवल यह बात बढ़ाई है कि 'इससे दिल्ली की चित्रकारी का चमत्कार प्रकट होता है।' हाय-हाय! न हुई अमर बेगम, सुन लेती तो पाजामा पीट कर रह जाती।
ड्राफ्ट बियर से ओवरड्राफ्ट तक : देखिए बात कॉकटेल से ख्वाजा हसन निजामी तक पहुँच गई। किसी परी चेहरा या माँसल डिपाजिट की चर्चा हो तो हमारी लेखनी इसी तरह गुमराह हो जाती है। परिचय के बाद वो बीबी कहने लगी 'तुम्हारा हाथ खाली क्यों है?' मैं तो ब्लैक लेबल पीती हूँ। व्हिस्की दस साल से कम की हो तो मैं दूसरे दिन चिड़चिड़ी हो जाती हूँ। यह बात नहीं कि मैं ड्रिंक्स के बिना जीवित नहीं रह सकती। मैं तो बाई गॉड अपनी नाक के लिए पीती हूँ। 100 प्रतिशत प्रूफ व्हिस्की से सारे Sinues खुल जाते हैं। तुम भी नाक में बोल रहे हो। एक चुस्की मेरे गिलास से लगा कर देखो। स्वयं को सचमुच का मर्द महसूस करने लगोगे। मेरा मियाँ तो व्हाइट हार्स पीता है और हाँ तुम्हारे हाँ मर्द दो घोड़ा बोस्की क्यों पहनते हैं?
So Effeminate मेरे मियाँ पर गहरी नीली उदासी का दौरा पड़ता है तो चीनी खाना खाता है और छह महीने से बर्फ में लगी हुई ड्राफ्ट-बियर के मग पे मग चढ़ाता है और बाथरूम के चक्कर पे चक्कर काटता है। हा! हा! मगर तुम इतने चिंतित क्यों दिखाई दे रहे हो? जीवन छोटा है।
हुआ वास्तव में ये कि हमें ड्राफ्ट बियर पर अचानक ओवर-ड्राफ्ट याद आ गया। सही अवसर सोच कर हमने परंपरागत पच्चर का पतला सिरा ठोक ही दिया। 'आपके पति की कंपनी का एकाउंट कहाँ है?'
'बैंक में। ऑफ कोर्स!'
किसलिए आए थे हम क्या कर चले : फिर चढ़ी हुई आँखें और चढ़ा कर बोली, 'हाँ! खूब याद आया। तुम तो बैंकर हो। तुम्हारे Adenoids बढ़े हुए मालूम देते हैं। मुँह खोल कर बात सुनते हो। तो सुनो, मैंने रमी में एक लाख पैंसठ हजार रुपए जीते हैं। मेरा मियाँ दौरे पर जाता है तो एक ज्वाइंट सेक्रेट्री और दो सेठ मेरे साथ रमी खेलने आ जाते हैं। शायद उन्हें मेरे मियाँ की कंपनी की एजेन्सियां चाहिए। जिम, मेरा मियाँ मार्च में बेरूत गया तो V.D. लगा लाया। हफ़्तों छिदरा-छिदरा कर चलता रहा। जैसे तुम्हारे यहाँ कैदी बेड़ी पहन कर Zig-Zag करते हैं। मुझसे छिपाया। वो तो डॉक्टर बटर फील्ड ने मुझे बता दिया। मगर उस कमबख्त का विचार है कि जिम को यह इन्फेक्शन मुझी से लगा। हा हा हा! अच्छा तुम्हारे तो स्टेट बैंक के कमबख़्तों से संबंध होंगे। मेरे यह एक लाख पैंसठ हजार शिकागो भिजवा दो। प्लीज कह देना मेरी सेविंग है। सुबह दस से पहले घर फोन मत करना। जिम दस बजे ऑफिस जाता है।'
हम सर्कुलेट होने के लिए न चाहते हुए भी उससे अलग होने लगे तो फिर नजर से भाला मारा। शरीर के बीच के हिस्से को झूला-झुलाते हुए कहने लगी 'मुझे तो चक्कर आ रहा है। जरा जिम को ढूँढ कर के, घर चलने के लिए कहो।' हमने पूछा, 'बीबी! हम उसे पहचानेंगे कैसे?' हमारा हाथ अपने हाथ में ले कर बोली, 'आज उसने सिल्क का अंडरवियर पहन रखा है। हल्के नीले रंग का है। कल दस बजे मुझे फोन करना मत भूलना। नंबर इस समय याद नहीं आ रहा। सुबह मुझे फोन करके पूछ लेना।'
हमारे बास का आगमन : उस समय तक महफिल की हालत बदल चुकी थी। किसी को किसी पर हँसने का होश न था। मर्दों की हरकतों में अंतर आ चुका था। बल्कि यह कहना उपयुक्त होगा कि हरकतें खत्म हो चुकी थी। बकौल शायर -
जो खड़ा था , खड़ा रहा वो वहीं
जो पड़ा था पड़ा रहा वो वहीं
इस समय मिस्टर एंडरसन झूमते-झामते पधारे। ड्राइवर ने सहारा दे कर उसे शामियाने की नशीली सरहद पर ला कर छोड़ दिया। हमने आगे बढ़कर उससे कराची के मौसम के बारे में बातचीत करनी चाही तो मालूम हुआ कि हमें पहचानने में उसे यहाँ संकोच है। चुनांचे हमने भी उसका नोटिस लेना छोड़ दिया। थोड़ी देर बाद उसने छंगुलिया से बुलाने का इशारा किया। हम दौड़े-दौड़े गए तो कहने लगा कि मैं तो बैरे को बुला रहा था। मेरे गिलास में सोडा अधिक है। मगर यह क्या बात है? तुम्हारा गिलास अंदर से बड़ा, बाहर से छोटा है। अच्छा तुम आ ही गए हो तो बताते जाओ, कुछ Contects बने? कुछ योरोपियन डिपॉजिट हाथ लगे? हमने संक्षेप में उसे सूचित किया। अब तक जितने योरोपियन लोगों को हमने कॉन्टेक्ट किया, उन्होंने उल्टा ओवरड्राफ्ट माँगा। जिनकी कुल राशि इस गिलास तक सत्तर लाख हो चुकी है। बुरा सा मुँह बनाते हुए बोला, 'तुम जहाँ से आए थे। वहीं वापस जा सकते हो।
इसी तरह के चार-पाँच घाटेदार कॉन्टेक्टस बना कर हम चीनी नारंगी की झाड़ी के पास अपने सुनहरे नियमों की छतरी तले खड़े हो गए। थोड़ी देर बाद देखा एंडरसन हमारी ओर लुढ़कता-लुढ़कता आ रहा था। हमने भी उसे लुढ़कने के अंतिम बिंदु तक लुढ़कने दिया। पेशवाई के लिए एक इंच भी आगे न बढ़े। पास आ कर कहने लगा तुम ब्रिटिश हाई कमिश्नर से भी मिले? और यह तुम संपेरे की तरह गलफड़े फला-फुला कर क्या पी रहे हो? जमजम वाटर? तुम्हारी टाई मेरे मोजों से मैच करती है। यह कहकर अपने विनोद से आप ही आनंदित हुआ और मारे हँसी के मुँह भर कर व्हिस्की की कुल्ली कर दी जो आधी फर्श पर नष्ट हो गई। आधी हमारे गिलास में सुरक्षित हो गई।
सवाल अलग , जवाब अलग : महकती-बहकती लेडीज अब शराब और शिवालरी (Chisalary) से छलकते मर्दों से कपड़े बचाए, अपना एक अलग झुरमुट बना चुकी थीं। यह झुरमुट पास से फ्रेंच खुशबुओं का बगूला और दूर से भोर का सितारा दिखाई देता था। जिसकी कटीली नोकें मर्दाना झुरमुट में इच्छा की सीमा तक भुंकी हुई थीं। जब वो प्रोफेसर काजी अब्दुल कुद्दूस के अनुसार 'गिगल-गिगल' हँसती तो हर मर्द अपनी घंटी की आवाज पहचानने के लिए कंवतियाँ उठाता। इन औरतों का संबोधन और बातचीत देखकर हम इस निष्कर्ष पर पहुँचे कि जहाँ सात-आठ औरतें इकट्ठी हों तो सब एक साथ बोलती हैं और इससे अधिक अचम्भे की बात यह कि बोलते में सब कुछ सुन भी लेती हैं। यानी एक औरत नॉन स्टॉप ट्रांसमिट भी करती है और इस कार्य के समय सात-आठ wave lenths पर कान ट्यून करके औरों की सुन भी लेती है। लेकिन मर्दों की बात और है। सात-आठ मर्द इकट्ठे हों तो आप देखेंगे कि उनमें से सिर्फ एक बोलता है। बाकी बिलकुल नहीं बोलते और न सुनते। असमय ही सही मगर मिर्जा का कथन याद आता है कि ताश के जितने खेल हैं पुरुषों ने एक दूसरे को चुप रखने के लिए खोजे हैं।
हमारे जो पाठक इस अग्नि-दीक्षा से नहीं निकले उनकी सूचना और ज्ञान के लिए निवेदन है कि अगर सौ-डेढ़ सौ बातूनी बहरों को एक जगह जमा कर दिया जाए तो उनके बीच जो बातचीत होगी वो शब्द-शब्द वही होगी जो कॉकटेल पार्टी में सुनने में आती है। हर एक अपनी हाँके चला जा रहा है। सवाल कुछ-जवाब कुछ, मगर दोनों संतुष्ट और चाहिए भी क्या? अब हम औरतों के चुने हुए डायलॉग लिखते हैं जो समय-असमय कॉकटेल पार्टियों में हमारे कान में पड़े। उनमें तारतम्य या किसी और चीज की कमी लगे तो इस लेखक को क्षमा करें। ऐसे में मर्दों के वाक्य तो चूँकि आह! वाह! व्हिस्की और सिसकी से आगे नहीं बढ़ पाते इसलिए विवश हो कर औरतों के डायलॉग पर सब्र करना पड़ा।
'मुझे रूसी जह्र लगते हैं। मेरा मियाँ जब रूसी वोदका पीता है तो सारी क्राकरी तोड़ देता है। फिर मुझे मेटरनिटी ड्रेस पहनना पड़ता है।
'हू हू हू!'
'कैसा, प्यारा टैन है तुम्हारा। क्या हाक्स-बे गई थीं?'
'ऐलिस के मियाँ की सैक्रेट्री हर साल ऐपेंडिक्स का ऑप्रेशन करवाती है।'
'तुमने डॉक्टर सिम काकस की नयी लाड़ली को देखा है?'
'सीख कबाब के अलावा, मुझे लोकल कल्चर की और कोई चीज पसंद नहीं आई।'
'तुमने कभी रीछ और कुत्ते की लड़ाई देखी है? हमारे गोल्डन रिट्रीवर के एक जमींदार ने चार हजार लगाए हैं। कैसे निर्दयी हैं। मई में हमारा पाकिस्तान से तबादला होगा तो डॉक्टर फीरोज से कुत्ते को जह्र का इंजेक्शन लगवा दूंगी। उसका बाप बहुत Fastidious है। चिलम में ऊँट की सुडौल मैंगनियाँ डाल कर हुक्का पीता है।'
'Two cubes or three cubes? Ha! Ha!'
'तुम इस ईवनिंग ड्रैस में बड़ी प्यारी लग रही हो। पेरिस से खरीदा? मैंने पिछले साल फैंसी-ड्रैस-बॉल में भारी बनारसी साड़ी पहन कर डांस किया। मुझे क्या मालूम था कि इतनी भारी तह-दर-तह साड़ी के नीचे भी कुछ पहना जाता है। एक फास्ट-नंबर में इसका बार्डर मिस्टर अहमद के जूते के नीचे आ गया। जैसे ही मैं झूम कर तेजी से पलटी तो एक ही झटके में साड़ी खुल कर फ़्लोर पर आ रही। जलेबी सी बन गई। तुमने कभी खाई है? सड़े हुए मक्खन और चीनी के किवाम को आटे के नारंगी कैप्सूल में बंद कर देते हैं? मैं शर्म से पानी-पानी हो गई, इसलिए कि मैंने कॉटन का अन्डरवियर पहन रखा था। ओह! ईस्ट इज ईस्ट। अजीब बात है, जब भी किसी पाकिस्तानी सहेली से चपाती बनाने की Recipe माँगती हूँ तो वो ठठ्ठे मारती है।'
'हाय! सारे बाल बिखरे जा रहे हैं। आज ही सैट कराए थे। कराची में इतनी जोर की पछवा हवा चलती है कि किसी कुबड़े को पच्छम की तरफ पीठ करके खड़ा कर दो तो एक ही दिन में सारी कूब निकल जाए।'
'तुमने सुना? जबसे वो जापानी मसाज करने वाली आई है, कराची के सभी करोड़पतियों को गठिया हो गया है। बैरा व्हिस्की आन दि रॉक्स प्लीज।'
'Bloody Mary For Me'
'Campari'
'तुमने नए जर्मन अटैशे की बीबी देखी? दूधिया भुट्टे जैसे बाल। टमाटर जैसे गाल। टागें जैसे किंग साइज की दोशाखा मूली। बिल्कुल देहातन लगती है। बदन से बैल की बू आती है।'
'और उसका मियाँ तो बिल्कुल जंगली है।'
'हाय! मर्द की बेहतरीन किस्म तो यही होती है पगली!'
'जेनी को ब्रैस्ट कैंसर हो गया है। पैथेडीन की आदी हो गई है।'
'सुना है तुम्हारी कजिन की फोटो Voegue में छपी है?'
'क्या बजा है? मुझे एन के डिनर में जाना है।'
'सिद्दीकी चार्मिंग है, मगर बहुत bookish। एक बार नाचते-नाचते नशे में अपने होंठ मेरे Vaccination Mark पर रख के कहने लगा, हनी! तुम्हारी रानें केले के तने जैसी हैं। उसी ने बताया कि यह उपमा कालीदास नाम के किसी शायर ने प्रयोग की है। मैं सुबह उठते ही केले का तना देखने गांधी गार्डन गई 'How sweet of Kalidas'।
'ओह डियर! ओह डियर! ओह डियर!'
'मुझे नथिया गली से क्रिसमस ट्री मँगवा दो ना, वरना फूलदार झाड़ू का क्रिसमस ट्री बनाना पड़ेगा।'
'नो थैंक्स! बहुत हो गई! बाई बाई वेनिस!'
'तुम्हें मूछें पसंद है?'
'मर्द की या औरत की?'
'मूँछ और सिगार के बिना प्यार कैसा अधूर-अधूरा, बचकाना, दूध चुसकता लगता है।'
'मर्दों को हवाना सिगार की गंध बहुत भाती है। उसे बनाते समय लड़कियाँ रान पर रख कर Roll करती हैं।'
'मैंने चटगाँव से बुद्धिस्ट कुक बुलवाया है।'
'खान ड्रिंक्स होल्ड नहीं कर सकता। उसे तो आई ड्रापर से अपने मुँह में चुवानी चाहिए।'
'नेपोलियन ब्रांडी।'
'आम और मेंहदी की बदबू 48 घंटे तक नहीं जाती। न जाने यह लोग कैसे बर्दाश्त कर लेते हैं।'
'फ्रांस में आज कल लंबे स्कर्ट और मिडिल एजिड मर्द फैशन में हैं।'
'मेरा लकी स्टोन पन्ना है। जब मेरा डाइवोर्स हुआ तो मैंने उसी की अँगूठी पहन रखी थी।'
'तुम संडे को चर्च नहीं आतीं?'
'पानी नहीं सोडा'
.... तेरे कूचे से हम निकले : साढ़े नौ बजने में दो ही मिनट शेष होंगे कि एकाएकी भगदड़ मच गई। वही दाढ़ी वाला बुड्ढा बैरा हाँफता, काँपता हमारे पास आया और कहने लगा कि अपने बॉस को संभालिए। उसने आपके ही बैंक के डायरेक्टर सेठ... के सिर से तुर्की टोपी उतार कर उसमें उल्टी कर दी और अब ड्रिंक्स की मेज के नीचे घुस कर मुर्गे की बोली बोल रहा है। सब मेमें भाग गईं। एक तो अपना पर्स और हसबैंड भी छोड़ गई है। उसका नया ड्राइवर नमाज पढ़ने गया है। आप चार्ज लीजिए। मिस्टर एंडरसन बिना बुलाए हर कॉकटेल में पहुँच जाता है, आज भी गेट क्रेश किया है।
'डबल व्हिस्की प्लीज।'
बेदरो - दीवार नाटक घर बनाना चाहिए : सही नाम और पता बताने में हम विवश हैं कि इसमें कुछ गोपनीय नाम आते हैं। लगे हाथ इतना संकेत काफी होगा कि इस थियेटर को कलाकारों की एक कोऑपरेटिव सोसायटी आपसी हानि के आधार पर चला रही थी। पहली तारीख को नियम से सारा घाटा तमाम सदस्यों में बाँट दिया जाता था। केवल टिकिट-घर पक्का था कि उस पर खेल के बाद अक्सर आक्रमण होते रहते थे। हॉल की दीवारें और छत टाट की थीं। जिन पर मुहावरे के विपरीत पैवंद भी टाट के लगे थे। छत धूप-घड़ी का काम देती थी। टाट की कनातों में भी जगह-जगह सिर के बराबर छेद हो गए थे। खेल के शुरू में उनमें सिर घुसा कर बाहर वाले अंदर का तमाशा देखते, अंत में अंदर वाले गर्दन बाहर निकाल कर बाहर की रौनक देख लेते थे। फर्स्ट क्लास का टिकिट पौने नौ आने का होता था। इसमें सोफों की व्यवस्था थी। जिनके फौलादी स्प्रिंग अपने कपड़े फाड़कर छह-छह इंच बाहर निकल आए थे। उन्हें जांघों के बीच में लेकर बैठना पड़ता था। सेकेंड क्लास का टिकिट छह आने का था। इसमें सरकंडों और लोहे की पतरियों के मूढ़े, मूंज की पीढ़ियों और चिन्यौटी खटोलियाँ पड़ी थीं। तीसरे क्लास में फर्शी बैठक की व्यवस्था थी। फर्शी से हमारा अभिप्राय मिट्टी के फर्श से है। इस क्लास में जो दर्शक अधिक नकचढ़े थे वो घर से अंगोछे के कोने में रेजगारी बाँध कर लाते। किसी गाने या अदा पर तबियत बहुत बेकाबू हो जाए तो नीचे से निकालकर गोफन की तरह घुमाते और स्टेज पर दाद के अंगोछे बरसते। कुछ माहवारी दर्शकों ने कटे पाँव की पीढ़ियाँ डाल रखी थीं। जिन पर बैठ कर वो महीने भर मजे से मूँगफली और पीछे बैठने वालों की गालियाँ खाते रहते थे। जल्दी में हम ये बताना तो भूल ही गए कि पीछे बैठने वालों की सुविधा के लिए हाल में ढलान इस तरह पैदा किया गया था कि अगले यानी स्टेज से संबंधित हिस्से में दो-ढाई फुट गहरी धरती खोद कर एक अखाड़ा सा बना दिया गया था। इसमें फर्स्ट क्लास वाले धूल फांकते और सेकेंड क्लास वाले लोटें लगाते थे। अखाड़े की दाईं-बाईं मुंडेर पर कुछ खलीफे पैर लटकाए बैठे रहते थे। उसे गैलरी समझ लीजिए। आर्केस्ट्रा और फर्स्टक्लास के बीच हमने हमेशा एक फावड़ा पड़ा देखा और कभी-कभार ये भी देखा कि पीछे बैठने वाले किसी दर्शक को किसी दूसरे दर्शक की टोपी या कलफदार तुर्रा दिखाई पड़ने लगे तो वो इंटरवैल में स्वयं फावड़े से एक-दो बालिश्त अखाड़ा खोद कर उद्दंड सोफे को घमंडी सिर सहित धरती में धंसा देता। इसी आले के पास एक अधखुदी कब्र में मुंशी रियाजत अली सोख्ता संडीलवी की खटिया पड़ी रहती थी। उनका केवल चेहरा और मखमल की चौगोशिया टोपी फुदकती दिखाई देती थी।
दर्द के चितेरे रियाजत अली ' सोख्ता ' : यह बुढ़ऊ जो सत्तर के पेटे में होंगे, इसी खटिया पर गाव-तकिया लगाए पसरे रहते थे। एक पैर कब्र में, दूसरा स्टेज पर। सफेद मैदा रंग जो जवानी में ही नहीं अब भी गुलाबी था। तीखे-तीखे नैन-नक्श, गिलाफी आँखें, चुस्त माथा। उन्हें इस बुढ़ापे में भी सजीला कहा जा सकता था। बदन पे सफेद मलमल का चुना हुआ कुर्ता, कुर्ते पर कशीदे से कढ़े हुए चमेली के फूल, फूलों में ताजा पान का रंग भरा हुआ। फंसा-फंसा चूड़ीदार पाजामा। निढाल-निढाल से रहते। पाजामे के अतिरिक्त किसी चीज में चुस्ती नहीं पाई जाती थी। लाल रेशमी नाड़े में ट्रंक की चाबी झूलती रहती थी। नाड़ा भी इतना छोटा कि उकड़ूं बैठ कर ताला खोलने से पहले खुद उसे खोलना पड़ता था। गर्मियों में चश्मे की चाँदी की कमानियाँ जलने लगतीं तो उन पर साइकिल का Value Tube चढ़ा लेते थे।
थियेटर के रसिया थे। चालीस साल पहले उन्होंने वर्तमान हीरोइन की नानी को एल्फ़्रेड थियेट्रिक्ल कंपनी के स्टेज पर पहले-पहल लखनऊ में देखा तो अपनी लकड़ियों की टाल को ठिकाने लगा कर, एक मूढ़ा मंडप में डाल लिया। जो काल की गति और चक्र से पसरता-पसरता रेलवे वेटिंग रूम की छह फिट लंबी हत्थे वाली कुर्सी बना और अब झलंगे का रूप धार चुका था। अगर नीचे मुरादाबादी नक्काशी वाला पीकदान न रखा होता तो उनकी कमर धरती से जा लगी होती। वो चंद्रमुखी तो एक अरसा हुए महफिल से जा ली मगर ये यहीं के हो रहे कि -
आसूदगी की जान इसी अंजुमन में थी
उस बीबी के होठ, गाल और आँखों के गुलाबी डोरों को याद करके हमेशा आँखें भर लाते लेकिन आखिर-आखिर में इतने भावुक हो गए कि अपने महोबे के गुलाबी नसों वाले पान की भी याद आ जाती तो गला रुंध जाता, जिसे किसी आवश्यक शेर से साफ करते। थियेट्रिकल कंपनी ने उन्हें कलाकारों का उच्चारण ठीक करने के लिए रोटी-कपड़े पर रख छोड़ा था। शेष चीजें ठीक होने से परे थीं। इसके अतिरिक्त पहली तारीख को सौ-डेढ़ सौ रुपए मासिक घाटा उनके नाम खाते में दर्ज करके भरपाई के हस्ताक्षर ले लिए जाते थे। यह मुंशी दिल के डॉयलॉगों में जहाँ-तहाँ दर्द के पैवंद लगाते जो कई बार मूल से भी बड़े होते थे। दर्द के चितेरे कहलाते थे। हमारे सिर में भी उनके डायलॉग से कई बार वो हुआ जिसके यह चितेरे कहलाते थे। किसी सीन में कोई बोल, भाव या अपना पैवंद लगा वाक्य पसंद आ जाए तो उछल पड़ते। जैसे बिजली का शॉक लगा हो। घुटनों के बल बैठ कर उन्हीं को जोर-जोर से पीटते। कला की प्रशंसा में अपने दोनों कान पकड़ते और जीभ बाहर निकाल कर नकली दाँतों तले दबा लेते। गर्दन दाएँ-बाएँ हिला कर जीभ निकाले गूंगी दाद देते। अंत में जब दर्शकों की दृष्टि स्टेज से हट कर उन पर केन्द्रित हो जाती तो कंकरी पर एक रुपए का नोट लपेट कर स्टेज पर फेंक देते। उनकी देखा-देखी तमाशाई भी सोने के दाँत वाली हीरोइन पर नोटों की बौछार कर देते। एक दिन किसी ने हमें बताया कि थियेटर वाले उन्हें सवा पाँच रुपए दिहाड़ी देते हैं जिनमें उनके फेंके हुए पाँच रुपए भी सम्मिलित होते हैं।
इस थियेटर में कोई किसी का बॉस या नौकर नहीं था। सब मिलजुल कर काम बिगाड़ते और एक दूसरे के सिरदर्द और समस्याओं में बढ़ोत्तरी करते। डायलॉग तो सामान्यतः मुंशी दिल के होते थे। लेकिन दर्शकों की बहुतायत और माहौल को देखकर कलाकार भी उनमें जोड़-घटाव करते रहते थे। जैसे किसी दिन हाल में पठान दर्शकों की संख्या अधिक हो तो सुल्तान सलाहुद्दीन अय्यूबी की जीत के दृश्य में सिर से कफन बाँध कर घमासान का खटक नाच होता वरना हम जैसों को तो कत्थक नाच पर टरका दिया जाता था और अगर किसी दिन फर्स्ट कलास में कोई बढ़िया काठिवाड़ी सेठ दिखाई दे तो मास्टर गफ्फार यानी फरहाद अपना गंडासा यानी तेशा, पहाड़ के दामन में फेंक देता और गुजराती गीत के द्वारा आसमानी ताकतों से तुरंत सहायता माँगता।
सैट डिजाइन : सैट और परदे भी सबके मशवरे से बनाए जाते थे, इसलिए सीनरी के हर रंग से मशवरा टपकता था। एक परदे पर आत्मालोकित कर देने वाला दृश्य इस तरह दिखाया गया था कि एक अलबेली मुटियार इच्छा और शालीनता दोनों से छोटा लाचा (तहमद) बाँधे सिर पर चम्पई रंग का एक गोल मटका रखे बिल्कुल उसी रंग और साइज के दो कूल्हे मटकाती पनघट जा रही हैं। जहाँ अमीर खुसरो के हुलिए का एक बूढ़ा बगल में नंगी तलवार दाबे ओक से पानी पी रहा है। सारा डोल खाली हो गया, मगर नजरें कह रही हैं 'गोरी! परदेसी की प्यास नहीं बुझी! और! दूर परिदृश्य में गाँव के जोहड़ में एक स्टीमर खड़ा है, जिसकी चिमनी के धुएँ से आसमान पर अल्लाह लिखा हुआ है। सामने गुलाबी घास पर हरे रंग की गाय चर रही है। कोने में गमला रखा है जिसमें गुलाब के फूल में चिनार के पत्ते लगे हैं। दाईं तरफ एक कुत्ता पूँछ से प्रश्नवाचक चिह्न बनाए खड़ा है। खेल के अंतिम सीन से पहले वर्तमान मैनेजर थियेट्रिकल कंपनी, स्टेज के किनारे पर खड़ा हो कर ऐलान करता कि पब्लिक के प्रबल आग्रह और कंपनी की मशहूरी के लिए यही खेल नई सीनरी के साथ दिखाया जाएगा। सीनरी में नयापन इस तरह पैदा किया जाता कि उन्हीं पर्दों का क्रम उलट दिया जाता। उदाहरण के लिए स्टेज पर घमासान की लड़ाई में किसी की वापसी का पल दिखाया जा रहा है तो पीछे पनघट वाले परदे पर दो चम्पई मटके मटक रहे हैं। प्रश्न वाचक पूँछ पूछ रही हैं -
कौन सी चाल है ये आग लगाते न चलो
ऐसे में... आँखों का दम न निकले तो कैसे न निकले?
निकाह रू - ब - रू बाअदब बामुलाहिजा : खेल में गजलें दाग देहलवी और नातें (मुहम्मद साहब विषयक काव्य) अमीर मीनाई की गाई जाती थीं। गालिब, इकबाल, हसरत मोहानी और फैज के अस्तित्व की कंपनी को बिल्कुल सूचना नहीं मिली थी। दाग का सिक्का घिस जुरूर गया था मगर खोटा नहीं समझा जाता था। इसी शताब्दी के तीसरे दशक तक तो स्थिति थी कि अगर दाग की शायरी की तमाम कॉपियाँ नष्ट हो जातीं तो तवायफें सारा कलाम लिखवा सकती थीं। अभी इसके आँखों देखे गवाह मौजूद थे कि निजाम के दरबार में जो ताजा गजल उस्ताद दाग पढ़ते वो एक हफ्ते में सीना-ब-सीना यानी हसीना-ब-हसीना दिल्ली, लखनऊ और रामपुर के रईसों तक पहुँच जाती थी (अतः शेर और शायरी से नफरत कराने का काम सिर्फ कव्वालों और तवायफों को करना पड़ता था) दाग ही के कथनानुसार सारे जहान अर्थात हिंदुस्तान में उनकी जबान की धूम थी। इसलिए इस थियेटर में, अकबर के दरबार में, फैजी की उपस्थिति में भी तानसेन दाग ही की गजल दागता था। व्यवस्था से तो यही लगता था कि अकबर दरबार का ढोंग ही हमें यह गजल सुनवाने के लिए रचाता था। क्या शान, क्या दबदबा था उस दरबार का। जब कंटीली कनीजों, चोबदारों, दरबारियों की दोहरी पंक्ति से मुगले-आजम कागज का फूल सूँघते हुए पधारते तो एक जाहिल नकीब रुपहली लाठी ठोक कर आवाज देता।
निकाह रू - ब - रू , बाअदब , बामुलाहिजा होशियार
तो सारे स्टेज की लकड़ियाँ और लड़कियाँ काँप उठतीं। खुदा जाने इसमें उसके गलत उच्चारण और नीयत का खलल या हमारी अपनी श्रवण-शक्ति का सौंदर्य था। निकाह की धमकी के अतिरिक्त होशियार भी इस घनगरज से अदा करता जैसे अंधेरी रातों को चौकीदार लाठी बजा-बजा कर चोरों को दुनिया के लोगों से होशियार और खबरदार करते हैं।
उस जमाने में हाल में सिग्रेट-बीड़ी पीने से कोई रोक न थी। अलबत्ता स्टेज के दाएँ खम्बे यानी बल्ली पर एक नोटिस चिपका था 'शराब पीकर दुंद मचाना, दंगा करना मना है।' हालात से तो यही लगता था कि दर्शकों ने इसका मतलब यह समझा कि बिना शराब पिये दंगा-फसाद करने पर कोई रोक-टोक नहीं।
मिर्जा रावण के रूप में : सच तो यह है कि स्टेज और एक्टिंग से हमारा परिचय बचपन में रामलीला और बाद में कॉलिज ड्रामा से आगे न बढ़ा और वो भी मिर्जा अब्दुल वदूद बेग की कृपा से। मुसलमान लड़कों को उस काल में रामलीला में कोई रोल देने का प्रश्न ही नहीं उठता था। हमें तो हनुमान जी तक का पार्ट न मिला। खैर इसका तो एक उचित कारण यह हो सकता है कि हमारे पूँछ नहीं थी। सूरत भी उस समय उनसे नहीं मिलती थी। उन दिनों मिर्जा (उम्र साढ़े 12 साल) मुहल्ले की सीता (उम्र 9 साल) पर जी जान से फिदा थे। कई बार उसका नाम लिख कर उसके घर की दिशा में पतंग उड़ाई ही नहीं बल्कि मुहल्ले के लौडों से कटवाई और लुटवाई भी। दसहरे से चार दिन पहले रामचन्द्र जी के दल के लोगों ने रावण की ऐसी पिटाई की कि कोई हिंदू लड़का रावण बनने को तैय्यार न हुआ। इस आड़े समय में मिर्जा ने अपनी सेवाएँ यानी पीठ पेश की। कहने लगे जब तक मेरे दम में दम है, मुहल्ले में रामलीला जुरूर होगी। एक बंदरिया के रूठ जाने से वृन्दावन सूना नहीं हो जाता। रावण के रोल में दिलचस्पी का एक मात्र कारण उनके लिए यह था कि इसमें सीता का अपहरण करने का मौका मिलता था। इसके अतिरिक्त मिर्जा के पास एक पालतू हिरन भी था जिसकी रामलीला में हर बरस जुरूरत पड़ती थी। मिर्जा को रावण का पार्ट मिला तो उन्होंने हमें अपना महामंत्री नियुक्त किया कि हम उस समय में भी उनकी अर्दली में थे। हमारा काम यह था कि जब वो सीता जी को लेकर भागें तो कम से कम दस मिनट हम उनके बदले में रामचन्द्रजी के भक्तों से मार खाते रहें ताकि वो दूसरी गली में अपहृता से जी भर के बातचीत कर सकें। दूसरा काम हमारे सुपुर्द यह था कि जब वो रावण के दस सिर वाले मास्क और पिटाई से पसीने में लथपथ हो जाएँ तो हम मोरछल से उन्हें हवा करें और एक बोतल लैमन्ड की छका कर लंका बचाने की योजना सुझाएँ....।
वंस मोरः यह हमें मिर्जा अब्दुल वदूद बेग ही ने बताया कि स्टेज के पहले पर्दे के ऊपर जो झालर होती है उसकी ओट में खाली मटकों की एक पंक्ति होती है जिनके पेंदे दर्शकों की ओर और मुँह एक्टर की ओर होते हैं। उनका उद्देश्य एक्टर की आवाज में गूँज और गरज पैदा करना था। ये माइक्रोफोन का पुराना स्वरूप थे। मिर्जा से ही ज्ञात हुआ उन्हें इस का पता तब चला जब एक घड़ा सोहराब के सिर पर ऐन उस समय गिरा जब वो नालायक अपने पिता रुस्तम से नितान्त जड़ित और सुसज्जित उर्दू में उद्दंड बातचीत कर रहा था। पर्दा खींचने के कर्तव्य स्वयं मैनेजर-कंपनी काली बो टाई लगाए अपने निजी हाथ से पूरे करते थे। विंग में दोहरे होकर इस तरह खींचते थे जैसे गहरे कुऐं में डोल को पनिहारी खींचती है। पर्दा गिराने में भी कई बार इतनी देर लगती कि स्टेज पर पड़ी हुई फिनाफ्थिलीन (लालरंग जो चंद मिनट में उड़ जाता है) के खून में लथपथ लाश में जीवन के चिह्न पैदा हो जाते। दर्शकों को मौत या कत्ल का कोई सीन विशेष रूप से पसंद आता और वंस मोर-वंस मोर की आवाजें आती तो उसे बार-बार दिखाया जाता। मृतक उठ-उठ कर हैदराबादी अंदाज में हाथ का चुल्लू बनाए सबको आदाब और तसलीमात बजा लाता और फिर मर कर दिखाता। लेकिन इसको क्या किया जाए कि कई ड्रामे ऐसे ही होते थे जिनमें वास्तविक दोषी यानी लेखक के अतिरिक्त सब की हत्या कर दी जाती थी। हर चरित्र को चुन-चुन कर चरित्र से बाहर कर दिया जाता। खेल शुरू होने से पहले पर्दे के पीछे से कोई साहब घड़े में मुँह डाल कर गूँजदार आवाज में लाख बुरा चाहने वाले मुद्दई को सूचित करते
वही होता है जो मंजूरे - खुदा होता है
लेकिन अगर इससे उनका अभिप्राय वो था जो स्टेज पर होता था तो इसकी मंजूरी का दोष खुदा पर रखना, मुंशी रियाजत अली 'सोख्ता' का हक मारना होगा।
ट्रेजडी को कॉमेडी में बदलने का ढंग : उस काल के चलन के अनुसार ट्रेजेडी को कॉमेडी का रंग देने का यह ढंग निकाला गया कि अंतिम सीन में आशिक की कब्र दिखाई जाती जिस पर एक हजार कैंडिल पावर की रौशनी बरस रही होती। दुखियारी हीरोइन काला बुरका और काली चूड़ियाँ पहने भट्टा सा मुँह खोले आती है। स्टेज के पिछवाड़े में खाली कनस्तरों पर कूद-कूद कर बिजली कड़कने का साउंड इफेक्ट दिया जाता है। हीरोइन एक हाथ में छतरी और दूसरे से गरारे के पांयचे उठाए हुए हैं। जिसका भरी बरसात के अलावा भरी-भरी पिंडली का दृश्य दिखाना भी उद्देश्य है। वो अस्सलाम-अलैकुम कह कर कब्र से लिपट जाती है। उसकी आँखों के अलावा स्टेज पर भी अंधेरा छा जाता है। बिजली फिर कड़कती है और कब्र फट जाती है। इसमें दफ्न हीरो अलीगढ़ कट पाजामा, तिरछी रामपुरी टोपी और इत्र सुहाग लगाए कफन फाड़ कर प्रकट होता है। हीरोइन कब्र छोड़ कर कब्र वाले के गले लग जाती है और दोनों कब्र पर बैठ कर विलम्बित में हम्द (ईश्वर की प्रार्थना) गाते हैं और आसमानी और साँसरिक विपत्तियों को ललकारते हैं। हाल तालियों से गूँज उठता है या फिर जन्नत का दृश्य होता है जिसमें मुर्दों की सरगर्मियाँ दिखाई जाती हैं। स्वर्गवासी यानी शीरीं और फरहाद जन्नत के बाग में चुहलें करते दिखाए जाते हैं। फरहाद बढ़ कर शीरी को बांहों में खींचता है तो वो मुहावरेदार उर्दू में यह कहती हुई कि 'हटो! यहाँ भी कांटों में खींचते हो', कांटों को गले से लगा लेती है। हीरो इसका जवाब साधारण और सहज सिसकियों में देता है। मृतकों के पाँच बच्चे भी दिखाए जाते हैं। जिनकी उम्रों में केवल एक-एक महीने का अंतर होगा कि यह मुंशी रियाजत अली 'सोख्ता' के दिमाग की कोख से जन्मे थे। हॉल तालियों से गूँज उठता है।
मुश्किल से ही कोई ऐसा ड्रामा होगा जिसमें कर्त्तव्य और प्यार की खूनी टक्कर न दिखाई जाए। उदाहरण के लिए मुंशी रियाजत अली 'सोख्ता' सन्डीलवी ने पाँचों उँगलियाँ दिल के खून में डुबो कर आँसुओं में डूबा एक सीन लिखा था। जिसमें शहजादा सलीम अपने ही नाम की शाही जूती पहने स्टेज पर लंबे-लंबे डग मारता भावनाओं की उथल-पुथल में तल्लीन दिखाई जाता है। एक ओर फर्ज है दूसरी ओर मुहब्बत और तीसरी ओर जिधर मुंशी जी की नजर नहीं गई-अक़्ले-सलीम यानी ण्दस्स्दह एाहेा अनारकली के गिरेबान में मुँह डाले खड़ी है। अंत में तीनों लहूलुहान हो जाते हैं। जीत किसी की नहीं होती। जीत होती है मुंशी रियाज अली 'सोख्ता' के एक भैंगे शेर की लाइन की, जिस पर खेल का खात्मा होता है।
स्टेज के प्राणलेवा उपकरण : फर्स्ट क्लास में बैठने वालों को ग्रीन रूम में जा कर कलाकारों को बधाई के अतिरिक्त नकदी देने पर भी पाबंदी नहीं थी। ग्रीन रूम की दीवारें चटाई की और खम्बे बाँस के थे। छत याद नहीं काहे की थी। संभवतः सीमेंट की नहीं थी। चिक से थोड़ी दूर मेकअप के लिए एक खोखे पर चेचकदार आदमकद शीशा रखा था। इस शीशे में चेहरा दिखाई पड़ना तो बाद की बात है, खुद शीशा ही दिखाई नहीं पड़ता था। आदमकद हमने इसलिए कह दिया कि आदमी का कद साढ़े तीन फिट भी तो हो सकता है। उसकी बगल में तख़्ते-ताऊस पड़ा था जो अच्छे दिनों में डेन्टिस्ट की कुर्सी रह चुका था। अब इस पर नादिरशाह दुर्रानी के दाँत थे। चारों ओर प्रोफेसर काजी अब्दुल कुद्दूस के अनुसार नाटक के प्राणलेवा उपकरण बिखरे पड़े थे।
नूरजहाँ के दो कबूतर, निजामे-सक्का की मशक जिसने हुमायूँ की शेरशाह से जान बचाई। मजनूँ का गिरेबान। लात घूंसे खाने वाले विलेन का सुरक्षा पैड, साइड हीरोइन की चोली भरने के लिए गूदड़ जो संभवतः किसी तेली के लिहाफ में से निकाला गया था और जिसका उद्देश्य 'जोश मलीहाबादी' के कथनानुसार 'झल-झल करती चुस्त अंगिया की कटोरियों में निर्माणाधीन ताजमहल की हुमकार दिखाना था।' साइकिल के अगले ब्रेक को चौड़ा करके बनाया हुआ स्टेथेस्कोप जिसे कानों से लगा कर रोगिणी के गूदड़ का मुआयना होता था। पेशाब टैस्ट करने वाली लैबोरेट्री से खरीदी हुई खाली बोतलें, जिन्हें राणा साँगा से युद्ध करने से पहले तोड़कर बाबर शराब न पीने की प्रतिज्ञा करता था। बाथरूम फ्लश की जंजीर जिस पर सुनहरा पेंट किया हुआ था जिसे खींच के फरियादी जहाँगीर से फौरन हाजत मिटवाना चाहते थे। शीशे के पास वैम्प की रबड़ की नाक पड़ी थी जिसे वो कुल्टा हर रात कटवाती थी। इतवार को दो बार कटवाती थी, इसलिए कि मैटनी शो में भी बदचलनी से बाज नहीं आती थी।
चूड़ीदार पाजामा : खेलों में औरतों के कपड़ों की काँट-छाँट तो स्पष्ट है वही थी जो उस काल में अल्ट्रा मार्डन समझी जाती थी यानी वो जो आजकल हर घर में दादियां-नानियाँ पहनती हैं। लेकिन एक बिंदु आज तक समझ में न आया। वो यह कि जब औरत को पवित्र-पतिव्रता दिखाना उद्देश्य होता तो उसे चुना हुआ दुपट्टा और सफेद चूड़ीदार पाजामा पहनाया जाता। ताड़ने वाले महीन-महीन चुन्नटों और पाजामे की चूड़ियों की गिनती से चरित्र की प्रखरता का अंदाजा लगा लेते। लेकिन जब वो बुरे रास्ते पर चलने वाली होती तो साड़ी पहन लेती। इसलिए जैसे ही कोई औरत साड़ी पहन कर स्टेज पर प्रकट होती, दर्शकों के दिल के कमल खिल जाते। उम्मीद भरी नजरों से थपथपाते। देर तक तालियाँ बजतीं। जिनके मुँह में दाँत थे वो सीटियाँ भी बजाते। हद ये कि अनारकली ने मुगले-आजम के सामने भी मराठी स्टाइल में साड़ी बाँध कर घायल मोरनी का डांस किया। यह डांस अतुलनीय और अद्वितीय था। इस कारण से कि पहले तो मोरनी कभी नाचती नहीं दूसरे इस मोरनी के पैर सुंदर होने के साथ-साथ मुहावरे वाले भारी भी थे और इस स्थिति की जिम्मेदारी शहजादा सलीम की बजाए एक शरारती चोबदार पर थी। डांस के मामले में अनारकली की छोटी बहन सुरय्या और भी संक्षेप प्रिय साबित हुई।
सीना - ए - हमशीर से बाहर है दम हमशीर का
पर्दा उठता है : शो के समय के लिए थियेट्रिकल कंपनी घड़ी-घंटे की दास नहीं थी। 2/3 हाल के टिकिट बिक जाएँ तो फिर एक घंटे से अधिक इंतजार नहीं करना पड़ता था। टिकिट घर की खिड़की पर एक चार फिट की लंबी तख्ती स्थाई रूप से लगी रहती थी - हाउसफुल नहीं है।
पर्दा उठने से पहले तीन रहकले दागे जाते थे। यह वही तोपें थीं जिनके चलते ही एक खेल में दुश्मन के हाथी इस बुरी तरह बिदके थे कि एक तो अपनी चप्पल और बीड़ी का बंडल भी छोड़ गया। प्लासी की जंग में जब यह बौनी तोपें चलती थीं तो जितनी दूर गोला जाता, उससे दो चार गज अधिक उछलकर यह स्वयं पहुँच जातीं। जो अय्यार फिरंगी गोले से बच निकलता वो उनसे ढेर हो जाता। पर्दा उठते ही सब मिल कर सलामी गाते। थियेटर की धुनों के टुकड़े, कभी-कभार रेडियो की ट्रांसक्रिप्शन सर्विस से प्रसारित होते हैं तो एक दूसरे संसार में ले जाते हैं। किसी की याद से जुड़ी खुशबू का झोंका, किसी भूले बिसरे गीत की गूँज एक पल में उस समय को सामने ला कर खड़ा कर देती है जिसे जीवन के किसी मोड़ पर अकेला छोड़कर हम आगे चले आए।
सफाई के वकील : ढाई-तीन साल तक तो इतवार भी बैंक में बीतता था। कुछ समय मिलना शुरू हुआ तो इतवार की सुबह पाक बोहैमियन काफी हाउस में मिर्जा अब्दुल वूदुद बेग और प्रोफेसर काजी अब्दुल कुद्दूस से अंतर्राष्ट्रीय विषयों पर बहस करने जाने लगे और तीसरे पहर इस थियेटर में नियमित उपस्थिति। इतवार का मैटनी शो पाबंदी से देखने वालों को दो आने की छूट दी जाती थी। लेकिन हमें कभी उस छूट से लाभ उठाने का अवसर नहीं मिला, इसलिए कि हम हमेशा ताहिर साहब एडवोकेट के मेहमान होते थे। माननीय कंपनी के पहली रात से सफाई वकील थे। (कंपनी अदालत, कचहरी, कॉर्पोरेशन और थाने में हमेशा दोषी की ही हैसियत से उपस्थित होती थी) ताहिर साहब कंपनी से नकद फीस नहीं लेते थे। परिचितों को अधिक से अधिक संख्या में घेर-घार कर ले जाते थे जिसका मूल उद्देश्य तफरीह से अधिक कंपनी को आर्थिक हानि पहुँचाना था। तलाक के स्पेशलिस्ट थे। प्रसिद्ध था कि उनकी परछाईं भी पड़ जाए तो निकाह टूट जाता है। कराची सिटी कोर्ट को केंद्र बना कर परकार से 20 मील का एक घेरा खींचा जाए तो उसमें तलाक चाहने वाली कोई ही औरत बची होगी जिसने उनसे संपर्क न किया हो और अपना इच्छित मोती अर्थात तलाक प्राप्त न किया हो। उनसे भी सामान्यतः फीस नकद नहीं लेते थे। एक देहाती बात याद आ रही है कि आसमान की चील, चौखट की कील और कोर्ट के वकील से खुदा बचाए। नंगा करके छोड़ते हैं। ताहिर साहब की बातों में बला का लोच था। वो झूठ भी बोलते तो जी चाहता कि खुदा करे यूँ ही हुआ हो। हमारे चाहने वाले और कद्रदान थे। दो-तीन बार हाथ पकड़ कर ग्रीन रूम में ले गए अपनी... चहेती सोने के दाँत वाली एक्ट्रेस से परिचय कराया। मेकअप के बिना वो और भी सुंदर लग रही थी।
सात-आठ महीने बाद ताहिर साहब मिस्टर A.T.Naqvi के पैन के झटके से एरिया मजिस्ट्रेट बन गए। उनका इलाका नेपियर रोड और जापानी रोड (कराची का बाजारे-हुस्न) से शुरू होकर शायद वहीं समाप्त होता था। अब कुछ और ही दबदबा था। घर पर समस्याग्रस्तों की भीड़ रहने लगी। दिल का दौरा पड़ने के बाद शराब और रिश्वत में संतोषी हो गए थे। पुराने, दोस्तों से मिलते अब भी तपाक से थे मगर पुरानी लंबी बैठकें गईं। एक दिन रास्ते में मुठभेड़ हो गई तो हमने शिकायत की, अब आप महीनों अपने भक्तों की खबर नहीं लेते। बुरा माने बिना बोले। अगर किसी से बरसों भेंट न हो तो समय लीजिए कराची में ही है और सुरक्षित है।
हमने मुजरा देखा : उनके बेटे के खत्ने हुए तो दोस्तों ने फर्माइश की कि जिंदा नाच देखने को आँखें तरस गईं। उन्होंने संबंधित पुलिस इंस्पेक्टर तक फरमाइश पहुँचा दी। उस जालिम ने सारे शहर की तवायफों को बजरी ढोने के ट्रकों में लाद कर हाजिर किया। पाकिस्तान बनने के बाद यह शायद पहली रात थी कि शहर में कहीं मुजरा न हुआ। मुजरा यहाँ भी नहीं हुआ, इसलिए कि नाजिमाबाद के इस चार सौ गज के मकान में तवायफें ऐसी ठंसाठंस भरी थीं कि मुजरा तो क्या तबला धरने की जगह न रही। जो जहाँ बैठी थी वहीं नृत्य मुद्रा दिखा के बैठ रही। एक मनचली ने बैठे-बैठे ही तबले की थाप और ततकार के साथ कूल्हा भी लगाया। मगर ऐसे ही जैसे अचानक आँख अपशगुनी से फड़कने लगे और सारा बदन देखा रह जाए। प्रोफेसर काजी अब्दुल कुद्दूस ने अपनी पॉकेट डायरी में हिसाब लगा कर हमारे कान में रहस्य खोला कि प्रति दर्शक साढ़े 17 तवायक पड़ रही हैं और ढेर सारी नायिकाएँ बाहर हैं।
सोने के दाँत वाली लड़की : एक मनहूस सुबह ताहिर साहब के पड़ौसी ने सूचना दी कि ताहिर साहब सुबह-सुबह पाँच बजे चल बसे। अंत-पंत वो खून की फुटकी जो उनकी शिराओं में पाँच साल से आँखमिचौनी खेल रही थी, मस्तिष्क तक पहुँच गई और वो हँसते खेलते उस घाटी से गुजर गए जिससे हर जीवित प्राणी की गुजरना है। जिंदादिलों की तरह वो भरा मेला छोड़ कर चल दिए। मेला बिछड़ने की प्रतीक्षा नहीं की। दो महीने बाद सुना कि उस सोने के दाँत वाली लड़की ने भी बंदर रोड के पिछवाड़े में एक झोलाछाप डॉक्टर के कसाईखाने में ऑप्रेशन के दौरान दम तोड़ दिया। खून किसी तरह बंद न हुआ। ए.बी. ग्रुप का कम मिलने वाला खून सड़क के उस पार सिविल अस्पताल में उपलब्ध था मगर उसे वहाँ शिफ्ट करने के लिए डॉक्टर किसी तरह तैय्यार न था। देखते-देखते उसका बदन पीला पड़ता गया और आँखें चमक खोती गईं। कुछ ही पल की मेहमान थी कि कंपनी मैनेजर ने साबुन लगा कर उसकी अँगूठी उतारी, फिर लौंग और ताहिर साहब की दी चूड़ियाँ उतार कर रख लीं। दाँत पर से सोने का पत्तर उतारने की कोई सूरत न थी। उसके माथे पर बालों के पास रात के मेकअप के निशान शेष थे। मुंशी रियाजत अली और चार-पाँच साथी रातों-रात उसे मेवा शाह कब्रिस्तान में ताहिर साहब की पायंती गाड़ आए। उसके बदन ने हवस की बहुत मार सही थी, नर्क में इससे बढ़ कर और क्या होगा।
और इनके बाद वो थियेट्रिकल कंपनी बंद हो गई।
उस समय में भी कराची में सिनेमाघरों की कमी न थी। अंग्रेजी फिल्में खूब दिखाई जाती थीं। हिंदुस्तानी फिल्मों पर भी कोई रोक-टोक नहीं थी। इसके बावजूद भी कराची की इस पहली और शायद अंतिम थियेट्रिकल कंपनी की बात ही कुछ और थी। हमारी गिनती तो खैर यूँ ही सी थी मगर हमने यहाँ ऐसे-ऐसे नकचढ़ों को आते देखा जो हॉलीवुड की अच्छी-अच्छी फिल्मों को किसी गिनती में न लाते थे। बात यह है जिसे एक बार स्टेज का नशा हो जाए तो जब तक आँखों में दम है उसका हुड़का नहीं जाता। जिसने एक बार गोश्त-पोस्त का रूप-बहरूप देख लिया उसको फिर कभी परछांई से तसल्ली नहीं होती। यह उसी का जादू नहीं तो और क्या है कि एक अभावग्रस्त थियेटर का नाम कहानी कहते-कहते आया और हमने पन्ने के पन्ने लिख डाले। कौन जाने इसी बहाने दुख और दवा का हक अदा हो जाए जिसने एक अज्ञात और गूँगे के न जाने कितने उदास पलों में उजाला किया। बाहर अंधेरा ही अंधेरा था।
स्वर्गीय मिस्टर विलियम शेक्सपियर : बीस बरस उधर की बात है ऐसा ही एक इतवार और ऐसा ही एक शो था। खेल शुरू होने से पहले 'मैनेजर-कंपनी' ने दर्शकों के आने पर धन्यवाद देते हुए ऐलान किया कि अब स्वर्गीय मिस्टर विलियम शेक्सपियर का ड्रामा रोमियो जूलियट चार कत्थक डांस के साथ पेश किया जाएगा। मिस्टर विलियम शेक्सपियर अंग्रेजी ड्रामे के स्वर्गीय आगा हश्र कश्मीरी हैं। (हमें तो आज तक इन दोनों में स्वर्गीय होने के अतिरिक्त कोई बात साँझी न दिखाई पड़ी। दर्द के चितेरे मुंशी रियाजत अली 'सोख्ता' संडीलवी ने स्वर्गीय मिस्टर विलियम शेक्सपियर के डॉयलौग में से बीस अभद्र वाक्य निकाल कर स्वर्गीय हाली की मुसद्दस के पच्चीस शालीन शेर डाल दिए हैं।
दूसरा नाटक : निगाहें परदा उठने की प्रतीक्षा में थीं कि मिस्टर एंडरसन का ड्राइवर गफ्फार हमारी खोज निकाल कर ढूँढता-ढूँढता यहाँ पहुँच गया। यह नौकर अपने मालिक ही के मुँह नहीं उसकी बोतल के भी मुँह लगा हुआ था। मौलाना अशरफ अली थानवी ने एक जगह बड़ी पते की बात लिखी है। कहते हैं एक शरारती का कथन है कि मौलवियों और रंडियों के नौकर आलसी होते हैं। क्योंकि जहाँ उनके मुँह से कुछ निकला, बहुत से उपस्थित लोग काम करने को दौड़ पड़ते हैं। इसलिए उनके नौकर बेकार और आलसी हो जाते हैं। इस ग्रुप में हम योरोपियनों की भी बढ़ोत्तरी कर सकते हैं। वो अपना काम आप करने के अभ्यस्त होते हैं, इसलिए उनके नौकर हाथ पर हाथ धरे जबान चलाते रहते हैं। यह ड्राइवर भी बिगड़ चुका था। रात को चोरी की शराब के नशे में धुत्त न हो तो बैंक की कार चोरी-छिपे प्राइवेट टैक्सी के तौर पर चलाता था। रात गए शहर से दूसरे देश के नाविकों और टूरिस्टों को एक प्राइवेट चकले में ले जाता, जहाँ केवल पौंड और डॉलर में मेहनताना वसूल किया जाता। गफ्फार मुँह माँगा किराया और दोनों पक्षों से कमीशन लेता था। एक रात मलेर से वापसी में एक यूनानी नाविक से उलझने की कोशिश में नाक तुड़वा बैठा और कार छोड़ कर ऐसा भागा कि फिर न लौटा। सुबह दस बजे ड्रग रोड थाने ने हमें फोन पर सूचित किया कि कार संदिग्ध हालत में खड़ी है। कच्चे में उसके टायरों के निशान से पता चलता है कि कार ने चोरी से पहले पेट्रोल की जगह शराब पी रखी थी। उसे ले जाएँ आपको कुछ नहीं कहा जाएगा।
गफ्फार जोधपुर का रहने वाला था। उसके उच्चारण और मारवाड़ी लहजे की नकल बहुत कठिन है। हर शब्द के आगे पीछे के अक्षर में ह की ध्वनि मिला कर बोलें तो शायद लहजे में वो धड़धड़ाकर और धूँ-धाँ पैदा हो जो राजस्थानी बोल का ठाठ और सिंगार है। छूटते ही कहने लगा आपको तमाशबीनी की पड़ी है। उधर बड़ा साहब मुँह हन्देरे से हूदम मचा रहा है। दारू का हद्धा चढ़ा गया है। आपको तो वो केस अच्छी तरह याद होगा। इसके यार मिस्टर जेम्स का नंगी हालियत में कत्ल, जब निमुछिए लौंडे ने शराब के गिलास में तेजाब भर के उसकी आँखों पे फेंका। फिर झट देनी डबल रोटी काटने की छुरी से काट डाला। वो दिन है और आज का दिन, बड़ा साहब बोतल मुँह से लगा कर पीता है। लतीफी साहब (एक बड़े अफसर जिनसे एंडरसन की बिल्कुल नहीं बनती थी) से शीशे में खड़ा तू-तकार कर रहा है। बल्कि अंग्रेजी में फादर-मदर कर रहा है। बड़े-बड़ों की शान में एक के बाद एक गुस्ताखी हो रही है। ग्यारह बजे उसने लतीफी साहब की कनपटी पे कस के ऐसा घूंसा मारा कि शीशा किरची-किरची हो गया। सारा घमंड मिट्टी में मिल गया। घूंसा भी खूनमखून हो गया। अभी-अभी डॉक्टर बटरफील्ड को बुला कर पट्टी करवाई है। आपको सलाम बोलता है। आर्डर है आप जिस हालत में भी हों, गाड़ी में डाल के तुरंत हाजिर करूँ। किस्सा खो ताह धरम-गरम होने वाला है। सवेरे से मालजादी बाईं आँख फड़के जा रही है।'
'क्या लतीफी साहब को भी बुलाया है?'
'नहीं'
बहुत आग चिलमों की सुलगाने वाले : लतीफी साहब के दंडित लोगों के समूह में हम विशेष स्थान पर विराजते थे। दो महीने पहले वो हमारी रोजी-रोटी का दरवाजा बंद करने की धमकी दे चुके थे और हम भी इतने तंग आ चुके थे कि सुबह का सलाम तक बंद कर दिया था। इसके अलावा और कुछ बंद करना हमारे वश में था भी नहीं। यह सही है कि हम दुम दबाए रहते थे लेकिन अब इतने गए-बीते भी नहीं थे कि उस पर किसी को खड़ा होने दें। उन्होंने अपने आस-पास नाकारा लोग इकट्ठे कर रखे थे। जो दूसरों के लिए भी वो पसंद न करते थे जो अपने लिए भी नापसंद करते थे यानी काम। उनका काम केवल लतीफी साहब की हर अदा, हर लतीफे पर लोट-पोट होना था और हम बड़े लोगों की हाँ में हाँ मिलाने से इसलिए भी बचते हैं कि अगर हम किसी की राय से सहमत हों तो लोग उसे मूर्ख समझते हैं। मुहम्मद हुसैन आजाद यह नहीं कहते कि अकबर अनपढ़ जाहिल या काहिल था। लिखते हैं 'ज्ञान ने उसकी आँखों पर चश्मा न लगाया था और कला ने उसके दिमाग पर कलाकारी खर्च न की थी।' जैसे सारा दोष और सारी कोताही ज्ञान और कला की ठहरी जो सरासर हरामखोरी और लालायकी पर उतर आए। लेकिन लतीफी साहब के दरबार के नवरत्न भी अपने बादशाह पर पड़े थे। यानी चश्मे इत्यादि की व्यवस्था से परे थे।
वो बगैर चश्मे के यहाँ से कहाँ पहुँच चुके थे और हम? हम मिर्जा के अनुसार समाज की वो पसली हैं जिसमें कोहनी मार-मार कर आगे बढ़ने वाले आगे बढ़ते हैं। अब जो ठंडे दिल से हिसाब करते हैं तो मानना पड़ता है कि हमारी मिट्टी पलीद होने में उनके गुस्से से अधिक हमारी अपनी नासमझी और अनुभवहीनता कारण थी। मतलब यह कि हम जनरल मैनेजर के इतने निकट हो गए थे कि उसके गुस्से की शुरुआत हमसे होती थी। पश्तो कहावत है 'साँडों की लड़ाई में मेंढक कुचले जाते हैं।' सो हमारा भी मलीदा हो गया मगर टर्राना नहीं गया। देखा जाए तो लतीफी साहब से क्या झगड़ा हो सकता था। उनकी एक छोटी सी अफसरी आवश्यकता थी जिसे हमारा घमंड न समझ पाया -
मुझको भी पूजते रहो तो क्या गुनाह हो
लतीफी साहब की आयु हमसे 12 साल, सूझबूझ 24 साल और तनख्वाह 1600 रुपए अधिक थी। इसलिए इसे सही माने में लड़ाई नहीं कहा जा सकता, हम स्वयं रेल की पटरी पर इंजन को चैलेंज करने के लिए सीना तान कर लेटे थे।
तिनका बल्कि तिनकी : ऊँट की कमर जिस परंपरागत तिनके से टूटी वो उनकी क्रिश्चियन सेक्रेटी मिस राठौड़ थी। जिसके तीर ने जमाने में कोई निशाना न छोड़ा। उसके मिजाज में ही नहीं काम में हस्तक्षेप करती थी। पहले गर्रा ही गर्रा था। अब गुर्राना भी शुरू कर दिया। हमसे भी गुर-गुर करने लगी थी। हमारी जगह कोई और होता तो उसे भी शीशे में उतार लेता या स्वयं उतर जाता कि यूँ भी औरत की ऐड़ी हटाओ तो उसके नीचे से किसी न किसी मर्द की नाक जुरूर निकलेगी। मगर इसको क्या करें कि तबियत ही गुस्सैली और जल्दी गर्म होने वाली पाई है। मित्रों की कृपा न रहे या संसार के काम हमारी इच्छा से न चलें तो बिलबिला उठते हैं। जहाँगीर के काल में होते तो हम चौबीसों घंटे न्याय के घंटे से ही लटके रहते। उस बेचारे का सोना-लेटना हराम हो जाता। मुसीबत ये थी कि हम सदा के जबान के फूहड़ निकले और वो चुगलखोर निकली।
यार लोगों ने मशहूर कर रखा था कि यह स्टेनोग्राफर दिन भर सामने बैठी अपने बॉस को अपनी इच्छाएँ डिक्टेट करवाती रहती है। हमने जब देखा, स्वेटर बुनते या धनी-मानी सेठों पर मुस्कुराते देखा। मिस राठौड़ का नाम न जाने क्यों और कब से मिस रणथम्बौर चला आता था। बड़े-बड़े अफसरों के साथ नत्थी रह चुकी थी, इसका कारण तो हमें नहीं मालूम। अलबत्ता रणथम्बौर के दुर्ग के बारे में इतना याद पड़ता है कि उस पर हर बादशाह ने धावा बोला। किसी ने मनजबीक से जीता। कोई घोड़े को ऐड़ लगा कर खंदक फलांग गया। कोई दीवार ढाते-ढाते स्वयं ढह गया। किसी ने रात को धावा किया और कोई दिन दहाड़े फौलादी कीलों की अनी को बलवंत हाथियों के मस्तक से मोड़ता-तोड़ता मुख्य द्वार को रेलता-धकेलता झंडा उड़ाता हुआ दुर्ग में घुस गया। हमने धावा नहीं बोला अन्यथा परीक्षा में तो हर बादशाह का नाम और उसके बाद डेढ़-दो पन्नों में रणथम्बौर का रटा-रटाया शाब्दिक चित्र खींच कर लिख देते थे। उल्लेखित ने... दुर्ग पर चढ़ाई की।
ड्योढ़ा आदमी : लतीफी साहब बहुत मिलनसार, मीठे स्वभाव, प्रसन्न चित्त और कुशल व्यक्ति थे। उनकी योग्यता उनके हौसलों के साथ पैर मिला कर नहीं चल सकती थी। सीधी सड़क से उन्हें सख्त उलझन होती थी। हर समय शार्टकट की खोज में रहते, चाहे वो कितना ही ऊबड़-खाबड़ क्यों न हो। उसकी खोज में अक्सर दुगना समय लग जाता। गर्मियों में भी बास्कट पहनते थे। इसलिए कि उसकी जेबों में अँगूठे डाले बिना बात नहीं कर सकते थे। दुश्मनों ने उड़ा रखी थी कि चोरी-छुपे पाँच बसें चलाते हैं जिनकी आमदनी को हर महीने की ग्यारहवीं को नियाज दिला कर पवित्र कर लेते हैं। आखिर जन्नत का भी तो कोई शार्टकट होगा। खोजी निगाहों ने कहाँ-कहाँ उनका पीछा न किया। इतवार को देखा ऐंग्लो इंडियन लाल भभूका छोकरियों को कार में भर के नहलाने-धुलाने सेंड्ज पिट ले जा रहे हैं। अभी कार की सीटें ठीक से ठंडी भी नहीं हुई होंगी कि देखा कि उसी कार में अटाअट मौलवी ठूंसे कुरआन पढ़वाने घर ले जा रहे हैं और डिक्की में इतनी ही अदद मुर्गियां भरी हुई हैं। सनीचर की रात को वो 'लागोरमे' में इस तरह डांस करते देखे गए कि दूर से तो यही लगता था कि अभी तो पंजे लड़ा रहे हैं, पल की पल में गुंथ मरेंगे। लोगों ने उन्हें पाक-पत्तन के मजार पर मकबरे की जाली पकड़े आँसुओं में भी डूबे देखा। स्वयं हमने 1952 में झुग्गियों में सात रुपए सेर के बंबई के अलफ़ांसो आम बाँटते देखा। कहते थे रोटी तो रूखी-सूखी सबको मिल जाती है लेकिन कल्मी आम गरीबों को बरसों नहीं मिलते। बकरा ईद पर पंद्रह-बीस बकरे काटते थे ताकि सरकार के बड़े अफसरों को पूरी रानें भेज सकें। छोटे-बड़े हर बिजनेसमैन से उनकी दुआ-सलाम थी। सबसे झुक कर मिलते। सबसे तगड़ा ब्याज लेते और तकाजे में भी शहद घोल देते। अपना काम निकालने का हुनर जानते थे। धरती में छोटा-सा छेद करना हो तो पूरी क्षमता से कुदाल चलानी पड़ती है लेकिन मिट्टी में मिला हुआ बीज, कोमल अंखुए, नर्म पनेरी किस धीरज से उसी धरती को एक अदा से मना के निकल आते हैं।
लतीफी साहब को कामयाब होने में देर नहीं लगी। इसलिए कि संसार जिस कोण से टेढ़ा है उसी कोण तक उन्होंने अपने चाल, चरित्र और चेहरे में टेढ़ापन पैदा कर लिया। कहते थे बिजनेस में केवल घाटा हराम है। शेष सब चलता है। हर पकड़-हर दाँव, अरे बाबा यह तो एक खेल है। नाटक में हर आदमी स्वांग भर कर अपना-अपना डायलॉग बोलता है। खेल खत्म, डायलॉग खलास। झूठ-सच का सवाल कहाँ, कठपुतलियों के लिए क्या पाप-क्या पुण्य। पैसा खुदा न सही मगर कितना उपयोगी-प्रभावी और काम आने वाला है। पैसे से क्या-क्या खरीदा जा सकता है। पैसे के नाखुन से कैसी-कैसी गाँठें खुल जाती हैं।
लक्ष्मी किस - किस चीज की भेंट माँगती है : आदमी यह व्यवहार और व्यापार सारा जीवन देखता रहे और दुखी-उदास न हो तो यह बड़े ही हौसले या फिर उतने ही पत्थरदिल होने की बात है। दो ही रास्ते हैं या तो आदमी खरा-खोटा परखने की कसौटी निकटतम गटर में फेंक कर निश्चिंत हो जाए या फिर सारे संसार से नाता तोड़ कर अपने अस्तित्व की गुफा में अपना निर्वाण आप ढूँढे। यूनानी देवमाला की देवी मैडूसा गौरमन ने धरती की कोख से जन्म लिया था। उसके जीवन का एकमात्र उद्देश्य, ज्योति (प्रकाश) से बने देवताओं को पराजित, नष्ट करना था। कोई मनुष्य उसका वध नहीं कर सकता था इसलिए कि जैसे ही उसके चेहरे पर नजर पड़ती आदमी पत्थर का हो जाता। अंत में परसीयस नाम के एक युवा ने यह तरकीब निकाली कि अपनी चमकायी हुई ढाल में उसकी छवि देख कर तलवार के एक ही वार से सिर धड़ से अलग कर दिया। तो साहिबो! यह दुनिया उस समय तक दिलों को पत्थर में बदलती रहती है जब तक इंसान किसी आदर्श या आस्था की ढाल में छवि देख कर उसके गले की नसें न काट दे और एक बार फिर इस बरबाद जगह को मनुष्यों के रहने लायक बना दे।
अरस्तू की भेंट : लतीफी साहब का कथन है कि जीवन के हर दुख का निवारण, सभी समस्याओं का हल किसी न किसी मनुष्य के हाथ में है। इसलिए कि मनुष्य ही समस्याओं का निर्माता है और वही समस्याओं का हल करने वाला। इसलिए उसी के चरण चूमो, उसी से सहायता लो, फिर बेड़ा पार है। उनकी अपनी नैय्या न केवल मंझधार पार कर चुकी थी बल्कि रेगिस्तानी किनारे के मीलों अंदर घुस चुकी थी। इतवार की सुबह को दिल्ली की निहारी पर बीस-पच्चीस समस्याओं के निर्माता निमंत्रित होते। कव्वाली और कॉकटेल के आशिक थे। अक्सर कहते कि 'आदमी की यही दो किस्में होती हैं। इन आयोजनों में दोनों से भेंट हो जाती है।'
जो वाँ न खिंच सके वो यहाँ आ के दम हुए
'सफल बैंकर बनने के लिए पिचहत्तर प्रतिशत यारी, पचास प्रतिशत मक्कारी और पच्चीस प्रतिशत निहारी चाहिए। निवेदन किया 'जनाब! यह तो डेढ़ सौ प्रतिशत हो गया।' बोले, 'और क्या! यह प्रोफेशन तो ड्योढ़ा आदमी माँगता है। आधे-पौने से काम नहीं चलेगा। यूनिवर्सिटी की प्रोफेसरी थोड़ा ही है कि जीवन पर किताबें पढ़-पढ़ कर एक किताब और लिख मारी। अजी कहीं गऊ से भी गऊ ग्याभिन हुई है। इंटलेक्चुअल लोग स्पीडोमीटर देखना जानते हैं। स्टेयरिंग व्हील नहीं संभाल सकते। कसम खुदा की अगर अरस्तू कब्र से उठ कर आ जाए और इस मार्किट में कपास की एक गाँठ दो पैसे लाभ पर बेच ले तो अपनी भौंहें मुंडवा दूँ' (मूँछें पहले ही किसी ऐसी शर्त पर अरस्तू को भेंट दे चुके थे। सिर पर भी शर्त लगाने को कुछ नहीं बचा था।)
तैमूरी वाक्य : अधीनस्थों को इस पेशे की श्रेष्ठता, उच्चता और अधमता से संबंधित उपदेश देते रहते थे। यदा-कदा हम पर भी कृपालु होते तो चाँदमारी के लिए बुला लेते। उनके ड्योढ़ा आदमी होने का कौन विरोध कर सकता था। हमने अपनी आँखों से उन्हें लंच पर पूरी मुर्गी खा कर अपनी सेक्रेट्री के सामने इंग्लिश ग्रामर पर झगड़ते देखा है। हमने आज तक इतने फर्राटे, तेज और विश्वास के साथ किसी अंग्रेज को भी गलत अंग्रेजी बोलते नहीं देखा। सही उच्चारण और स्पेलिंग को अपने अफसरी के स्तर से छोटा मानते थे। उनका हर वाक्य तैमूरी होता था। यानी लंगड़ा और आक्रामक। उनकी देखा देखी अधीनस्थों ने भी अपनी अंग्रेजी में दोष पैदा कर लिए थे। सिंधी में बड़े मजे की कहावत है कि कभी एक टाँग वालों के देश में जाओ तो अपनी एक टाँग कंधे पर रख लो। हमने तो एहतियात के लिए अपनी अंग्रेजी की दूसरी टाँग भी तोड़ कर फेंक दी बल्कि बाकी अंग भी काट कर फेंक दिए। कोई यहाँ गिरा, कोई वहाँ गिरा। इस अपाहिजपन से आगे चल कर हमें अनगिनत लाभ हुए जिनके विस्तार में जाने की आवश्यकता नहीं इसलिए कि स्वयं आपने देखा होगा कि खानदानी भिखारी और दूर-बुद्धि भिखमंगे अपने बच्चों के हाथ-पाँव दुधमुंहे काल में ही तोड़ देते हैं ताकि बड़े हो कर बच्चों को रोटी कमाने में आसानी रहे और मां-बाप के मोहताज न रहें।
तानों और रोक-टोक से हममें काफी परिवर्तन आया। किताबी बातों का विरोध करना सीख लिया। उन जैसे कामयाब लोगों के सामीप्य का यह प्रभाव पड़ा कि हमने किताब पढ़ने से तौबा की और किताब लिखने का संकल्प ले लिया। बचपन के खिलौने टूटते-टूटते ही टूटते हैं। डिलन थॉमस ने गलत नहीं कहा था कि 'मैंने जो गेंद बग़ीचे में खेलते हुए उछाली थी वो अभी तक धरती पर वापस नहीं आई।'
लतीफी साहब का चाल-चलन नार्मल था। यानी वैसा ही जैसा कि हमारे हाँ नार्मल आदमी का सरलता से सफलता और धनी हो जाने पर हो जाता है। विवाहित जीवन को आजीवन कारावास की सजा समझते थे अर्थात मुहब्बत-बा-मशक्कत। मशहूर अमरीकी यात्री प्रोफेसर गालब्रेथ अपनी चटखारेदार किताब 'घुमंत की डायरी' में योरोप में तैनात एक रंगीले अमरीकी राजदूत के बारे में लिखते हैं कि महोदय हर मुश्किल हर कठिनाई का सामना बंद भेजे और खुले नाड़े से करते थे। लतीफी साहब बैंकिग के कठिन ही नहीं सरल प्रश्नों को भी इसी तरह से हल करने लगे थे। उन्हें एक बार अचानक कलकत्ता जाना पड़ा और हम उनकी जगह अस्थाई रूप से नियुक्त हुए तो महिलाओं के फोन और स्वयं महिलाएँ पंद्रह दिन तक आती रही। डान काहूटे के विश्वस्त सेवक की तरह हम भी स्त्रीत्व देने वालों की सूची बड़ी मेहनत से बनाते रहे। घड़ी तो समय का हिसाब रखती है। समय से आनंदित नहीं होती। सोलहवें दिन जब वो आ गए तो हमारी मुसीबत खत्म हुई।
अभियोग पत्र : इतना विस्तृत परिचय इसलिए विस्तृत हो गया कि जब हम मिस्टर एंडरसन के सामने डरते-काँपते पेश हुए तो देखा कि नशे ने गुस्से को तिगुना कर दिया है और अजीब-अजीब आरोप लगा रहा है। कहने लगा मैंने जो रस्सी बढ़ाई थी वो इसके लिए फाँसी का फंदा बन गई। वो कमीशन खाता है। बसें चलाता है। बैंक का प्लैड्ज किया हुआ सवा रुपए गज का लट्ठा ऊपर-ऊपर अपने बेनामी पार्टनर को 5 आने गज में बेच दिया। बैंक के फर्नीचर से मैकनील रोड पर अपनी गर्ल फ़्रैंड का फ्लैट फर्निश कराया। अनगिनत कर्ज़े बिना अनुमति और स्वीकृति के दे दिए जिनके सूद के हिसाब से तुम रात के बारह तक भेजा मारते रहते हो और तो और मिस्टर.... मंत्री पाकिस्तान सरकार के नाम एक लाख रुपए का कर्ज दिखा कर एक नई कंपनी के शेयर खरीदे जिन पर डेढ़ लाख का फायदा हुआ। इन्क्वायरी हुई तो मंत्री ने साफ मना कर दिया कि फार्मों पर सिरे से मेरे हस्ताक्षर हैं ही नहीं। यही नहीं लतीफी एक कॉकटेल पार्टी में ब्लैकटाई की जगह लाउंज सूट पहन कर गया और बैंक की भद उड़वाई। एक संगीन आरोप में मिस्टर एंडरसन ने यह भी आरोप लगाया कि उन्होंने हैड ऑफिस से अनुमति लिए बिना अपनी सेक्रेटरी के सैंडिल की ऊँची एड़ी दो-दो इंच कम करा दी थी। अभियोग पत्र सुनाने के बाद मिस्टर एंडरसन ने सूचित किया कि कल शाम बोर्ड ऑफ डायरेक्टर्स ने मिस्टर लतीफी को बर्खास्त कर दिया। यह तलवार उसकी गरदन पर एक न एक दिन गिरनी थी। कत्ल में तुरंतता की महत्ता पर उसने अपने फेवरेट करेक्टर मैकबेथ का वाक्य दुहराया (स्कूल के स्टेज पर मैकबेथ के रोल में वो स्वयं को कई बार कामयाबी से कत्ल करा चुका था)
'If it were done when it's done, then t'were well if it were done quickly'... और फिर आदेश दिया कि इसी समय मेरी कार में बैंक जा कर उसकी तिजोरी और मेज की दराजें... और जो कुछ तुम्हें उसका दिखाई पड़े... सील कर दो। उसके हिमायतियों के मुँह पर भी चिट लगा पर अपने हस्ताक्षर कर के चिपका देना और सुबह ठीक नौ बजे उससे कैश का चार्ज ले लेना। वो बास्टर्ड मुझसे चार्ज लेने के डे ड्रीम्स' देखा करता था। हा हा हा। रुपया और औरत कभी मेरी कमजोरी नहीं रही और हाँ नोट गिनने के लिए लार की जगह कोई और द्रव का प्रयोग करना। तुम इतने परेशान क्यों दिखाई दे रहे हो? तरक्की की बधाई। इस पद के लिए मेरे पाकिस्तानी अधीनस्थों में कोई तुमसे अधिक उपयुक्त नहीं है। मुझे तुमसे बड़ी आशाएँ हैं। गुडलक! और हाँ सुबह उसकी कार भी अपने चार्ज में ले लेना। जी तो बहुत चाहता है कि तुम्हें शेवरले ले कर दूँ। लेकिन बड़ी कार में तो तुम और भी मुन्ने से लगोगे।
एक दिन की भिश्ती की बादशाहत : हम रात के दस बजे तक हर अलमारी, कैबिनेट, दराज और तिजोरी पर अपने हस्ताक्षर की स्लिप बजबजाते गोंद से चिपकाते रहे। एहतियात के तौर पर उनके थर्मस पर भी मुहर लगा दी। सुबह लतीफी साहब ने हमें अपनी कुर्सी के किनारे पर नर्वस बैठे देखा तो इसे हमारी शरारत और ऑफिस की गुस्ताखी माना। हमने डरते-डरते उनकी बर्खास्तगी का कागज बढ़ाया। भौंचक्के रह गए। उन्हें अपनी बर्खास्तगी से अधिक हमारी पदोन्नति का दुख था और झूठ क्यों बोलें, हमारी प्रसन्नता का भी क्रम बिलकुल यही था। जिस डायरेक्टर ने शरीचर की शाम उनको हटाए जाने का प्रस्ताव बोर्ड से तुरंतता से स्वीकृत कराया था, उसने रविवार की सुबह उनके साथ दिल्ली की नहारी खाई और दिन भर डकारें ले ले कर रमी खेली। हिंट तक न दिया, जैसे कुछ हुआ ही नहीं। लतीफी साहब ने झूंझल में आकर चाबियाँ उस काली मेज पर जो कल तक उनकी और आज हमारी थी, इतने जोर से फेंक कर मारीं कि मेज पर लगे हुए भारी शीशे में एक सूरज सा बन गया जिसकी किरणें दूर-दूर तक फैल गईं। पहले उस शीशे में हमें अपनी एक ही तस्वीर दिखाई पड़ रही थी। टूटा तो एक-एक किरची में उनका जलवा था। वो ही नजर आए जिधर देखा, वो बिना कुछ कहे-सुने चल दिए।
दिन भर हम अपने नए कर्तव्य बहुत उत्साह से पूरे करते रहे। रात को ठाठ से लतीफी साहब की कार से घर गए और अपने क्वार्टर की दहलीज पर तब तक पैर नहीं रखे जब तक बावर्दी शोफर ने आकर दरवाजा न खोला। बच्चों ने लालटेन की रौशनी में हमारी कार और उन्नति का हर कोण से निरीक्षण किया। उन्हें ड्राइवर की टोपी बहुत पसंद आई। बेगम ने मडगार्ड को थपथपाते हुए कहा कि हल्का हरा रंग मुझे शादी से पहले भी पसंद था। माँ ने डबडबाई हुई आँखों से पूछा 'बेटा! तुमने आज भी रोटी खाई या नहीं।'
दूसरे दिन स्वतंत्रता दिवस की छुट्टी थी। हमने सब परिवारीजनों और हिमायतियों को दिल्ली की नहारी खिलवाई और आँख का नशा 'पिक्चर' दिखाई। 15 अगस्त को आफिस पहुँचे तो एक कुर्सी पर एक डायरेक्टर के मुँह चढ़े अफसर नूर अली नजमुद्दीन खेड वाला को बैठे देखा। हमारी हर अलमारी, कैबिनेट, दराज और तिजोरी पर उनके हस्ताक्षर की स्लिप चिपकी थी। हद यह कि नाक में डालने की 'ड्राप्स' की शीशी जो हम मेज पर भूल गए थे, उस पर भी लाल चपड़ी की मुहर लगी हुई थी। हम उन्हें अपने हुमायूँनी सिंहासन पर बैठे देख कर भैंचक्के रह गए। उन्होंने अपनी नियुक्ति और हमारे स्थानांतरण का कागज दिखाया। मिस्टर एंडरसन से परसों तीसरे पहर को एक घंटे तक हमारी बातचीत हुई थी। हिंट तक न दिया जैसे कुछ हुआ ही नहीं। हमने चाबियाँ उस काली मेज के सूरज पर, जो परसों तक हमारी और आज उनकी थी, फेंक कर मारीं और बिना कुछ कहे सुने चल दिए।
हम आकर अपनी पुरानी मेज पर बैठ गए। कुछ देर बाद मिस्टर एंडरसन स्वयं हमारे पास आए और कहने लगे 'तुम्हारे बिना जनरल मैनेजर का ऑफिस सूना-सूना लगता है। वेलकम बैंक होम। तुमसे अधिक इस सीट के लायक मेरे पाकिस्तानी अधीनस्थों में कोई नहीं, मुझे तुमसे बड़ी आशाएँ है। मेरी ड्रेसिंग टेबिल के बीच नया शीशा लगवा दो। कमबख्त बिल्ली ने तोड़ दिया। बीचों-बीच सूरज सा बन गया है, एक घायल हाथ की जगह सौ घायल हाथ दिखाई पड़ते हैं।
रात गए, हमेशा की तरह बस के डंडे में बांहें डाले, घर आए। बेगम ने पूछा कार कहाँ गई? बच्चों ने पूछा क्या ड्राइवर भी छीन लिया? माँ ने डबडबाई आँखों से पूछा, बेटा! तुमने आज भी रोटी खाई या नहीं?
एक दिन की बादशाहत के बाद भिश्ती को मशक वापस मिल गई।
शीशे की आँख : वो उन लोगों में से था जो अपने जीवन में ही किस्सा-कहानी बन जाते हैं। भिन्न-भिन्न प्रकार के गुण और अवगुण उससे जुड़े थे। कोई कहता हमने मिस्टर एंडरसन को कभी मुस्कुराते नहीं देखा। मुँह लाल, होंठ कंजूस के बटुए की तरह सदा बंद, पर दिल का बुरा नहीं। कफ प्रकृति का अंग्रेज है। केवल अपना गला साफ रखने के लिए चीखता रहता है। दूसरा कहता चौबीस घंटे नशे में चूर रहता है। आँख खुलते ही पीना शुरू कर देता है। सुबह ड्राइवर और जमादार अजमल खाँ सहारा दे कर उतारते हैं। कार में भी एक स्टेपनी बोतल साथ रखता है। हाथों में कंपन है। शाम को बैरा अपने हाथ से पिलाता है। रात को बिस्तर पर फीडिंग बोतल से पीते-पीते सो जाता है। तीसरा कहता कि एक आँख शीशे की है, पहले विश्वयुद्ध की यादगार। लेकिन खान सैफ-उल-मलूक खाँ तो हमारे प्यारे सिर की कसम खा कर कहते थे कि दोनों शीशे की हैं बस अंग्रेज का रुतबा है। यासीन फारूकी कहते थे कि एक आँख नीली और दूसरी हरी थी। माँ आइरिश और बाप स्काट था लेकिन ये वो भी नहीं बता सकते थे कि कौन सी आँख माँ पर गई है और कौन सी बाप पर। चेहरे की ओर निगाह भर के देखने की यहाँ किसमें ताब थी। लक्ष्मण भी तो सीता को चेहरे से नहीं पहचान पाए थे। इसलिए कि उनकी शालीन आँखें कभी पैरों से ऊपर नहीं उठी थीं।
वो बला का उग्र, कटुभाषी, अशिष्ट और कठोर मशहूर था। सुना है ब्याज खाने वाले की आँख में लिहाज नहीं होता। बैंकर कहीं का हो, उसकी आँख चेहरे को नहीं, केवल नोट पर छपी आकृति को पहचानती है। मार्क ट्वेन ने एक फटे दिलवाले बैंकर का रेखाचित्र लिखा है जिसके बारे में प्रसिद्ध था कि एक आँख शीशे की है। लेकिन इसकी कभी पुष्टि न हो सकी कि दाईं या बाईं किसी ने मार्क ट्वेन से पूछा तो उसने कहा कि दाईं। यह कैसे? बोला दाईं आँख तय है कि शीशे की है, इसलिए कि उसमें लिहाज की झलक दिखाई पड़ती है।
हमारी अनमोल घड़ी : 3 या 4 जनवरी की बात है। हमने बैंक में पाँव रखे तो भारी-गर्म थ्री पीस सूट पहने हुए थे। जिसका वर्णन पहले के अध्यायों में हो चुका है। बास्कट की जेब में एक बहुत महंगी सोने की घड़ी थी जो हमारी पर्सनैलिटी के बचे हिस्सों से जो सूट से बाहर निकले रह गए थे, कतई लग्गा नहीं खाती थी। यह नवाब सर इब्राहीम अली खाँ टोंक स्टेट ने 1928 में अब्बा जान को कृपापूर्वक दी थी और उन्होंने हमें बी.ए. में यूनिवर्सिटी में प्रथम आने पर उपहार में दी थी। सोने की जंजीर इतनी लंबी थी कि अपनी नौकरी के प्रारंभिक काल में हम उसकी कड़ियों पर बैंक का हिसाब इस तरह करते थे जैसे चीनी अपने Counting Beads पर। बटन दबाते ही यह धीमी-धीमी बजने लगती और लय के साथ घंटे बजाने के बाद क्वार्टर (पंद्रह मिनट) भी बताती। सुबह आँख खोले बिना समय करने में बड़ी आसानी रहती। एक दिन हम दिन के बारह बजे उसे कान से लगाए समय की मधुर तान सुन रहे थे कि महोदय आ निकले। कहने लगे, 'आफिस के समय में यह बैलगाड़ी का संगीतमय पहिया कान में घुसेड़ने की कोशिश क्यों कर रहे हो? इस भयानक प्रचंड शब्दावली के बाद संगीतमय समय सुनने की जगह देखने लगे और संगीत से चाहे वो टाइम-पीस या फायर-ब्रिगेड के अलार्म ही की क्यों न हो, बचने लगे। धीरे-धीरे स्वयं को ऑफिस के माहौल का इस सीमा तक अभ्यस्त कर लिया कि जब तक ऑक्सीजन में फाइलों की गंध शामिल न हो, साँस लेने में कठिनाई होने लगी।
इस सूट और घड़ी की चर्चा इतने विस्तार से इस लिए भी करनी पड़ रही है कि सोने के बटन बेच कर मकान की पगड़ी देने के बाद 'फकत बचा है यही, दोस्तो फकीर के पास।' इतना जुरूर है कि फकीर और साधू-संन्यासी कोट-पैंट की खखेड़ में नहीं पड़ते, संक्षेप से काम लेते हैं। कई तो अपना मुँह दाढ़ी से छिपा कर तन पर भभूत मल लेते हैं। अप्रैल का महीना आया तो वास्कट उतर गई। मई में चोटी से एड़ी तक पसीना बहने लगा तो कोट भी तह करके रख दिया। जून में पैंट में रफू ही नहीं अंदर मलेशिया का अस्तर भी लग चुका था। कमीजों के कॉलर के चुग्गी दाढ़ी निकल आई थी, जिसकी रोज हजामत करनी पड़ती थी। जूतों से प्रकट था कि खुदा उसे बुरी नजर से बचाए, हमारा अँगूठा बैल की खाल से अधिक मजबूत है। यहाँ हम अपने अभावों और विनम्रता की शेखियाँ मार कर अपनी अकथनीय हालत की दाद नहीं चाहते इस हालात की जानकारी चाहते हैं वरना हाली के अनुसार -
मुसीबत के इक - इक से हालात कहना
मुसीबत से यह है मुसीबत जियादा
वो इक मर्दे - मुसलमाँ है : 26 जून 1950 को रोजे की हालत में अब्बाजान पर टंडो आदम ने दिल का दौरा पड़ा और वो बेहोश हो गए। किसी झोला छाप डॉक्टर ने जाने क्या समझ कर कुनैन का इंजेक्शन लगा दिया और वो आन की आन में सारे बखेड़ों, बँधनों से आजाद हो गए। जयपुर स्टेट के स्थानीय मुसलमानों में वो पहले ग्रेजुएट थे। जयपुर म्यूनिस्पैलिटी के चेयरमैन, स्टेट मुस्लिम लीग और अन्य मुस्लिम संस्थाओं के अध्यक्ष और असेंबली में विपक्ष के लीडर रह चुके थे। असेंबली ही में भारत में हैदराबाद के विलय के विरोध में बोलने पर उन्हें भारत छोड़ना पड़ा। दिल की बात मुँह पर लाने पर में उन्हें जरा भी सोचना नहीं पड़ता था। पैतृक सम्पत्ति को वो अपने छोटे भाई के लिए छोड़ चुके थे। राजस्थान में मुसलमानों के पुराने और निर्लिप्त सेवा करने वाले तथा पाकिस्तान आंदोलन की सिपाही के रूप में सभी उन्हें पहचानते थे। देहांत के बाद किसी अल्लाह के बंदे ने उनका शव ट्रक पर रख कर हैदराबाद (पाकिस्तान का एक नगर) पहुँचा दिया। लाश तीन-चार घंटे तक सड़क के किनारे जून की लू में इस प्रतीक्षा में बिना कफन के पड़ी रही कि अगर कोई वारिस है तो आए और मिट्टी के इस ढेर को पहचान कर ले जाए। उनके खुदा ने उनकी बेकसी की शर्म रख ली।
दूसरे दिन सूरज ढलने से थोड़ी देर पहले सीधे हैदराबाद के फुलेली कब्रिस्तान पहुँचे तो काफी प्रतीक्षा के बाद कब्र आधी बंद की जा चुकी थी। उनका चेहरा शांत था। सीलेपन ने माथे पर सिजदे के निशान को अधिक स्पष्ट कर दिया था। एक झलक देखी फिर उसके बाद कुछ दिखाई न दिया। देहांत से कुछ दिन पहले वो कुछ घंटों के लिए कराची आए तो टाट के एक थैले में अपना खाना साथ लाए थे कि कमहौसला बेटे ने जो अन्न तलाश किया उसमें ब्याज की मिलावट थी। जीवन में जिसने उनकी कोई सेवा न की, उसे उन्होंने कंधा देने के अधिकार से भी वंचित रखा। कब्र पर न गुलाबों की चादर, न चमेली का ढेर, न घर पर रोने-पीटने का शोर। वो थे तो घर इतना अभावग्रस्त नहीं लगता था। माँ ने सिर पर हाथ रखा और कलाई को मैली चादर से छिपा लिया।
अब अपने खानदान, बेरोजगार भाई और बीबी-बच्चों, बहन और उसके कुनबे और उनके आस-पास घूमने वाले पुच्छल तारों... उन सबके खाने-पीने की व्यवस्था बल्कि कहना तो यह चाहिए कि भूखा मारने की जिम्मेदारी हम पर आती थी। एक दिन यूँ ही सूझा तो अभ्यास के प्रश्न के रूप में हमने अपने वेतन को कुनबे की संख्या से विभाजित किया तो भाज्य 23 रुपए पौने चार आने निकला, किसी तरह विश्वास न हुआ कि एक आदमी 23 रुपए में गुजर कर सकता है। जीवन अंकों से अधिक लचकदार निकला। इंसान बड़ा सख्तजान है। हमें मुहम्मद जान चपरासी से बड़ी ईर्ष्या होती थी, उसका वेतन सत्तर रुपए था और छड़ा दम।
उनकी घड़ी को बुखार चढ़ा : नवाबी घड़ी अब वास्कट की जेब से निकल कर पैंट की जेब और सोने की जंजीर बेगम के गले में पहुँच चुकी थी। एक दिन हम महोदय के सामने पेश हुए तो बोले :
'What is the big abscess on your thigh'
उन दिन से सभी इस उभार को समय बताने वाला फोड़ा कहने लगे। अखरोट तोड़ने का अखरोट की लकड़ी का बना हुआ खूबसूरत जंबूर आपने देखा होगा। महोदय के पास व्यक्तित्व तोड़ने का ऐसा ही कोई उपकरण था। हमारा छिलका कभी का तड़ख चुका था, गिरी अलबत्ता सुरक्षित थी। रोटी किसी तौर कमा खाने का बखेड़ा न होता तो मछंदर स्वयं को उस समय बताने वाले फोड़े सहित कभी का दरिया में डुबो चुका होता। कठिन समय था मगर परिवारीजनों की जान भी प्यारी थी।
वो जान पर बनी है जिए बिन न रहा जाए
घर में कोई और घड़ी भी न थी और घड़ी बिना हम एक मिनट भी नहीं रह सकते थे। घड़ी का सबसे बड़ा लाभ यह देखा कि हर मिनट यह पता चलता रहता है कि हम कितने लेट हो चुके हैं। एक दिन हैदरी साहब को हम पर दया आ गई और उन्होंने स्वयं प्रस्ताव रखा कि नमाज के समय फोड़े की मेरी रिस्टवाच से अदला-बदली कर लो। मैं अपने मकान मालिक सादिक को दे आऊँगा। उस पर Antiques जमा करने का भूत सवार है। चार महीने से मकान का किराया चढ़ा हुआ है। रोज अपने पठान चौकीदार को भेज देता है। बेचारा भला आदमी है, मुँह से कुछ नहीं कहता। भोर में घर के सामने पाँच-दस मिनट डंडा खटखटा कर चला जाता है।
हम भी दुविधा में पड़ गए। हैदरी साहब ने यह घड़ी 60 रुपए में एक पायलट के द्वारा अदन से मँगवाई थी। जिसे उस जमाने में स्मगलरों का अदन का बाग कहते थे। ऐसी घड़ी अब अंतरिक्ष-यात्रियों के पास हो तो हो, उस जमाने में धरती पर चलने वालों के पास हमने नहीं देखी। दिनांक, दिन, महीना, साल, चन्द्रमा की कलाएँ, ज्वार-भाटे का हाल, दिशा, सेकेंड और ग्रीनेज मैन टाइम बताती थी। डायल को पट करके कलाई पर उल्टी बाँध लें तो शरीर का वरना चित्त हालात कमरे का तापमान और अल्लाह जाने क्या-क्या प्रकट कर देती थी। डायल पर जानकारियों का वो अम्बार था कि अगर केवल समय जानना हो तो दो मिनट लग जाते थे। कुछ दिन तो अपने इरादे और मूड के अनुसार चली फिर सरासर हरामखोरी पर उतर आई। हैदरी साहब घड़ी के बहुत पाबंद थे। जैसे ही उनकी घड़ी सुबह के 5 बजाती, उनका एक पैर बैंक के अंदर और दूसरा बाहर होता, उस समय लंदन की घड़ियाँ भी 5 ही बजा रही होती थीं। पाकिस्तानी घड़ियाँ पाँच घंटे तेज चलती थीं। समय पर ऑफिस आने के चलन का कभी पालन न किया। अपनी ताबड़-तोड़ सेवा का पारिश्रमिक 1 रुपया दैनिक के हिसाब से धरवा लेती थी। वो इस शक्ल में कि पाँच-छह महीने तक हैदरी साहब औसतन तीस रुपए मासिक उसकी मरम्मत पर खर्च करके हमारे कर्जदार होते गए। अदला-बदली का प्रस्ताव उसी काल की बात है। यह उपकरण वाटरप्रूफ भी था। अपनी सेल्समैनशिप से हमें ललचाते कि आप पाँच सौ फिट गहरे पानी में डूब जाएँ, तब भी यह घड़ी एक सप्ताह तक बंद नहीं होगी। यह सिद्ध करने के लिए वस्तुतः सौ प्रतिशत वाटरप्रूफ है, हैटरी साहब उसे पानी के गिलास में डूबो देते और शाम को घर जाते समय निकाल कर कलाई पर बाँध लेते। दिन भर हर आए-गए को गिलास उठा-उठा कर डूबी घड़ी के कार्य-कलाप दिखाते। शक्की स्वभाव वालों को घड़ी कान से लगाकर सुनवाते कि चलती भी है। गिलास हिलाते तो ज्वार-भाटे और चढ़ते चाँद का हाल बता देती। इक महीने की डुबकी के बाद यह घड़ी समय के अतिरिक्त हर चीज ठीक बताने लगी।
हर चीज से हमारा अभिप्राय दिनांक, दिन और सन है। जिसका कारण संभवतः यह है कि हैदरी साब ऑफिस पहुँचते ही घड़ी को कैलेंडर से मिला लेते थे। लगभग उसी काल में यह घड़ी गिलास से निकल कर कमीज की जेब की शेाभा बनी। स्तर में उन्नति होते-होते यह सजावटी वस्तु बन चुकी थी। किसी अच्छी नौकरी के इंटरव्यू के लिए जाना हो या स्टेट बैंक के अधिकारियों से मुचैटा हो तो कलाई पर उसका ताबीज बाँध कर निकलते। कफ की ओर से केवल स्टैप दिखाई पड़ता था। डायल की दिशा अपनी हथेली की तरफ रखते। वापस आते तो घड़ी को 105 डिग्री का बुखार चढ़ा होता था।
आलीजाह ने रिपोर्ट लिखवा ई : दुख है कि उन घड़ियों की अदला-बदली दाता को मंजूर न थी। गर्मियों के दिन थे। सनीचर की रात को घर के छोटे-बड़े स्तर के अनुसार सहन, बरामदे और सड़क के किनारे सो रहे थे। चोर न जाने कब और कैसे आए और जो कुछ माल हाथ लगा, उठा कर ले गए। 'जो कुछ' से हमारा अभिप्राय पूर्व चर्चा का विषय घड़ी और पैंट है जिसे पहन कर हमने सेकेंड शो देखा और फिर अपने कमरे में नींद से बेहाल, स्वयं को उसमें से निकाल कर जहाँ की तहाँ पड़ी रहने दी। खैरियत रही कि घर वालों के कपड़े-लत्ते चोरी नहीं हुए। जिसका एक कारण यह भी हो सकता है कि वो सब उन्होंने पहन रखे थे। मिर्जा अब्दुल वदूद बेग ने बहुत मना किया 'बिना धन की चोरी की रिपोर्ट मत लिखवाओ, शरीफ लोगों के लिए यह बड़ी बेइज्जती की बात है कि घर में चोर आएँ और चुराने के लिए कोई रकम ही न निकले?' बहरहाल, हम थाने में रपट लिखवाने पहुँच गए। S.H.O. ने घड़ी का मूल्य पूछा। हमने संकुचित अनुमान के अनुसार 5 हजार बताया। चौंक कर पूछा, आलीजाह क्वार्टर का किराया क्या देते हैं? निवेदन किया 35 रुपए। हमारा उत्तर सुन कर वो एक अर्थपूर्ण 'हूँ! आलीजाह!' कह कर रह गए। हमने देखा कि यहाँ हर शख्स एक दूसरे को आलीजाह पुकारता है। चुनांचे एक साहब जिन्हें आलीजाह कह कर संबोधित किया जा रहा था, हवालात में हथकड़ी पहने, चटाई पर मुर्गा बने जूतों से अपना अभिनंदन और पूछ ताछ करवा रहे थे।
'और क्या चोरी गया आलीजाह?'
'कुछ नहीं?
पैंट की जानकारी F.I.R. में जानबूझ कर नहीं दी कि कल यदि चोरी का माल चोर के कब्जे में बरामद हो जाए तो भरी अदालत में हर पेशी पर हमारी पैंट की प्रदर्शनी लगाई जाएगी और उसे Exhibit No.1 के झंडे पर चढ़ा कर हमसे पूछताछ की जाएगी कि खुदा को हाजिर-नाजिर जान कर कहो कि तुम वाकई इस पैंट को पिछौटा ढकने के लिए इस्तेमाल करते थे।
'तो यानी दो चोर एक ही घड़ी चुराने आए थे?' थानेदार साहब अपने डंडे से खेलते हुए बोले।
'ऐसा लगता है।'
'उन्हें ये जानकारी कैसे हुई कि आलीजाह के पास यह अनमोल घड़ी है।'
'खुदा बेहतर बता सकता है।'
'चोरी का कोई प्रत्यक्षदर्शी गवाह है।'
'वो तो स्वयं चोर ही हो सकते हैं।'
'अच्छा तो आपको कैसे मालूम हुआ कि दो चोर थे?'
'चार पैर के निशान थे'
'दो यानी चार पाँव का मतलब दो आदमी होते हैं? घड़ी कहाँ रखी थी?'
'हमारी पैंट में'
'पैंट कहाँ है आलीजाह?' उन्होंने हमारे पाजामे को जिसमें जुमे की नमाज के घुटने बने हुए थे, घूरते हुए पूछा।
'चोर ले गए।'
'अभी तो आपने कहा था कोई और चीज चोरी नहीं हुई। अब पूछताछ के बीच आप स्वीकार कर रहे हैं कि पैंट भी चोरी गई। यह तो चोरी की दफा 390 का केस हुआ, तो यानी वारदात के समय आपने चोरी गई पैंट पहन रखी थी।'
'नहीं'
'आपने इस चोरी को क्यों छिपाया?'
'कोई खास कारण नहीं'
'आपको मालूम होना चाहिए कि यह जुर्म है। हस्तक्षेप के लायक जुर्म है। आप पर दफा 109 ताजीराते-पाकिस्तान, फौजदारी का मुकद्दमा चल सकता है। मजिस्ट्रेट अगर Acquitting Nature का हुआ तो छ महीने सश्रम होगी। मुंशी जी जरा इधर आइए।'
'अच्छा घड़ी की रसीद लाए हैं, आलीजाह?'
'मैं रपट लिखवाने आया हूँ।' हमने झुंझला कर कहा।
'आपको मालूम है आप इस वक्त किसके सामने हैं? आपने जब यह घड़ी मुबलिग 5 हजार रुपए में खरीदी तो उसकी रसीद तो ली होगी। वो कहाँ है?'
'रसीद तो नहीं हैं।'
'हूँ। मुंशीजी। यह तो फड्डा ही गोया कुछ और है। जल्दी आइए ।'
'हेवाजिर हुआ अवाली आह।' मुंशी जी, आसमान की ओर मुँह करके 'बिलबिलाए। देर तक पान की पीक से गरगल-गरगल करते रहे।
पतें : हमने वहीं से फोन पर दुहाई दे कर एक दोस्त जो सुप्रीटेन्डेंट पुलिस थे, सिफारिश करवाई। तब कहीं जा कर हम पर पूछताछ बंद हुई और घर जाने की अनुमति मिली। ढाई घंटे देर से बैंक पहुँचे। कुछ देर बाद एंडरसन इधर से निकला तो हमें अचकन-पाजामा पहने देख कर कहने लगा। 'बिल्कुल जिप्सी लगते हो। घड़ी की स्टोरेज के लिए तो तुम्हें एक न एक दिन कंगारू की सी थैली आगे लटकानी पड़ेगी। ऐसे वाक्य वो अक्सर चिपकाता रहता था। खुदा जाने हमें जलाने के लिए अंजान बन रहा था या सचमुच अनभिज्ञ था, एक दिन सूखा मुँह बना कर पूछने लगा कि मुझे इधर रहते-बसते तीस-पैंतीस बरस हो गए पर यह आज तक समझ न आया कि तुम्हारे यहाँ नौकरी के प्रार्थना-पत्रों पर एक ही रेफरेन्स नंबर क्यों किया जाता है। सवाल हमारी समझ में न आया तो वो ताजा प्रार्थना-पत्र हमारे आगे बढ़ा दिया जिसके माथे पर 786 लिखा था।
ऐसे खिले हुए पल कम ही आते थे, क्योंकि वो स्थाई तैश में रहता था। उसका गुस्सा बिल्कुल शुद्ध होता था यानी अकारण। फोन पर बोलता तो तार जल उठते। हर शब्द की त्योरी पर बल, हर वाक्य की आस्तीन चढ़ी हुई। गबन अगर ढाका में हुआ है तो डाँट कराची के कैशियर पर पड़ रही है। चाय के कप में अगर किसी मक्खी ने आत्महत्या कर ली इंस्पेक्टर ऑफ ब्रांचेज से पूछ-गछ। मतलब कि मिर्जा के कथनानुसार हरएक की बेइज्ज ती खराब करता था। लोग युद्धगीत गाते हुए और गाली बकते लौटते। बशीर अहमद तो उसके कमरे में घुसने से पहले लिब्रेम की एक गोली खा लेते थे। कहते थे कि अपमानित होने के क्षण से पाँच मिनट पहले एक गोली खा ली जाए तो फिर तबियत पर डाँट-फटकार का थोड़ा भी असर नहीं होता। थोड़ी देर बाद कमरे से बेआबरू हो कर निकलते तो दवा और खा लेते। नौकरी पेशा आदमी और कर भी क्या सकता है। गरीब जहाँ भी हो यही दुरगत बनकी है। पंजाबी की एक कहावत है किसान की 21 पतें (इज्जतें) होती हैं। एक-आध चपरासी के हत्थे, दो-तीन अहलमद, सरिश्तेदार की भेंट। कुछ कानूनगो पर बलिहार और वो जो अलग बाँध कर रखी हैं वो पटवारी पर न्योछावर। किसान फिर भी दो-चार बचा कर ले ही जाता है। सफेद कॉलर वाले नौकरी पेशा लोगों का हाल कुछ अलग नहीं होता।
इसके बावजूद सबके लिए एक Father Figure की सी पोजीशन रखता था। अपनी लंबाई से बड़ा लगता था और उसकी बातें भी। डाँट-फटकार में एक दिल को मोह लेने वाली अदा जुरूर थी। आम अगर पहले खट्टा न हो तो कभी-कभी मीठा नहीं हो सकता। सरदारी की एक अलग शान रखता था। चेतावनी के कुछ देर बाद दंडित को दुबारा किसी बहाने से बुलाता अकारण नर्मी और प्यार से पेश आता। यह दिलासा शायद इस लिए कि भविष्य की डाँट के लिए तबीयत में ताजा सहार पैदा हो। जबान की तलवार के घायल फिर टुकड़े-टुकड़े जिगर को जमा करते। पलक की नोक से अन्न का एक-एक कण चुनते। फिर जी छूट जाता। आस टूट जाती और फिर किसी की तसल्ली के शब्द गिरतों को थम लेते। यही अनंत का क्रम चलता रहता।
चुमकारे , चुमकार के मारे
मारे , मार के फिर चुमकारे
जिन दोषियों को मृत्युदंड दे दिया जाता है, जेल वाले उनकी बड़ी देख-रेख करते हैं कि कहीं जह्र न खा लें। ब्लेड से नसें न काट लें। दीवार से सिर न फोड़ लें। नेकर से फाँसी का फंदा न बना लें। छींक भी आ जाए तो तुरंत डॉक्टर बुलवाया जाता है। उनकी जान की पूरी सुरक्षा की जाती है ताकि फाँसी दी जा सके।
हमारा कच्चा - चिट्ठा : डिसीप्लिन का स्वयं भी ध्यान रखता था। ठीक पौने नौ बजे ऑफिस आता। दुनिया जानती थी कि Alcoholic है लेकिन ऑफिस में शराब नहीं पीता था। घर से पी कर आता था। आम तौर से धारीदार टाई लगता था। लेकिन किसी सीनियर अफसर या मैनेजर को डाँटना हो तो लंच के बाद काली बो लगा कर आता था। कई अफसर ऐसे ही सादा लेकिन रखरखाव वाले ढंग से 'डिसमिस' भी हो चुके थे। इसके बाद यह जुरूर कहता कि मैंने तुम्हारे निकम्मेपन की 'ब्लैक एंट्री' इस गोपनीय डायरी में कर ली है। इस डायरी की गहरी बादामी भूरी जिल्द उसके कथनानुसार अस्ली पिग स्किन की थी। उसका कहना था कि यह खूंखार सुअर मैंने अपने भाले से स्कॉटलैंड की तराई में मारा था। बड़ा ही सुअर था। हाँ! पाकिस्तानी सुअर में चर्बी कम मगर सुअरपन अधिक होता है। इसीलिए हम योरोपियन बड़े शौक से खाते हैं। जिन-जिन की करतूतें उस डायरी में सुरक्षित की जा चुकी थीं उनकी हार्दिक इच्छा थी कि अपनी पुरानी आदतों और बुरे कारनामों की चिट्ठा अपनी आँखों से देखें लेकिन सुअर के चमड़े को हाथ कौन लगाए। चपरासी भी मेज साफ करते समय झाड़न उस पलीद चीज के नहीं लगने देता था। मिर्जा अब्दुल वदूद बेग कहते थे कि ब्याज, शराब, अपने अफसरों की जन्मतिथि और जुए की हार-जीत का हिसाब रखने के लिए सुअर के चमड़े की डायरी से बेहतर और कोई चीज नहीं हो सकती।
एक सुहानी-सलोनी सुबह का वर्णन है। हम काउंटर पर चैक प्राप्त करके उसके बदले 'टोकन' देने का काम सीख रहे थे कि एक स्थानीय होटल में नाचने वाली आस्ट्रियन कैब्रे डांसर ने एक करोड़पति शिल्पकार का 'बेयरर' चैक भुनाने को दिया। उस काल में महिलाएँ कभी-कभार ही बैंकों में दिखाई पड़ती थीं। प्रोफेसर काजी अब्दुल कुद्दूस के अनुसार औरतों का मानवीय अकाल था। मतलब यह कि कहीं कोई औरत कार चलाती या सिग्रेट पीती दिखाई पड़ जाए तो लोग यूँ आँखें फाड़-फाड़ कर देखते जैसे पुच्छल तारा निकल आया हो जिसका मुँह उनकी तरफ हो और पूँछ शौहर की तरफ हो। चैक की प्रविष्टियों की जाँच-पड़ताल के अतिरिक्त हमारे सुपुर्द यह काम भी था कि चैक पर किए हुए हस्ताक्षरों का मिलान नमूने के हस्ताक्षरों से कर के पुष्टि करें कि जाली नहीं हैं। हम यह दोहरे-तिहरे काम कैसे कर रहे थे इसका अनुमान पाठक आगे चलकर स्वयं लगा लेंगे। यहाँ इतना संकेत पर्याप्त होगा कि माननीय स्वभाव के अनुसार दबे पाँव आए और हमारे पीछे खड़े हो कर न जाने कितनी देर तक हमारी तल्लीनता को देखते रहे। उनकी आदत की कि 'सरप्राइज चैकिंग' को आ निकलते। कई बाद चुपचाप आ कर हमें भी देख चुके थे। हर बार उपयुक्त स्थिति में पाया। इस बार वो 'आहम' कह कर खंखारे। हमने झट चैक को घूरना शुरू कर दिया। बोले, इस चैक के पैमेन्ट से निवृत्त होकर जनरल मैनेजर से मिलो। माननीय ऐसे अफसरों पर अपनी ओर उत्तम पुरुष में संकेत करते थे। हम पसीने-पसीने पेश हुए तो बहुत प्यार से बोले 'तुम दूसरी किस्म के फिगर पर नजर से टिक-मार्क लगा रहे थे।' हम ऐसे बन गए 'हम बहू-बेटियाँ ये क्या जानें।' इसलिए स्पष्ट करते हुए बोले 'तुम चैक के हस्ताक्षर उसके चेहरे से 'Compare' कर रहे थे।
डाँट-डपट के बाद... नसीहत दी कि 'यंग मैन। ऐसी औरतों के चेहरे जाली होते हैं। यानी है औरत कुछ, दिखाई पड़ती है कुछ। ऐसे चैक को तातेरंगल (घास उठाने का पंजा) से उठाना भी खतरे से खाली नहीं। चेतावनी यह कि मैं इस मिल के स्टॉक की अभी चैकिंग करवा रहा हूँ और इस अनप्रोफेशनल चूक की रिपोर्ट इस डायरी में लिख रहा हूँ। हमारे पाँव तले से सारा कैरियर निकल गया। रात-दिन की मेहनत पर पानी क्या पूरा अरब सागर फिरता दिखाई दिया। तीन-चार बार कुरेद सी हुई कि लाख बुराई सही आखिर देखना तो चाहिए कि डायरी में लिखा क्या है। इसलिए सनीचर की रात को रात के 11 बज रहे होंगे। हम उसके कमरे में पिछले दरवाजे से घुसे और काँपते हुए हाथ पर रूमाल लपेट कर हराम जानवर के चमड़े के कवर वाली डायरी खोली। एक पन्ना, दूसरा पन्ना, तीसरा पन्ना। सारी डायरी खंगाल डाली। हर पन्ना साफ। हर पेज सादा। केवल पहले पेज के जिस पर उसका नाम और उसके नीचे छह साल पहले की तारीख लिखी थी।
हमारे वेतन से देश की अर्थव्यवस्था का विध्वंस : हनीमून की वो सुनहरी धुँध, जब आदमी समझता है वो अँगूठा चूस कर भी जीवित रह सकता है, कभी की छँट चुकी थी। बेगम ने एक दिन हमें सूचित किया कि हमारा वेतन 13 तारीख तक के लिए बिल्कुल पूरा होता है तो हमें पोप ग्रेगोरी पर बहुत गुस्सा आया जिसने ईसवी कलैंडर ठीक करते-बनाते समय यह विध्वंस करनेवाला निर्णय लिया कि कोई महीना 28 दिन से कम का नहीं होगा। निष्ठुर को ठीक करना ही था तो ठीक से करता। खैर गर्म-गर्म गृहस्थी चोट थी। हमने दूसरे ही दिन एंडरसन की स्टेनोग्राफर को एक अर्जी डिक्टेट करवाई जिसमें विरोध किया गया था कि जिस वेतन का वादा करके हमसे सिविल सर्विस से त्यागपत्र दिलवाया गया था उसके आधे पर हमें टरखा दिया गया। इसलिए चार सौ रुपए की बढ़ोत्तरी की जाए और शेष राशि का भुगतान किया जाए। उस लुतरी ने शायद इसकी अग्रिम सूचना उसे दे दी। जभी तो अर्जी टाइप होने से पहले ही उसने हमें बुलवा लिया। कहने लगा बैंक का हाल तो ओरिएँट एयरवेज से भी बुरा है। शेयर की कीमत क्रेश हो चुकी है। घाटा है कि बढ़ता जा रहा है। एक फ्राड भी हो गया है। बैंक फ्राड अस्ल में जोड़-घटाव की शायरी है। रोज सुबह कैश की स्थिति देख के गले में फंदा सा पड़ जाता है। मैं स्वयं जुरूरतमंद व्यापारियों और शिल्पकारों को ओवरड्राफ्ट के स्थान पर कीमती मशवरे दे रहा हूँ। बैंक वर्तमान के खर्च नहीं बर्दाश्त कर सकता। मैं तुम्हारे वेतन की तरफ से भी बहुत चितिन्त रहता हूँ मगर तुम बाल बच्चेदार आदमी हो, घटाते हुए डरता हूँ।
वेतन में और कटौती के ज्ञानरंजन के अलावा उसने अर्थशास्त्र पर एक लंबा सा लैक्चर दिया। जिसके दौरान रफ पैड पर डायग्राम बनाकर उसने कंठस्थ कराया कि अगर राष्ट्रीय उपज में बढ़ावा न हो और वेतन बढ़ते चले जाएँ तो देश की अर्थव्यवस्था का विध्वंस हो जाता है। इंग्लैंड इसी तरह बरबाद हो रहा है। हम उसके कमरे से निकले तो हालाँकि हमारा वेतन वही था जो कमरे में घुसने से पहले था लेकिन इस विचार से ही एक अजीब तरह का दबदबा और रुतबा महसूस किया कि हमारे वेतन में बढ़ोत्तरी से देश की अर्थव्यवस्था का विध्वंस हो सकता है।
रुतबे और दबदबे का क्या ठिकाना, इसी से अनुमान लगा लीजिए कि एक दिन हम गुणा करने की मशीन को उल्टा चला कर भाग देने की नई राह निकाल रहे थे कि चपरासी दौड़ा-दौड़ा आया और कहने लगा टोनी साहब आया है। दूध के लिए चार आने चाहिए। हमने यह समझ कर कि आगंतुकों के लिए चाय का दूध खत्म हो गया है। तुरंत चवन्नी निकाल कर दे दी। कुछ देर बाद वो टोनी साहब को हमसे परिचय कराने के लिए लाया। निकलता हुआ कद, शरबती आँखें, चौड़ी छाती, कमर चीते जैसी, अधखुले होंठ, उजले सफेद दाँत, खुलता हुआ चम्पई रंग और उसी रंग की पूँछ। यह एंडरसन का कुत्ता था Rabis के तिमाही टीके के लिए रिचमंड क्राफोर्ड अस्पताल ले जाया जा रहा था। सब उससे शालीनता और कृपा से मिलते। उसके सामने कोई एंडरसन की बुराई नहीं करता था। कोई उसे कुत्ता नहीं कहता था। सब उसे टोनी साहब पुकारते थे सिवाय यासूबुल हसन गौरी के जो उसे टोनी मियाँ कहते थे। जब भी यह बैंक आता सब इस तरह जता-जताकर उसके नाज उठाते जैसे बास के बच्चों को चूमते चाटते हैं। कोई सिर पर हाथ फेरता। कोई तारीफों के पुल बाँधता। कोई दुम और सिर के कुलाबे मिलाता और कोई अपने टिफिन कैरियर में से कलेजी निकाल के कागज पर रख देता। गोवानीज चीफ एकाउन्टेंट मिस्टर गोंसाल्वेज ने एक बार इच्छा प्रकट की कि वो अपनी कुतिया शीबा को इस शुद्ध रक्त के कुत्ते की आवारगी में लाना चाहता है। यासूबुल हसन गौरी तो बड़े सम्मान से अपना हाथ इससे चटवाते और शाम तक चाटी हुई हथेली सेंत-सेंत कर रखते और हर एक को इस तरह इतरा-इतरा कर दिखाते जैसे क्लिओपेत्रा ने अपना चूमा हुआ हाथ दिखाया।
'...and here
Myself bluest veins to kiss! A hand that being have lipped and trembeled kissing'
मुल्ला अब्दुस्समद और मिस मार्जरी बाल्ड : उसके लिखे हुए नोट्स और चिट्ठियाँ पढ़ने का मौका मिला तो आश्चर्य, फिर संतोष मिला कि अंग्रेज भी गलत अंग्रेजी लिख सकता है। हमारी अंग्रेजी तो उसके कथनानुसार ग्रामर की गठिया से ग्रस्त थी और ऑफिस की धूप में अभी उस के जोड़-बंद नहीं खुले थे। लेकिन उसके अपने वाक्य बहुत गुंजलक और अटपटे होते थे। कई शब्द बल्कि वाक्य अपने अर्थ से रूठे रहते थे। एक दिन शामत आई जो हमने उसके एक ड्राफ्ट में नेसफील्ड ग्रामर की दृष्टि से साधारण सी चूक को इंगित किया। झुँझला कर चश्मा उतार दिया और उसकी टाँगों की आलथी-पालथी मारते हुए बोला 'क्या नेसफील्ड कोई ऐंग्लो-इंडियन स्कूल मास्टर था। सोला हैट और सफेद पतलून पहननेवाला, राइस ऐड करी खाने वाला? दुख है कि तुमने किसी भाषाविद से अंग्रेजी नहीं पढ़ी।'
निवेदन किया '1942-43 में हमने एक अंग्रेज औरत से अंग्रेजी पढ़ी थी।'
बोले 'Aha! Just as of thought! जभी तो मर्दाना अंग्रेजी के तेवर नहीं पहचानते। कुछ समय मेरे साथ रहे तो छाती पर घुँघराले बाल निकल आएँगे। मगर वो थी कौन?' 'मिस मार्जरी बाल्ड' हमने गर्दन अकड़ा कर कहा। उस जमाने में हम मिस मार्जरी बाल्ड पर ऐसे घमंड करते थे जैसे मिर्जा गालिब अपने ईरानी उस्ताद मुल्ला समद पर, जिसके बारे में नयी खोजों ने साबित कर दिया है कि उसका सिरे में कोई अस्तित्व ही न था। गालिब का उस्ताद उसके अपने दिमाग से पैदा हुआ था। देखा जाए तो इससे अच्छा उस्ताद हो भी नहीं सकता।
अजीब इत्तफाक है कि हम दोनों बेउस्तादों (यानी गालिब और लेखक) को भाषाविद आगरे में ही नसीब हुए। मुल्ला अब्दुस्समद को पा कर गालिब लिखते हैं 'अभिलाषा पूरी हुई और दूर फारस से एक बुजुर्ग प्रकट हुआ और फकीर (अपने लिए विनम्र संबोधन) के मकान में दो बरस रहा। दुर्भाग्य कि यह फकीर (लेखक) अपनी गोरी उस्तादनी को दो घंटे भी अपने मकान में रखने से वंचित था। इसलिए कि फकीर स्वयं सैंट जोंस कॉलिज के हैलीबरी गैस्ट हाउस के छोटे-अंधेरे 42 नं. कमरे में रहता था। जिसकी अकेली खिड़की चमड़ा कमाने वाली टैनरी की तरफ खुलती थी यानी हमेशा बंद रहती थी और मेहमान के लिए दरवाजा अंदर की ओर केवल इस स्थिति में खुलता था कि दरवाजे से लगी हुई चारपाई को पहले पीठ पर उठा कर खड़ा किया जाए। फिर वापस बिछाने के बाद उसी के नीचे घुटनियों निकल कर मेहमान से गले लगें और उसी पर बिठा दें। मौलवी मुहम्मद मेरठी जिनकी किताबों से हमने उर्दू भाषा और सब्र सीखा, ऐसी काल्पनिक बातों के बारे में उदाहरण देकर बता गए हैं।
क्या - क्या खयाल बाँधे नादां ने अपने दिल में
पर ऊँट की समाई कब हो चूहे के बिल में
लेकिन खुद मौलवी साहब ने शायद शायरी की जुरूरत के चलते ऊँट की जुरूरत के विपरीत चूहा बाँधा है। वरना ऊँटनी या कम से कम चुहिया होना चाहिए था।
चश्मा माथे पर चढ़ाते हुए बोला 'तुमने औरत से अंग्रेजी क्यों पढ़ी। कोई आदमी उपलब्ध नहीं था।'
'वो सैर के लिए हिंदुस्तान आई थी। सैर के बीच में ही दूसरा विश्वयुद्ध छिड़ गया।'
'बहुत योग्य थी।'
'वो बालों में लाल रिबन बाँधती थी और...'
'मैं खोपड़ी के बाहर का हाल नहीं पूछ रहा।'
'कैम्ब्रिज में पढ़ा चुकी थी। शैली पर एथॉरिटी थी। समय काटने के लिए सेंट जोंस आगरा में पोइट्री की क्लास लेने लगी।'
हा! हा! हा! आदमी का औरत से शायरी पढ़ना ऐसे ही है जैसे कोई औरत मर्द से दूध पिलाना सीखे। सुंदर औरत से बैंकर केवल एक ही ढंग की बात सीख सकता है। न कहने का सलीका। बहरहाल Give the devil this due। तुम मेरे पहले इंडियन, पाकिस्तानी अधीनस्थ हो जो सेमीकोलन (;) प्रयोग करने का साहस रखता है। मगर एक बात ध्यान में रहे। शेक्सपियर नाम का एक शख्स मुझसे बेहतर अंग्रेजी लिखता है, लेकिन मैं उसे बैंक की चिट्ठी-पत्री में हस्तक्षेप की अनुमति नहीं देता?
अंग्रेजों में भी देहलवी और लखनवी होते हैं : वो उस समय बहुत अच्छे मूड में था वरना सामान्यतः बहस तो बड़ी बात है, चापलूसी तक का मौका नहीं देता था। हमने यह अवसर पहचाना और खुशामद की पहली बूंद टपकायी 'यह मेरा सौभाग्य है कि अब मैं एक अंग्रेज से बैंकिंग सीख रहा हूँ।'
अंग्रेज का नाम जबान पर आते ही बारूदघर में आग लग गई। आ आा आाI (किसी बात का भरपूर ढंग से विरोध करना हो तो तर्जनी उठा कर प्लुत (S) लगाता चला जाता था। 'मुझे यह तो मालूम है कि स्कैंडल, स्टाफ का अनुपम पकवान है लेकिन मेरे पिता के बारे में यह भटकाने वाली सूचना किस कुतिया के बच्चे ने दी? मैं अंग्रेज नहीं स्कॉट हूँ। स्काट!' अंग्रेजों के लिए उसके दिल में घृणा और उपेक्षा थी जो सदियों पुरानी थी।
इस चेतावनी के दूसरे दिन हमारा एक ठीक-ठाक सा ड्राफ्ट देख कर शायद आँसू पोंछने के लिए कहने लगा 'तुम अंग्रेजी अच्छी खासी लिख लेते हो अगर शरारत से परहेज करो तो कहीं बेहतर लिख सकते हो।'
हमने जवाबी प्रशंसा की कि 'जनाब भी बहुत अच्छी इंग्लिश....'
शब्द इंग्लिश हमारे मुँह से अभी 1/3 बाहर निकला था कि कल की नाराजगी याद आ गई। हाथों-हाथ बचाव का वाक्य गढ़ा कि जनाब भी बहुत अच्छी स्कॉच लिखते हैं।'
बारूदघर फिर आग पकड़ गया। कहने लगा 'आ आा आाI! यह जानकारी तुम्हें किस बास्टर्ड ने दी। मैं स्कॉच लिखता नहीं पीता हूँ। धड़ल्ले से, लेकिन इंग्लैंड वालों की तरह मुझे औरत की प्यास नहीं लगती। और हाँ! रार्बट बर्नस से बड़ा शायर इंग्लैंड में न पैदा हुआ, न होगा। मैं स्कॉटलैंड में फाँसी चढ़ने को इंग्लैंड में बीमारी से मरने पर हजार बार प्रधानता दूँगा।
स्कॉच पर याद आया कभी गिलास में बर्फ नहीं डालता था। कहता था बर्फ जगह बहुत घेरती है। उसके बैरे बुंदू खाँ के अनुसार 'मैंने साहब को कभी निखालिस पानी पीते नहीं देखा। बोलता है लोकल पानी में डीसेंट्री के कीड़े होते हैं।' उन्हें व्हिस्की से मारकर उनका सूप बनाता है। एक बार हमने बुंदू खाँ से पूछा, 'साहब को कभी पानी की प्यास लगती है?' बोला, 'क्यों नहीं लगती? क्या वो इंसान नहीं है? जब शराब की तलब होती है तो गिलास में पहले दो पैग व्हिस्की उंडेलता है फिर पानी डालता है लेकिन जब पानी की प्यास लगती है तो गिलास में पहले पानी डालता है फिर दो पैग व्हिस्की।'
वो एक तुहफा जिसे तू फिजूल मानता है : क्रिसमस बड़े धूमधाम से मनाता था। बुंदू खाँ का कहना था कि साहब जुलाई की पहली तारीख से व्हिस्की में पानी डालना बंद कर देता है। कहता है अब क्रिसमस आ रहा है। दिसंबर की 19 या 20 तारीख से आफिस आना बंद कर देता था और 5, 6 जनवरी तक फ्लैट में मदहोश पड़ा रहता, इसके बाद क्लीनिक में बेहोश। जुरूरतमंद वहाँ भी भेंट लेकर पहुँच जाते थे। क्रिसमस के दिन कमर कोर्ट (जिसमें उसका फ्लैट था) के फाटक पर डालियों से लदे हुए अफसरों और कर्जदारों का क्यू लग जाता। वही पेदें के बीच में कूबड़ वाली टोकरी। रंगीन कागजों और पन्नी की कतरनों में लिपटे हुए पाँच-छह तरह के फल और उसके नीचे हलाल की कमायी से खींची गई हराम चीज की बोतल। जिसका जितना बड़ा कर्ज होता, उतना ही बड़ा व्हिस्की का क्रेट।
पत्थर पूजे हरि मिले तो मैं पूजूँ पहाड़
एक से अधिक व्हिस्की के क्रेट का मतलब होता था कि रकम कब की डूब चुकी अब उतनी ही और चाहिए। एक क्रिसमस पर हमारी भी सेवा की रग फड़की और हम मैरी क्रिसमस कहने उसके फ्लैट पहुँचे। कमर हाउस के कंपाउंड में बुंदू खाँ बैरा चारपाई डाले पड़ा था। अदवान पर फलों का एक टुकड़ा रखा था और पाए से एक दुखियारी सी टर्की बंधी हुई थी। हमने अपना नाम और भेंट का कारण बताया तो कहने लगा, डाली कहाँ है? हमने कहा हम तो केवल मिलने आए हैं। बोला तो ऐसे बोलो क्रिसमस पर ईद मिलने आए हो। वो तो एक सप्ताह से बिस्तर पर लंबा लेटा है। सिर में सख्त सिरदर्द है (जैसे सिर में गुरदे का दर्द भी हो सकता है।) चायदानी सिरहाने पड़ी है और उसकी भभकती टीकोजी को सिर पर ओढ़े, आँखों पे अंगिया पहने पड़ा है। त्योहार के दिन सुबह से अपने बाबा को याद कर करके भूँ-भूँ रोए चला जा रिया है। यह लो अपना नाम लौंडे की सिलेट पे लिख जाओ। उसी पे दस रुपए नकद लिख दो। डाली, बोतल अपना जिम्मा।
हमारे संदेह दूर करने या संभव है, रौब डाल कर दबाने की नीयत से हमें एक कमरे में ले गया जहाँ तीस-चालीस डालियाँ तले ऊपर और डेढ़ सौ बोतलें गर्दनों में विजिटिंग कार्ड लटकाए पड़ी थीं। कहने लगा, इनमें से जो पसंद हो, बता दो। साहब को होश आते ही तुम्हारे नाम से प्रजेंट कर दूँगा। चालीस रुपए का काम दस रुपल्ली में बल जाएगा।
हम वापस जाने लगे तो बोला, 'चलो तीन रुपए में सौदा खत्म करो। तुम भी क्या याद करोगे। मुँह अंधेरे एक क्लर्क बाबू रणछोड़ लाइन से पैर-पैदल आया था। दुखिया का चार साल से प्रमोशन रुका हुआ है। तीन जवान पछत्ती बेटियाँ छाती पे बैठी है। लतीफी का साला उनसे मसखरी करता है। उसने मना किया। इस पे लतीफी कसाई ने उसका ट्रांसफर नारायण गंज कर दिया है। यहीं अदवान पे बैठा सिसकियों से रो रहा था। यह टर्की दे गया है। अब मरी कि अब चली। मैं इसकी टाँग में तुम्हारे नाम की परची बाँध कर हैप्पी क्रिसमस कर दूँगा।'
हमने कहा 'मियाँ! उस गरीब की सिफारिश कर दो, बेटियों की इज्जत-आबरू का सवाल है।
बोला, 'अस्ली सवाल तो जोरू के भाई का है। लौंडा ही तो है। वो जो पुरानी कहावत है ना कि जिस घर में बेरी और जवान बेटी हो, उसमें पत्थर आवें ही आवें। पर अब तो कयामत का जमाना आन लगा है। पत्थर से पहले लौंडे घुस आवें हैं।'
हमने भेंट-उपहारों की क्रिसमस क्लीयरेंस सेल' की चर्चा खान सैफुल मलूक खान से की तो उन्होंने हमारी ना जानकारी पर गुस्सा किया। कहने लगे भेंट-उपहार देने की परंपरा तो बिगड़े हुए रईसों के समय से चली आ रही है। वो कौन सा नवाब था जिसने अपने बेटे को सोलहवीं वर्षगाँठ पर उपहार में लौंडी दी थी? और यह तो बैंक के मैनेजर से ले कर मेहतर तक सब को मालूम था कि तुहफे कैसे ठिकाने लगाए जाते हैं। एंडरसन को इसका होश कहाँ कि कौन क्या दे गया। हर साल क्रिसमस पर डेढ़-दो सौ बोतलें आ जाती हैं। उनको यह बैरा तीन बराबर की ढेरियों में बाँटता है। एक तिहाई को औने-पौने में बाजार में बेच आता है। दूसरी ढेरी स्वयं पी जाता है। शेष 1/3 का यह करता है जब एंडरसन बाजार से व्हिस्की मँगाता है तो उससे कीमत ले कर सप्लाई करता है।
बुंदू खाँ के अनुसारः बुंदू खाँ ने ही एक दिन बताया कि माननीय पहले तो सिर्फ रात को अपना मोतियों का खजाना खोलते थे लेकिन अब तो तड़के ही खादर का द्वार खोल कर बैठ जाते हैं। कहने लगा कि अब तो बोतल से मुँह लगा कर निखालिस पीता है। न सोडे का टंटा, न चिखौने का बखेड़ा। पर कितना ही नशे में क्यों न हो किसी का वेतन नहीं बढ़ाता। सफाई का बहुत ध्यान रखता है। हमारी-तुम्हारी तरह हर जगह बलगम थूकता नहीं फिरता। खाँसी आती है तो रूमाल में थूक कर जेब में रख लेता है। पहले तो दिन में दो बार बाथ लेता था। लेकिन एक शाम नहाते-नहाते टब में सो गया। अपन तो अंग्रेज की प्राइवेट लाइफ में दख्ल नहीं देते। सुबह आँख खुली तो मुझे आर्डर दिया कि हमारा डिनर लगाना माँगटा। अब डॉक्टर बटरफील्ड ने भरे टब में सोने से मना कर दिया है। पटरे पर खड़े हो कर हमारी-तुम्हारी तरह नहाता है। मैंने तामचीनी का मग ला कर दे दिया है। उसी में बियर पीता है। मैं तो अब उसी में अंडा उबाल के उसी के पानी में शेव करवाता हूँ। उसी में बैड-टी पीवे है। उसीसे नहावे हैं। जैसी रूह वैसे फरिश्ते। अपन तो अंग्रेजों की प्राइवेट लाइफ में दख्ल नहीं देते।
फिर कुत्ते के सिर पर हाथ रख कर कसमिया बयान किया। टोनी की कसम बड़ा साहब नशे में इत्ता धुत्त हो रिया है कि इस टैम तो मुर्गी और मोर में भी अंतर नहीं कर सकने का। अलबत्ता खुद हरामी मोर ही दुम उठा के नाचना शुरू कर दे तो यह उसका प्राइवेट मामला है। इत्ती पीने लगा है कि खाने को पाप समझे है। क्लिफटन के सारे मच्छरों ने दूर-दूर से उड़ के साहब की मच्छरदानी में पीर इलाहीबख्श कॉलोनी बना ली है। किस लिए कि दिन को भी शराबी खून की आदत पड़ गई है। कई सींकतड़ नए-नए खून पीने वाले मच्छर तो काटते ही बसुध हो के वहीं पट से गिर पड़े हैं। सवेरे गुल मसीह मेहतर झाड़ू से समेट के गटर में फेंक देवे है। शराबियों का यही अंत होवे है। बड़ा साहब और टोनी एक ही कंबल तले रैन-बसेरा करे हैं। क्या बताऊँ, बड़ा ही मुहब्बती कुत्ता है। रात भर साहब के गले में टाँग डाल के सौवे है। पर अब वो हरामी पिल्ला भी दारू पीने लग गया है। हमने पूछा, तुमने अपनी आँख से टोनी को शराब पीते हुए देखा? बोला, नहीं! मुसलमानों की तरह छुप के पीवे है। जरा जियादा चढ़ जाए तो दो टाँगों पे खड़ा होके साहब लोगों की तरह नाचने लगे हैं। कभी-कभी मस्त होके क्लिफटन की तरफ निकल पड़े हैं। वहाँ एक ऊँटनी से फ्रेंडली हो जावे है। हमने पूछा, तुम्हें कैसे पता चल जाता है कि कुत्ता इस समय पिए हुए है। बोला मैं रोज उसे शाम को दूसरी कोठियों के सामने टॉयलेट कराने ले जाता हूँ। उधर के कुत्ते इसी काम को लिए इधर आवे हैं। जिस दिन टोनी पिए हुए हो हजरत पीर गुलंबर शाह की तरफ नहीं जाता। चाहे काट डालो।
इकलौते बेटे का स्वागत : हमें अपने दिन चर्चित बारह साल से पहले ही फिरते दिखाई पड़े। दो साल बीते होंगे कि हम उसके निकटवर्ती समझे जाने लगे, जिसका मतलब यह था कि हम वो सम्मानित मोम के पुतले थे जिसे भट्टी के सामने निकटतम कुर्सी पर जगह दी गई थी। हाकिम की जीहुजूरी में लगे हुए थे लेकिन जिन दीवारों से हमारा सिर टकराया वो मोम की बनी हुई नहीं थीं। हम उसके विशेष चमचे की हैसियत से अपनी दुर्गति और ईष्यालुओं की संख्या में तेजी से बढ़ोत्तरी कर रहे थे लेकिन उसकी आदतों और तौर-तरीके से पूरी तरह परिचित नहीं हुए थे। चार बजा चाहते थे। वो ग्यारह बजे का निकला अब ऑफिस पहुँचा था। हम किसी काम से अंदर गए तो देखा कि आँखों से आँसू बह रहे हैं, नाक उससे अधिक बह रही है। निचला होंठ लटका हुआ है। आवाज और हाथ में कंपन। कहने लगा, 'माफ करना, मैं थोड़ा भावुक हो रहा हूँ। मेरा इकलौता बेटा दस साल बाद आज रात B.O.A.C. से हाँगकांग से आ रहा है। बहुतेरा मना किया हवाईजहाज से न आओ मगर आजकल के सिरफिरे नौजवान किसी की सुनते हैं?
हमने बाहर आकर ढिंढोरा पीट दिया, बैंक के जितने अफसर थे और वो भी जिन्हें बड़ा होने से रोक रखा था, सबने एयरपोर्ट जाने की तैय्यारियाँ शुरू कर दीं। जहाज रात के ढाई बजे आ रहा था। लोग गोटे और फूलों के हार से लदे-फंदे-कोई टैक्सी में, कोई किसी के साथ लद कर और कोई मांगे की कार में-बारह बजे ही एयरपोर्ट पहुँच गए। हमारे पास न टैक्सी का किराया था न किसी अल्लाह के बंदे ने हमें लिफ्ट देना गवारा किया इसलिए घर पर ही पड़े सन्नाते रहे।
सुबह ऑफिस पहुँचे। सब गायब। नौ बज कर दस मिनट पर सबको अनुपस्थित दिखा कर अनुपस्थितों की लंबी लिस्ट हमने हमेशा की तरह एंडरसन के पास भेज दी और उसने उसी समय इस रिमार्क के साथ लौटा दी कि इतने व्यवस्थित ढंग से अनुपस्थित रहने के कारण उन सबसे लिखित स्पष्टीकरण माँगा जाए। साढ़े दस बजे सब लोग ऑफिस पहुँचे। जिसे देखो बिफरा हुआ। गुस्से में आँखें लहू का जाम। जहाज ढाई बजे की जगह नौ बजे सुबह पहुँचा। सारी रात आँखों में कटी। कराची उतरने वालों में कोई यात्री ऐसा न निकला जो स्वयं को एंडरसन का बेटा मानने पर उतारू हो। एक-एक से पूछ देखा। एक सिरफिरे से तो स्वागत समिति के संरक्षक यासूबुल हसन गौरी की मार-कुटाई होते-होते रह गई।
'आपका क्या नाम है? यासूबुल हसन गौरी ने उसकी आस्तीन पकड़ कर पूछा?'
'हेनरी हालिंग बर्थ'
'क्या मिस्टर एंडरसन आपके पिता हैं?'
'यू....
सबने हमें घेरे में ले लिया। किसी ने नाश्ता नहीं किया था। गाल भी सैंड-पेपर हो रहे थे। ऐयरपोर्ट से सीधे बैंक आकर निहार-मुँह हम पर गुस्सा होने लगे। कोई टैक्सी का किराया माँगने लगा, कोई रात भर की जगार का मेहनताना। यासूबुल हसन गौरी ने तो मूल्य बता कर गुलाबों का हार हमारे गले में डाल दिया हालाँकि हमें मोतिया पसंद है। युद्ध ने तेजी पकड़ी तो हम एंडरसन के पास गए और जी कड़ा कर पूछा।
'सर रात आपके साहबजादे तशरीफ नहीं लाए?'
'किसके साहबजादे?' उसने कान पर हाथ का कप बना कर सवाल समझने की कोशिश की।
'आपके! जो हाँगकांग से B.O.A.C. से आने वाले थे।'
'आ, आा, आाI! क्या तुम पिए हुए हो?' मैं आज पहली बार यह खुशखबरी सुन रहा हूँ कि मेरा कोई बेटा भी है। तुम्हारी तबियत तो ठीक है? And Honkong of all the places, यह भी न सोचा कि जो हवाईजहाज से यात्रा करे वो कम से कम मेरा बेटा नहीं हो सकता।'
बात कहाँ से कहाँ तक आ पहुँची तो हमने भी हवाई जहाज की बुराई और रेल यात्रा की प्रशंसा की जो कुछ ऐसी गलत भी न थी। इसलिए कि गाढ़ा-गाढ़ा धुआँ और चिंगारियाँ छोड़ते हुए इंजनों की सुरीली सीटी में बचपन की यादों की मिठास धुली हुई थी। अभी नकटे डीजल इंजनों के गले नहीं बैठे थे। उस दिन हमें पता चला कि एल्कोहलिक की अपनी एक अलग Make-Believe दुनिया होती है। कइयों के भाग्य में वहाँ भी रोना-धोना लिखा होता है।
फ्रीमेसनरी की एक झलक : वो पहुँचा हुआ फ्रीमेसन था और स्काटिश लॉज और ग्रैंड लाज के ऊँचे पदों, जैसे ग्रैंड मास्टर, पर रह चुका था। एक दिन बुला कर कहने लगा। 'कल रविवार है, बैंक हाउस आकर जरा लॉज के एकाउंट चैक कर लो। एक गबन हो गया है। हैदरी फिर छुट्टी पर है। उससे भी निबट लूँगा वरना तुम्हें कष्ट न देता।' कैसा कष्ट, कहाँ की परेशानी। यहाँ तो एक लंबे समय से ये जानने के इच्छुक थे जादूघर में आखिर फ्रीमेसन करते क्या हैं। तरह-तरह की बातें उनके बारे में प्रसिद्ध थीं। जैसे यही कि काम उचित न भी हो तब भी एक दूसरे की सहायता करते हैं। मिस्टर बहरामजी ने, जो स्वयं ऊँचे स्तर के फ्रीमेसन थे, हमें यहाँ तक लालच दिया कि लंदन में हमारा अपना अस्पताल है। जहाँ फ्रीमेसनों के गुर्दे और पित्ते मुफ्त निकाले जाते हैं। रबड़ के नकली हाथ जितने चाहो मुफ्त लगवा लो। यह भी सुनने में आया कि फ्रीमेसन से हाथ मिलाएँ तो किसी विशेष उँगली के उठाव को अँगूठे से इस तरह दबाते हैं कि हाथ मिलाने वाले को तुरंत पता चल जाता है कि अपनी ही बिरादरी का आदमी है। एक साहब ने यह भी बताया कि जिस रात मास्टर की तीसरी डिग्री दी जाती है तो सब फ्रीमेसन बिरादर कमीजें उतारे हिरन की खाल बाँध कर एक सफेद चादर के सामने नाचते हैं जिस पर एक मनुष्य की खोपड़ी और उस पर एक मोमबत्ती रखी होती है। पैंट का केवल एक पांयचा होता है दूसरा जड़ से गायब। लॉज के दरवाजे पर एक गार्ड यही हुलिया बनाए नंगी तलवार खींचे पहरा देता है। हालाँकि ऐसे नंगे हुलिए के बाद नंगी तलवार की आवश्यकता कहाँ रह जाती है। कोई फ्रीमेसन मर जाए तो मिर्जा के कथनानुसार मुरदे की प्रसिद्धि के लिए श्रद्धांजलि सभा होती है। जिसमें एक नकली ताबूत बना कर लाज में रख दिया जाता है फिर बिरादरी का सरपंच सभी बिरादरों के नाम पुकारता है और वो बारी-बारी 'उपस्थित माननीय' 'उपस्थित महोदय' कहते हैं। स्वर्गीय का नाम तीन बार पुकारने के बाद भी कोई जवाब नहीं आता तो हिज वरशिप फुल मास्टर ताबूत को संबोधित करके कहता है कि बिरादर मालूम होता है तुम मर गए हो। अगर कोई शक्की स्वभाव का व्यक्ति मुर्दे की नब्ज देखे तो फिर भी बात समझ में आती है कि अपने वहम का इलाज कर रहा है लेकिन नकली मुर्दे से तो यमदूत भी सवाल जवाब नहीं करते। फिर दुखियारे एक दूसरे को साँत्वना देते हैं। किसी ने यह भी बताया कि अगर कोई व्यक्ति फ्रीमेसनरी रीति-रिवाजों का भेद खोल दे तो उसकी जीभ गुद्दी से खींच कर चील-कव्वों को खिला दी जाती है। यह बात भी समझ में न आई। इसलिए कि अगर भेदों की पूरी-पूरी सुरक्षा करनी है तो प्रकट करने से पहले सब की जीभें काट दी जानी चाहिए न कि बाद में।
अब हर कृपाकांक्षी फ्रीमेसनों के संबंध बनाने की तिगड़म लड़ाने लगा। जिसे देखो हाथ मिलाते समय बड़े आदमियों का हाथ इस तरह दबा रहा है जैसे फिल्मों में हीरो-हीरोइन का दबाता है। जबसे यह सुना कि एक फ्रीमेसन दूसरे फ्रीमेसन को कभी डिसमिस नहीं करता। यह हालत हो गई कि जो अभी तक बेईमान नहीं थे वो भी दूरअंदेशी के कारण फ्रीमेसन बनने के उपाय खोजने लगे। इधर एंट्री वर्जित और कठोर शर्तों वाली। एक बदनाम कैशियर अलबत्ता हिरन की खाल से पिछवाड़े और कैश की कमी पर परदा डाल चुका था और यह कोई नई बात नहीं। यही रीत चली आई है कि जो मत राजा का सो अपना। बल्कि कइयों ने तो आस्था के जोश में पेय तक अपना लिया था। तुजुके-जहाँगीरी में आया है कि अजमेर में स्वास्थ्य के स्नान के बाद, जहाँगीर ने श्रद्धावश अपने कानों में ख्वाजा मुईनुद्दीन चिश्ती के नाम पर मोतियों के छल्ले डाल लिए। यह देख कर साम्राज्य के कर्मचारियों और नमक खाने वालों ने भी अपने कान छिदवा लिए। इसी तरह एक बार की चर्चा है, अकबर पवित्र पत्तन शरीफ के पास शिकार खेल रहा था। एकाएक एक पेड़ के नीचे भावनाएँ उमड़ आई। शिकार छोड़ने का संकल्प किया और उसी पेड़ के नीचे, दरबारे-अकबरी के शब्दानुसार 'बादशाह ने वहीं बैठ कर बाल मुंडवाए और मुसाहिब जो बहुत निकट थे खुशामद के उस्तरे से खुद-ब-खुद मुंड गए।
कोयल ने हाफ बॉइल्ड अंडा दिया : फ्रीमेसन लाज के एकाउंट के चक्कर में कई बार उसके घर जाना हुआ तो उसके व्यक्तित्व के वो पक्ष भी सामने आए जिनसे घर के नौकर, जानी दुश्मन और बीबी परिचित होती है। उदाहरण के लिए एक इतवार को बुंदू खाँ ने बताया कि कल सारी रात आदमकद शीशे के सामने खड़ा अपने जानी दुश्मन मिस्टर लतीफी को गालियाँ देता रहा। डाँटते-डाँटते आवाज बैठ गई तो शीशे पर मिस रेमिजडन की लिपस्टिक से मिस्टर लतीफी का चित्र बनाया। फिर गोल्फ के डंडे और गेंद से उस पर चाँदमारी करने लगा। खिड़की दरवाजों के सारे शीशे और क्राकरी टूट गई। सफेद बिल्ली के सिर पर भी डंडे से हिट लगाई। फिर गेंद हाथ में ले कर उसे डाँटने लगा कि हरामजादी अब म्याऊं-म्याऊं भी करने लगी है। टोनी यह तोड़-फोड़ देख कर भौंके चला जा रहा था। अंत में एक हिट ऐसी लगाई कि गेंद सीधे हल्क के होल में घुस गई। गेंद के अतिरिक्त कोई चीज साबुत नहीं बची। सुबह चार बजे मिस्टर लतीफी को खिड़की से बाहर फेंक कर डिसमिस किया तब चैन से सोया। हमने पूछा, बुंदू खाँ! तुम तो अंग्रेजी नहीं जानते। तुम्हें कैसे मालूम पड़ा कि उसने मिस्टर लतीफी को डिसमिस कर दिया। कहने लगा, सुबह चार बजे घंटी बजा कर उसने मुझे सर्वेंट क्वार्टर से बुलाया। मैं जांघिया पहने सो रहा था। भागम-भाग उसका पुराना ड्रेसिंग गाउन पहन कर आया तो फिर उसे काली बो पहने, टूटे शीशे के सामने खड़ा देख कर शर्म से पानी-पानी हो गया। बोला, बुंदू खाँ जरा चैक करो। कुक्कू क्लाक में से यह कोयल बार-बार क्यों निकल पड़ रही है। क्या हाफ बाइल्ड अंडा देना माँगटी है? अच्छा! अब तुम हमको यह बैंक की चाबियाँ दे कर एक दम चार्ज हैंडओवर कर दो। मैंने चाबियाँ उठा कर दीं तो जानते हो क्या कहने लगा? बोला, 'मिस्टर लतीफ यू आर फायर्ड।
हमने पूछा, 'तुम्हें फायर्ड का मतलब भी मालूम है?' बोला, 'बाबूजी हमने कभी किसी चपड़कनातिये काले साहब की गुलामी नहीं की, सारी उम्र अंग्रेजों की चाकरी की है। दर्जनों सोने के तमगे मिले। मैंने उन सबके कलाबत्तू में पिरो के उनका हार निस फर्नांडिज को हैप्पी बर्थ डे पर प्रजेंट कर दिया। पूना में एक अंग्रेज कर्नल की गंर्वनेस थी। एक से एक रसभरी हवा करे थी उन दिनों। आज कल की छोकरियाँ तो उसके सामने चुसे हुए आम लगे हैं। हमने आज तक मालिक की गाली का जवाब और सौदे का हिसाब नहीं दिया। पर हम एक वफादार नमक हलाल आदमी है। हमारी आँख में लिहाज है। बंदा कभी चोर, उचक्कों की तरह नहीं भागा, हमेशा इज्जत से कायर हुआ है।'
हमने पूछा, 'फिर पाँच साल से यहाँ बेइज्जती की रोटी क्यों खा रहे हो?'
'पौने पाँच साल कहो।'
'मगर आखिर क्यों?'
'बाबूजी! मालिक तो दरजनों के हिसाब से टाँग के नीचे से निकाल दिए पर ऐसा जेंटलमैन आदमी नहीं देखा जो दिल में वही जबान पर सड़ी-सड़ी गाली देता है पर दिल में खोट-कपट नहीं रखता। पैसा एक नहीं बचाता। कभी किसी मेम से बात नहीं करता। सब्जी को हाथ नहीं लगाता। हफ्ते में एक रोज इबादत हिसाब और कसरत कभी नहीं करते। खुदा की कसम सारी हरकतें मुसलमानों क्यों नहीं हो जाता?'
'फिर मुसलमान क्यों नहीं हो जाता?'
'मैं तो जानूँ नाई के उस्तरे से डरे हैं।'
एडवाइजर के कर्तव्य : एक दिन सुबह 9 बजे ही बुलवा लिया। बोले, 'तुम्हारे चश्मे का नंबर सही है।' हमने स्वीकार में सिर ऊपर से नीचे हिलाया। संक्षेप में बोले, 'क्या मैं हाथी जैसा लगता हूँ? Be frank.
हमें न केवल अस्वीकार में देर तक दाएँ-बाएँ सिर झुलाया किए बल्कि 'बी फ्रेंक' को पुष्ट करने के लिए यह भी कह दिया कि आपकी नाक तो कुछ अधिक ही छोटी है। अरे साहब वो तो बिगड़ गया। जेसे शैम्पेन की बोतल का कॉर्क उड़ना था कि झाग ही झाग निकलने लगे 'Look hare मैं अपनी नाक के बारे में अपने अधीनस्थों से सार्टिफिकेट लेने का मोहताज नहीं।'
हम गरदन झुकाए चुपचाप बाहर आ गए। उसे हमारे दिल टूटने का अहसास हुआ होगा जभी तो दस मिनट बाद फिर बुलाया और अस्वाभाविक रूप से सामने बिठाकर अपने बेबस आधीनस्थ को मनाने की कोशिश की। 'सुनो! बैंक ऑफ इंग्लैंड का गवर्नर लार्ड नार्मन चौबीस साल तक बैंक के अच्छे-बुरे का मालिक रहा। घमंड, उद्दंडता और आत्म प्रदर्शन में अपने जैसा आप ही था। कारो बारी लेन-देन के निर्णय भी बेसोचे-समझे करता था। 1935 के लगभग जब उसने प्रसिद्ध अर्थशास्त्री प्रोफेसर क्ले को सलाहकार बनाया तो साथ ही निर्देश दिया। 'तुम्हारा काम मुझे यह बताना नहीं है कि मुझे क्या फैसला करना चाहिए। तुम्हारा काम तो मुझे यह बताना है कि मैंने यह फैसला क्यों किया।'
उसने दस मिनट पहले लूटी हुई पत लौटा थी और हमें होठों में मुस्कुराते देख कर कहने लगा, 'मैं तुम्हें किसी तरफ से हाथी लगता हूँ? देखो इस साप्ताहिक चिथड़े में लतीफी ने मेरे विरोध में कैसा गंदा आर्टिकिल छपवाया है। लिखा है कि मैं रोज एक बोतल मनी एक्सचेंज पी जाता हूँ। हैडिंग लगाया है कि बैंक में सफेद हाथियों का सरदार हूँ। मैं सफेद निस्संदेह हूँ मगर प्रकृति ने मुझे सूंड नहीं दी है कि उसमें लपेट कर लतीफी को धरती पर पटखनियाँ दूँ। गंगा दीन में रुडयार्ड किपलिंग ने क्या कहा था?'
'An for all is dirty'ide
E was white, clear, white, inside.
दो-तीन विज्ञापन दे दूँ तो सफेद हाथी काला हो जाएगा। उसने यह भी आरोप लगाया है कि मेरा वेतन 2700 है। तुम्हें स्वयं मालूम है कि मेरा वेतन 2600 है।
हम हाँ में हाँ मिला कर चलने लगे तो मुस्कुरा कर पूछा, 'और हाँ! अपनी नाक के बारे में तुम क्या सोचते हो?'
'सर! सिंधी में एक कहावत है कि भैंस को अपनी कालिख दिखाई नहीं पड़ती।'
वो सामान्य अंग्रेजों की तरह नहीं था जो न्याय, ब्रिटिश सेना और M.C.C की जीत पर विश्वास रखते हैं। एक सप्ताह पुराने लंदन के समाचार पत्रों में पाकिस्तान के समाचार पढ़ते हैं और रात को बी.बी.सी. से कल के मौसम की भविष्यवाणी और बिग बेन की लोरी सुन कर सो जाते हैं। वीक-एन्ड पर हमारी तरह केवल हाक्स बे की सुनहरी रेत और समुद्री स्नान पर सब्र नहीं करते। सामान्य अंग्रेज रविवार को सुबह 10 बजे तक बिस्तर पर ऐंडते रहते हैं फिर नेकर पहन कर बियर पीते हैं। जो थोड़ा आलसी हैं वो बियर पीकर नेकर पहनते हैं। उसके बाद डेढ़-दो घंटे धूप में घास के उस बालिश्त भर टुकड़े में उँगलियों से कंधी करते रहते हैं, जिसे वो अपना गार्डन कहते हैं। एंडरसन अकेला अंग्रेज, क्षमा कीजिए स्काटमैन था जो रविवार की सुबह न हाक्स बे जाता, न दस बजे तक बिस्तर पर पड़ा ऐंडता रहता, न नेकर पहनता, न धूप में बैठ कर घास को घूरता। बस बियर पीता था।
सर का सम्मान : फिर एक काल ऐसा आया कि समय-असमय कहने लगा कि समाचार पत्र ध्यान से पढ़ा करो। 'वन फाइन मार्निंग तुम क्वीन की बर्थडे ऑनर्ज लिस्ट में अपने जनरल मैनेजर का नाम देखकर खुशी से फूले न समाओगे। अभी तो मुझे केवल 'सर' पर टरखा देते हो। कुछ दिन बाद सर विलियम कहना पड़ेगा। सर विलियम! सर विलियम! कहते हुए तुम कितने स्वीट लगोगे। इस बार तुम्हारे बॉस को नाइट का सम्मान मिल रहा है।' इस सप्ताह जब उसने यह बात तीसरी बार कही तो हमने अग्रिम बधाई दी। जिसका उसने दिल से धन्यवाद दिया और हमारे कंधे पर हाथ रख कर यह वादा भी किया कि जुलाई में यदि लंदन का फेरा हुआ तो हर मैजेस्टी से सिफारिश करूँगा कि तुम्हें भी कोई छोटा-मोटा सम्मान दें। आखिर तुम कब तक मिस्टर पर गुजारा करोगे।
दो तीन महीने बाद सम्मान की सूची अखबार में छपी। सबने ऊपर से नीचे फिर नीचे से ऊपर तक खंगाल डाली। नाम कहीं दिखाई न दिया। यही नहीं, इस साल किसी ऐसे व्यक्ति को सम्मान न मिला जिस का नाम W या A शुरू होता हो। शाम को उसने किसी काम से बुलाया तो हमारी फूहड़ कमान से तीर निकल गया। 'लगता है डॉन की सूची में आपका नाम गलती से रह गया।' चश्मे को नाक की फुनंग पर रखकर बोले, 'एक सप्ताह पहले ब्रिटिश हाई कमिश्नर ने मेरी स्वीकृति चाही थी, लेकिन मैंने सर का टाइटिल लेने से साफ मना कर दिया। आ, आा, आाI ...। मैं नहीं चाहता वो कुतिया (अपनी बीबी की ओर संकेत) लेडी एंडरसन कहलाए। लेडी एंडरसन? माई फुट। जब तक मैं जीवित हूँ उसे यह सम्मान नहीं मिल सकता।' ऐसी दो-तीन सूचियों से आँखें फोड़ने के बाद यह मालूम हुआ कि सर का सम्मान उसकी एक Favourate Fantasy है। कभी-कभी उस पर डिकंस के पिक-विक हीरो का सा ध्यान आता। हमेशा नाकाम पर हमेशा आशाओं से भरा और प्यार करने योग्य। इच्छाओं के इस उपवन में पतझड़ का जाना कहाँ कि इसकी सिंचाई व्हिस्की से होती थी। एशिया महाद्वीप में संभवतः वो अकेला अंग्रेज था जिसे 35 साल बैकिंग के पेशे से जुड़े रहने के बाद भी 'सर' का सम्मान न मिला। वरना 5-6 साल लाल मिर्च खाने के बाद तो हर अंग्रेज को कोई न कोई टाइटिल अवश्य मिल जाता था। चाहे उसकी उपलब्धियां इससे आगे न बढ़ी हों कि पिछले सीजन में उसने सबसे अधिक मुर्गा बियाँ मारीं या कम से कम चोटों में अधिक से अधिक होलों में गेंद डाल कर डिस्ट्रिक्ट गोल्फ टूर्नामेंट जीता, जिसकी गूँज व्हाइट हाल तक पहुँची।
छोटी नाक और विवाह विच्छेद : एक आवश्यक काम के सिलसिले में हम नेशनल बैंक ऑफ इंडिया के मैनेजर मिस्टर मेकाई से मिलने गए तो बातों-बातों में उसने बताया कि क्रिकेट पर विभिन्न भाषाओं में 4500 किताबें हैं और इस विषय पर मेरे निजी पुस्तकालय का संसार में दूसरा नंबर है। सत्ताईस साल में दस-बारह स्थानांतरण विभिन्न देशों में हो चुके हैं। पुस्तकालय कांधे पर लिए-लिए फिरता हूँ। क्रिकेट आज तक नहीं खेला। हमें आश्चर्य हुआ कि जिस खेल से हमें चिढ़ है उस पर इस अल्लाह के बंदे ने इतनी बहुत सी किताबें और ऐसी-ऐसी पिशाच-भाषाओं में जिन्हें वो स्वयं भी न पढ़ सके, न जाने कितने जतन से हमें जलाने के लिए जमा की हैं। जरा चल कर देखनीं तो चाहिए।
हमने इच्छा प्रकट की तो कहने लगा रविवार की सुबह आ जाओ मगर याद रहे किताब दूसरे की बीबी की तरह होती है। दूर से खड़े-खड़े देख कर प्रशंसा करने के लिए, बगल में दबा कर ले जाने के लिए नहीं। मिस्टर मैकाई को कुछ दिन पहले C.B.E का सम्मान मिला था। हमने बधाई दी, साथ ही एंडरसन के सम्मान को स्वीकार न करने की चर्चा छेड़ी तो उसने अट्टाहास किया। कहने लगा, एंडरसन ने लंबे समय तक चार्टेड बैंक में नौकरी की है। स्वेज के इस पार उससे अधिक योग्य और अल्कोहलिक बैंकर ढूँढे से नहीं मिलेगा। लेकिन चार्टेड बैंक इन दोनों योग्यताओं को यह एक ही व्यक्ति में इकट्ठे देखने का साहस न कर सका। एक पार्टी में अपने बॉस की नई-नवेली दुल्हन की गोद में, लड़खड़ाते कदमों से जा कर बैठ गया और तब तक बैठा रहा जब तक कि घटना स्थल पर ही डिस्मिस न कर दिया गया। एंडरसन ऐसा वैसा एमैच्योर शराबी नहीं।
ये आधी सदी का किस्सा है दो - चार बरस की बात नहीं
मिस्टर मैकाई ने यह भी बताया कि बर्मा की लड़ाई के समय अपनी बीबी को रंगून में सोता छोड़ कर, युद्ध-स्थल से मेरे साथ कंधे से कंधा मिला कर भागा था। अब उस औरत ने विवाह-विच्छेद का यह कारण दिया है कि अब मेरा और इसका निबाह नहीं हो सकता है। सोते में विवाह-भंजक खर्राटे लेकर मेरे निजी सपनों में गलत sound effects देता है। आदतें भी गंदी हैं। उदाहरण के लिए बीस बरस से टूथ-ब्रश छुआ तक नहीं। छोटी सी नाक को उँगली से कुरेदता रहता है। हर समय शराब पिए रहने के कारण शारीरिक संबंधों की आपूर्ति दस साल से नहीं कर पाया है।
मिस्टर मैकाई बड़े हाजिर जवाब हँसमुख आदमी थे। सभा-समारोहों में बड़े उत्साह से बुलाए जाते थे। हजारों लतीफे याद थे। स्वयं ही खुले तो खुलते चले गए। बताया कि हनीमून के समय में ही तलाक की बातचीत शुरू हो गई थी। बीस साल से शादी और तलाक की शारीरिक सीमा रेखा के विपरीत करतब करता रहा है। अपने जवाब दावे में यह आधार लिया है कि मैं नौकरी के लिए कराची में रहता हूँ। शारीरिक संबंधों की आपूर्ति के बीच दो बड़े महाद्वीप पड़े हुए हैं। जिनके अस्तित्व का ज्ञान संभवतः महारानी विक्टोरिया के माननीय न्यायालय को भी होगा।
है खबर गर्म उनके जाने की : शायर ने ठीक ही कहा है -
वक्त में बात यही है कि गुजर जाता है
सो अच्छा-बुरा हमारा भी गुजर गया, 'मैं अगले सप्ताह वतन जा रहा हूँ।' एंडरसन ने दीवार को टकटकी बाँध कर देखते हुए हमसे कहा, 'एक दिन इस दीवार पर मेरी फोटो knight के वेश में लगी होगी। उस समय मैं धरती में छह फिट नीचे सो रहा हूँगा। अब मिट्टी, मिट्टी में मिला चाहती है। दुख है मेरे साथ के कारण तुम्हारा कैरियर तबाह हो गया। मैं तुम्हारे लिए कुछ न कर सका। मगर मेरी अच्छाइयों को ही याद रखना। उसने अपना सर झुका लिया। वो रो रहा था। वो नशे में था।
तीन-चार महीने से बैंक में अफवाहें फैल रही थीं कि अबके गया वो वापस नहीं आएगा। दूरदर्शियों ने उसके उत्तराधिकारी को अभी से बड़ा साहब कहना शुरू कर दिया था। पंजाबी कहावत के अनुसार नदी अभी कोसों दूर थी लेकिन यार लोगों ने अभी से शलवारें कंधे पर डाल ली थीं। लोग आधे-आधे घंटे इस प्रतीक्षा में खड़े रहते थे कि इधर से निकलें तो सलाम बजाएँ।
यूँ वो गुजरे नजर झुकाए हुए
हम लिए रह गए सलाम अपना
बड़े-बड़े नरभक्षी, अफसरों के सामने घिघियाने लगे -
जंगल में शेर बन गए थे खौफ से हिरन
जुमे को सब एक ही मस्जिद में एक दूसरे की बुराइयों से सुरक्षित रहने की दुआएँ माँगने लगे। इधर स्वयं एंडरसन कुछ दिन से और भी चिड़चिड़ा हो गया था। ड्राइवर अगर बाईं ओर का दरवाजा खोलता तो दाईं ओर से उतरता और दायाँ खोलता तो बाएँ से कूद पड़ता था। लोगों ने हमसे मिलना-जुलना बंद कर दिया। हमारी बरबादियों के मशवरे आसमानों के अलावा दफ्तर में भी हो रहे थे जो कहीं अधिक भयानक स्थिति थी। सामान्य सोच यह थी उसके जहाज के अदन पार करने से पहले ही हमारा बेड़ा गर्क हो जाएगा। उस काल में हमें और अधिक लगन और मेहनत से काम करते देख कर मिर्जा बोले कि साहब! बरसते मेंह में सफेदी करने से फायदा?
एंडरसन ने स्वयं चर्चा शुरू की तो हमने आवाज में दुनिया भर रुंआसापन भर के कहा, 'जाने से पहले हमें अपनी एक निशानी, एक सार्टिफिकेट देते जाइए ।' हर तरफ आपा-धापी, चल-चलाव की स्थिति थी। उसके चपरासी ने उसकी जेब से 100 का नोट निशानी के लिए निकाल लिया। हमारा यह कहना था कि उसकी भवों के बीच में शिकन पड़ गई। एकाएक तेवर बदल गए। शेक्सपियर के रिचर्ड-3 का वाक्य दुहराते हुए कहने लगा -
Authority leaves a dying king
'सार्टिफिकेट चाहिए। आ, आा, आाI, तुम्हारा काम बुरा नहीं। मेरे खानसामा के पास सौ-डेढ़ सौ सार्टिफिकेट हैं। दो-बार ऐसा हुआ कि मैंने अपना खाना कुत्ते को खिला दिया। दोनों कुत्ते मर गए। मैंने तुम्हारे बारे में पूरी रिपोर्ट इस डायरी में लिख छोड़ी है। अंतिम दिन कागज पर उतार कर मेरे सिग्नेचर करवा लेना। कल मैं तुम्हें एक अलविदाई भेंट दूँगा। एक बहुत उपयोगी किताब, अगर मेरी तरह तुमने उसे समझ कर पढ़ लिया तो मेरी ही तरह एक दिन जनरल मैनेजर हो जाओगे। यह मेरी बहुत प्रिय संपत्ति है।'
दूसरे दिन वादे के अनुसार उसने सफलता की यह चाबी हमें भेंट कर दी। यह एक मोटी किताब थी जिसमें बैंक की तात्कालिक समस्याओं पर चर्चा की गई थी। तात्कालिक से हमारा अभिप्राय 1898 की समस्याएँ हैं, जब यह किताब छपी थी। कागज और प्रिन्टिंग से अनुमान लगा कि अंग्रेज किसी काल में भी हमसे पीछे नहीं रहे। उनमें भी मुंशी नवलकिशोर हुआ करते थे। उसके पन्ने पलटने के बाद हम भी मान गए इसे पढ़ कर हर व्यक्ति जनरल मैनेजर बन सकता है। बशर्ते उसका जन्म 1898 में हुआ हो।
विदा होने से पहले अफसरों ने शैजान होटल में उसे अलविदाई पार्टी दी। दस पौंड का एक तिमंजिला केक विशेष रूप से बनवाया गया जिसकी सफेद आइसिंग पर तोला-तोला भर के तीन गुलाबी आँसू टपके थे और उनके नीचे चाकलेट से लिखा था Fare well sir
अभिनंदन पत्र यासूबुल हसन गौरी ने उन अभिनंदन पत्रों की सहायता से ड्राफ्ट किया था जो पिछले तीस वर्षों में एक स्टूल से दूसरे स्टूल पर ट्रांसफर के अवसर पर चपरासियों ने उसे भेंट किए थे। अभिनंदन पत्र में यह ध्यान रखा गया था कि अपनी ओर से कोई वाक्य न बनाना पड़े, कहीं इंग्लिश ग्रामर को चोट-चपेट न आ जाए। हर विचार का प्रकटन किसी रेडीमेड मुहावरे के द्वारा हो। (हालाँकि प्रोफेसर काजी अब्दुल कुद्दूस के अनुसार मुहावरे तो भाषा के बढ़े हुए नाखून होते हैं।) वो अपना चश्मा भूल आए थे और उन्हें अपना भविष्य और भी अंधेरा दिखाई दे रहा था। इसलिए अभिनंदन पत्र बड़ी कठिनाई और रो-रो कर पढ़ा गया। गले में फंदा पड़ गया। जिसे बाद में केक के तीनों खूनी आँसुओं को खा कर साफ किया। इस मुहावरेदार अंग्रेजी का अनुवाद प्रस्तुत है -
अभिनंदन पत्र
महोदय!!!
हमारे लिए यह अत्यधिक प्रसन्नता और दुख का संगम है कि आप जा रहे हैं। आपने सदैव व्यवस्था की गुत्थियों के सींग पकड़ कर उनका सामना किया है। आपने यह विदा अपने माथे के पसीने से कमायी है। आप अपनी मोमबत्ती दोनों सिरों से जलाते रहे हैं। यह इस नवजात बैंक के दाँत निकलने का काल था, मगर आपने अद्भुत तत्परता से बैंक की नाव को एक ओर चट्टान और दूसरी ओर भंवर से बचा कर सूखे किनारे पर ला खड़ा किया। यही नहीं आपने प्रतिस्पर्धी बैंकों के पालों की हवा निकाल दी। इस संस्थान की उन्नति के लिए आपने कोई पत्थर उठा-पटक किए बिना नहीं छोड़ा। आप अपनी पतवार पर सर टिका कर नहीं सोये। बैंक का झंडा लहराते हुए आपने कभी अपने पैरों के नीचे काई नहीं जमने दी।
हम सारे स्टाफ की ओर से महोदय को विश्वास दिलाते हैं कि आपके बिना यह बैंक चलाना ऐसा ही होगा जैसे हैमलेट का ड्रामा प्रिंस ऑफ डेनमार्क के बिना खेलना। हमें इस स्थाई बिछोह का बड़ा दुख है। हम आपकी सेवा में गोटे का हार और आँसुओं की भेंट प्रस्तुत करते हैं (हार पहनाया जाता है। तालियाँ बजती हैं) हम पूरे विश्वास से कह सकते हैं यह मगरमच्छ के आँसू नहीं हैं।
आपने इस दुधमुंहे संस्थान के लिए अपना स्वास्थ्य खराब कर लिया है। जिसके ठीक होने के लिए हम और हमारे परिवारी जन चौबीसों घंटे प्रार्थना करते रहेंगे। संसार देखेगा कि समय की रेत पर हमारा पैर आपके ही पगचिन्हों पर पड़ता चला जाएगा। हम अपना बचा कैरियर आपके ज्ञान से गर्भित उपदेश के प्रकाश में बिताएँगे कि कर्तव्य-कर्तव्य है और ईमानदारी सर्वोत्तम पॉलिसी है (Honesty is the best policy)। हमें शेक्सपियर की तो कोई उपयुक्त काव्य पंक्ति याद नहीं किन्तु हमारे सबसे बड़े शायर गालिब ने अपने बादशाह को दुआ दी थी कि खुदा तुम्हें एक हजार साल सलामत रखे और हर साल पचास हजार दिन का हो। महोदय हमारी हार्दिक प्रार्थना है कि आप इतने दिन सलामत रहने के अतिरिक्त इस बैंक के जनरल मैनेजर भी रहें। (उपस्थित जन कोरस में आमीन! सुम्मा आमीन कहते हैं)
हमारी समझ में नहीं आता कि इस अभिनंदन पत्र को कैसे समाप्त करें। हम लज्जित हैं कि अल्प समय पर सूचना मिलने के काण हम इसे छपवा कर गोल्डन फ्रेम में प्रस्तुत न कर सके। संभव है इसमें आपको श्रुतिलेख (इमला) की सीमा से अधिक गलतियाँ दिखाई दें। मिसेज डीकोना टाइपिस्ट डेढ़ महीने से मेटरनिटी लीव पर हैं। मगर भूल करवा मनुष्य का स्वभाव है, क्षमा करना देवदूतों का।
हम है माननीय के विनीत और दुखी सेवक
उसके चेहरे से प्रकट था कि अभिनंदन पत्र सुनकर चकरा गया है। अपनी इस स्थिति को संभवतः उसने अधिक व्हिस्की पी जाने से जोड़ा। जभी तो एकाउंटेंट के कंधे पर हाथ रख कर स्वयं को खड़ा किया। अभिनंदन पत्र के प्रत्युत्तर में धन्यवाद के एक शब्द के बाद ही बरस पड़ा। कहने लगा, 'मैंने आपकी ट्रेनिंग पर बहुत भेजा मारा है। अपने ज्ञान की अंतिम बूंद तक आपकी खोपड़ियों में पम्प कर दी। मुझ यह बात बिल्कुल समझ में न आई कि इसके बावजूद आपने एक कैलेन्डर बरस में पचास हजार दिन की सिफारिश कैसे कर दी। जबकि ब्रिटेन में 5 दिन के सप्ताह की माँग जोर पकड़ती जा रही है। आपने यह तो सोचा होता अगर साल के दिन बढ़ा दिए गए तो वार्षिक ब्याज में कमी के कारण एक ही सप्ताह में सारे बैंकों में ताले पड़ जाएँगे।
क्या बुरा था रो लेना ऐसे मुस्कुराने से : हमसे विदाई हाथ मिलाने के समय कहने लगा, 'अपने स्वास्थ्य का ध्यान रखना और न्यूज पेपर गौर से पढ़ते रहना। वन फाइन मार्निंग, बर्थ डे ऑनर्ज लिस्ट में अपने बॉस का नाम देख कर तुम अपने को कितना भाग्यशाली समझोगे। Knight की ड्रेस में फोटो खिंचवा कर तुम्हें सैकेंड क्लास एयरमेल से भेजूँगा। 12 X 10 का गोल्डन फ्रेम खरीद कर रख लो। तुम्हारे और हैदरी के अतिरिक्त किसी और को तो क्रिसमस का कार्ड भी नहीं भेजूँगा।'
वो होठों में मुस्कुरा रहा था। हमने भी मुस्कुराने का प्रयास किया। शाम का झुटपुटा हो चला था। वो धूप का चश्मा लगा कर सबसे हाथ मिलाने लगा। उस शराबी की प्यार भरी फब्तियाँ, काम निकालने वाली घुड़कियाँ और झूठी नाराजगी आँखों में फिर गई। यादों का दुखभरा गुंबद गूँज रहा था और वो शरारतें और गुस्ताखियां भी याद आती चली गईं जो हम इस मद्यप्रेमी की शान में करते और माफ होते रहे। अगर चश्मे को कान पर टिकाने का खटराग न होता तो 12 द्ध 10 के फोटो के बदले अपना एक कान ही काट कर निशानी के रूप में शराबघर के संरक्षक को प्रस्तुत कर देते। जिसके शराबी शब्द दिल पर क्या-क्या खराबी लाए थे।
पटरी चमक रही थी गाड़ी गुजर चुकी थी : ठीक से याद नहीं उसे पहले पहल कब देखा था और वो उस समय क्या पहने हुए थी। कैसी लग रही थी। वो उन औरतों में से थी जिनसे मिलकर अपने मर्द होने की अनुभूति नहीं होती, अर्थात् वो औरत नहीं होतीं। उसे बैंक में देख कर आश्चर्य अवश्य हुआ, इसलिए कि एंडरसन बैंक में लड़कियों को टाइपिस्ट और स्टेनोग्राफर के अतिरिक्त किसी और काम के लिए रखने का विरोधी था। कहता था इस महाद्वीप में कोई लड़की ऑफिस में टिक नहीं सकती। लड़की अगर नेक है तो डर कर भाग जाती है। नेक नहीं है तो कोई भगा कर ले जाता है। कुछ भड़कती हैं, कुछ भटकती हैं।
सुनहरे बालों की एक लट रुपहली हो चली थी। जिसके बारे में प्रसिद्ध था कि खुद ब्लीच करती है। सूरत-शक्ल से ऐंग्लो-इंडियन नहीं अंग्रेज ही लगती थी। हल्के पीले दाँत, भूरी आँखें, ठेंगा दिखाती हुई प्रसिद्ध ब्रिटिश नाक। कसा-बँधा पिंडा -
अभी बाकी भी कुछ - कुछ धूप दीवारे - गुलिस्ताँ पर
धूप ही नहीं, दीवार पर उन कमंदों की चुगली खाने वाले निशान भी बाकी थे जो कभी फेंकी गई थीं। कम बोलने-दिखाने वाली। भारी आवाज, भरी-भरी बाहें, उससे भारी तेड़ (कमर से लेकर घुटनों तक का हिस्सा) सर्वाधिकार असुरक्षित। एक बातें बनाने वाले ने बताया कि किसी समय योरोपियन मिडवाइफ भी रह चुकी है। जभी तो ये हाल था कि बंद की गई पूरी-पाठी फाइल मँगाएँ तो जाने कहाँ से कोई सतवांसी फाइल खींच कर ले आती थी।
पाँच-छह माह बाद जब एंडरसन ने उससे हमारा औपचारिक परिचय कराया तो वो डरी-डरी सहमी-सहमी दिखाई दी। उसकी उँगलियाँ मोटी और हाथ खुरदुरा था। कहने लगा, 'बैंक बहुत भाग्यशाली है कि इस औरत से उसका नाम जुड़ा। 1920 में इसके पिता कराची के राजा थे, कलेक्टर रहे'। पहले तो हम चर्चित सन तक दुनिया में नहीं आए थे, फिर यह भी कि अभी तो हम कराची के भूगोल से ही अच्छी तरह निमट नहीं पाए थे कि उसके इतिहास में डुबकी लगा कर ऐसा अनूठा मोती निकालते। भरोसे से नहीं कह सकते थे कि राजा दाहिर के बाद कराची का कोई ऐंग्लो-इंडियन राजा भी हुआ है जिसकी प्रसिद्धि का कारण इस औरत का पिता होना है। उस समय में भी नवम्बर-दिसंबर में मुर्गा बियाँ और अंग्रेज बैंकर पाकिस्तान में उतरने शुरू होते थे। एंडरसन उन पर रौब डालने के लिए मिस रेमिजडन का परिचय इसी तरह कराता था। बातचीत में जब तक राजा-नवाब, नाच गर्ल्स, हरम, डाक बंगला, बंगाल टाइगर, नाश्ता, संपेरे, बख्शिश और राइस एंड करी की चर्चा न हो, अंग्रेज को विश्वास ही नहीं होता था कि वो कालों के देस में है।
हमारे सिखाने का काल : परिचय के बाद आदेश हुआ कि मिस रेमिजडन को 'फार्वर्ड फॉरेन एक्सचेंज का काम सिखाओ। यह सुनते ही हमारे होश उड़ गए जो कुछ देर बाद इस ललचावे से वापस लौटे कि पढ़ाने और अपने को उस्ताद कहलवाने में जो सौ बोतलों का नशा है वो बादशाही में हो तो हो वरना संसार का हर आनंद उसके सामने हल्का है। इसीलिए तो शाहजहाँ ने अपने बंदी काल में केवल एक इच्छा प्रकट की थी कि आगरे के किले में मुझे बच्चों को पढ़ाने की अनुमति दी जाए। औरंगजेब ने साम्राज्य के बाद साम्राज्य के निवेदन को सकारण रद्द कर दिया। लेकिन शिक्षण के संदर्भ में यहाँ दो कठिनाइयाँ थीं जिन पर काबू पाना लगभग असंभव था। पहले तो वो परले सिरे की ढीली थी। फॉरेन एक्सचेंज का परले सिरे का पेचीदा काम बिल्कुल नहीं समझ सकती थी। दूसरे हम स्वयं नहीं समझ पाए थे। ज्ञानार्जन की सबसे सरल तरकीब यह है कि आदमी पढ़ाना शुरू कर दे। हमने भी यही किया। इस मिश्रित शिक्षण प्रयोग का परिणाम यह हुआ कि वो भाग्यवान तो साढ़े चार बजे पर्स हिलाती चली जाती, उधर बैंक के एकाउंट रात के बारह-एक बजे तक बैलेंस न हो पाते। हमारी साझा गलतियों के कारण सब ही डिपार्टमेंट प्रभावित, प्रताड़ित और पक्षाघात से ग्रसित हो जाते। इतना जुरूर है कि हमारी गलतियों में उस्तादों वाली विशेषता होती थी अर्थात् वो अधिक देर और कठिनाई से पकड़ में आती थीं। सुबह हमारी आँखें और दूसरों के मुँह सूजे हुए होते थे। किसी भी डिपार्टमेंट के एकाउंट में कोई ऐसा घपला हो जाए जो रात के नौ बजे तक किसी की पकड़ में न आ सके तो दबिश डालने के बाद अभियुक्तों को मय अभियोगियों के आलिम हुसैन साहब के 'सेशन सुपुर्द' कर दिया जाता था। गलती कहीं हुई हो, हमें जाँच-पड़ताल में जुरूर सम्मिलित किया जाता था।
आलिम साहब का सारा जीवन और सारा ज्ञान गलतियाँ पकड़ने और ऐंडे-बेंडे एकाउंट की चूल बिठाने के लिए समर्पित था और वो इसके इतने अभ्यस्त हो चुके थे कि कभी किसी सही एकाउंट से पाला पड़ जाए तो तो चकरा जाते थे। शाम तक लगभग ठाली बैठे रहते। इसलिए कि उससे पहले व्यक्तिगत और सामूहिक गलतियों के घोड़े दौड़ने शुरू नहीं होते थे। हिसाब जितना गंदा और पेचीदा होता उतना ही उनकी तबियत में आनंद बढ़ता, देर तक मुस्कुराते। दोनों आँखें बंद कर लेते और एक ही दम लगा कर सिग्रेट को आधा और आधे को राख कर देते। फिर गलतियों के नशे में मस्त होकर झूम-झूम जाते। जब तक वो गलती पकड़ते, सारा स्टाफ अभियुक्त को पकड़े-बैठा रहता। अलबत्ता हम स्वयं को रोजाना सात बजे ही पकड़े जाने के लिए स्वयंसेवक के रूप में पेश कर देते। कभी-कभी गलती बड़ी जल्दी हाथ आ जाती और हमें रात के ग्यारह बजे ही मुक्ति मिल जाती। दूसरे दिन तीसरे पहर तक लोग हमारी पिछली भूलों को माफ करके शर्मिंदगी के नए अवसर प्रदान करते। लोग हमें अधिक काम और कठोर मेहनत से रोकने की कोशिश करने लगे। इसलिए कि हम जितना अधिक काम करते, गलतियों की तुलनात्मक गिनती में उतनी ही बढ़ोत्तरी होती जाती। कई बुरी जबान वालों ने एंडरसन से शिकायत भी की कि शिक्षण की जो पाठशाला हमने खोली हुई है उसके कारण उनकी रातें काली हो रही हैं। अपने बच्चों की सूरत को तरस गए हैं। लेकिन उसने न केवल यह कि उन चुगलखोरों की बात का नोटिस नहीं लिया बल्कि हमारी भी ढारस बँधाई कि ऑफिस में जब सबके सब किसी की बुराई करने लगें तो समझ लें कि वो बहुत अच्छा जा रहा है। उसने हमारे शिक्षण पर पूरा भरोसा और प्रसन्नता प्रकट की। जिसके बाद हम और निपुणता से गलतियाँ करने लगे। एक सूदखाने वाला संस्थान तो क्या चीज है जहाँदारशाह ने तो एक बार जमना में लोगों से भरी हुई नाव केवल इसलिए डुबवा दी थी कि उसकी रखैल लाल कुंवर ने कभी आदमियों को डूबते न नहीं देखा था।
मिस रेमिजडन पर दिल का अघातक दौरा पड़ा : तीन-चार सप्ताह तक शिक्षण और यातना का यह क्रम चलता रहा। फिर एक दिन एंडरसन ने हमें बुला कर पूछा कि तुम्हें, 'फॉरेन एक्सचेंज' का काम किसने सिखाया। हमने भेजे पर बहुतेरा जोर दिया। कोई नाम याद न आया और आता भी कैसे। उस समय में ट्रेनिंग की कल्पना तो सिरे से ही नहीं थी। बैंकर भी शायरों की तरह देखा-देखी सीखते थे। जैसा कि पहले निवेदन कर चुके हैं, हम बैंकिंग डायरेक्ट मैथड से सीख और सिखा रहे थे। जिसका पहला और अंतिम पाठ यह था कि तैरना सिखाने के लिए छूटते ही बीच भंवर में धक्का दे दिया जाए।
उसने अपना प्रश्न फिर दोहराया। कुछ समझ में न आया कि किसको नकली उस्ताद बनाएँ। फॉरेन एक्सचेंज तो बैंकों में आजकल भी बुरे कामों में आता है। यह ज्ञान हम तक पाँव-पाँव चलकर नहीं आया था, बल्कि एक और उपमा की अनुमति हो तो इतना निवेदन करेंगे कि हमने उसे लड़-झगड़ कर कटी हुई पतंग की तरह लूटा था। लेकिन फिर सूझा कि अपने आपको बिना उस्ताद के कहना कहीं नमकहरामी न समझी जाए। इसलिए हमने हिचकिचाते हुए कहा कि आप ही से सीखा है।
झुँझलाते हुए बोला, 'सच बोलने में तुम्हें इतना संकोच क्यों हैं?' वो हमारा झूठ काँटे-डोर और बंसी समेत निगल गया। हमारे पश्चाताप का पसीना अभी पूरी तरह सूखा भी न था कि उसने कुछ कड़वाहट के साथ पूछा 'अच्छा। अब यह बताओ कि जब तुमने फॉरेन एक्सचेंज की ट्रेनिंग मुझसे ली तो तुम्हें हार्ट अटैक हुआ था?'
'नहीं तो' -
'तुम्हारी सूचना के लिए मिस रेमिजडन को हो गया है। अब उसे हल्के काम और हल्के खाने की जुरूरत है।'
हम कमरे से निकले तो देखा कि बाहर मिस रेमिजडन हल्के कपड़ों में खड़ी, ठठ्ठे लगा रही है। कहने लगी आज तुम्हारी सूरत क्यों उतरी-उतरी है। हमने कहा, शागिर्द के हार्ट अटैक के कारण। पर यह पता नहीं चला कि दिल पर हमला किसने किया? कहने लगी, बंदी इस चुगदपन (Dankey Work) के काम में तुम्हारा हाथ नहीं बंटा सकती। तुम्हीं को मुबारक, फिर अपने ऊपर बनावटी उदासी छा ली और सिग्रेट के धुऐं से हवा में छल्ले बनाने लगी। एक आवारा छल्ला हमारी बाईं आँख में आकर फिट हो गया। इससे पहले हमने उसे सिग्रेट पीते नहीं देखा था।
टाम ब्वॉय की पोनी टेल : सब आश्चर्यचकित थे कि पल भर में क्या चमत्कार हो गया कि जंगल का जंगल हरा हो गया, बल्कि रातों-रात इसमें मँगल भी हो गया। देखते ही देखते इस शर्मीली की काया पलट गई। नाखून इतने बढ़ा लिए कि अब मुँह नोचने के अलावा हाथ का कोई और काम नहीं कर सकती थी। देसी छींट की डोलती-झूलती फ्राक की बजाय पेरिस से मँगवाया हुआ स्कर्ट पहनने लगी। उड़ी-मिटी भवों की जगह खिंची हुई कमानें। आँखों पर हरे मस्कारे का लेप। एक बार चुटकुला सुनाते हुए आँख भी मारी जो दिल की तख्ती पर ऐसी चिपकी कि एक सप्ताह तक मस्कारा छुटाए न छुटा। चाँदी की सी लट पर सोने का पानी चढ़ गया। लड़कों के से कटे हुए पट्टों की जगह एक सुनहरी झाड़ू सी लटकने लगी जिसे उन दिनों पोनी टेल (खच्चर की दुम) कहते थे। कहाँ तो यह हाल था कि कभी-कभार बालों में फ्रेट गार्डन से चुराया हुआ फूल लगा कर आ जाती या अब यह स्थिति कि पूरा गमला उठाए फिरती थी। हार-सिंगार, प्यार-दुलार के दिन लौट आए थे। पहले हर समय यूँ नजरें झुकाए रखती थी कि हमें शक होने लगा था कि आँखों में कोई खराबी तो नहीं, लेकिन अब गालों पर लाली लगाए बिना ब्लश नहीं कर सकती थी। एक लटका आ गया था। इठला-इठला कर बात करती तो लाइफ-ब्वॉय साबुन के भबके के बजाय चाव भरे बदन से आंचें सी निकलतीं। अब उसमें से औरत की लपट आती थी। घिसे हुए मरदाना पम्प शू अपनी जमादारिन को दे दिए और एक बालिश्त ऊँची ऐड़ी के जूते से फर्श पर टाइप करती-फिरती। छोटे-छोटे तिरछे-तिरछे कदमों से Wiggle करके कमर और उससे लगे हिस्सों को दाएँ-बाएँ झूला-झुलाती। दूसरे स्टैप में कूल्हे See saw की तरह इस तरह ऊपर-नीचे होते कि आँखें बावली हो जातीं। ढिलमिल कटाव अब खिंच कर तलवार बन गए थे। एक कदम चलती तो सीना दो कदम आगे चलता -
कोसों बढ़े हुए हैं पियादे सवार से
एंडरसन सदा कान पर हाथ का कप बना कर बात सुनता था। लेकिन अब माननीया के होंठ उसके कान से लगे रहते थे। बाएँ हाथ की तीसरी उँगली में पुखराज की अँगूठी लशकारा मारने लगी। कुछ कहो, कुछ पूछो तो पहले केवल हूँ, हाँ कर देती थी। अब अंग-अंग बोलता था और काम? इतने दर्प से गलत टोटल करती थी कि हम तो सही टोटल भी इस तरह नहीं कर सकते थे। फिर नकली पलकें पटपटा कर अपनी गलतियों पर खिलखिलाती अपने स्वर्गवासी बाप को इंस्पेक्टर कस्टम से प्रमोट करके ज्वाइंट सैक्रेटरी बना दिया।
घोड़ा चीफ जस्टिस बना दिया गयाः जिधर देखो उसी के चर्चे, तरह-तरह की बातें उड़ी हुई थीं। किसी बुद्धिमान ने कहा है, दो दोष ऐसे हैं कि किसी पर भी आरोपित कर दो तो लोग विश्वास कर लेंगे। इनमें से दूसरा यह है कि वो पीने लगा है। एंडरसन पर पहला भी लग गया और वो मिस्टर ऐमिजडन कहलाने लगा। स्वयं मिस रेमिजडन अब बैंक में L.L. कहलाती थी। जो Lady Love का प्यार भरा संक्षिप्त रूप था। बड़े-बड़े अफसर उसके आगे-पीछे फिरते और सामान्यतः सर कह कर संबोधित करते। कच्ची नौकरी वालों का बेतहाशा जी चाहता कि बैंक में कहीं से कीचड़ आ जाए तो सर वाल्टर रॉले की तरह अपना कोट उतार कर बिछा दें और वो क्वीन एलिजाबेथ की तरह उस पर से अनदेखी करके गुजर जाए। वार्षिक उन्नति के दिन आए तो इच्छार्थी उसे न्याय की जंजीर की तरह खींचने लगे और यह कौन सी अचम्भे की बात थी। वर्णनों में आया है कि रोम के सम्राट क्लेगोला ने तो अपने घोड़े को कौन्सिल (चीफ जस्टिस) के पद पर नियुक्त कर दिया। माना कि घोड़ा मनुष्यों की तरह न्याय नहीं कर सकता लेकिन घोड़ा मनुष्यों की तरह अन्याय करने की असीमित क्षमता भी तो नहीं रखता। क्रिसमस आया तो एल.एल. के यहाँ डालियों के ढेर लग गए। घर फलों के आढ़ती का गोदाम मालूम होने लगा। यासूबुल हसन गौरी तो ईद की नमाज के बाद सीधे गोरा कब्रिस्तान गए और उसके बाप की कब्र पर फूलों की चादर भी चढ़ा आए। फोटोग्राफर को साथ ले गए। चेहरा भी रोया-रोया लग रहा था। उसी तरह नजर मुहम्मद कुसूर गए तो उसके लिए वहाँ की सारी विशेष चीजें...मेथी, बुल्ले शाह का कलाम, चुटीले ले आए। गुंथे हुए सिरोंवाले चुटीलों को एल.एल. ने एंडरसन के नाइट सूट के पाजामों में नाड़े की जगह डाला। उसे यह नाड़े बेहद पसंद आए कि नेफे में पेंसिल या टूथ ब्रथ की मदद के बिना डाले जा सकते थे। दिन पर दिन बीतते गए। एक दिन चपरासी ने सूचना दी कि आज सुबह दोनों न केवल एक ही कार से बैंक आए हैं बल्कि जवान कसम! एक ही दरवाजे से उतरे हैं। हक नवाज सीमा एकाउंटेंट ने अपनी आँखों से एल.एल. के बालों में एंडरसन की 'डैंड्रफ' देखी। तीन-चार दिन बाद वही चपरासी खबर लाया कि रविवार को सुबह डाक देने एंडरसन के घर गया तो क्या देखता हूँ कि एल.एल. सिर से तौलिया बाँधे बाल सुखा रही है। कुत्ते की जबान नहीं पकड़ सकते। कहने वाले कहते थे कि शनिवार को कुआँ स्वयं चल कर आता है और अपने को प्यासे पर उंडेल देता है।
साहब को दिल न देने पे कितना घमंड था : कोई मनहूस सप्ताह ऐसा बीता होगा कि एंडरसन ने यह घोषणा न की हो कि रिश्वत और औरत उसकी कमजोरी कभी नहीं रही और यह बात शब्द-शब्द ठीक थी। इसलिए कि शराब ने कभी उसे अवसर ही न दिया था कि अन्य बातों पर ध्यान दे सके। किसी तरह विश्वास करने को जी नहीं चाहता था कि औरत... और यह औरत उसकी कमजोरी हो सकती है। बाज और चील के घोंसले में बसेरा करे। लेकिन यह सच्चाई है कि प्रकृति ने कुछ बाजों की आँखें इतनी बड़ी बना दी हैं कि भेजे के लिए जगह ही नहीं बची। व्यंग्यकार जार्ज मैकश का कथन है 'योरोपीय महाद्वीप में सभी समाजों की सेक्स लाइफ होती है मगर अंग्रेज के हाँ इसकी जगह गर्म पानी की बोतल है। सैक्स हम अंग्रेजों के सिर में होता है जो इसे रखने की नितान्त अनुपयुक्त जगह है।' मर्दों के बारे में हमारे यहाँ कहा जाता है कि लोमड़ के मुँह में जब तक एक दाँत भी है वो साधू नहीं हो सकता। अफवाहों और आँखों देखी गवाहियों की आंधी में हम अपने दिए को कहाँ तक लिए फिरते। यूँ भी आदमी किसी चटपटे स्कैंडल की जाँच-पड़ताल करने या रद करने बैठ जाए तो लोग उसी के पीछे पड़ जाते हैं। चढ़ती नदी के बहाव के विपरीत कौन तैर सकता है?
एक बार आदमी का भरम उठ जाए तो उसकी पत चौराहे पर बिखरती है और वो चुपका खड़ा उसे लुटते, मिट्टी में रुलते देखता का देखता रह जाता है। इस बेचारे के साथ भी यही कुछ हुआ। एक कहानी का सतरंगा ताना-बाना बुनता, दूसरा उस पर जरदोजी काम के बेल बूटे बनाता। तीसरा कली-फुंदने टांकता। फिर सब मिल कर ग़ीबत (पीठ पीछे बुराई) की चादर उस पर डाल देते। हाँ इतना तो हमने भी देखा अब उसके कॉलर में लाल कार्नेशन लगा होता था। पहले हम उसकी नाक को देख कर मालूम कर लेते थे कि कितने डिग्री नशा चढ़ा है लेकिन अब एल.एल. उसकी नाक पर पाउडर लगा कर बैंक साथ लाती थी। अगस्त तक रोज वही काले रंग का सूट पहन कर आता था लेकिन अब ब्रिटिश टेलरिंग कंपनी से एल.एल. के पसन्दीदा ग्रे रंग के तीन कीमती सूट एक ही थान के कपड़े में से सिलवा लिए थे। उन्हीं को रोज बदल-बदल कर पहनता । एक दिन उसका चपरासी अपने बेटे की कसम खा के कहने लगा 'मैंने अपनी आँखों से एल.एल. को अपने जूड़े के फूल से साहब का कान गुदगुदाते देखा। साहब भी एक दिन ब्लाटिंग पेपर से उसके आँसू पोंछता पड़ा था। टेलीफोन रिसीवर से दिन भर लिपस्टिक के बफारे आवे हैं। तुमको यकीन नईं आने सकता तो खुद उसके होठ सूँघ कर तपास-तसल्ली कर लो -
कि खुशबू आ नहीं सकती कभी कागज के फूलों से
परसों मैं साहब के बंगले पर गया तो यह छमिया अस्पताल की पट्टी के कपड़े की बनी हुई पोशाक पहने बैठी थी।' हमारे शिकारी दोस्त खान सैफुल मलूक खाँ तो यहाँ तक कहते थे कि उन्होंने एल.एल. की बाहों पर उसके पग मार्क देखे हैं।
वो खुद से हुए हमकलाम अल्ला - अल्ला : इश्क जब ज्ञान के पट खोलता है तो दीवाने भी होशियार हो जाते हैं। पहले तो यह हाल था कि उसकी पैंट के बटन आधे खुले आधे बंद होते थे। अलबत्ता कमीज की यह स्थिति नहीं होती थी। उसके सब बटन खुले होते थे। चपरासी के अनुसार सब की बेपर्दगी करता था। लेकिन अब सब बटन संबंधित काजों से संबंध बनाने लगे। वो अपनी उम्र से कम लगने लगा। हमारा अभिप्राय है 63 बरस का था 62 का दिखाई देने लगा। गंजे सिर पर आँखें निकाल के फर्जी माँग निकालता था। दो बाल बाईं तरफ, एक दाईं तरफ। इबादुरर्हमान कालिब कहते थे कि उन्होंने उसे एक हकीम का विज्ञापन ललचाई हुई नजरों से पढ़ते पकड़ा था। चिड़चिड़ाना भी छोड़ दिया, बल्कि हँसमुख हो गया। डाँट-फटकार की जगह ठहाकों ने ले जी। यानी आ आा आाI की जगह हा हाI हाII। एक दिन तरंग में आया तो हमसे कहा। 'स्कॉट लैंड वालों के खिलाफ तुम्हें जितने भी चुटकुले याद है आज ही मुझे ओवर टाइम बिठा कर सुना दो। मुझे यह रोज-रोज ही-ही-हा-हा अच्छी नहीं लगती। चाय में मक्खी गिर पड़े तो चार अक्षरों की ऐंग्लो-सैक्सन गाली के बजाय उर्दू पर्यायवाची का आश्रय लेता जो उसने अपने बैरे बुंदू खाँ से सीखे थे। सुबह डाक, तार या टेलीफोन पर कोई बुरा समाचार मिले तो तुरंत आफिस छोड़ कर चला जाता। चपरासी और सेकेट्री को कह जाता कि 'स्टेट बैंक ऑफ पाकिस्तान ने मुझे फिर सलाह-मशवरे के लिए बुलाया है। गर्वनर अब्दुल कादिर बहुत परेशान हैं।' जब गर्वनर अब्दुल कादिर को रोज साढ़े ग्यारह बजे परेशानी का दौरा पड़ने लगा तो हमें उनकी ओर से बड़ी चिंता हुई। ड्राइवर से पूछा तो पता चला कि एंडरसन का स्टेट बैंक वास्तविकता में पैलेस होटल के बार में स्थित है। माननीय अनुपयोगी ऑफिस को शराब में डुबो कर घर पहुँचते और शीशे के सामने खड़े हो कर गर्वनर से बातें करते जो क्रोध से भरी हुई होती थीं। वहीं क्रोध और बात करते-करते सो जाते -
मकालमा तो दिले - नातवां ने खूब किया
दूसरे दिन आते ही हमें सारा डॉयलौग आद्योपंत सुनाते और एक-एक वाक्य पर अपनी सच्चाई और सूझ-बूझ की प्रशंसा पाते। वो एल्कोहल और हम असह्य सहनशीलता की अंतिम सीमा पर लड़खड़ा रहे थे।
404 तिरिया चलत्तर : एल.एल. अब बिल्कुल बदल चुकी थी। कुछ और ही चहक-महक, चटक-मटक थी। दो-तीन महीने बाद सिग्रेट पीनी भी छोड़ दी, व्हिस्की पीने लगी। बात करते-करते एकदम पर्स से शीशा और लिपस्टिक निकाल कर गुलाब की पंखड़ियों के रंग और क्षेत्र में परिवर्तन और परिवर्द्धन करती। एक दिन हमारे शरारती वाक्य से आनंदित हुई तो प्रशंसा में हमारे गाल पर उसी से रैडक्रास बना दिया, जैसा एम्बुलेंस पर बना होता है। हमने पूछा 'बीबी! यह क्या?' अपने सीने पर हाथ से क्रास बनाते हुए बोली 'रोमन कैथोलिक आस्था है इससे आदमी सारी समस्याओं से सुरक्षित रहता है।' हम उसे रूमाल से रगड़ कर मिटाने वाले ही थे कि ध्यान आया अगर बेगम ने रूमाल पर दस्तावेजी सुबूत देख लिया तो अपने दिल में क्या कहेंगी। (मुँह से जो कुछ कहेंगी, उसका तो हमें स्पष्ट अनुमान था) वैवाहिक विश्वास में यह लंबी दराड़ पड़ जाएगी जिसे सामान्यतः मूल्यवान भेंटों से भरा जा सकता है और यहाँ चील के घोंसले में माँस कहाँ -
मुफलिसी सब बहार खोती है
मर्द का एतबार खोती है
अभी हम इस निशान को किसी सुरक्षित ढंग से मिटाने का जतन सोच ही रहे थे कि एंडरसन हमारे केबिन में आ धमका कहने लगा अजीब बैंक है, हथेली पर हिसाब करते-करते अब गाल पर जोड़-भाग होने लगा।
अपनी ताजा अदाओं की मार को चैक करने के लिए हमें भी गिनी-पिग बना लेती थी। नजाकत अब उस पर खत्म थी। एक दिन देखा कि उँगली पर पट्टी बाँधे चली आ रही है। पूछा, बीबी! यह क्या तोता पाला है? मालूम हुआ सौ रुपए के नए नोट की धार से उँगली कट कर पक गई है। हमने कहा 'उँगलियों के इतिहास में ये पहला रोमांटिक कट है।' इस पर अजीमुल्लाखां (सनकी आदमी थे, इलाहाबाद यूनिवर्सिटी से नए-नए अंग्रेजी में एम.ए. करके बैंक में नौकर हुए थे।) ने संशोधन किया। पहला नहीं, दूसरा है। रोमांटिक शायर रोजेटी की उँगली में भी तो गुलाब का कांटा चुभ गया था। जिससे उसे जह्र चढ़ गया और उसी में चल बसा। वसीयत के अनुसार उसकी शायरी की एक मात्र पांडुलिपि उसी के साथ कब्र में दबा दी गई। कुछ समय बाद लोगों ने ऊधम मचाया तो कब्र को खोल कर उसे निकाला गया।
'किसे' मिस्टर कैन्टीन वाला ने पूछा।
'तुम्हारे सिर को! और किसे?' सनकी अजीजुल्ला खाँ ने उत्तर दिया। अब ड्रेस पर नजरों के साथ-साथ उँगलियाँ भी उठने लगीं। कटे तने से कोंपलें भी फूटीं। अपनी आँखों से अमावस की रात को इंद्रधनुष निकलता देखा। हम तो सोच भी नहीं सकते थे कि एक ऐसे व्यक्ति को जिसने सारा जीवन केवल और केवल शराब और सुराही से प्यार किया, एक साधारण सी औरत आनंद के पथ से यों भटका देगी। हिंदु शास्त्रों ने औरत के 404 चलत्तर बताए हैं। मगर याद रहे कि शास्त्र उस काल में लिखे गए थे जब मनुष्य को हजार की गिनती नहीं आती थी।
नश्शे पे उसकी जवानी का गुमां हो जैसे : ये पुष्टि सही थी कि उसकी बीबी तलाक ले कर उसी के एक भूतपूर्व असिस्टेंट से शादी कर चुकी है। एल.एल. भी किसी से बंधी हुई नहीं थी। अब ठाठ से एंडरसन के साथ रहने और कार में आने-जाने लगी। मिस्टर W.G.M. Anderson उसके बगल में सिकुड़ते-सिकुड़ते प्यार में 'एंडी' हो गए। ड्राइवर बताता था कि बड़े साहब ने एल.एल. को मँगनी की अँगूठी पहना दी है जिसमें शुतुरमुर्ग के अंडे के बराबर हीरा जड़ा है। इस सूचना पर जमादार-अजमल खाँ ने केवल इस आधार पर विश्वास नहीं किया कि 'मुर्गे अगर शुतुर (ऊँट) के बराबर हो जाएँ तब भी अंडा नहीं दे सकते और वो भी बुढ्ढे मुर्गे - जो खेड़ाँगे न खेड़न देयाँगे।' मिर्जा ने सुनी-सुनाई बातों पर विश्वास करके फत्वा दे दिया कि पातिव्रत अब छिनाला हो चुका है। हमने कहा 63 साल के एल्कोहलिक से अधिक अहानिकर कौन हो सकता है। बोले, '64 साला एल्कोहलिक।' सलीस भाषा में कहा जाए तो खेली-खाई औरत है, जिसके कारण वो बेचारा फौजदारी अदालत में खिंचा-खिंचा फिरा। बहरहाल बैंक में अभी कुछ ऐसे भले और अच्छे लोग थे जिनका विचार था कि दोनों भाई-बहन की तरह रहते हैं। अजीजुल्लाह खाँ के आरोप लगाने में भी अंग्रेजी साहित्य की गढ़ी-गाढ़ी चाशनी होती थी। बोले, 'सब बकवास है। दोनों अस्ल में ट्रस्ट्रस और इस्यूलेट की तरह सोते हैं।' पूछा, 'हजरत! सोने का यह कौन सा ढंग है?' बोले, कम-से-कम आपको तो पता होना चाहिए। ट्रस्ट्रस सम्राट आर्थर का वीर योद्धा था जो एक विवाहित स्त्री इस्यूलेट के पवित्र प्रेम में पड़ गया था। हालाँकि दोनों एक ही बिस्तर पर सोते थे लेकिन ट्रस्ट्रम बीच में अपनी नंगी तलवार रख लेता था (मरते दम तक उनके प्यार की दाढ़ी-मूँछें नहीं निकली थीं) कहने वाले तो यहाँ तक कहते थे कि उसने मिस रेमिजडन को भी शराब की लत लगा दी।
नादिरशाह के सिर पर तख्ते - ताऊस : रातें ही नहीं भरी दोपहरें भी बोतल की गरदन में हाथ डाल कर सोते बीतने लगीं। तीन-चार बार क्लीनिक में एडमिट होने के बाद भी उसका एल्कोहलिज्म वैसा ही अपनी जगह था। जब उसका दौरा पड़ता तो तीन-तीन सप्ताह ऑफिस नहीं आ पाता। एल.एल. बेचारी ने गिरते को बहुत थामा लेकिन खाली बोरी और शराबी को कौन खड़ा रख सकता है। बैंक का हाल बुरे से मुहाबुरा होता चला गया। कुछ दूरदर्शियों ने दरांती छोड़ कर खुरपा संभाल लिया। पहले ऊपर-ऊपर से काटते थे अब जड़ से उखाड़ने लगे। अजीजुल्ला खाँ ने सावधानी के तहत अपना सेविंग बैंक एकाउंट जिसमें 13 रुपए थे दूसरे बैंक में शिफ्ट कर दिया। एंडरसन के दूसरे तीन साल के कान्ट्रेक्ट की अवधि कब की समाप्त हो चुकी थी और यह सुनने में आ रहा था कि अब वो वापस नहीं आएगा। जाना ठहर गया था, 'सुबह गया या शाम गया।' उसका मद्यपान अब अपने शीर्ष बिंदु यानी उल्टियों तक पहुँच चुका था। अब इसके बाद एक बाढ़ आने वाली थी जो घास-फूस यानी हमें बहा ले जाएगी। बैंक का ऑफिस शराब में डूबा चाहता था -
आए कुछ अब्र कुछ शराब आए
उसके बाद आए इंकलाब आए
यह चर्चा थी कि अब की बार अपना प्राविडेंट फंड और उसे तहस-नहस करने के लिए एल.एल. को साथ ले जाएगा। एल.एल. को उसके प्राविडेंट फंड से प्यार हो गया था। वो बेचारा तो बस दुसराथ चाहता था। बैंक के लेखक खान सैफुल मलूक खाँ कहते थे, नादिर शाह तख्ते-ताऊस पर बैठने का इच्छुक न था। बस अपने साथ सामान में बाँध कर ले जाना चाहता था। अब उससे मिलना कम होता चला गया और अपना हिस्सा दूर से देखना रह गया, लेकिन जब भी मिलती, बड़ी अच्छी तरह मिलती। जिन लड़कों को पतंग उड़ानी नहीं आती वो पतंगबाज की मांझे की चर्खी थाम के खड़े हो जाते हैं और पतंग को डोर पीते, जोरों के पेंच लड़ते देखते रहते हैं। कभी-कभार पतंग उड़ाने वाला उन्हें भी कुछ पलों के लिए डोर थामने का अवसर देता है ताकि वो उकता कर पतंग लूटने न भाग जाएँ। पतंग लड़ाने या पतंग को डुबकी देने की छूट नहीं होती। लड़का पतंग की डोर संभालता है तो उसे तन्नाती हुई डोर का घिस्सा, मांझे का कटाव, हवा का जोर, खींच का शर्राटा, उँगली हिलाने से पतंग की ठुमकियाँ और कभी बंद हवा में डोर का पटिया छोड़ने के बाद लिजलिजा झोल... सभी कुछ अपनी पोर पर महसूस होता है। कई जगह पतंगबाजों की भाषा में इसे तान चखना कहते हैं। तो साहब कभी वसंत की हवा हमारी तरफ चलने लगती तो सवारी इधर भी आ जाती और 'बाबा लोग' को तान चखा जाती-
गुलिस्ताँ नहीं पंखड़ी ही सही
हमेशा नहीं दो घड़ी ही सही
एक दिन हमने पूछ ही लिया, 'क्या यह सही है कि तुम भी एंडरसन के साथ Ballater (उसका पैतृक गाँव) के दो सौ साल पुराने पुल का निरीक्षण करने जा रही हो? सत्तर नखरों के बाद बोली, 'क्या यह सही है कि एंडी बेलाटेर (Ballater) जा रहा है?' हमने कहा विचार बुरा नहीं। पोनी-टेल पर हाथ फेरते हुए बोली अगर गई तो अपनी एक लट निशानी के लिए दे जाऊँगी। पूछा, 'अगर हम कठिन समय में उसका एक बाल जलाएँ तो एंडी जिन्न प्रकट हो जाएगा?' बोली, 'जिन्न को बुलाने के लिए तो तुम्हें अलादीन का चिराग रगड़ना पड़ेगा।' निवेदन किया, 'आपने तो चिराग की बजाय खुद अलादीन को रगड़ दिया।' होठों पर उँगली रख कर बोली, 'शश! अच्छे बच्चे पक्की-पक्की बातें नहीं करते।'
दो सप्ताह बाद वो तुनुक-मिजाज नादिर शाह जिसने हाथी पर बैठने से केवल इस लिए इन्कार कर दिया था कि उसके लगाम नहीं होती, तख्ते-हाऊस को अपने सिर पर रख कर स्वेज के पार ले गया और फिर नहीं लौटा।
समाप्त